बन्धन कैसे छूटे?
लोगोंने यह मान रखा है कि बन्धन नित्य है, उससे छूटनेपर मुक्ति होगी। मूलमें यही भूल हुई है। वास्तवमें बन्धन है ही नहीं। अगर बन्धन होता तो मुक्ति किसीकी भी नहीं होती; क्योंकि सत् वस्तुका अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)। बन्धन सत् होता तो फिर उसका अभाव होता ही नहीं। अत: बन्धन है नहीं, केवल दीखता है। दीखता तो दर्पणमें मुख भी है, पर वहाँ मुख होता है क्या? दर्पणमें मुख दीखता है तो उसको सामनेसे पकड़ लो, नहीं तो दर्पणके पीछेसे पकड़ लो! है ही नहीं तो उसको पकड़ें क्या! ऐसे ही इन सांसारिक पदार्थोंमें अपनापन दीखता है। यह शरीर, कुटुम्बी, धन-सम्पत्ति, वैभव आदि मेरा है—ऐसा दीखता है। परन्तु आजसे सौ वर्ष पहले ये आपके थे क्या? और सौ वर्षके बाद ये आपके रहेंगे क्या? यह मेरापन पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा तथा बीचमें भी दिन-प्रतिदिन मिट रहा है, तो यह सच्चा कैसे हुआ? दर्पणमें पहले भी मुख नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और इस समय भी दीखता तो है, पर है नहीं। जो प्रतिक्षण ‘नहीं’ में जा रहा है, वह ‘है’ कैसे हुआ? जो नहीं है, उसको ‘है’ मान लिया। ‘नहीं’ को ‘है’ मानना छोड़ो तो मुक्ति स्वत:सिद्ध है। मेरापन पहले नहीं था तो मुक्ति थी, बादमें नहीं रहेगा तो मुक्ति रहेगी और बीचमें प्रतिक्षण छूट रहा है तो मुक्ति हो रही है। अत: बन्धन कृत्रिम है, केवल माना हुआ है और मुक्ति स्वत:सिद्ध है। अब इसमें देरी क्या लगे? बताओ।
अगर आपने मान लिया कि बन्धन छूटेगा नहीं, तो अब वह छूटेगा ही नहीं! क्योंकि आप परमात्माके अंश हैं। आप बन्धनको पक्का मान लोगे तो वह कैसे छूटेगा? बन्धन तो अभी है और मुक्ति आगे होगी—इस तरह आपने बन्धनको नजदीक और मुक्तिको दूर मान लिया, तो अब बन्धन जल्दी कैसे छूट जायगा? वास्तवमें तो बन्धन पहले भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और अब भी नहीं है; तथा मुक्ति पहले भी थी, पीछे भी रहेगी और अब भी है।
देखो, हरेक व्यक्तिका माँमें बड़ा स्नेह होता है। वह स्नेह आज वैसा है क्या? नहीं है। यह संसारके स्नेहका नमूना है। आप व्यापार करते हो तो पहले सब माल न देखकर उसका नमूना देखते हो। उस नमूनेसे सब मालका पता लग जाता है। स्त्री मेरी है, पुत्र मेरा है, धन मेरा है, घर मेरा है—ये सब अब प्रिय लगते हैं तो बालकपनमें माँ कम प्रिय लगती थी क्या? माँके बिना रह नहीं सकते थे, रोने लगते थे, और माँकी गोदीमें जानेपर राजी हो जाते कि माँ मिल गयी! पर माँके साथ आज वैसा स्नेह है क्या? ऐसे कई भाग्यशाली हैं, जिनकी माँ अभी है; परन्तु माँके प्रति पहले जो खिंचाव था, वह खिंचाव अब नहीं है। इस नमूनेसे संसारभरकी परीक्षा हो जाती है कि अभी संसारमें जो खिंचाव है, यह भी रहनेवाला नहीं है।
श्रोता—महाराजजी! हमारा स्नेह पहले माता-पितामें, फिर स्त्रीमें, फिर पुत्रमें, फिर पौत्रमें—इस प्रकार इधर-ही-इधर हो रहा है!
स्वामीजी—तो नया स्नेह मत करो बाबा! पुराना स्नेह तो छूट रहा है, मुक्ति तो हो रही है।
श्रोता—हम तो नहीं करना चाहते।
स्वामीजी—आप नहीं करना चाहते तो मैं कराता हूँ क्या! जबर्दस्ती कौन कराता है? बताओ। पुराना स्नेह तो छूट जायगा, आप नया स्नेह मत करो। अब आप बालक हो क्या? तो बालकपनसे मुक्ति हो गयी न? मुक्ति तो आपसे-आप हो रही है; क्योंकि मुक्ति है। बन्धन बेचारा है ही नहीं। बन्धनको तो आपने पकड़ा हुआ है। आप रखोगे तो रहेगा, आप छोड़ोगे तो छूट जायगा। आप बन्धनको नहीं छोड़ोगे तो वह नहीं छूटेगा। बन्धनको छोड़नेका सुगम उपाय यह है कि जो अपने दीखते हैं, उनकी सेवा कर दो और उनसे सेवा मत चाहो। दो बातें मैंने बतायी थीं कि उनकी माँग न्याययुक्त, धर्मयुक्त है और आपकी उसको पूरा करनेकी शक्ति, सामर्थ्य है, आपके पास वस्तु है, तो उनकी माँग पूरी कर दो। अपनी न्याययुक्त इच्छा भी मत रखो; जैसे—बेटा हमारी सेवा करे—यह न्याययुक्त होनेपर भी इसकी इच्छाको मत रखो। इस तरह खुद तो सेवा चाहो नहीं और दूसरोंकी सेवा करते रहो, तो मुक्ति हो जायगी। सेवा चाहते रहोगे तो मुक्ति नहीं होगी और दूसरा सेवा करेगा भी नहीं।
सेवा चाहनेसे दूसरा सेवा नहीं करेगा और सेवा नहीं चाहोगे तो वह सेवा करेगा—आपकी सेवामें भी घाटा नहीं पड़ेगा। आपके पास रुपये हैं, रोटी है, कपड़ा है, तो आप किस साधुको देना चाहते हैं? जो लेना नहीं चाहता, उसको दोगे या जो लेना चाहता है, उसको दोगे? जो चोरी करता है, डाका डालता है, छीनता है, उसको आप देना चाहते हो क्या? आप उसीको देना चाहते हैं, जो लेना नहीं चाहता। संसारसे कुछ नहीं चाहोगे तो संसार ज्यादा सुख देगा। आपको सुख कम नहीं पड़ेगा, घाटा नहीं लगेगा। जो कुछ नहीं चाहता, उसको सब देना चाहते हैं, तो फिर उसके सुखमें घाटा कैसे पड़ेगा। घाटा तो सुख चाहनेसे पड़ता है। मान-बड़ाई भी उसको देते हैं जो इसको नहीं चाहता। फिर चाहना करके दरिद्री क्यों बनें?
श्रोता—अनादिकालसे पड़े हुए ममताके संस्कार मिटें कैसे?
स्वामीजी—अनादिकालका अँधेरा दियासलाई जलाते ही भाग जाता है। किसी गुफामें लाखों वर्षोंसे अँधेरा हो और वहाँ जाकर प्रकाश करें तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं यहाँ इतने वर्षोंसे हूँ, इसलिये मैं जल्दी नहीं जाऊँगा। जब प्रकाश हुआ तो वह मिट गया। ऐसे ही जो भूल है, गलती है, वह मिटनेवाली होती है।
ममताको मिटानेका उपाय है—देनेकी इच्छा रखो। लेनेकी आशा रखो ही मत कि हमें कुछ मिले। वस्तु अपने पासमें है और दूसरा चाहता है, तो बिना किसी शर्तके उसको दे दो। देते रहोगे तो स्वभाव ही देनेका पड़ जायगा। लेनेका स्वभाव होनेसे ही नयी-नयी ममता पैदा होती है। इसलिये भीतरसे ही लेनेकी इच्छा छोड़ दो।
संसारकी सेवा-ही-सेवा करनी है, लेना कुछ नहीं है—यह ‘कर्मयोग’ हो गया। संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं—यह ‘ज्ञानयोग’ हो गया। भगवान् ही मेरे हैं और कोई मेरा नहीं है—यह ‘भक्तियोग’ हो गया। मेरा सम्बन्ध संसारके साथ है, संसार मेरा है और मेरे लिये है—यह ‘जन्म-मरणयोग’ या ‘बन्धनयोग’ हो गया! बार-बार जन्मो और मरो! अब जिसमें आपको फायदा लगे, उसको कर लो। परमात्माके साथ तो आपका सम्बन्ध स्वत: है और संसारके साथ सम्बन्ध आपका माना हुआ है। संसारसे कितना ही सम्बन्ध जोड़ लो, वह टिकता ही नहीं। जो टिके नहीं, उसको पहले ही छोड़ दो।
भलि सोचहि सज्जन जना, दिवी जगतको पूठ।
पीछे देखी बिगड़ती, पहले बैठा रूठ॥
जो पीछे बिगड़ जायगा, उसको पहले ही छोड़ दिया। अगर कोई अपने कुटुम्बको सच्चे हृदयसे छोड़कर साधु बन जाय, तो सब-का-सब कुटुम्ब एक साथ मर जाय अथवा कुटुम्बमें बीसों-पचासों आदमी हो जायँ, उसपर कोई फरक नहीं पड़ेगा। परन्तु कुटुम्बमें एक लड़का मर जाय और वह रोने लगे, तो उस साधुने कोरा कपड़ा ही मिट्टी लगाकर खराब किया! जैसे साधु अपने कुटुम्बकी तरफसे मर जाता है, ऐसे ही आप भी सबसे मर जाओ, तो मुक्ति हो जायगी। मरते ही अमर हो जाओगे। जहाँ संसारसे मरे कि अमर हुए! जीते हुए ही मर जाओ। संतोंके पदमें आया है—‘अरे मन जीवतड़ो ही मर रे।’ आजसे ही मर जाओ। सब काम ठीक हो जायगा। घरवालोंसे मर जाओ तो उनकी भी आफत मिट जायगी। न तीजा करना पड़े, न द्वादशाह करना पड़े, न नारायण-बलि करनी पड़े, न कोई खर्चा करना पड़े, सब आफत मिट जाय! घरवाले भी मौजमें और आप भी मौजमें!
भगवान् की, सन्तोंकी, शास्त्रोंकी कृपा तो आपपर सदासे ही है, अब आप कृपा करो तो निहाल हो जाओ। आप स्वयं कृपा नहीं करोगे तो उनकी कृपा पड़ी रहेगी, कुछ काम नहीं करेगी। जिनको पकड़ा है, उनको छोड़ दो तो मुक्ति हो जायगी। अब घरवालोंको छोड़ दिया तो गुरुजीको पकड़ लिया कि ये मेरे गुरुजी हैं, ये गुरुभाई हैं, ये चाचा गुरु हैं, यह भतीजा चेला है। एकको छोड़ दिया और दूसरेको पकड़ लिया तो मुक्ति नहीं होगी, ज्यों-के-त्यों फँसे रहोगे। एक साधु मिले थे। वे कहते थे कि गुरुजीने हमें विद्या सिखा दी कि तुम कुटुम्बको छोड़ दो, तो हमने गुरुजीको भी छोड़ दिया! अब न गुरु है, न चेला है, न चाचा गुरु है, न भतीजा चेला है। पहले गृहस्थसे साधु हुए, अब साधुसे भी साधु हो गये।
कुटुम्बको हमारा मानो मत और उनसे कुछ चाहो मत—इतना ही कुटुम्बके साथ सम्बन्ध रखो। अपने पास जो पैसा है, सामर्थ्य है, समय है, वह उनकी सेवामें लगा दो। इससे सब कुटुम्बी राजी हो जायँगे और आपकी मुक्ति हो जायगी। पहलेका सम्बन्ध सेवा करके छोड़ दें और नया सम्बन्ध जोड़ें नहीं, तो मुक्ति ही रहेगी। मुक्तिके सिवा और क्या रहेगा?