Hindu text bookगीता गंगा
होम > एक महापुरुषके अनुभवकी बातें > भगवान् सदा हमारे साथ हैं, यह दृढ़ विश्वास रखो

भगवान् सदा हमारे साथ हैं, यह दृढ़ विश्वास रखो

प्रवचन दिनांक—५-६-१९४२, गोरखपुर

ज्वालाप्रसादजीका प्रश्न—क्या किया जाय कि सांसारिक काम और भगवत्-स्मरण दोनों काम होते रहें।

उत्तर—यह बात हो सकती है। होनेसे बड़ा लाभ है। तुलसीदासजी आदि कहते हैं। असम्भव होती तो वे लोग कहते ही क्यों? यह बात अभ्याससे हो सकती है। मैं बालक था, तब गाँवमें दो नट आये, बाँस गाड़े, उसपर मोटा रस्सा बाँधा। नटनीने सिरपर दो घड़े रखे, गलेमें ढोल लटकाया और उसे बजाती है, मुँहसे गाती है, पैरमें सींग बँधा हुआ है, रस्सेपर चलती है, सींगको रस्सेपर रखती है, सिरपर मटकी है। प्रधान लक्ष्य उसका अपने पैरोंकी ओर है। बात क्या है?—अभ्यास; वह भी पैसोंके लिये। वही अभ्यास ईश्वरके लिये हो और तत्परतासे अभ्यास करे तो हो ही सकता है। उसकी मुख्य वृत्ति चरणोंमें है, उसी प्रकार हमें मुख्य वृत्ति भगवान् में रखनी चाहिये। गौणी-वृत्तिसे संसारका काम करना चाहिये।

हम अपने हृदयमें ऐसा समझें कि भगवान् गुप्त रूपसे हमारे साथ हैं। मनसे हम भगवान् का स्वरूप देखते रहें। बुद्धिका निश्चय रहे कि भगवान् हमारे साथ हैं। मनसे मनन करें कि भगवान् हमारे साथ हैं। कुछ भी खाते हैं तो वे साथमें खाते हैं; चलते हैं तो साथमें चलते हैं—यह हमारा भाव दृढ़ हो जाय तो भगवान् की स्मृति हर समय बनी रहे और शरीरसे काम होता रहे। हमारा मन कुछ-न-कुछ चिन्तन करता ही रहता है, उसके जिम्मे कर दिया कि तुम भगवान् का मनन करो।

हम संसारका काम करते हैं—शरीरसे काम करते हैं, मनसे दूसरा ही मनन करते हैं। हमें दूसरा परिवर्तन कुछ नहीं करना है। बस! इतना ही करना है कि मनसे जो दूसरा मनन होता है, उसकी जगह भगवान् का मनन करने लगें। शरीरसे क्रिया होती ही है। भगवान् को साथमें समझें। संसारके काममें भूल भले ही हो जाय, पर भगवान् की स्मृतिमें भूल न हो। जो भगवान् की शरण हो जाता है, भगवान् उसे सब प्रकारसे सँभाल लेते हैं। इसलिये यदि संसारके काममें भूल भी हुई तो भगवान् उसे सँभाल लेंगे।

इस प्रकारके कई उदाहरण मिलते हैं। एक भगवद्भक्त सिपाही खजानेपर पहरा देनेका काम करता था। एक दिन उसे ज्वर आ गया, वह पहरा देने नहीं जा सका। विचार करता रहा कि क्या करूँ, नौकरीसे निकाल दिया जाऊँगा? दूसरे दिन वह प्रार्थनापत्र लेकर गया और कहा कि कल ज्वर आ गया था, इसलिये मैं नहीं आ सका। अधिकारीने कहा—तुम तो कल रातको पहरेपर थे, तुमसे मेरी बात हुई थी। ठीक तुम ही डॺूटीपर थे। सिपाहीने कहा—हुजूर! यह तो कोई दूसरा ही डॺूटी दे गया। सम्भव है—भगवान् ही पहरा दे गये। आपके अहोभाग्य हैं! मैं तो अब त्यागपत्र देता हूँ। जो पहरा दे गया है, वही योगक्षेमकी परवाह करेगा। अन्तमें वे बड़े महात्मा हो गये। भगवान् ने कहा भी है—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)

जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।

भगवान् कहते हैं—जैसे पशु भार वहन करता है, वैसे ही मैं अपने अनन्य भक्तका सब भार वहन करता हूँ। अप्राप्तकी प्राप्तिका नाम योग और प्राप्तकी रक्षाका नाम क्षेम है। लौकिक-पारलौकिक सब वे ही वहन करते हैं। क्या यह भगवान् का वचन मिथ्या है? यदि सच्चा है तो हमें चिन्ता क्यों करनी चाहिये? प्रथम तो अभ्याससे काम होता ही रहेगा, कभी कमी आ गयी तो उससे कोई हानि नहीं है। तीसरी बात है—हमें भगवान् पर विश्वास करना चाहिये कि भगवान् निभायेंगे। हमें मुख्य रूपसे भगवान् का चिन्तन करना चाहिये।

दूसरी बात यह है कि जो वस्तु हमारे सामने पड़े, सबमें भगवान् का दर्शन करें। यह सिद्धान्त समझ लें कि भगवान् सर्वत्र व्यापक हैं। हमारा व्यवहार भी होता रहे और जिससे व्यवहार कर रहे हैं, उसे भगवान् भी मानते रहें।

प्रश्न—‘दोनों बातें कैसे होंगी? हमारा लड़का है, वह हमें प्रणाम करे तो हम उसे जब भगवान् के रूपमें देखेंगे तो हम उससे प्रणाम किस प्रकार करवायेंगे? कुत्ते, गधेमें जब भगवान् देखकर प्रणाम करेंगे तो लोग हमें पागल कहेंगे?’

उत्तर—लोग पागल कहें तो कहने दो। आप कहें कि हमें तो दोनों बातें रखनी हैं। व्यवहार भी ठीक रहना चाहिये? इसके लिये नाटकका उदाहरण बहुत ठीक है।

जैसे नाटकमें पुत्र राजा बनता है, पिता सिपाही बनता है तो नाटकमें दिखानेके लिये वह पुत्र, अपने पिताको आदेश देता है, डाँटता है, फटकारता है, परन्तु मनमें अपने पिताके प्रति जो आदरभाव है, उसमें कोई व्यवधान नहीं आता है। नाटकमें तो व्यवहार हम स्वाँगके अनुसार ही करते हैं, लेकिन भीतरमें हम समझते हैं कि यह हमारा लड़का है या हमारा पिता है। इसी प्रकार व्यवहार तो नाटककी तरह करें, परन्तु भीतरकी वृत्ति यह रहे कि सबमें परमात्मा हैं—हर समय यह भाव दृढ़ रखे। कुत्तेके साथ वैसा व्यवहार करना चाहिये जैसा उसके साथ करना उचित है, गौके साथ गौ जैसा और मनुष्यके साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करें। भीतरमें वही भाव रखें—

वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥ (गीता ७। १९)

सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मेरेको भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।

मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय। (गीता ७। ७)

हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है।

एक भगवान् का भक्त था। वह नित्य प्रति भगवान् की पूजा किया करता था। बगीचेसे पुष्प लाता, बड़े प्रेमसे पूजा करता। एक दिन भगवान् की पूर्ण दया हो गयी, उसे सर्वत्र भगवान् दीखने लगे। प्रात:काल उठा, पूजाके लिये पुष्प लाने गया, तुलसीका पत्ता तोड़ने लगा तो उसे उसमें भगवान् दीखे, पत्ते-पत्तेमें भगवान् दीखे। वृक्ष भी भगवान् हैं, तुलसीदल भी भगवान् हैं, भगवान् को कैसे तोड़ें? पुष्प लेने आगे बढ़ा तो गुलाबके वृक्षमें भगवान्, पुष्पमें भगवान्, जहाँ जाये, वहाँ भगवान्। उसने सोचा—यह तो भगवान्-पर चढ़ा हुआ ही है। इसको यहाँसे तोड़कर भगवान् पर क्यों चढ़ाऊँ? चढ़ी हुई सामग्रीको यहाँसे ले जाकर क्या चढ़ाऊँ? जल देखा तो जलमें भी भगवान्, बाल्टी भगवान्, आखिर गुरुजीसे पूछा—क्या करूँ? मेरी पूजा तो बंद हो गयी?

गुरुजीने कहा—तुम्हारी पूजा सफल हो गयी।

जिस प्रकार गोपियाँ सर्वत्र भगवान् को देखती थीं, इसी प्रकार हमें सर्वत्र भगवान् का दर्शन करना चाहिये। गोपियोंके लिये सारा दृश्य दर्पण था। दर्पणमें जैसे हमें हमारा मुख दिखता है, इसी प्रकार उन्हें सर्वत्र भगवान् का मुख दिखता था। जैसे काँचका महल हो तो उसमें हमें सर्वत्र हमारा मुख ही दिखेगा, इसी प्रकार सबमें भगवान् का रूप देखना चाहिये। गोपियाँ इसी तरह सबमें भगवान् को देखती थीं। यह भेद उपासनाकी बात है।

अभेद उपासनावाले महात्मा सर्वत्र आकाशकी तरह भगवान् को देखते हैं। वास्तवमें एक सच्चिदानन्द परमात्माके सिवाय कुछ है ही नहीं। वह बुद्धिसे यह निश्चय रखते हैं कि केवल एक परमात्मा हैं। दिखनेवाले पदार्थ मृगतृष्णाके जलकी तरह हैं।

साधारणतया सब आदमी भक्तिमार्गके अधिकारी ही होते हैं।

जो पुरुष अपने शरीरको पुजवाता है या यह चाहता है कि मरनेके बाद मेरे चित्र आदिकी पूजा की जाय, वह महामूर्ख है। वह बड़े अन्धकारमें है।

मूल प्रश्न था—भगवान् की स्मृति बराबर कैसे रहे? पुजारी मन्दिरमें भगवान् की पूजा करता है, एक हाथसे आरती करता है, एक हाथसे घन्टी बजाता है, दोनों काम करता है, आप नहीं कर सकेंगे। क्या बात है? अभ्यासकी बात है। इसी प्रकार अभ्यास कर लेनेपर दोनों काम (सांसारिक कार्य एवं निरन्तर भगवत् स्मृति) होना भी साधारण बात है।

हम आपलोगोंको व्याख्यान दे रहे हैं। परमात्मा जो सब जगह परिपूर्ण हैं, उसकी ओर भी लक्ष्य रखनेका प्रयास कर रहे हैं, फिर भी मेरे व्याख्यान देनेमें कोई रुकावट नहीं आती। हम यह तो नहीं कहते कि हमारे निरन्तर भगवान् की स्मृति रहती है, पर हो तो सकती ही है। यदि आप कहें कि हमारे तो नहीं होती तो यही कहा जायगा कि आप प्रयास नहीं करते। प्रयास करेंगे तो क्यों नहीं होगी? अवश्य होगी।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

अगला लेख  > मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका त्याग