गीता गंगा
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सर्वरूप भगवान्

जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
मायातीत, महेश्वर मन-वच-बुद्धि परे॥ टेक॥
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी।
अतुल, अनन्त, अनामय, अमित, शक्ति-राशी॥ १॥ जय०
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।
सत-चित-सुखमय, सुन्दर शिव सत्ताधारी॥ २॥ जय०
विधि-हरि-शंकर-गणपति-सूर्य-शक्तिरूपा ।
विश्व चराचर तुम ही, तुम ही जगभूपा॥ ३॥ जय०
माता-पिता-पितामह-स्वामि-सुहृद भर्ता।
विश्वोत्पादक पालक रक्षक संहर्ता॥ ४॥ जय०
साक्षी, शरण, सखा, प्रिय, प्रियतम, पूर्ण प्रभो।
केवल-काल कलानिधि, कालातीत, विभो॥ ५॥ जय०
राम-कृष्ण, करुणामय, प्रेमामृत-सागर।
मन-मोहन मुरलीधर, नित-नव नटनागर॥ ६॥ जय०
सब बिधि हीन, मलिन-मति, हम अति पातकि-जन।
प्रभुपद-विमुख अभागी, कलि-कलुषित तन-मन॥ ७॥ जय०
आश्रय-दान दयार्णव! हम सबको दीजै।
पाप-ताप हर हरि! सब, निज-जन कर लीजै॥ ८॥ जय०

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