नाशवान्की मुख्यतासे हानि
हम लोगोंकी मुख्य भूल क्या होती है? कि जो जड़ है, नाशवान् है, परिवर्तनशील है, उसको तो सच्चा मान लेते हैं; मुख्य मान लेते हैं और जो चेतन है, अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है, उसको गौण मान लेते हैं। हम शरीरकी मुख्यताको ले करके सब काम करते हैं। हम तो यहीं (संसारमें) रहनेवाले हैं, यहाँके ही आदमी हैं—इस प्रकार हमने अपनेको शरीर-संसारके साथ मान लिया। शरीरका आदर हमारा आदर हो गया, शरीरकी निन्दा हमारी निन्दा हो गयी—इस प्रकार जड़ताकी मुख्यताको लेकर चलने लगे और चेतनकी मुख्यताको बिलकुल भुला दिया, मानो है ही नहीं! मुख्यमें अमुख्यकी भावना और अमुख्यमें मुख्यकी भावना; जो वास्तविक है, उसका तिरस्कार और जो अवास्तविक है, उसका आदर—यह मूल भूल हो गयी। अब कई भूलें होंगी। एक भूलमें अनन्त भूलें होती हैं।
धुर बिगड़े सुधरे नहीं, कोटिक करो उपाय।
ब्रह्माण्ड लौं बड़ गये, वामन नाम न जाय॥
भगवान्के अवतारोंमें सबसे लम्बा ‘त्रिविक्रम’ अवतार हुआ, जिसके तीन कदम भी त्रिलोकीमें पूरे नहीं हुए! परन्तु उसका नाम तो ‘वामन-अवतार’ ही हुआ। इतना बड़ा अवतार होनेपर भी नाम तो छोटा ही रहा। कारण कि आरम्भमें, मूलमें ही बात बिगड़ गयी, तो अब कितना ही प्रयत्न करो, बात सुधरेगी नहीं। ऐसे ही मूलमें जड़ताको मुख्यता दे दी, तो अब भूलोंका अन्त नहीं आयेगा, तरह-तरहकी भूलें होंगी। अगर हम इस भूलको सुधारना चाहें तो हमारे लिये एक बहुत आवश्यक बात है कि जड़ और क्षणभंगुर शरीरकी मुख्यता न रखें।
यह प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है कि मैं नहीं बदला हूँ, शरीर बदला है। फिर भी बदलनेवालेको ही मुख्यता देते हैं कि हम छोटे हो गये, हम बड़े हो गये, हम स्वस्थ हो गये, हम बीमार हो गये, हमारा आदर हो गया, हमारा निरादर हो गया! कहाँ तुम्हारा आदर हो गया? कहाँ तुम्हारा निरादर हो गया? हमारी बात नहीं रही, तुम्हारी बात रह गयी तो बाधा क्या लगी? इस न रहनेवाली चीजकी भी कोई सत्ता है क्या? इसकी भी कोई महत्ता है क्या? पर मूलमें जड़ताकी, नाशवान्की मुख्यता मान ली। जो वास्तविकता है, उसकी परवाह ही नहीं! अब बातें सुनाओ, पढ़ाओ, सब कुछ करो, पर भूलको छोड़ेंगे नहीं! बस, हमारे नामकी महिमा होनी चाहिये, हमारे रूपका आदर होना चाहिये— यह बात भीतर बैठी है। अब कितना ही सुनो-सुनाओ, सब रद्दी हो जायगा! अब इस बातको जान लें कि वास्तवमें नाम हमारा नहीं है, हमारा रूप शरीर नहीं है। जब पेटमें थे, तब नाम नहीं था। जब जन्मे, तब भी नाम नहीं था। दस दिनके बाद नाम धर दिया। वह नाम भी अगर बादमें बदल दिया तो उसको पकड़ लिया। नाम और रूप—दोनों बदलनेवाले हैं, मिटनेवाले हैं। जो मिटनेवाला है, उसको तो पकड़ लिया और जो रहनेवाला है उसकी परवाह ही नहीं! आप-से-आप भी विचार नहीं करते और कहनेपर भी खयाल नहीं करते, कितनी बड़ी गलतीकी बात है! कम-से-कम उसका खयाल तो करना चाहिये कि यह बात ऐसी है; अब तो हम चेत गये, होशमें आ गये; अब ऐसी गलती नहीं करेंगे। अगर अभी खयाल नहीं किया तो जितना दु:ख पाना पड़ेगा, इसीसे ही पाना पड़ेगा। जन्म-मरण भी इसीसे होगा। नरक भी इसीसे होगा। बिलकुल उलटी बात पकड़ ली, तो अब उसका नतीजा सुलटा कैसे होगा? उलटा ही नतीजा होगा। अभीसे सावधान हो करके अपना काम ठीक तरहसे कर लेना चाहिये, नहीं तो बड़ी दुर्दशा होगी भाई!
एक कायदा है कि जिसको मान लेते हैं, उसमें जिज्ञासा नहीं होती, शंका नहीं होती। वहाँ यह बात उत्पन्न ही नहीं होती कि यह क्या चीज है। अत: मानना ही हो तो भगवान्को मान लो। माननेके बाद फिर शंका मत करो, सन्देह मत करो। जैसे, ब्याह हो गया, तो हो गया, बस। अब उसमें कभी भी शंका नहीं, सन्देह नहीं होता, जिज्ञासा नहीं होती। जैसे बोध हो जानेपर अज्ञान नहीं होता, ऐसे ही मान लेनेपर मानना उलटा नहीं होता। मानना और जानना—दोनों मार्ग स्वतन्त्र हैं। मानना परमात्माको है और जानना स्वरूपको तथा संसारको है।
ये तीन बातें बड़े ध्यान देनेकी हैं कि हमारे पास जितनी चीजें हैं, वे पहले हमारी नहीं थीं, पीछे हमारी नहीं रहेंगी और इस समय भी हमारेसे प्रतिक्षण अलग हो रही हैं। यहाँ आकर बैठे, उस समय जितनी उम्र थी, उतनी उम्र अब नहीं रही, मौत उतनी नजदीक आ गयी। शरीरका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। भगवान्ने कहा— ‘अन्तवन्त इमे देहा:’ (गीता २। १८); अर्थात् ये शरीर अन्तवाले हैं। जैसे धनवान् होता है, ऐसे ही ये शरीर अन्तवान् हैं, नाशवान् हैं। परन्तु जो सब जगह परिपूर्ण अविनाशी है, उसको मुख्यता न देकर विनाशीको मुख्यता दे रहे हैं—यहाँ गलती होती है। इसका सुधार कर लिया जाय तो सब सुधर जायगा।
मुख्यता स्वयंकी रहनी चाहिये। मुक्ति भी स्वयंकी होती है, शरीरकी नहीं। शरीरको अपना माननेसे ही बन्धन हुआ है। उलटा मान लिया—यही बन्धन है। अत: चाहे सुलटा मान लो, चाहे ठीक तरहसे जान लो कि बन्धन क्या है, मुक्ति क्या है। फिर काम ठीक हो जायगा। उलटा मान लेते हो और जानते हो नहीं—यही गलती है।
एक मिश्रीके पहाड़पर रहनेवाली कीड़ी (चींटी) थी और एक नमकके पहाड़पर रहनेवाली। मिश्रीके पहाड़वाली कीड़ीने दूसरी कीड़ीसे कहा कि तू यहाँ क्या करती है? मेरे साथ चल। मिठास तो हमारे वहाँ है! नमकके पहाड़वाली कीड़ी बोली कि क्या वहाँ इससे भी बढ़िया मिठास है? दूसरी कीड़ी बोली कि कैसी बात करती है! बढ़िया-घटियाकी बात तो तब हो, जब यहाँ मिठास हो। यहाँ मिठास है ही नहीं; यहाँ तो बिलकुल इससे विरुद्ध बात है। फिर वह नमकके पहाड़वाली कीड़ीको अपने वहाँ ले गयी और बोली कि देख, यहाँ कितना मिठास है। नमकके पहाड़वाली कीड़ी बोली कि मेरेको तो कोई फरक नहीं दीखता! तुम कहती हो तो मैं हाँ-में-हाँ मिला दूँ, पर मेरेको तो वैसा ही स्वाद आ रहा है। मिश्रीके पहाड़वाली कीड़ीको आश्चर्य आया कि बात क्या है। उसने ध्यानसे देखा तो पता चला कि नमकके पहाड़वाली कीड़ीने अपने मुखमें नमककी डली पकड़ी हुई है, अब दूसरा स्वाद आये ही कैसे? उससे कहा कि नमककी डलीको मुखसे निकाल, फिर देख इसका स्वाद। उसने नमककी डली मुखसे निकालकर मिश्रीको चखा तो बस, उसीके साथ चिपक गयी! मिश्रीके पहाड़वाली कीड़ीने पूछा कि बता, कैसा स्वाद है? तो वह बोली—हल्ला मत कर, चुप हो जा! ऐसे ही आप सब बातें सुनते हैं, पर नमककी डलीको पकड़े रहते हैं कि शरीर सच्चा है, शरीरका मान-अपमान सच्चा है, शरीरका आराम सच्चा है, शरीरका सुख अच्छा है, आदि। इस बातको ऐसे जोरसे पकड़े रहते हो कि कहीं यह ढीली न पड़ जाय, कहीं यह मान्यता शिथिल न पड़ जाय! ऐसी सावधानी रखते हुए सत्संग करते हैं। वास्तवमें यह कुसंग (असत् का संग) हो रहा है, सत्संग नहीं हो रहा है।
मान्यता होनेपर फिर शंका नहीं रहती, जिज्ञासा नहीं रहती। मेरा अमुक नाम है—ऐसा माननेपर फिर यह नहीं होता कि मेरा अमुक नाम कैसे है? कबसे है? क्यों पड़ा है? विवाह होनेपर आप मान लेते हो कि हमारी पत्नी है और वह मान लेती है कि हमारे पति हैं। पति क्यों है? कैसे है? कबसे है? कितने दिन रहनेवाला है?— ऐसा कोई विचार पैदा ही नहीं होता। इसी तरह ‘मैं शरीर हूँ’ यह मान्यता दृढ़ कर ली, तो अब मान, बड़ाई, आदर, निरादर आदि जो कुछ है, वह हमारा कैसे हो रहा है—यह शंका ही नहीं होती। जब बनावटी बातको माननेसे यह दशा होती है, तो फिर ‘भगवान् हमारे हैं और हम भगवान्के हैं’ इस वास्तविक बातको दृढ़तासे मान लो निहाल हो जाओ! अगर अब भी सावधानी हो जाय तो बड़ी अच्छी बात है, नहीं तो यह सावधानी कब होगी?
उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु ही क्रियासाध्य होती है और उसीकी प्राप्तिमें समय लगता है। तत्त्वप्राप्तिमें समय नहीं लगता; क्योंकि तत्त्व क्रियासाध्य नहीं है। वह तो स्वत:सिद्ध है। सीधी बात है कि शरीर बार-बार जन्मता-मरता है और स्वयं वही-का-वही रहता है— ‘भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८। १९)। ‘स एवायम्’ स्वयं है और ‘भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ शरीर है। जो रहता है, उसको तो मानते नहीं और जो जाता रहता है, उसको मानते हैं। अत: इसमें थोड़ा जोर लगायें कि ऐसा हम नहीं मानेंगे। अब निरादर हो गया तो क्या हो गया! अपमान हो गया तो क्या हो गया! जैसे, पत्थरका निरादर हो गया तो क्या! अपमान हो गया तो क्या! सही बातको सही मान ले, बस। सही बात समझमें नहीं आये तो शास्त्र और सन्त-महात्माकी बात मान लो कि भगवान् हैं और वे हमारे हैं। उनकी बात माननेसे भगवत्प्राप्तिकी जिम्मेवारी उन्हींपर आयेगी। परन्तु यदि उनकी बात नहीं मानेंगे, उलटी बात मानेंगे, तो इसकी जिम्मेवारी आपपर आयेगी अर्थात् इसका दण्ड आपको भोगना पड़ेगा।
आप सिद्ध नहीं कर सकते कि शरीर मैं हूँ। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी यह बात सिद्ध नहीं कर सकते कि शरीर मैं ही हूँ। उलटी बात कैसे सिद्ध होगी? परन्तु आपने उलटी बातको पकड़ रखा है! नाम, रूप, जाति, वर्ण, आश्रम, देश आदिको पकड़कर बैठे हैं। उसे छोड़ेंगे नहीं, भले ही कोई कुछ कहे। कारण कि उस बातको मान लिया है, और मान लेनेके बाद जिज्ञासा होती ही नहीं। परमात्माको न मानकर उसपर शंका करते हैं। वास्तवमें यह माननेकी चीज है, शंका करनेकी चीज नहीं है। शंका करनी हो संसारपर करो अथवा स्वयं अपनेपर करो। ये दो ही जिज्ञासाके विषय हैं। परमात्माको न मानो तो फिर बिलकुल मत मानो और मानो तो फिर बिलकुल मानो। परन्तु उलटी बातको मत मानो। जो प्रत्यक्षमें नाशवान् है, टिकनेवाली चीज नहीं है; जो पहले नहीं थी, पीछे नहीं रहेगी, वह बीचमें कैसे हो गयी— इस बातको ठीक समझ लो, फिर सब ठीक हो जायगा।