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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

दीन-दु:खियोंके प्रति कर्तव्य

भगवान् आर्तिहरण हैं। वे आर्तोंकी आर्ति हरण करनेवाले हैं। भगवान् दीनबन्धु हैं, दीनोंके सहज मित्र हैं। दीनका अर्थ है—असमर्थ, अशक्त। जिसमें कुछ भी करनेकी शक्ति नहीं, जिसके पास कोई साधन नहीं, जो शक्तिहीन, सामग्रीहीन और सर्वथा निर्बल है—ऐसा जो कोई होता है उसके हृदयकी पुकार स्वाभाविक ही दीनबन्धुके लिये होती है। दीनको कौन अपनाये? संसारमें दीनोंके साथ सहज, सरल प्रेम करनेवाले, उनका समादर करनेवाले, उन्हें अपनानेवाले वस्तुत: दो ही हैं—एक भगवान् और दूसरे संत। यह दीनबन्धुत्व, दीनवत्सलता, अकिंचनप्रियता, दीनप्रियता भगवान् और संतमें ही है। यह परम आदर्श गुण है। इसका यदि किसीके जीवनमें समावेश हो जाय तो उसका जीवन धन्य हो जाय। इसमें एक विशेष बात यह है जैसे माता संतानवत्सला होती है और वह अपने मनमें कभी भी अहंकार नहीं करती कि मैं संतानका उपकार करती हूँ, उसका वात्सल्य उसे संतानकी सेवा करनेके लिये बाध्य करता है। इस मातृवात्सल्यपर संतानका सहज अधिकार है। माताकी वह वत्सलता संतानकी सम्पत्ति है। उसकी वह वत्सलता संतानके लिये ही है, नहीं तो उसकी कोई सार्थकता नहीं। इसी प्रकार दीनोंके प्रति, अनाथोंके प्रति, दु:खियोंके प्रति जो संतोंकी, भगवान‍्की सहज दयापूर्ण वत्सलता है, वह अनाथों, अनाश्रितों, दीनों, दु:खियों और असहायोंकी निज सम्पत्ति है। दीनोंके प्रति सहज वत्सलता रखनेवाले पुरुषोंका यह स्वभाव होता है। यह सहज भाव सदा उनके हृदयमें रहता है। वे यह नहीं मानते कि हम किसीका उपकार कर रहे हैं। वे नहीं मानते कि हम दया करके किसी ‘दीन’—दयाके पात्रको कुछ दे रहे हैं। वे अपना कुछ मानते ही नहीं। वे समझते हैं, हमारा कुछ है ही नहीं। जो कुछ है सब भगवान‍्का है। विद्या, बुद्धि, बल, धन, सम्पत्ति, जमीन, मकान जो कुछ है, सारा-का-सारा भगवान‍्का है। इसलिये उसको यथायोग्य निरन्तर भगवान‍्की सेवामें—भगवान‍्के काममें लगाते रहना, यह उनका स्वभाव होता है। अत: उनकी दीनवत्सलता, किसी दीनका उपकार नहीं, भगवान‍्की सेवा है। भगवान‍्की अपनी वस्तु, भगवान‍्को समर्पण करनेका भाव है। इस भावके विपरीत जो उन सब वस्तुओंका संग्रह करता है, जो उन्हें अपनी वस्तु मानता है, उनपर अपना स्वामित्व, अपना अधिकार मानता है, भगवान‍्की वस्तु भगवान‍्को देता नहीं, वह चोर है; भगवान‍्की चीजपर अपना स्वत्व मानकर जो सब कुछको अपना मान बैठता है, केवल अपने ही उपयोगमें लेने लगता है, वह चोर है, दण्डका पात्र है। श्रीमद्भागवतमें देवर्षि नारदजीने कहा है—

यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति॥
(७।१४।८)

‘जितनेसे पेट भरे—सादगीसे जीवन-निर्वाह हो, उतनेपर ही अधिकार है। जो उससे अधिकपर अपना अधिकार मानता है, संग्रह करता है, वह दूसरोंके धनपर अधिकार माननेवालेकी तरह चोर है और दण्डका पात्र है।’ इस भावसे अपनी सारी, सब प्रकारकी सम्पत्तिपर, सबका—विश्वरूप भगवान‍्का अधिकार मानकर जहाँ-जहाँ दीन हैं, जहाँ-जहाँ गरीब हैं, जहाँ-जहाँ अभावग्रस्त हैं, असमर्थ हैं, वहाँ-वहाँ तत्तत् उपयोगी सामग्रीके द्वारा उनकी सेवामें लगे रहना धर्म है।

मनुष्यके व्यवहारमें—मानव-जीवनमें एक बात अवश्य आ जानी चाहिये। वह यह कि अपने पास विद्या, बुद्धि, धन, सम्पत्ति, भूमि, भवन, तन, मन, इन्द्रिय जो कुछ हैं, उनसे जहाँ-जहाँ अभावकी पूर्ति होती हो, वहाँ-वहाँ उन्हें लगाता रहे, यही पुण्य है—सत्कर्म है। पर जहाँ स्वयं संग्रह करनेकी प्रवृत्ति होती है, इकट्ठा करके मालिकी करनेकी आकांक्षा रहती है, संसारकी वस्तुओंको एकत्र करके उन्हें अपना बना लेनेकी वृत्ति, इच्छा या चेष्टा होती है, वहाँ पाप है। अपरिग्रह पुण्य है और परिग्रह पाप है।

हमारा स्वभाव बन जाना चाहिये कि हम अपनी परिस्थितिका, प्राप्त सामग्रीका, साधनोंका सदुपयोग करना सीख जायँ। एकत्रित सम्पत्ति केवल भोगोंमें लगाने या रख छोड़नेके लिये नहीं है। पानी जहाँ एक जगह पड़ा रह जायगा, गंदा हो जायगा, उसमें कीड़े पड़ जायँगे। इसी प्रकार उपयोगरहित सामग्री भी गंदी हो जाती है। मांस ही अभक्ष्य नहीं है। दूसरेका हक खा जाना भी अभक्ष्य-भक्षण है। किसी प्रकार भी दूसरेके हकपर अधिकार जमाना पाप है। एक राजाके यहाँ एक महात्मा आये। प्रसंगवश बात चली हककी रोटीकी। राजाने पूछा—‘महाराज! हककी रोटी कैसी होती है?’

महात्माने बतलाया कि ‘आपके नगरमें एक बुढ़िया रहती है। जाकर उससे पूछना चाहिये।’ राजा बुढ़ियाके पास आये और पूछा—‘माता! मुझे हककी रोटी चाहिये।’

बुढ़ियाने कहा—‘राजन्! मेरे पास एक रोटी है, पर उसमें आधी हककी है और आधी बेहककी।’ राजाने पूछा—‘आधी बेहककी कैसी?’

बुढ़ियाने बताया कि ‘एक दिन मैं चरखा कात रही थी। शामका वक्त था। अँधेरा हो चला था। इतनेमें उधरसे एक जुलूस निकला। उसमें मशालें जल रही थीं। मैंने चिराग न जलाकर उन मशालकी रोशनीमें आधी पूनी कात ली। उस पूनीसे आटा लाकर रोटी बनायी। अतएव आधी रोटी तो हककी है और आधी बेहककी। इस आधीपर उस जुलूसवालेका हक है।’

यहाँतक हकका खयाल था। किसीके हककी चीज जरा भी हमारे घरमें न आ जाय। इसे लोग बड़ा पाप मानते थे। यदि किसीके हककी चीज हमारे घरमें आ गयी और हमने रख लिया तो हमने चोरी की, पाप किया!

आजकल इस हकका कोई ध्यान नहीं है। लोग चाहे जैसे सम्पत्ति संग्रह करते हैं और उसपर अपना सहज स्वत्व मान रहे हैं, दूसरेका हक मानते ही नहीं। ऐसा करनेवाले सर्वदा पाप ही कर रहे हैं। एक साधुने मुझसे कहा, आजकल हम किसकी रोटी खायँ। ‘सच्चा ईमानदार कौन है।’ ‘जैसा खाते हैं अन्न, वैसा बनता है मन।’ अन्नके अनुसार ही मनका निर्माण होता है। जैसी कमाई होती है, वैसा ही अन्न होता है। कमाईका अन्नपर बहुत प्रभाव पड़ता है। वैसे तो शुद्ध-सात्त्विक वस्तु सात्त्विक-शुद्ध स्थानमें बनायी गयी हो, शुद्ध पुरुषोंके द्वारा परसी गयी हो, वह शुद्ध है। शुद्ध स्थान और स्पर्श आदि सब इसमें कारण हैं। परंतु मूलत: एक चीज है, जिससे सारी शुद्धि होनेपर भी वस्तुमें बड़ी अपवित्रता रह जाती है। वह है धनकी अशुद्धि। चोरीके, असत् कमाईके धनसे प्राप्त अन्न सदा अपवित्र रहता है। इसी प्रकार पवित्रता भी सत् कमाईपर निर्भर है। अत: यह समझना चाहिये कि जिसके पास जो कुछ है, वह सब-का-सब परार्थ है। अर्थात् वह सबका मिला हुआ धन है। उसमें सबका भाग है। वह सबका है। मेरा नहीं है। जहाँ-जहाँ उसकी आवश्यकता हो, वहाँ-वहाँ सम्मान, श्रद्धा, सद्भाव, उदारता, सदाशयता एवं समादरके साथ उसका उपयोग करना कर्तव्य है। किसी आदमीको आप कुछ अधिक भी दे दें, एक रुपयाकी जगह पाँच रुपये भी दे दें, पर उसे झिड़ककर अपमानित करके दें, तो उससे उसका मन सुखी नहीं होगा, संतुष्ट नहीं होगा। विनम्र और मधुर वाणीकी बहुत आवश्यकता है। वही बोली है, जिससे आप हर किसीके हृदय-कमलको प्रफुल्लित कर सकते हैं। वाणीकी कठोरतासे आप हर किसीको पीड़ित भी कर सकते हैं। अपमानभरी, उपेक्षाभरी, घृणाभरी, कटूक्तियोंकी जितनी तीखी चोट दीन पुरुषके मनपर जाकर लगती है, उतनी सम्पन्नके नहीं लगती। किसी पहलवानको आप घूसा लगायें जो पूर्ण स्वस्थ है, सबल मांसपेशियाँ हैं जिसकी; पहले तो उसे आप घूसा लगानेका साहस ही नहीं करेंगे और कहीं आपने लगाया तो तत्काल ही आपको दुगुने वेगसे उत्तर भी मिल सकता है। पर आपके घूसेका उसे पता नहीं चलेगा। वह उसे सह लेगा; किन्तु यदि किसी दुर्बलको आपने घूसा लगा दिया तो वह बेचारा वहीं तलमला जायगा, ऐंठ जायगा, पीड़ित हो जायगा।

किसी बड़े आदमीको आपने कुछ कहा भी तो वह उधर ध्यान नहीं देगा, सुनेगा ही नहीं; क्योंकि उसकी तारीफ करनेवाले बहुत लोग हैं। तारीफके नगाड़ोंमें आपकी निन्दाकी क्षीण ध्वनि सुनायी ही नहीं देगी; किंतु वही बात आप किसी गरीबको कह देंगे तो उसके कलेजेमें चुभ जायगी। वह मर्माहत हो जायगा। इसीलिये ‘बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥’ कहा है। विपत्ति-कालमें सौगुना स्नेह करे, तब वह एक गुनाके बराबर होता है। दीनकी विपत्ति उसपर इतनी लद जाती है कि वह उससे दब जाता है। उसका हृदय रात-दिन रोता रहता है। उसके अन्तरमें आँसुओंकी धारा बहती रहती है और वह उसे प्रकट नहीं कर पाता, छिपाये रहता है। कभी-कभी वह चुपचाप कराह भी लेता है। रो भी लेता है और लोगोंकी झिड़कियोंके, अपमानके डरसे वह अपने दु:खको प्रकट नहीं करता। उसका स्वभाव बदल जाता है; क्योंकि उसकी सुननेवाला संसारमें कोई नहीं है। यह बात उसके मनमें बैठ जाती है। अतएव जो उसके आँसू पोंछ सके, उसके साथ सहानुभूति दिखा सके, समवेदना रख सके, वही सदाशय है। गरीबकी सुने, दीनकी सुने, अनाथकी सुने और उसके अन्तरकी पीड़ाको यथाशक्ति दूर करनेका प्रयत्न करे—वही मनुष्य है।

भगवान‍्ने अपनेको सब प्राणियोंका ‘सुहृद्’ कहा है—‘सुहृदं सर्वभूतानाम्।’ भगवान् केवल भक्तोंके, संतोंके ही सुहृद् होते, तब तो उनका कोई महत्त्व नहीं था, फिर तो लेन-देनकी चीज होती, स्वार्थकी चीज होती; पर वे तो सबके सुहृद् हैं। दीन-अनाथोंके भी हैं, इसीमें उनका महत्त्व है। भगवान‍्का यह स्वभाव सबकी सम्पत्ति है। दीनोंकी विशेष रूपसे। इसी प्रकार सभी सत्पुरुषोंका स्वभाव दीनोंकी सम्पत्ति होना चाहिये। जिस किसीके पास जो कुछ सम्पत्ति हो, उसे सहानुभूतिके साथ समवेदनाके भावसे, सौहार्दसे और सदाशयतासे बिना किसी भेदभावके समादरपूर्वक दु:खियोंके दु:ख दूर करनेमें लगा देना चाहिये। दीनकी सेवाके लिये दूकान खोलकर बैठनेकी आवश्यकता नहीं है। ‘मैं दु:खियोंका दु:ख दूर करनेवाला हूँ’ ऐसी घोषणा नहीं करनी है। ऐसी घोषणा या तो दु:खियोंको निर्लज्ज बना देती है या शूल बनकर उनके मनोंमें चुभ जाती है। दु:खियोंका दु:ख दूर करनेकी मनमें एक तीव्र आकांक्षा होनी चाहिये। अपने हृदयमें एक ऐसी शूल-सी चुभनी चाहिये कि जो दु:खियोंका दु:ख दूर किये बिना मिटे ही नहीं।

सच तो यह है कि दु:खियों, दीनों और गरीबोंपर भगवान‍्की बड़ी कृपा है। वे भगवान‍्को शीघ्र प्राप्त कर सकते हैं जो दु:खी हैं, दीन हैं, वे भगवान‍्की कृपाके विशेष पात्र हैं; क्योंकि उनके पास मोहमें फँसानेवाली सामग्रियाँ नहीं हैं। उनके मनको मोहित करनेवाली वस्तुएँ उनसे दूर हट गयी हैं; किंतु जगत‍्में जिनके पास कुछ वस्तु है, उनका यह धर्म है कि वे उस वस्तुपर उन दीन-दु:खियोंका हक मानें और सहानुभूतिके साथ उनके दु:खमें हिस्सा बँटानेका प्रयत्न करें। उनका दु:ख तो भगवान‍्के मंगलविधानसे ही है और उसी विधानसे वह दूर भी होगा। आप उनका दु:ख मिटा नहीं सकेंगे, पर उनका दु:ख मिटानेकी चेष्टासे आपका भला हो जायगा, क्योंकि आप उसके निमित्त बनेंगे। अत: निमित्त बनकर सुखी हो जाइये। कोई निराश हो तो उसके मनमें आप आशाका संचार करें, पथ भूलेको मार्ग बता दें, डूबतेको उबार लें, रोते हुएके आँसू पोंछ दें; यहाँतक कि दु:खीके दु:खको सुनभर लें, तो इससे भी उसे बड़ा आश्वासन मिलेगा। उसके मनमें सुखानुभूति होगी। वह समझेगा, मेरा भी कोई है। जिसके कोई नहीं है, आप उसके बन जायँगे, तो उसके मनमें एक बड़ी मीठी सुखकी लहर दौड़ जायगी। जिनके अनेक प्रशंसक हैं, उनपर आपकी प्रशंसाका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा; पर जिसको पूछनेवाला कोई नहीं, जिसका कोई सहारा नहीं, जो अनाश्रित और असहाय एक कोनेमें पड़ा है, आप उसके पास बैठ जायँगे, इतनेमें ही उसे शान्ति मिल जायगी। वह समझेगा कि किसीने उसे पूछा तो।

कोढ़का एक दु:साध्य रोगी था। वह बड़ा ही हठी और नास्तिक था, उसके तमाम अंगोंमें कोढ़ फूट रही थी। प्रसिद्ध संत फ्रांसिस उसके पास गये तो वह गाली देने लगा; क्योंकि उस ओरसे निकलनेवाले सभी उसे गालियाँ देते और नाक दबाकर घृणासे मुँह फेर लेते थे। इसलिये उसकी धारणा हो गयी थी कि सब-के-सब मुझसे घृणा करनेवाले ही हैं। परंतु संत फ्रांसिस उसकी गालीकी परवा किये बिना ही आगे बढ़ते गये और उसके पास पहुँचकर अत्यन्त विनम्र वाणीसे बोले—‘भैया! तुम मुझे भले ही गाली दो, मारो, पर मैं तुम्हारे पास अवश्य आऊँगा, तुम्हारे घाव धोऊँगा, उनपर पट्टियाँ बाँधूँगा और तुम्हारी हर तरहसे सेवा करूँगा।’ संत फ्रांसिसकी वाणीका कोढ़ीपर अत्यन्त शीतल प्रभाव पड़ा। उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। सान्त्वना मिली। संतने उसकी सेवा करके उसके जीवनको सुखी बना दिया।

महारानी एलिजाबेथ राजभवनको छोड़कर अपना तन-मन देकर, अपना सर्वस्व देकर, दीन-दु:खियों, गरीबोंकी झोंपड़ियोंमें घूमती रहीं—उनकी सेवा करने एवं उन्हें सुखी रखनेके लिये।

ईसाइयोंमें ऐसे कितने ही महात्मा हो गये हैं, जिनका समस्त जीवन दु:खियोंके दु:खोंको मिटानेमें ही बीता है। अपने दु:खोंकी उपेक्षा करो, पर दूसरोंके दु:खोंको कभी मत भूलो। भगवान‍्ने किसीके साथ द्वेष न करने और सबके साथ मित्रभावसे बर्तनेकी आज्ञा दी है। (‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: ........।’)

मित्र अपने पहाड़-से दु:खको रजकणके समान समझता है और मित्रके रजकण-से दु:खको पहाड़-सा मानता है। ‘निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥’ दु:खीके दु:खकी उपेक्षा तो कभी करो ही मत। उसके जरा-से दु:खको बड़ा भारी समझकर उसके दूर करनेमें लग जाओ। अपने लाभके लिये तो किसीको चोट पहुँचाना बड़ा पाप है।

एक सेठने अपना मकान बनवाया। मकानके बगलमें एक गरीब बुढ़ियाकी झोंपड़ी थी। मित्रोंने राय दी कि यदि यह बुढ़ियाकी झोंपड़ीकी भूमि मिल जाय तो अपना मकान और भी विस्तृत, सुन्दर और आकर्षक बन जायगा। सेठजीने इसे स्वीकार कर लिया। यह बात बुढ़ियाको मालूम हो गयी। तब सेठके पास आकर उसने कहा—‘मुझे तो आशा थी कि तुम बड़े आदमी मेरे पड़ोसी हुए हो तो मेरी कुछ सहायता करोगे, मेरे दु:खके आँसू पोंछोगे, तुम्हारे आनेसे मुझे कुछ सुख मिलेगा, पर तुम्हें तो यह नन्हीं-सी मेरे बच्चेके बाप-दादोंकी झोंपड़ी भी नहीं सुहायी। इसीसे तुम इस झोंपड़ीको भी उजाड़ फेंकना चाहते हो; ऐसा मत करो। यह मेरे पूर्वजोंकी निशानी है। इसे नष्ट करनेसे तुम सुखी नहीं रह सकोगे। भगवान् तुम्हारे इस अन्यायको नहीं देख सकेंगे।’ सेठ बुद्धिमान् था, वह समझ गया। उसने बुढ़ियाको आश्वासन देकर उसकी जमीन लेनेका विचार छोड़ दिया।

कोई बलवान् और समर्थ यदि किसी निर्बलपर टूट पड़े तो वह बेचारा क्या करेगा? पाँच वर्षके सुकोमल अशक्त बालकको दस आदमी घेरकर मारने लगें तो वह कैसे बचेगा? किसके सामने रोयेगा? दुर्बल, दीन, असहाय और असमर्थको बलवान् सतावें तो वह किसके पास जाय? वह तो बोल भी नहीं सकता। वह रोता है, उसका अन्तर रोता है, उसके हृदयमें आग जल उठती है और उस अन्तरकी आगकी जरा-सी चिनगारी, उसके पीड़ित हृदयकी एक आह बलवान‍्के सारे बलको चूर्णकर उसके सर्वस्वको भस्म कर डालती है। याद रखो; गरीबको मत सताओ, असहायको कभी पीड़ित मत करो। दुर्बलपर कभी बल-प्रयोग मत करो और अनाश्रितको किसी प्रकारका कभी भी कष्ट मत दो। उसे प्रलोभन देकर उसके हृदयपर आघात मत करो। बुढ़ियाको सेठ दो-चार बीघे अच्छी जमीन दे सकता था, पर उसका जो झोंपड़ीपर ममत्व था, उसके लिये वह क्या कर सकता? वह दो बीघे जमीन उसे सुख नहीं देती। वह समझती, मेरी कमजोरीका अनुचित लाभ उठाकर मुझे उजाड़ा जा रहा है। उसकी जगह आप होते तो बताइये, इस अवस्थामें आपके मनपर क्या बीतती?

अपनी शक्तिका उपयोग तो दुर्बलकी रक्षा करनेमें होना चाहिये। गरीब-दुर्बल नष्ट हो जाय, बर्बाद हो जाय, ऐसा कदापि नहीं करना चाहिये। जहाँ कोई समान शक्तिवाला है, वहाँ आप कुछ करते हैं, तो एक बात भी है। यद्यपि लड़ना तो वहाँ भी नहीं चाहिये, परंतु लड़ें भी तो आपको कुछ सोचना पड़ेगा। पर जहाँ दुर्बल है, असहाय है, वहाँ आप उसपर नाराज होकर मनमानी कर सकते हैं। वह बेचारा क्या बोलेगा? मान लीजिये, एक विधवा बहिन है, घरमें अकेली है, सास-ससुर उसे रात-दिन कोसते हैं, कहीं बीमार हो गयी तो कहते हैं ‘फरेब करती है। कामका बहाना करती है।’ उसको क्या तकलीफ है, कोई पूछता नहीं। दवा होती नहीं, वह बेचारी किससे कहे। उसकी कौन सुने। कोई हजार चोट मार ले, वह बोल तो सकती नहीं, पर उसका अन्तर रोता रहता है। दुर्बलको सतानेमें इस प्रकार अपनी शक्ति लगाना तो शक्तिका महान् दुरुपयोग ही है।

इस बातको खूब याद कर लो कि तुम्हारे पास जो कुछ है, वह दीनोंके लिये, अनाथोंके लिये और गरीबोंके लिये ही है। उन्हींके हककी चीज है। गीतामें भगवान् कहते हैं कि अपनी शक्ति, सम्पत्ति, जीवन—सबको देकर उसके बाद जो कुछ बचे, उससे अपना काम निकाले। यह जो बचा हुआ है, वही यज्ञावशेष है। इस प्रसादको व्यवहारमें लानेसे सारे पापोंका नाश होता है।

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।

पर जो अपने लिये ही सब कुछ करते हैं, कमाते-खाते हैं, वे पाप खाते हैं।

भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥

वह पापमय जीवन है, जो इन्द्रियाराम है। वह व्यर्थ ही जीता है। ‘अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥’ वह पाप खाता है। अत: पाप मत खाइये। सबको सबका हक देकर, सबका स्वत्व देकर, बचे हुएसे अपना निर्वाह कीजिये। वह अमृत है। वही यज्ञावशेष है। यह कभी मत मानो कि मेरे पास जो सम्पत्ति है, वह मेरी है। तुम उसके ट्रस्टी हो, व्यवस्थापक हो, मैनेजर हो, उसे भगवान‍्की समझो और उसे भगवान‍्की सेवामें यथायोग्य लगाकर धन्य हो जाओ। तभी तुम भगवान‍्के ईमानदार सेवक हो और यदि उसे तुमने अपनी माना और अपने उपयोगमें लिया, तो तुम चोर हो, पापी हो। उसका तुम्हें दण्ड मिलेगा। जहाँ-जहाँपर उन वस्तुओंका उपयोग होनेका प्रसंग हो, वहाँ-वहाँ बिना किसी अभिमानके, बिना किसी अहंकारके, सरलता और ईमानदारीके साथ उसको गरीबोंकी सेवामें लगाते रहो। गरीबकी, दीनकी जरा-सी भी उपेक्षा करना, उसे कटु वचन कहना उसके मर्मपर चोट पहुँचाना है। धनीकी उपेक्षा प्रथम तो तुम करोगे नहीं, यदि तुम एकने उसकी उपेक्षा की भी तो उसे सम्मान देनेवाले बहुत मिल जायँगे। उसे तुम्हारी परवा नहीं होगी। पर कोई गरीब, दीन तुम्हारे यहाँ गया, तुमने उसकी उपेक्षा कर दी, तो उसको बड़ा दु:ख होगा और यदि तुमने उसे धक्‍के देकर निकलवा दिया, तब तो तुमने साक्षात् भगवान‍्को ही धक्‍के देकर निकाला। जहाँ-जहाँ दैन्य है, वहाँ-वहाँ भगवान् प्रत्यक्ष प्रकट हैं। अतएव जहाँ-जहाँ दीन मिलें, वहाँ-वहाँ उनकी विशेषरूपसे सेवा करो। उनको कुछ देते हुए यही समझो कि उनकी वस्तु ही तुम उनको दे रहे हो। ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ तुम्हारा उसमें कुछ नहीं है। तुम तो रामकी चीज रामके काममें लगा रहे हो, ऐसा समझो। किसीका भी तिरस्कार हो जाय ऐसा तन, मन, वचनसे कभी मत होने दो—खासकर असमर्थका, असहायका, अनाथका, अनाश्रितका विश्वास करो—असमर्थ, अनाथ, अनाश्रितका सम्मान भगवान‍्का सम्मान है। दीनके साथ मधुर वाणीसे—आदरसे बोलना उसे गौरवसे भर देना है, उसे शीतलता और सुख प्रदान करना है। भगवान् श्यामसुन्दर विदुरके घर गये। भगवान‍्के लिये क्या था, पर विदुरके मनमें कितने गौरवका बोध हुआ। कितनी प्रसन्नताकी अनुभूति हुई—‘भगवान् भीष्मके यहाँ नहीं गये, कौरवाधिपति दुर्योधनके यहाँ नहीं गये। अन्य राजाओंके यहाँ नहीं गये, मेरे घर आये।’ सीमा नहीं थी विदुरके मोदकी।

आप बड़े आदमी हैं। कहीं बाहर जायँगे तो आपकी अभ्यर्थना करनेवाले अनेकों मिल जायँगे, किंतु वहाँ आप किसी गरीबके घर ठहरिये तो उसे बड़ा आह्लाद होगा। उसे तो आशा ही नहीं है कि इतने बड़े आदमी मेरे घर आयेंगे। आदरणीय स्वर्गीय श्रीशिवप्रसादजी गुप्त मृत्युके कुछ ही पूर्व गोरखपुर आये थे। मैंने उनसे पूछा कि ‘आप अस्वस्थ हैं, यहाँ क्यों आये?’ उन्होंने उत्तर दिया, इतना सुन्दर उत्तर दिया, जिसे मैं अबतक नहीं भूल पाया हूँ। उन्होंने कहा था कि ‘मैं मरनेवाला हूँ। मेरे कुछ गरीब सम्बन्धी रहते हैं यहाँ। जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनमें कुछ बूढ़ी स्त्रियाँ हैं। मुझे उन सबके दर्शन कर लेने चाहिये। इसलिये मैं यहाँ आया हूँ।’

श्रीकृष्ण और सुदामाकी मैत्रीमें वस्तुत: महत्त्वकी बात कौन-सी थी? श्रीकृष्ण सुदामाके ही तुल्य होते, तो कुछ भी महत्त्व नहीं था। पर वे तो राजराजेश्वर थे, (भगवान‍्की बात छोड़िये) उन्होंने गरीबके चरण धोये, उसका चरणामृत लिया, उसे महलोंमें छिड़का, उसका पादसंवाहन किया, दीनको गले लगाया। यही महत्ता थी। यह महत्ता उनके धनकी नहीं, यह थी उनके गरीबको गले लगानेकी, गरीबके प्रति आदरकी, प्रेमकी और स्नेहकी।

गरीबोंके जीवनसे मेल हो जाय, उनके साथ रहनेमें आनन्द आये—यह महत्त्वकी बात है। किसी गरीबके आपने आँसू पोंछ दिये, गिरतेको उठा लिया, डूबतेको बचा लिया, तो इसमें महत्त्व है। किसी ऐसे गृहस्थको जो आपसे माँग नहीं सकता, जो आपके पास आ नहीं सकता, जो सफेद कपड़े पहनता है, आपसे कुछ कह नहीं सकता; उसके पास एक ही सफेद कपड़ा है, जिसे पहनकर वह बाहर निकलता है, आपसे कुछ बताता नहीं। ऐसेको ढूँढ़िये और उसकी गुपचुप सहायता कीजिये। उसको मालूम हो जायगा तो उसकी प्रतिष्ठापर आघात पहुँचेगा। दूरसे, चुपकेसे उसकी दशाका निरीक्षण कीजिये और उसका अभाव दूर कीजिये।

मेरे एक परिचित सज्जन हैं जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। उनके यहाँ तीन वर्षसे प्रतिमास एक सौ रुपये आते हैं, पर कौन भेजता है, इसका स्वयं उन्हें भी पता नहीं। मैं तो ऐसे मनुष्यको बहुत ऊँचा मानता हूँ। आजके युगमें सहायताका विज्ञापन पहले किया जाता है, सहायता पीछे की जाती है। यह निन्दनीय और हानिकारक चीज है। चाहिये तो यह कि हम जैसे अपने दु:खको दूर करनेमें लगते हैं, वैसे ही दूसरेके दु:खको दूर करनेमें लग जायँ। कोई अपने दु:खको दूर करनेमें क्या गौरव मानते हैं? क्या वे अपने ऊपर उपकार मानते हैं? बाढ़ आनेवाली हो और हम अपनी झोंपड़ीकी चीजें बाहर सुरक्षित स्थानमें ले जायँ, इसमें गौरवकी क्या बात है। ऐसा किये बिना हम रह ही नहीं सकते। ठीक इसी प्रकार दीनोंकी सेवाके लिये मनमें तनिक भी गौरव-बुद्धि न हो, अहंताका तनिक भी स्पर्श न हो। उनका स्वत्व मानकर सेवा करें। यह ध्यान रहे कि हमारी सेवा किसीके सिरको कभी नीचा न कर दे। ‘मैं गरीब सहायताका पात्र हूँ और ये मेरे सहायक हैं’ हमारे किसी बर्तावसे ऐसा उसके मनमें न आने पाये। जब आदमी अपनेको अच्छी प्रतिष्ठावाला मानता है और अभावग्रस्त हो जाता है, तो वह भगवान‍्से मनाता है कि ‘हे भगवन्! मुझे दूसरेका मोहताज होना पड़े, ऐसा कभी न करना।’ किसी दूसरेके प्रति यह हमारे मनमें कभी न आ जाय कि वह हमारे सहारे जीता है। दूसरेके द्वारा भी संकेतसे भी कभी उसको न जनाया जाय कि उसके दु:खमें आपने हाथ बँटाया है। यह सुनकर वह कृतज्ञ तो होगा, यदि वह अच्छा आदमी है। परंतु उसके मनमें ऐसी एक शूल चुभ जायगी कि जिसके दूर करनेका आपके पास कोई साधन नहीं है। किसीकी सेवा करके उसकी प्रतिष्ठा और उसके सम्मानमें ठेस न लगाइये। उसको अपनेमें अश्रद्धा कभी न होने दीजिये। उसके मानस-स्तर (Morale)-को कभी न गिराइये। सम्मान सबको प्रिय है। किसी गरीबको कुछ देना हो तो उसे यह जँचा दीजिये, जिसमें वह यह समझे कि वह उसकी अपनी ही चीज ले रहा है। नहीं तो गुप्त रीतिसे सम्मानके साथ उसका हक समझकर उसकी सेवा करनी चाहिये और कहीं यह भाव आ जाय कि यह तो साक्षात् भगवान् है, तब तो उस सेवासे आपको भगवत्प्राप्ति हो जायगी। मुक्ति मिल जायगी।

हमारे यहाँ शास्त्र कहते हैं कि भोजन करने बैठे, उस समय जो कोई आ जाय, वह जैसा भी हो, जाति, कुल भी पूछनेकी आवश्यकता नहीं। उसको भगवान‍्का स्वरूप मानकर खिला दे। इसी प्रकार आपके पास जो आ जाय, अपनी शक्तिसे आप उसकी सेवामें लग जाइये।

बहुत-से लोग कह दिया करते हैं कि ‘इसी प्रकार देकर लोगोंको भिक्षुक बनाना है। पर यह एक बहानेबाजी है। देनेकी भावना है नहीं। पहले तो ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो बिना आवश्यकताके माँगने आयें, परंतु यदि ऐसा हो भी गया तो आपका कुछ बिगड़ेगा नहीं, कोई हानि नहीं होगी। आपका तो लाभ ही होगा।’

यदि प्राप्त साधनोंको उनकी सेवामें लगाना कर्तव्य नहीं मानोगे तो तुम्हें उसे छोड़नेके लिये तो बाध्य होना ही पड़ेगा। छोड़कर जाना ही पड़ेगा। मृत्यु होनेपर अपने शरीरसे निकलकर तुम देखोगे कि तुम्हारी तिजोरीकी चाभी, जिसे तुम किसीको देते नहीं थे, दूसरे ले रहे हैं, तुम्हारी तिजोरी खोल रहे हैं, पर तुम कुछ भी नहीं कर पा रहे हो। तुम्हारी सम्पत्ति दूसरेके हाथमें चली जायगी, पर तुम कुछ नहीं कर सकोगे। निरुपाय हो जाओगे। इसलिये सारी चीजें भगवान‍्की मानकर उनपरसे अपना स्वत्व उठा लो। अपनी सारी चीजोंपर उसका हक मान लो। ‘विश्व’ भगवान‍्का नाम है। विष्णुसहस्रनाममें सबसे पहले ‘विश्व’ नाम आया है। अतएव विश्वमें जहाँ-जहाँपर अभाव हो, जहाँ-जहाँपर जिस-जिस वस्तुकी आवश्यकता हो, वहाँ-वहाँपर उस चीजको दो। जिसके पास बोलनेवाला नहीं है, उससे उसके अपने बनकर बोलो; जिसको कोई सहारा देनेवाला नहीं है, उसे सहारा दो; जिसके पास पैसे नहीं हैं, उसे पैसे दो; जिसके पास खानेके लिये अन्न नहीं है, उसे अन्न दो, जो भयभीत है उसे अभय दो एवं जिसके कोई बन्धु नहीं, उसके बन्धु बन जाओ। भगवान् ही इन सब रूपोंमें प्रकट होकर तुमसे अपनी वस्तु माँग रहे हैं। यों उनकी सेवामें लगाकर अपनी सारी चीजोंका सदुपयोग करो। उन्हें भगवान‍्की सेवाके भावसे दीन-गरीब, अनाथ-अनाश्रित, असहाय, निरुपाय और निर्बलकी सेवामें लगा दो। किसीको कभी भी सताओ मत। कई बार आदमी भूलसे भी दूसरोंको सता बैठता है। इससे सावधान रहो।

किसीको चोरी करते देखकर यदि तुम सहृदयतासे उससे मिलोगे, उससे पूछोगे तो पता चलेगा कि उस बेचारेके पेटमें कितने दिनोंसे अन्न नहीं गया है। उसकी कितनी दयनीय स्थिति हो रही है। एक सज्जनके घर एक आदमी रातको चोरी करने गया, वह और कुछ नहीं केवल अनाजकी चोरी कर रहा था और उसकी आँखोंसे आँसू झर रहे थे। घरके मालिक जग गये। उसके पास गये और उससे पूछा कि ‘भैया! तुम रो क्यों रहे हो?’ उनके इस आत्मीयतापूर्ण प्रश्नको सुनकर वह और भी जोर-जोरसे रोने लगा। उसने बताया कि ‘मैं और मेरा परिवार आज कई दिनोंसे भूखे हैं। नौकरीके लिये, मजदूरीके लिये मैंने कितने यत्न किये, पर कहीं सफलता नहीं मिली। भूखसे मेरे तथा मेरे बच्चोंके प्राण छटपटा रहे हैं। विवश होकर मैंने चोरी करनेका निश्चय किया और कई बार आपके यहाँ आया भी, पर साहस नहीं हुआ। जब नहीं रहा गया तो आज साहस बटोरकर अन्न चुराने आ गया। मैं चोर हूँ, मुझे जेल भेज दीजिये।’ उक्त सज्जनने अत्यन्त स्नेहसे कहा—‘भैया! यह तुम्हारा ही घर है, तुम अपने बाल-बच्चोंको लेकर यहाँ आ जाओ और यहीं रहो।’ उनकी इस आत्मीयताका उस क्षुधापीड़ित व्यक्तिके मनपर कैसा प्रभाव पड़ा होगा, उसे कितना सुख और कितना आश्वासन मिला होगा। वह सुख बहुत रुपये देकर भी किसीको नहीं दिया जा सकता। इस प्रकार गरीबके दु:खको उसके अंदर घुसकर, स्वयं उसकी अवस्थामें जाकर देखिये। हमें सोचना चाहिये कि उस अवस्थामें हम होते तो हम क्या करते? ऐसी विपत्ति हमपर आयी होती तो हम क्या करते? समाजमें एक ओर लोग भूखों मर रहे हैं, वस्त्र, ओषधि और शिक्षाके लिये छटपटा रहे हैं, तड़प-तड़पकर प्राण दे रहे हैं तथा दूसरी ओर धनका अपव्यय हो रहा है, गुलछर्रे उड़ रहे हैं। इसीलिये ‘कम्यूनिज्म’ आता है और यही दशा रही तो आना खूब सम्भव है। यद्यपि राग-द्वेषपूर्ण कम्यूनिज्मसे दु:ख बढ़ेगा ही। असम वितरण असंतोष उत्पन्न करता है। एक आदमीके पास वस्त्रोंकी पेटियाँ भरी पड़ी हैं। उसके पास अन्नका बृहद् भण्डार है, पर उसीके घरसे सटे हुए ठीक उसी प्रकारके रूप-रंगवाले, वैसे ही हाथ-पैरवाले, वैसा ही शरीर और मन-बुद्धि रखनेवाले मनुष्य और उनके बच्चे खाये बिना बिलख रहे हैं, छटपटा रहे हैं, कराह रहे हैं। पहननेके लिये उनके पास वस्त्र नहीं है। यह समाजका पाप है। ऐसी अवस्थामें जिसके पास जो कुछ है, उसका पहला कर्तव्य है कि उससे वह उन मनुष्यों और बच्चोंका कष्ट मिटाये। इसके बाद जो बच जाय उससे अपना काम चलाये। समाजमें जिनके पास जो कुछ है—धन, सम्पत्ति, भूमि, आश्रय, विद्या, बुद्धि सब अभाववालोंको दे दें। यदि यह नहीं हुआ और वैषम्य बढ़ता ही रहा तो उसका परिणाम अनिष्टकारक होगा ही!

विपत्तिग्रस्त पीड़ित मनुष्यसे यह कहना कि ‘तुमने पाप किया है, उसका यह फल है।’ जिसका इकलौता जवान पुत्र मर गया हो, उससे कहना कि ‘तुम महापापी हो और पापके कारण ही तुम्हारा पुत्र मर गया आदि’—बड़ा ही क्रूर कार्य है। इस प्रकारकी बातोंसे उसके हृदयमें शूल चुभ जायगा। यह सच है कि वह अपने कर्मोंका फल पा रहा है। परंतु तुम्हारा काम तो अपनी प्राप्त शक्ति और साधनसे उसके घावको भरना, उसके आँसू पोंछना और उसके मनको सान्त्वना देना है। उससे प्रेमसे मिलो, उसे समझाओ और जिस प्रकार उसे धैर्य और संतोष हो, ऐसा प्रयत्न करो। उसके दु:खको एकाध आने भी तुमने कम किया तो बहुत अच्छा किया, पर यदि तुमने उसकी उपेक्षा कर दी, नीति और धर्मका नाम लेकर उसे टाल दिया तो उसके मुँहसे स्वाभाविक ही शाप निकलेगा। महात्मा हो तो दूसरी बात है, पर साधारण व्यक्ति तो यही कहेगा कि ‘इनके पास पैसे हैं, साधन है, सुविधा है, मेरे पास भी यदि ये चीजें होतीं तो ये ऐसा नहीं कहते।’ अतएव किसीके हृदयपर किसी प्रकारकी ठेस मत पहुँचाओ, नहीं तो उसके मुखसे दुर्वचन निकलेंगे, शाप निकलेगा। पर यदि तुम उसके आँसू पोंछोगे, उसके साथ बैठोगे और उसके साथ मिलकर आधी रोटी खाओगे, जब उसके दु:खमें शामिल होकर उसमें हाथ बँटाओगे तो उसके मुखसे बरबस आशीर्वाद निकलेगा, जो तुम्हें निहाल कर देगा। अतएव जहाँतक सम्भव हो, प्राण-पणसे परदु:खका निवारण करना चाहिये। यह मानवताका प्रथम कर्तव्य है। परदु:ख-निवारण महान् पुण्य है और परपीडन महापाप है। इसलिये गरीबको कभी सताओ मत। इसका विशेष खयाल रखो। स्वस्थ आदमीको हाथ लगानेसे कुछ नहीं होता, पर किसी फोड़ेवालेको हाथ लगाओगे तो वह सह नहीं सकेगा। इसी प्रकार असमर्थ मनुष्यके जिसके रोम-रोममें पीड़ा है, मनपर आघात करके उसकी पीड़ाको बढ़ाओ मत, उसके दर्दको मिटानेकी कोशिश करो। उसे अपना बनानेका यत्न करो। दर्द न मिटा सको तो कोई बात नहीं, पर उसकी बात सुनकर उसके मनको तनिक हलका तो करो। उसे दिलासा देकर उसके दु:खको बँटा लो। तन, मन, इन्द्रिय, धन, सम्पत्ति, मकान, जमीन—सब वस्तुओंसे—सब प्रकारसे दीनकी, गरीबकी, असमर्थकी सहायता करो। सहायता न कर सको तो कम-से-कम उसे पीड़ित तो न करो। जहाँ घरमें विधवा बहिन है, वहाँ विशेष खयाल रखो। वह तो दु:खसे भरी हुई है ही। उसको कुछ भी कहकर तुम उसके दु:खकी आगमें आहुति डाल दोगे तो उसे बड़ी पीड़ा होगी। जिसके पास धन, सम्पत्ति, जमीन, मकान नहीं है उसे इनके अभावकी याद दिलाकर तुम कुछ भी कहोगे तो उसके हृदयमें तीक्ष्ण शूल-सा चुभ जायगा। वह समझेगा, ‘मेरे पास कुछ नहीं है, मैं दीन हूँ, मुझे कोई कुछ भी कह ले, मेरा अपमान कर दे, मैं कुछ बोल नहीं सकता।’ वह बार-बार भगवान‍्के सामने रोकर कहेगा—‘हे भगवन्! हे प्रभो! तुम मुझपर दया करो।’ ऐसे अभावग्रस्त मनुष्यके तुम सहायक और आश्रय बन जाओ। उसकी आत्मा बनकर उसके दु:खको भोगो। रन्तिदेवने कहा था—

न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परा-
मष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजा-
मन्त:स्थितो येन भवन्त्यदु:खा:॥
(श्रीमद्भा० ९।२१।१२)

‘मैं भगवान‍्से आठों सिद्धियोंसे युक्त परम गति नहीं चाहता। मोक्ष भी नहीं चाहता। मैं केवल यही चाहता हूँ कि सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित होकर उनका सारा दु:ख मैं ही भोगूँ जिससे और किसी भी प्राणीको दु:ख न हो।’

महाराज शिविने भी कहा था—

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥

जितने आर्त हैं, दु:खी हैं, वे सब सुखी हो जायँ, मेरा स्वर्ग जाय, मुक्ति जाय इसकी परवा नहीं। पर वास्तवमें ऐसे पुरुषोंका स्वर्ग या मोक्ष जायगा नहीं। वे तो महात्माके महात्मा हैं, जो दूसरोंके दु:खको अपना दु:ख मानकर उनका दु:ख मिटाना चाहते हैं।

दु:खियोंको उनके दु:खकी कभी याद मत दिलाओ, कानेको कभी काना मत कहो, विधवाको कभी राँड मत कहो, रोगीको निराश न करो, उसे धीरज बँधाओ। किसी रोगीको, ‘तुम अच्छे हो, जल्दी अच्छे हो जाओगे’ ऐसा कहो। कहीं नब्ज देखकर यह कह दिया कि ‘भाई! कुछ वहम है, डॉक्टरको दिखलाओ, एक्सरे कराओ।’ इतनेसे ही उसको बड़ा वहम हो जायगा। किसीकी कमीको याद दिलाना उसके चित्तको दुखाना है। जिसमें जो कमी है वह उसे भूल जाय; ऐसी चेष्टा करो। उसे इससे सान्त्वना मिलेगी। किसी अभावग्रस्तके साथ कभी मखौल मत करो। करोगे तो उसके मनमें बड़ा दु:ख होगा। उसके अभावके कारण यदि तुम उसे कोसोगे, तो बहुत बुरा करोगे। कौन जानता है कि उससे भी अधिक अभावमें तुम्हें न जाना पड़े। लँगड़ेका मखौल मत उड़ाओ। क्या पता कि कल तुम्हारे दोनों पैर टूट जायँ। कानेको देखकर मत हँसो, कौन जानता है कि कल तुम अंधे नहीं हो जाओगे। किसी विधवा बहिनको राँड कहनेवाली सुहागिन नारीके लिये कौन जानता है कि कल उसका सुहाग न लुट जायगा। दरिद्र कहनेवालेको कौन जानता है कि कल वह दरिद्र नहीं हो जायगा। जिंदगीका कोई ठिकाना नहीं, संसारकी वस्तु तो सभी अनित्य हैं। अत: किसीमें यदि कोई कमी है, तो वह कमी कल हममें भी आ सकती है। कमीकी याद न दिलाओ। अभावग्रस्तसे दिल्लगी मत करो। उसे बड़ा दु:ख होगा। मुझे तो ‘गरीब’ शब्द ही अच्छा नहीं लगता। जब आदमी कहता है कि बेचारा गरीब है, तब उसके मनमें आता है कि मैं उससे बड़ा हूँ। इससे उसे अपनेमें बड़प्पन लक्षित होता है। गरीबके तो भगवान् गरीब-निवाज हैं, दीनबन्धु हैं। हम गरीबकी सेवा करें, उनका आशीर्वाद लें, उनकी पूजा करके उनके द्वारा अपनाये जायँ तो हमारा सौभाग्य हो। यदि गरीबोंने हमें अपना मान लिया, तो सच मानिये, हमें गरीब-निवाज भगवान् अपना लेंगे, वे प्रसन्न हो जायँगे। किसी माँने यह जान लिया कि ‘इस आदमीने मेरे डूबते बच्चेको बचा लिया, भूखे बच्चेको खिला दिया’ तो उस माताको बड़ी प्रसन्नता होगी और वह आपको हृदयसे आशीष देगी। इसी प्रकार भगवान् सब गरीबोंकी माँ हैं। ये सब गरीब भगवान‍्के बच्चे हैं। इनकी सेवा करके हम भगवान‍्को राजी कर लेते हैं। ये राजी हो जायँगे तो इनकी माँ ‘भगवान्’ अपने-आप ही हमपर राजी हो जायँगे। बच्चेकी माँके पास कोई चीज होती है, तो वह बच्चेके स्नेहसे आकृष्ट होकर अपने बच्चेका कल्याण करनेवालेको दे देती है। इसी प्रकार भगवान् भी अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु हमको दे देंगे। अतएव दीनोंकी, गरीबोंकी, रोगियोंकी, विधवाओंकी, अनाथोंकी, असहायोंकी, दु:खियोंकी आपसे जितनी हो सके, जहाँतक हो सके, जैसे हो सके, उतनी ही वहाँ ही, वैसे ही तन-मन-धन, विद्या-बुद्धि, शक्ति-सामर्थ्य सभी वस्तुओंसे अभिमान छोड़कर उनका स्वत्व मानते हुए उनकी सेवा-सहायता कर अपनेको धन्य बनाइये! आप इस प्रकार दीनोंकी सेवा करेंगे तो भगवान् आपका कल्याण करेंगे। निश्चय कल्याण करेंगे।

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