होहि राम को नाम जपु
भगवन्नामके प्रसंगमें एक बात विशेषतासे कही गयी थी कि नाम-जपमें विधियोंकी इतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता भीतरके प्रेमकी है। भगवान् प्रिय लगें, मीठे लगें। भगवान्का नाम, उनके गुण, उनका प्रभाव, उनका तत्त्व, उनसे सम्बन्धित बातें प्रिय, मीठी लगें। जैसे लोभीको धनकी बातें अच्छी लगती हैं, मोही आदमीको परिवारकी बातें अच्छी लगती हैं, वैसे ही भगवान्की बातें अच्छी लगें, मीठी लगें। इस प्रियता, मिठासमें जो लाभ है, वह पहले कही विधियोंमें नहीं है। हाँ, पहले कही विधियोंका पालन करते-करते भी यह मिठास पैदा हो सकती है।
भगवान् प्रिय, मीठे लगें—इसमें खास बात है कि भगवान् अपने हैं। संसार अपना नहीं है। यह शरीर भी अपना नहीं है। यह मिला हुआ है और बिछुड़ जायगा। भगवान् मिले हुए नहीं हैं और बिछुड़नेवाले नहीं हैं। वे सदैव साथ रहनेवाले हैं। भगवान् हमारेसे दूर नहीं हुए हैं, अलग नहीं हुए हैं, हम ही भगवान्से विमुख हुए हैं। वे सदैव हैं और अपने हैं। इस वास्ते भगवान्को अपना मानें। संसारको अपना न मानें। मनुष्योंकी उलटी धारणा हो रही है कि शरीरको, रुपये-पैसोंको, घरको अपना मानते हैं। ये किसीके अपने नहीं हैं। रुपये इतने विरक्त हैं कि किसीके नहीं हैं। जिन रुपयोंके लिये झूठ-कपट करते हो, बेईमानी करते हो, ठगी करते हो, धोखा देते हो, घरवालोंसे लड़ाई करते हो और जिनके लिये ससुर-जवाँईमें लड़ाई हो जाय, भाई-भाईमें लड़ाई हो जाय, मित्र-मित्रमें लड़ाई हो जाय—ऐसे लड़ाई कर लेते हो, धर्म-कर्म छोड़ देते हो, वे रुपये जाते हुए पूछते ही नहीं तुमसे। सलाह भी नहीं लेते और चले जाते हैं। फिर आप एक तरफसे क्यों अपनापन करते हो।
भगवान्को याद न करो तो भी भगवान् आपके हैं। वे आपका पालन-पोषण करते हैं; आपकी रक्षा करते हैं; सब तरहसे आपका कल्याण करते हैं। ऐसे प्रभुको अपना न मानना बड़ी भारी गलतीकी बात है। प्रभु अपने हैं और अपने होनेसे अपनेको मीठे लगते हैं।
‘पन्नगारि सुन प्रेम सम भजन न दूसर आन’ प्रेमके समान दूसरा कोई भजन नहीं है।
प्रेम पैदा होता है अपनापन हो जानेसे। अपनापन होते ही प्रियता पैदा होती है। अपना कपड़ा, अपनी वस्तु अपनेको अच्छी लगती है; क्योंकि उसको अपना मान लिया। बालकको अपनी माँ अच्छी लगती है। दूसरी स्त्री सुन्दर भी है। उसके गहने भी बढ़िया हैं। कपड़े भी बढ़िया हैं। परन्तु अपनी माँ जैसी प्यारी लगती है, मीठी लगती है, वैसी प्यारी, मीठी दूसरी स्त्री नहीं लगती। माँको भी अपना लड़का अच्छा लगता है। वह काला-कलूटा कैसा ही है, सुन्दर नहीं है, तब भी माँको वही अच्छा लगता है। अच्छा लगनेमें कारण क्या है? अपनापन है। यह अपनापन मार्मिक बात है और सार बात है।
आपलोगोंको मामूली-सी सामान्य बात दीखती होगी, पर मेरेको बहुत देरीसे मिली है। सुनने-पढ़नेमें भी नहीं मिली और मिली भी तो पकड़ी नहीं गयी। प्रेम कैसे हो? उपाय कई पढ़े-सुने, परन्तु असली उपाय है अपनापन। अपनापन होनेसे प्रेम होता है। इस वास्ते भगवान्को अपना मानो, संसारको अपना मत मानो; क्योंकि यह संसार अपना नहीं है।
जो चीज अपनी नहीं है, अपने पास नहीं है उसका उपार्जन करनेमें अभिमान करता है और अपनेमें समझता है कि मैंने बड़ा भारी काम कर लिया। निर्धन था और धनवान् बन गया। अकेला था, बहुत परिवारवाला हो गया। मूर्ख था, पढ़कर पण्डित हो गया। प्रसिद्धि नहीं थी, अब वाह-वाह हो गयी। अब इसमें ध्यान देना। जो नहीं है, उसकी प्राप्तिमें मनुष्य बहादुरी मानता है। वास्तवमें जो नहीं है, उसकी प्राप्तिमें बहादुरी नहीं है; क्योंकि वह चीज पहले नहीं थी, फिर नहीं रहेगी और अन्तमें नहीं हो जायगी। बहादुरी तो उसीमें है, जो पहले भी हमारे थे और अभी भी हमारे हैं, उन भगवान्की प्राप्ति कर ली जाय। वे प्राप्त हो जायँ तो फिर मिटेंगे नहीं कभी। बिछुड़ेंगे भी नहीं। वे सदैव हमारे हैं, हमारे साथ हैं, हमारे थे और रहेंगे। हम सम्मुख हो जायँगे तो निहाल हो जायँगे। विमुख रहेंगे तो दु:ख पाते रहेंगे। विमुख होनेपर भी भगवान् हमारे ही रहेंगे। पर हमारेको लाभ नहीं होगा। इस वास्ते प्रभुको अपना बना लें। उनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लें। यह बहुत दामी और श्रेष्ठ बात है।
सत्संग सुननेका भी नतीजा यह होना चाहिये कि हम भगवान्के सम्मुख हो जायँ, उनको अपना मान लें। संसारमें मोह बहुत दिन किया। जन्म-जन्मान्तरोंमें किया। परन्तु हाथ कुछ नहीं लगा; रहे रोते-के-रोते! भगवान्से अगर प्रेम करते तो निहाल हो जाते। बिलकुल सच्ची बात है।
भगवान् सदैव साथमें रहते हैं। प्राण जानेपर भी उस समय भगवान् साथमें रहते हैं। प्राण रहनेपर भी साथमें रहते हैं। सम्पत्तिमें भी साथमें रहते हैं। विपत्तिमें भी साथमें रहते हैं। हर हालतमें वे साथ रहते हैं और साथ हैं। मनुष्य केवल उस तरफ ध्यान नहीं देता। इधर दृष्टि नहीं डालता कि प्रभु मेरे हैं। इससे यह वंचित हो रहा है, दु:खी हो रहा है। ऐसे प्रभुसे अपनापन करो। अपनापन करके उनके नामका जप करो। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं—‘बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु’—
अनेक जन्मोंकी बिगड़ी हुई बात आज सुधर जाय। आज सुधर जाय। आज भी अभी-अभी इसी क्षण सुधर जाय ‘होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु।’ जैसे भगवान्को अपना माना, ऐसे अपनेको भगवान्का मान लें। ‘पतिव्रता रहे पतिके पासा, ज्यूँ साहिब के ढिग रहे दासा।’ जैसे पतिव्रता होती है। ‘पतिव्रत एक धणी’ उसीकी हो जाती है वह। माँ-बापकी, भाई-भतीजोंकी नहीं रही। वह एककी हो जाती है। वह जैसे पतिव्रता होती है, ऐसे तुम भगवान्के होकर रहो। तुम तो भगवान्के पहले थे, अब हो और अगाड़ी रहोगे। गोस्वामीजी महाराज कहते हैं ‘होहि राम को नाम जपु’ भगवान्के हो करके भगवान्का नाम जपो। ‘तुलसी तजि कुसमाजु’ कुसमाज क्या है? भगवान्के सिवाय सब कुसमाज है, कुसंग है। उसमें मोह करोगे तो फँस जाओगे, फायदा नहीं होगा। इस वास्ते एक भगवान् मेरे हैं।
‘मीराबाई इतनी बड़ी हो गयी इसमें कारण क्या है?’ ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।’ इसमें विलक्षण बात है कि दूसरा मेरा नहीं है। मेरे तो भगवान् हैं। इसका भगवान् पर असर पड़ता है। अनन्य-भावसे उसने आश्रय ले लिया। भगवान्के हम हैं। और इसमें एक बात समझनेकी है कि प्रभुने किसीका त्याग नहीं किया है। यह जीव उनसे विमुख हुआ है। भगवान् विमुख नहीं हुए हैं। वे सदैव ही जीवके ऊपर कृपा करते रहते हैं। हम प्रभुको अपना मान लें। प्रभु मानते नहीं, प्रभु तो जानते हैं कि मेरा ही है और मानते भी हैं। आप हैं प्रभुके ही, पर गलती यह कर ली कि संसारको अपना मान लिया और अपनेको संसारका मान लिया। यह बड़ी भूल की है। इस गलतीका सुधार कर लें। भगवान् हमारे हैं और हम भगवान्के हैं।
देखो! जो कपूत होता है, वह पूत नहीं होता है—ऐसा नहीं है। सपूत भी पूत है और कपूत-से-कपूत भी पूत है। एक कल्पना करो कि यहाँसे किसीका लड़का चला गया बम्बई, वहाँ जाकर बड़ी उद्दण्डता की, बहुत गलतियाँ कीं, लोगोंको दु:ख दिया तो फँस गया कैदमें। कैदसे छूटकर घरपर आ गया तो बड़ी अपकीर्ति हुई। वहाँका कोई आदमी यहाँ आकर कहने लगे कि अमुक-अमुक नामका लड़का ऐसा-ऐसा कपूत निकला और संयोगवश उसका पिता वहाँ बैठा है तो लोग कहते हैं—‘तुम जिसके लिये कहते हो, वह इनका बेटा है।’ उनसे पूछा कि आपका लड़का है क्या? तो वह सिरपर हाथ रखकर कहता है—‘फूट गया, मेरा ही लड़का है!’ वह चाहे कितना पश्चात्ताप करे, पर ‘लड़का मेरा नहीं’ ऐसा नहीं, कह सकता। ऐसे ही भगवान् नहीं कह सकते कि मेरा नहीं है। चाहे नारकीय जीव है, बड़े दुर्गुण-दुराचार किये हैं, बड़ी यातना, दु:ख, कष्ट भोग रहा है, परन्तु भगवान् यह नहीं कह सकते कि मेरा नहीं है।
कपूताईका दण्ड देकर भगवान् उसे शुद्ध करेंगे। उसे पवित्र करेंगे; क्योंकि वह भगवान्का अपना है। ऐसे ही भाइयो-बहिनो! हम सब कैसे ही हैं, किसी तरहके ही हैं, पर हैं तो भगवान्के ही। यह पक्की बात है। आप मानते नहीं हैं तबतक दु:ख पाते हैं। आप मान लें तो यह कपूताई मिट जायगी। बड़े-बड़े अवगुण मिट जायँगे। प्रभुकी कृपासे शुद्धि हो जायगी। निर्मलता हो जायगी। भगवान्के सम्बन्धमात्रसे जीव पवित्र हो जाता है। ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥’(गीता१७।२७) भगवान्के लिये किया जाय वह सब सत् हो जाता है। जप, ध्यान, कीर्तन, सत्संग, स्वाध्याय भगवान्के लिये किये जायँ, वे सब ‘सत्’ हो जाते हैं। सब श्रेष्ठ कर्म हो जाते हैं। कौन कर्म? ‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर:’(गीता१८।१५) शरीर, वाणी, मनसे जो कर्म आरम्भ किया जायगा उसका आदि होता है और अन्त होता है। वह नित्य नहीं होता है। परन्तु भगवान्के लिये जो काम आरम्भ किया जाय, वह काम भी भगवान्का हो जायगा, सत् हो जायगा। सत् क्यों हो जायगा? भगवान् सत् हैं, भगवान् नित्य हैं। प्रभुके अर्पण कर देनेसे हमारे श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ, उत्तम-से-उत्तम काम भी नित्य हो जायँगे। नहीं तो ये कर्म फल देकर नष्ट हो जायँगे। अच्छे शुभ कर्म भी अच्छे शुभ फल देकर, अच्छी परिस्थिति देकर नष्ट हो जायँगे। वे ही भगवान्के अर्पण कर दें, भगवान्के लिये करें तो वे सत् हो जायँगे।
हम भगवान्का होकर भगवान्का ही नाम लें। भगवान्का ही चिन्तन करें। भगवान्का ही ध्यान करें। भगवान्के ही गुण सुनें। भगवान्की ही लीला सुनें। भगवान्का ही कीर्तन सुनें और पद गावें। भगवान्के होकर भगवान्का गुण गावें तो हम भगवान्के सम्मुख हो जाते हैं।
भगवान्से विमुख करनेवाला नाशवान्का संग ही कुसंग है। यह प्रभुसे विमुख कर देता है। इस वास्ते नाशवान् पदार्थोंका संग करना, नाशवान्का सहारा लेना कि इनसे हमारा कुछ भला हो जायगा—यह गलती है। सज्जनो! इससे लाभ होनेवाला है नहीं; क्योंकि यह नाशवान् है, नाशवान्! नाशवान्का अर्थ क्या होता है? नाशवाला। जैसे धनवान् होता है। धनवान्का अर्थ क्या? धनवाला! धन होनेसे वह धनवाला है। धन न होनेसे धनवाला नहीं कहलायेगा। धनवाला धनके कारणसे है, ऐसे नाशवाला नाशके कारणसे है। धनवान्के पास धनके सिवाय और कोई महत्ता नहीं है। ऐसे नाशवान् संसारमें नाशके सिवाय और कुछ महत्ता नहीं है। यह नाशवान् है, इसका नाश-ही-नाश होगा।
अविनाशी परमात्माके अंश होकर भी नाशवान्के भरोसे कितना दिन काम चलायेंगे—यह एक-एक भाई, एक-एक बहिनके सोचनेकी बात है। आप अविनाशी हैं। ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ यह अविनाशी होकर नाशवान्का भरोसा करता है। पता नहीं क्या हो गया? अक्ल कहाँ चली गयी! उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंका सहारा मानता है। इन चीजोंसे अपनेमें घमण्ड करता है कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पत्ति है, मेरे इतने आदमी, इतने घर, इतनी जमीन है। तेरी कबसे है यह? क्या सदासे तेरी वस्तुएँ थीं और क्या सदा रहेंगी। मनुष्य जानता है, मानता है कि पहले मेरी नहीं थीं, फिर मेरी नहीं रहेंगी, फिर भी अपनी मान करके अभिमान करता है। सज्जनो! धोखा हो जायगा धोखा! उनको अपनी माननेसे प्रभुको अपना मानना बंद हो जायगा, भगवान्को अपना कह सकोगे नहीं। ये चीजें रहेंगी नहीं और भगवान्का सम्बन्ध जोड़ा नहीं। जिसे अपनी-अपनी कहते हैं, वे रहेंगी नहीं। जो अपना रहेगा, उसमें अपनापन किया नहीं। रोता रहना पड़ेगा भाई, रोना पड़ेगा।
मौका है अभी, बड़ा सुन्दर! मनुष्य-शरीर मिला है। इस मनुष्य-शरीरकी बड़ी महिमा है। महिमा इस वास्ते है कि यह मनुष्य प्रभुके साथ सम्बन्ध जोड़ सकता है और दूसरे संसारी जितने भी जीव हैं मनुष्यके सिवाय, उनमें यह अक्ल नहीं है कि परमात्माके साथ सम्बन्ध जोड़ लें। वहाँ यह समझ नहीं है और यह योग्यता भी नहीं है। यह विवेक नहीं है। भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेका एक मनुष्य-शरीरमें ही अवसर है। इस अवसरमें अगर वह नहीं किया तो क्या किया। सांसारिक काम खाना-पीना आदि तो पशु-पक्षी भी करते हैं। नीच-से-नीच प्राणी भी करते हैं। अगर हमने वही काम किया तो सूअर, कुत्ते, ऊँट और गधेकी तरह ही हो गये—
सूकर कूकर ऊँट खर
बड़ पशुअन में चार।
तुलसी हरि की भगति बिन
वैसे ही नर नार॥
यह वास्तवमें मनुष्य-जन्मका अपमान है। मनुष्य-जन्मका बड़ा तिरस्कार है। कृपा करके ऐसा अपमान न करें, तिरस्कार न करें।
करुणाकर कीन्हीं कृपा, दीन्हीं नरवर देह।
नद चीन्ही कृतहीन नर, खलकर दीन्हीं खेह॥
इसका नाश कर दिया। इससे लाभ लेना चाहिये। ‘कबहुँक करि करुना नर देही’ करुणा करके प्रभु नर-देह देते हैं। ‘बड़ें भाग मानुष तनु पावा’ ऐसी पूँजी मिल गयी, उसका नाश कर देना बहुत बड़ी भारी गलती है। ‘सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ’ वह परलोकमें दु:ख पावेगा, सिर धुन-धुनकर पछतायेगा और रोवेगा। परन्तु उसके रोनेका फल रोना ही निकलेगा भाई, और कुछ होनेका नहीं है। अभी सावचेत हो जाय तो बहुत बड़ा भारी यह काम कर सकता है। अभी नहीं करेगा तो पीछे रोवेगा। ‘कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ’ काल-कर्म-ईश्वरको झूठा दोष लगायेगा। इस वास्ते सच्चे हृदयसे भगवान्की तरफ चलो।
एक सीधी सरल बात—भगवान् मेरे हैं। ऐसे भगवान्को मेरा कह दिया तो बड़ा असर पड़ता है प्रभुपर। अनेक जन्मोंसे बिछुड़ा हुआ और चौरासी लाख योनियाँ भुगतता हुआ, दु:ख पाता हुआ जीव अगर कह दे—‘हे नाथ! मैं आपका हूँ। हे प्रभु! आप मेरे हो’ तो प्रभुको बड़ा संतोष होगा। बड़े ही राजी होंगे भगवान्। मानो भगवान्की खोयी हुई चीज भगवान्को मिल गयी। बड़ा उपकार होगा भगवान् पर। भगवान्के घाटेकी पूर्ति कर दोगे आप। जीव विमुख हो गया, यह भगवान्के घाटा पड़ गया।
‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥’ करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँ। क्योंकि पाप तो भगवान्से विमुख होनेसे ही हुए हैं। सब पापोंकी जड़ तो वहाँसे चली है। भगवान्के सम्मुख होते ही, वे बेचारे पाप टिक नहीं सकेंगे। इस वास्ते ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ। आप मेरे हैं’, ऐसे भगवान्के साथ अपनापन है—यह बहुत सार चीज है, असली चीज है। क्रियाओंके द्वारा आप भगवान्को नहीं पकड़ सकते, जितना प्रेमके द्वारा, अपनेपनके द्वारा पकड़ सकते हो। बड़े अच्छे-अच्छे काम करो, यज्ञ करो, दान करो, तीर्थ आदि करो, वेदाध्ययन करो। सब-की-सब लाभकी बात है। परन्तु अपनापन किया जाय—यह बहुत लाभकी और विचित्र बात है।
एक करोड़पतिके यहाँ एक नौकर रहता है, जो बीस हजार रुपये पाता है और करोड़पतिका लड़का है, उसे सौ रुपये महीना भी कोई देता नहीं; क्योंकि वह अयोग्य है। परन्तु पिता मर जाता है, तो बीस हजार (रुपये) पानेवाला नौकर मालिक नहीं बन सकता, पर अयोग्य लड़का मालिक बन जाता है। वह योग्य तो नहीं है, पर उसका हक लगता है। इस प्रकार योग्यतासे वह अधिकार नहीं मिलता, जो अपनेपनसे मिलता है।
‘प्रभुके हम हैं’—यह बनाया हुआ अपनापन नहीं है। सेठका अपनी तरफसे कोई बेटा बन जाय और कोई उसे पूछे कि तुम कहते हो या सेठ कहता है? सेठ क्या कहे? मैं कहता हूँ। तो उसे कोई मानेगा नहीं। सेठ यदि कह दे कि यह हमारा बेटा है। कोई काम पड़ जाय तो सेठके नामपर लाखों रुपये मिल जायँगे। सेठका कहना जितना दामी है, उतना हमारा कहना दामी नहीं है। भगवान् तो मात्र जीवको अपना कहते हैं—‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:’ अब केवल आपकी सम्मति होनेकी जरूरत है। सम्मुख होनेकी आवश्यकता है कि ‘मैं भगवान्का हूँ।’
यह सब संसार आपको धोखा देगा, आपसे विमुख हो जायगा, चला जायगा, रहेगा नहीं। शरीर भी नहीं रहेगा। इनको आप अपना कहते हैं—यह बहुत बड़ी भारी गलती है। इनसे विमुख होकर भगवान्से कहें—‘हे नाथ! मैं आपका हूँ और आप मेरे हैं।’ निहाल हो जाओगे, निहाल!
‘होहि राम को नाम जपु’—नाम जपना हो तो रामका होकर नाम जपो। चलते-फिरते जपो, क्योंकि हमारे प्रभुका नाम है।
जाट भजो गूजर भजो भावे भजो अहीर।
तुलसी रघुबर नाममें सब काहूका सीर॥
भाई, बहिन, पढ़ा-लिखा, अपढ़, रोगी, नीरोगी कोई क्यों न हो? परमात्माके नाममें सबका अधिकार है। पिताकी सम्पत्तिमें पुत्रका पूरा अधिकार है। इस वास्ते हमारे प्रभुका नाम है। कौन मना कर सकता है? बताइये! हमारे माँ-बाप हैं। ऐसे भगवान् पर अधिकार जमा देवें।
कलिसंतरणोपनिषद्में नामकी महिमा आयी है। नारदजीने ब्रह्माजीके पास जाकर कहा—‘महाराज! कलियुगमें रहते हुए संसारसे कैसे उद्धार कर लें।’ तो ब्रह्माजी कहते हैं ‘भगवान्का नाम लेते हुए।’ कौन-सा नाम? तो कहा—‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥’ यह नाम बताया। इसकी विधि क्या है? ब्रह्माजीने कहा—विधि है ही नहीं। किये जाओ, लिये जाओ। शुद्ध-अशुद्ध हर अवस्थामें। वह तो भाई उपनिषदोंका मन्त्र है। पर ‘राम-राम’ तो बड़ा सीधा और बड़ा सरल है। इसको साबर-मन्त्र कहते हैं। ‘साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरिजा।’ इसमें क्या है? ‘अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥’ साबर-मन्त्र कोई छन्दकी विधिसे नहीं बैठते, कोई मात्राओंसे नहीं बैठते। साबर-मन्त्र है, भगवान्ने जो कह दिया, वह मन्त्र हो गया। ऐसे भगवान्का नाम है यह राम-नाम, इतना विलक्षण है।
‘सप्तकोटॺो महामन्त्राश्चित्तविभ्रमकारका:’
सात करोड़ बड़े-बड़े मन्त्र हैं चित्तको भ्रमित करनेवाले। ‘एक एव परो मन्त्रो राम इत्यक्षरद्वयम्।’ यह दो अक्षरवाला राम-नाम बड़ा विलक्षण है। पर महान् मन्त्र है। ‘महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥’ महामन्त्रके जपते ही ईश महेश हो गये। केवल महेश हो गये नहीं, काशीजीमें नाम महाराजका क्षेत्र खोल दिया। कोई धान, चून देता है, कोई आटा-सीधा देता है। भगवान् शंकरने मुक्तिका क्षेत्र खोल दिया। बस काशीमें जो मर जाय, मुक्त हो जाय। इस प्रकार पृथ्वीमण्डलपर मुक्तिका क्षेत्र खोला हुआ है भगवान् शंकरने। किसके बलपर? राम-नामके बलपर।
‘कासीं मुकुति हेतु उपदेसू’ नाम महान् मन्त्र है। भगवान् शंकर इसे जपते हैं। इस नामके प्रभावसे आपने मुक्तिका क्षेत्र खोल दिया कि सबकी मुक्ति हो जाय।
अध्यात्मरामायणमें भगवान् शंकर खुद रामजीसे कहते हैं— ‘भगवन्! मैं भवानीके सहित काशीमें रहता हूँ। ‘मुमूर्षुमाणस्य दिशामि मन्त्रं तव रामनाम’ आपका जो राम-नाम मन्त्र है उसका मैं दान देता हूँ मरनेवालेको कि, ले लो भाई जिससे तुम्हारा कल्याण हो जाय। एक सज्जन कहते थे, मैंने कई आदमियोंको देखा है। काशीमें मरनेवालेका कान ऊँचा हो जाता है। मानो शंकर इस कानमें मन्त्र देते हैं। वह नाम अपने भी ले सकते हैं, कितनी मौजकी बात है! कितना ऊँचा नाम है! जो भगवान् शंकरका इष्ट है, वह हम ले सकते हैं कलियुगी जीव! कैसी कृपा हो गयी, अलौकिक कृपा हो रही है। थोड़ी-सी बात है। नाम लेने लग जाय, ‘राम राम राम’। सन्तोंने कहा है, ‘मुक्ति मुण्डे में थारे’ तेरे मुँहमें मुक्ति पड़ी है। राम-राम लेकर निहाल हो जा तू। ऐसा सस्ता भगवान्का नाम। जपने लग जाओ, सीधी बात है। खुला भगवान्का नाम है। तिजोरियोंमें बंद धनको तो आप हिम्मत करके खुला लेते हैं। पर चौड़े पड़े इस धनको लेते ही नहीं ‘राम दड़ी चौड़े पड़ी, सब कोई खेलो आय। दावा नहीं सन्तदास जीते सो ले जाय॥’ जो चाहे सो ले जाय, कैसी बढ़िया बात! कितनी उत्तम बात! सबके लिये खुला है। किसीके लिये मनाही नहीं, ऐसा भगवान्का नाम तत्परतासे लिया जाय, उत्साहपूर्वक, प्रेमसे, अपने प्रभुका समझ करके।
सन्तोंने कहा—परलोकमें नाम लेनेवाले और नाम न लेनेवाले दोनों हैं। क्यों? नाम लेनेवाले रोते हैं कि इस बातका पता नहीं था कि नामकी इतनी महिमा निकलेगी। यह पता होता तो रात-दिन नाम लेते। नाम न लेनेवाले रोते हैं कि हमारा समय खाली चला गया। बिना नामके खाली चला गया। भाई, अब अपनेको पता लग गया। मरनेके बाद पश्चात्ताप करोगे तब क्या होगा? अभी समय है। जबतक यह श्वासकी धोंकनी चलती है, आँखें टिमटिमाती हैं, जीते हैं—यह मौका है; भगवान्का नाम ले लें। लोग हँसे तो परवाह नहीं।
‘हस्ती की चाल चलो मन मेरा,
जगत कूकरी को भुसबा दे।
तूं तो राम सिमर जग हंसवा दे ॥
लोग हँसते हैं तो अच्छी बात—हँसो भाई, हँसकर खुश होते हैं। खुशीमें हँसी आती है, बड़े आनन्दकी बात है। हम भगवान्का नाम लेवें तो उनको हँसी आवे, बड़ी अच्छी, बड़े आनन्दकी, बड़ी खुशीकी बात है। अपने तो भगवान्के नाममें लग जाओ, बस। हँसी करो, तिरस्कार करो, दिल्लगी उड़ाओ, कोई बात नहीं है। सम्मान-मानमें तो नुकसान है। अपमान, निन्दा सहनेमें नुकसान नहीं है। इससे पापोंका ही नाश होता है। इधर आप नाम लो और वे हँसी-दिल्लगी उड़ावें तो डबल लाभ होगा।
तेरे भावैं जो करौ, भलौ बुरौ संसार।
नारायण तू बैठिकै अपनौ भुवन बुहार॥
दूसरे करते हैं कि नहीं करते हैं—इस तरफ खयाल करनेकी जरूरत नहीं है। जैसे भूख लगती है तो यह पूछते नहीं कि तुमलोगोंने भोजन कर लिया है कि नहीं; क्योंकि मैं अब भोजन करना चाहता हूँ। जब प्यास लगती है तो यह नहीं पूछते कि तुमलोगोंने जल पिया है कि नहीं; क्योंकि मैं जल पीना चाहता हूँ। प्यास लग गयी तो पी लो भाई जल। ऐसे भगवान्के नामकी प्यास लगनी चाहिये भीतर। दूसरा लेता है कि नहीं लेता है। क्या करता है, क्या नहीं करता है। पर खुदको लाभ ले ही लेना चाहिये।