दिसम्बर
१ दिसम्बर—जो केवल धन बटोरनेमें ही लगे रहते हैं, उन कृपण मनुष्योंको धनसे कभी सुख नहीं मिलता। जीवनभर धन बढ़ाने और उसकी रक्षा करनेकी चिन्तामें जलना पड़ता है और मरनेपर नरकमें गिरना पड़ता है।
२ दिसम्बर—जैसे जरा-सा कोढ़ सुन्दर रूपको बिगाड़ देता है वैसे ही थोड़ा-सा भी लोभ यशस्वी पुरुषोंके विशुद्ध यशको और गुणवानोंके प्रशंसनीय गुणोंको बिगाड़ देता है।
३ दिसम्बर—वही बुद्धिमान् पुरुष है जो धनके लोभसे अथवा राग, क्रोध, डाह, काम और भयके वश होकर कभी धर्मको नहीं छोड़ता।
४ दिसम्बर—जो मनुष्य लोभके वश होकर धर्मको छोड़ देता है और धन बटोरनेमें लग जाता है वह मानो सोनेके ढेरको छोड़कर मुट्ठीभर राखके लिये लपकता है।
५ दिसम्बर—मनुष्यके पास जबतक धन रहता है तभीतक माता, पिता, स्त्री, पुत्र, स्वजन, कुटुम्बी और मित्र उसका साथ देते हैं। धन न रहनेपर कोई बात भी नहीं करता। जगत्की यही स्वार्थमयी नीति है।
६ दिसम्बर—अन्त समयमें धन कुछ भी काम नहीं आता। जीवनभर बटोरे हुए धनपर दूसरे मालिक बन बैठते हैं। अपने द्वारा किया हुआ धर्म ही एक ऐसा सहायक है जो मरनेके बाद भी साथ जाता है।
७ दिसम्बर—जो मनुष्य धर्मका तिरस्कार करके धनके पीछे भटकता है वह उस प्यासे हरिनके समान निराश होता है जो जल समझकर रेगिस्तानकी जलती हुई बालूकी ओर दौड़ता है।
८ दिसम्बर—चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, घमण्ड, मद, कलह, वैर, अविश्वास, स्पर्धा, व्यभिचार, जूआ और शराब—इन पन्द्रह दोषोंके पैदा होने और बढ़नेमें धन प्रधान कारण होता है, इसलिये अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको धनमें आसक्त नहीं होना चाहिये।
९ दिसम्बर—धनको लेकर भाई-भाई, स्त्री-स्वामी, पिता-पुत्र और मित्र-मित्रमें फूट पड़ जाती है। धनकी कौड़ियोंके लिये ‘एक आत्मा दो शरीर’ माननेवाले स्नेही मित्र भी वैरी बन जाते हैं।
१० दिसम्बर—थोड़े-से धनके लिये प्यारे मित्र भी घबराकर और क्रोधित होकर तुरंत ही सारी सुहृदता भूल जाते हैं और एक-दूसरेको त्याग देते और कहीं-कहीं तो मार भी डालते हैं।
११ दिसम्बर—देवता भी जिसके लिये लालायित रहते हैं—ऐसे मनुष्य-शरीरको पाकर जो लोग प्रमादवश उसे व्यर्थ ही खो देते हैं और अपने सच्चे स्वार्थकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते, उनकी बहुत ही बुरी गति होती है।
१२ दिसम्बर—मनुष्य-शरीर मोक्षका दरवाजा है, इसी शरीरमें आकर मनुष्य सारे बन्धनोंसे छूट सकता है। इसे पाकर जो मनुष्य केवल अनर्थमय धनमें ही आसक्त रहता है वह बुद्धिमान् नहीं है।
१३ दिसम्बर—धन होनेपर भी जो मनुष्य उस धनका हिस्सा पानेके अधिकारी देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य, अन्यान्य प्राणी, जातिवाले तथा बन्धु-बान्धवोंको उनका हिस्सा नहीं देता वह कृपण मनुष्य अवश्य ही नीचे गिरता है।
१४ दिसम्बर—धन हो तो उसे गरीब-परिवार और उचित अधिकारियोंको यथायोग्य देते रहकर भगवान्की सेवा करो, इससे तुम्हारे दोनों लोक बन जायँगे। नहीं है तो पापभरे साधनोंसे उसे कमानेकी चेष्टा न करो।
१५ दिसम्बर—याद रखो—मृत्युके मुखमें पड़े हुए मनुष्यका धन, भोग, कर्म या देवता कोई भी कुछ भी हित नहीं कर सकते। उस समय एक भगवान्का भजन ही काम आता है।
१६ दिसम्बर—केवल स्त्री-संग और धन कमानेमें ही लगे हुए असत्-जनोंका संग भूलकर भी नहीं करना चाहिये। ऐसे विषयी पुरुषके पीछे चलनेवाला, जैसे अन्धेके पीछे चलनेवाला अन्धा गिरता है वैसे ही गिर जाता है।
१७ दिसम्बर—जिसका मन कामके द्वारा हरा गया है उसके विद्या, तप, संन्यास, एकान्तवास और वाणीका संयम आदि सभी निष्फल हैं।
१८ दिसम्बर—जैसे जलमें डूबने-उतरानेवालेके लिये मजबूत नौका ही परम आश्रय है वैसे ही भवसागरमें डूबनेवाले जीवोंके लिये सच्चे संत ही एकमात्र आश्रय हैं।
१९ दिसम्बर—बिना ही किसी हेतुके भगवान्में चित्त लगानेवाले शान्त, समदर्शी, ममतारहित, अहंकाररहित और राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे छूटे हुए अकिंचन ही सच्चे संत हैं।
२० दिसम्बर—सूर्य तो बाहरी नेत्रोंको प्रकाशित करते हैं; परंतु संतजन भीतरके ज्ञानरूपी नेत्रोंको प्रकाशित कर देते हैं। ऐसे संत ही सच्चे देवता और मित्र हैं। वे भगवान्के रूप ही हैं।
२१ दिसम्बर—गृहस्थको प्रतिदिन सबको भगवान्का रूप समझकर अपनी शक्तिके अनुसार पितृसेवा, देवसेवा और अतिथिसेवा करनी चाहिये।
२२ दिसम्बर—शुद्ध वृत्तिके द्वारा पैदा किये हुए धनसे न्यायपूर्वक जिन कुटुम्बियोंका तथा अन्यान्य जीवोंका भरण-पोषण होता है, उन लोगोंको पीड़ा पहुँचाकर परलोककी इच्छासे कोई शुभ कर्म नहीं करना चाहिये। उन्हें प्रसन्न रखना ही शुभ कर्म है। उनपर कभी अहसानका भाव नहीं लादना चाहिये।
२३ दिसम्बर—कुटुम्बकी चिन्तामें ही आसक्त न रहो और न भगवान्के भजनको कभी भूलो, भगवान् पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास करो।
२४ दिसम्बर—जैसे मुसाफिर लोग जलशाला (प्याऊ)-पर जल पीनेके लिये आकर थोड़ी देरके लिये मिल जाते हैं और जल पीकर अपनी-अपनी राह चले जाते हैं; वैसे ही संसारमें बन्धु-बान्धव, स्त्री-स्वामी और पुत्र-पिता आदिका समागम होता है।
२५ दिसम्बर—जो मनुष्य भगवान्को भूलकर केवल परिवारमें ही आसक्त है, जो धन और पुत्रोंके लिये ही व्याकुल है, जो स्त्रीसंगमें ही लिप्त है और मन्दबुद्धि है, उस मूढ़को ‘मैं हूँ’ तथा ‘मेरा है’ इस अज्ञानके चक्करमें पड़कर बार-बार जन्म-मृत्युके कठिन कष्ट भोगने पड़ते हैं।
२६ दिसम्बर—मनुष्य-जन्म पाकर भलीभाँति भगवान्की ही आराधना करनी चाहिये; क्योंकि भगवान् ही सब प्राणियोंके प्रिय आत्मा, सुहृद् और स्वामी हैं।
२७ दिसम्बर—जबतक शरीर स्वस्थ है और इन्द्रियाँ सबल हैं तभीतक कल्याणके लिये पूरा प्रयत्न हो सकता है। रोगी शरीरसे साधना नहीं होगी, अतएव अभीसे साधनमें लग जाओ।
२८ दिसम्बर—विषयरूप दैत्योंकी सेवा न करके भगवान्की शरण हो जाओ।
२९ दिसम्बर—सम्पूर्ण सुखोंकी खान एकमात्र भगवान् ही हैं, जो भगवान्को छोड़कर अन्यत्र सुख-शान्ति खोजता है, उसे सदा निराशाकी ही चोटें सहनी पड़ती हैं।
३० दिसम्बर—यह मनुष्यकी मूर्खता है कि वह बार-बार निराशाकी चोटें खाकर भी फिर उसी ओर जाता है और दु:खके बाद फिर दु:ख उठाता है।
३१ दिसम्बर—अतएव मूर्खता छोड़कर भगवान्को प्रसन्न करो, वे सब प्राणियोंके आत्मा हैं, इससे उनको प्रसन्न करना और पाना कुछ भी बड़ी बात नहीं है।