अपने साधनको सन्देह-रहित बनायें
अपने साधनको निर्मल बनाना चाहिये अर्थात् अपनेमें साधन-विषयक कोई भी शंका नहीं रहनी चाहिये। शंका रहे तो पुस्तकोंसे, प्रश्नोत्तरसे उसको दूर कर लेना चाहिये। संसार सत्य है—ऐसा अगर अपनेको अनुभव होता है, तो इसी बातपर डटे रहो। इसमें कोई सन्देह हो तो उसको दूर करते रहो। उसपर विचार करते रहो। शंकाओंको मत रखो। अपनेमें शंका रखना गलती है। अगर आत्माकी, ब्रह्मकी सत्ता मानते हो तो उसीपर डटे रहो। ईश्वरकी सत्ता मानते हो तो उसीपर डटे रहो। उसमें शंका मत रखो। यह बात मेरेको बहुत बढ़िया लगती है, इसलिये आपको कहता हूँ। जो हम साधन करते हैं, वह इस तरहसे करें कि अपने हृदयको साफ कर दें।
आपको जो बात पसन्द हो, वही पूछो। मैं उसीमें बात बताऊँगा। मैं अपना मत आपपर लादता नहीं कि मेरा मत मान लो, मेरा मत ही ठीक है। आपकी जो मान्यता हो, उसीको मैं पुष्ट कर दूँगा, उसीमें बढ़िया बात बता दूँगा। उसके अनुसार ही आप चलो तो सिद्धि हो जायगी। जैसे कोई संसारको सत्य मानता है। संसार बहता है, पर मिटता नहीं। संसार जन्मता-मरता रहता है, पर है नित्य। ऐसी जिसकी मान्यता हो, उसको चाहिये कि विवेक-विरोधी कोई काम न करे। संसारको सच्चा तो माने, पर झूठ, कपट, बेईमानी करे—यह ठीक नहीं। कारण कि आपके साथ कोई झूठ, कपट, बेईमानी करे तो आपको अच्छा नहीं लगता। आपको कोई ठगे तो बुरा लगता है। आपकी कोई चीज चुरा ले तो बुरा लगता है। अत: ऐसा आप न करें। संसारको भले ही सच्चा मानते रहें, पर जिसको आप बुराई समझते हैं, जिसको दूसरा कोई अपने साथ करे—ऐसा नहीं चाहते, उस बुराईको आप बिलकुल छोड़ दें, तो सिद्धि हो जायगी।
श्रोता—अपनेमें जो बुराई है, वह क्या अभ्यास करनेसे छूट जायगी?
स्वामीजी—बुराई अभ्याससे नहीं छूटती, विचारसे छूटती है। अपनेमें जो बुराई आयी है, उसको सत्संगके द्वारा, शास्त्रोंके द्वारा, सन्तोंके द्वारा ठीक तरहसे समझ करके विचारपूर्वक त्याग दें। बुराई त्यागनेका अभ्यास नहीं होता। त्याग विचारसे होता है, अभ्याससे नहीं। अभ्याससे एक नयी स्थिति बनती है; जैसे—हम रस्सेपर नहीं चल सकते, पर इसका अभ्यास करें तो नटकी तरह हम भी रस्सेपर चल सकते हैं।
श्रोता—अगर कोई अपनेको अज्ञानी मानता है, तो वह क्या करे?
स्वामीजी—अज्ञानी मानता है तो अज्ञानको दूर करना चाहिये। अज्ञान किसीको भी अच्छा नहीं लगता। किसीसे कहें कि तू अज्ञानी है तो उसे अच्छा लगेगा क्या? जब अज्ञान आदमीको अच्छा नहीं लगता तो वह अपनेको अज्ञानी कैसे मानेगा? अपनेमें ज्ञानका अभिमान हो सकता है, अपनेमें अज्ञता रह सकती है, पर अपनेको सर्वथा अज्ञानी नहीं मान सकता, क्योंकि यह परमात्माका अंश है।
श्रोता—भगवान् तो माता-पिता हैं, उनके सामने तो मनुष्य अबोध शिशु ही है।
स्वामीजी—भगवान्के सामने ऐसा मानना कि मैं तो अबोध शिशु हूँ, एक बालक हूँ, बेसमझ हूँ—यह बहुत अच्छी चीज है। बेसमझका अर्थ है कि अभी समझना और बाकी है; बिलकुल नहीं समझता—ऐसी बात नहीं है। बालकके सामने मुहर और बतासा रख दो तो वह बतासा ले लेगा, पर मुहर नहीं लेगा। आपको वह बेसमझ दीखता है, पर अपनी दृष्टिसे वह बेसमझ नहीं है। अबोध होते हुए भी वह बोधपूर्वक काम करता है। आपको मुहर बढ़िया दीखती है, पर बच्चेको मुहर बढ़िया नहीं दीखती। उसकी समझमें मुहरमें कोई स्वाद नहीं, पर बतासा मीठा लगता है; अत: मुहरका वह क्या करे? अपनी समझमें वह बढ़िया चीज लेता है। बतासा लेता है तो बोधपूर्वक ही लेता है, बेसमझीसे नहीं। ऐसे ही आपलोग धनमें, भोगोंमें लगे हुए हो और इसको अच्छा समझते हो, पर ज्ञानीकी दृष्टिमें बिलकुल पापमें लगे हो और नरकोंमें, जन्म-मरणमें, दु:खमें जा रहे हो। परन्तु ऐसा कहनेपर आप मानते नहीं। बस, किसी तरहसे धन ले ही लो, भोग भोग ही लो। हम चाहे अज्ञानी कह दें, तो भी अपनेको अज्ञानी थोड़े ही मानोगे? कहनेपर बुरा लगेगा, सहोगे नहीं।
मैं अपने-आपको भी पूरा जानकार नहीं मानता हूँ। मैं सब विषयमें ठीक जानता हूँ—ऐसा मेरेको जँचता नहीं। किसी विषयमें मैं जानता हूँ तो उसको कह देता हूँ, पर मैं बड़ा जानकार हूँ, यह मेरे मनमें आती ही नहीं। इससे क्या होगा? कि और जानकारी बढ़ेगी। अगर अपनेको जानकार मान लिया तो जानकारी बढ़नी समाप्त हो जायगी; क्योंकि भरे घड़ेको और क्या भरें, उसमें गुंजाइश ही नहीं। जानकारी तब बढ़ेगी, जब अपनेमें कमी मालूम देगी। पुस्तकोंमें हमने ऐसा पढ़ा है कि किसी भी कक्षामें रहें, अज्ञान (अनजानपना) आगे रहेगा—‘अज्ञानं पुरतस्तेषां भाति कक्षासु कासुचित्।’ आपको कई बातें आती हैं, पर जूती बनानी आती है क्या? कहना ही पड़ेगा कि मैं नहीं जानता। अत: कहीं-न-कहीं तो अनजानपना रहेगा ही।
बहुत वर्षोंकी बात है, देशनोकमें चातुर्मास था। वहाँ मैंने कहा कि यह छोटा बालक मेरेसे ज्यादा जानकार है। कहा कैसे? मेरेसे कोई पूछे कि इस बालककी माँ कौन-सी है, तो मैं नहीं बता सकता। परन्तु इस बालकसे कोई पूछे तो यह बता देगा कि अमुक मेरी माँ है। अत: यह ज्यादा जानकार हुआ कि नहीं? किसी विषयमें यह जानकार है, किसी विषयमें मैं जानकार हूँ, तो टोटलमें बराबर ही हुए। इसलिये मैं जानकार हूँ—यह अभिमान करना गलतीकी बात है।
सर्वथा जानकार तो केवल परमात्मा ही हैं। जो तत्त्वज्ञ है, जीवन्मुक्त है, वह तत्त्वके विषयमें तो जानकार है, पर बहुत-से विषयोंमें अनजान है। जो वास्तवमें तत्त्वको जाननेवाले हैं, उनमें जाननेका अभिमान नहीं होता। अगर अभिमान होता है तो तत्त्वको जाना ही नहीं। अभिमान तो किसी व्यक्तित्वको लेकर, किसी विशेषताको लेकर ही होता है। स्थूल शरीरकी स्थूल जगत् के साथ एकता है। सूक्ष्म शरीरकी सूक्ष्म जगत् के साथ एकता है। कारण शरीरकी कारण जगत् के साथ एकता है। आत्माकी आत्माके साथ एकता है। अत: एक देशमें वह विशेषता कैसे मानेगा? अगर मानेगा तो वह अज्ञानी हुआ।
श्रोता—महाराजजी! मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं—यह अभिमान क्या पतन करनेवाला नहीं है?
स्वामीजी—नहीं, यह तो भगवान्का भजन है। भगवान्में ही अपनापन दीखना चाहिये। दूसरेमें अपनापन नहीं दीखना चाहिये। एक भगवान् ही मेरे हैं और कोई मेरा नहीं। ये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कोई मेरे नहीं।
आज मनमें यह आयी कि किसी बातको आप मानो, किसी साधनमें चलो, उसमें सन्देह-रहित होकर, सुलझ करके चलो तो जरूर लाभ होगा। परंतु अपनेमें अज्ञान है और साथमें संशय रखता है तो उसका पतन हो जायगा—‘अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति’(गीता ४। ४०)। उसका न यह लोक ठीक होगा, न परलोक ठीक होगा और न सुख ही मिलेगा—‘नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:’ (गीता ४। ४०)।