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काम, क्रोध, लोभ आदिके नाशके लिये उपाय—भजन, सत्संग

प्रवचन दिनांक—४-६-१९४२, प्रात:काल, साहबगंज, गोरखपुर

प्रश्न—काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर—ये बहुत दु:ख देते हैं?

उत्तर—ये छ: दोष हैं। इन सबके विनाशके लिये दो चीजें प्रधान हैं—भजन और सत्संग। भगवान् से पुकार लगाये। ईश्वरकी भक्ति कह दो, चाहे ईश्वरका भजन कह दो—एक ही बात है। भगवान् से प्रार्थना करे—हे नाथ! हे नाथ!!

हमारे जब-जब आपत्ति आती, तब-तब हे नाथ! हे नाथ! की पुकार लगाते तो ये सब भाग जाते। प्रत्यक्ष देखी हुई बात है। जैसे पुलिसका नाम सुननेसे डाकू भागते हैं, इसी प्रकार भगवान् का नाम लेते ही ये दोष भागते हैं। इसलिये सबसे अच्छा उपाय है—भगवान् की पुकार लगाना। जिस प्रकार द्रौपदी, गजेन्द्रने पुकार लगायी थी, उस प्रकारसे आतुर होकर पुकार लगानेसे भगवान् स्वयं आ जाते हैं। सारे संकटोंका विनाश हो जाता है। यह उपाय ऐसा जबरदस्त है। इस अस्त्रको पासमें रखो। जब काम पड़े, पुकार लगाओ—हे नाथ! हे नाथ!! यह गायत्री-मंत्रकी तरह है। सगुण-साकारकी उपासनाका हमारे यह मंत्र है। शास्त्रोंमें इस प्रकारका मंत्र नहीं मिलेगा। नारायणास्त्रकी तरहका यह अस्त्र है। नारायणास्त्र तो दुबारा नहीं चलाया जा सकता, पर अपना यह नारायणास्त्र बार-बार चलाओ। नारायणका नाम ही नारायणास्त्र है। आर्त होकर भगवान् को पुकारो। इतना काम तुरन्त ही हो जाता है कि पुकार लगानेसे काम, क्रोध आदि भाग जाते हैं। इस अस्त्रसे ये षट्-रिपु ही क्या, हजारों रिपु मारे जा सकते हैं।

प्रश्न—क्या विश्वास होनेसे काम होगा?

उत्तर—विश्वास हो चाहे न हो, यह तो उनके नामकी महिमा है। जितना हमारे विश्वास है, उतने ही से इतना काम तो हो सकता है—नामकी ऐसी महिमा है। जिसके बिल्कुल विश्वास नहीं होगा, वह नाम लेगा ही नहीं। विश्वास नहीं हो, तब भी नाम लेते रहो। एक आदमीके पित्तकी बीमारी है, वैद्य बताता है—मिश्री चूसते रहो, पित्त स्वत: ही शान्त हो जायगा। इसी प्रकार यह रोग हैं। नाम जपते रहो, रोग अवश्य दूर होगा। थोड़ी श्रद्धा हो, तब भी काम हो जायगा। अधिक श्रद्धा हो, तब काम हुआ ही पड़ा है। नामकी महिमा रामायणमें बतायी गयी है—

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
(रा०च०मा०, १। २८। १)

प्रश्न—भजनके प्रभावसे पहलेके अशुभ कर्म कटते हैं या नहीं? या बिना भोगे नहीं कटते?

उत्तर—हमलोगोंने जितने पाप किये हैं, उनके भण्डार-के-भण्डार भरे हुए हैं, जैसे किसानके अन्नका कोठा भरा रहता है, इसी प्रकार कोठे-के-कोठे भरे हैं। किसानने थोड़ा बीज खेतमें बो दिया, तब उसका दो विभाग हो गया, इसी प्रकार हमारे कर्मोंके दो विभाग हैं—एक संचित और एक प्रारब्ध। जो फल देनेके लिये सम्मुख हो गया है वह प्रारब्ध है, वह अधिकांशमें तो भोगनेसे ही नष्ट होता है, परन्तु शास्त्रोंमें जो प्रायश्चित्त बताये गये हैं, उनसे भी पापोंका नाश हो जाता है। भगवान् से हम प्रार्थना करें—प्रभो! हम कष्ट पा रहे हैं। इसका निवारण करें। भगवान् समझते हैं कि इसे निवारण करनेमें इसका हित है तो निवारण कर देते हैं। यदि निवारण करनेमें वे हित नहीं देखते तो नहीं भी करते। पापोंका फल भुगताना ठीक समझते हैं तो भुगताते हैं। वे जो कुछ करते हैं, उसमें हमारा परम हित रहता है। बच्चेके फोड़ा है, माँ-बाप देखते हैं कि चीरा दिलानेसे ठीक होगा तो वे लड़केके रोनेकी परवाह न करके चिरवा देते हैं, इसी प्रकार भगवान् भी हमारे रोनेकी परवाह न करके पापोंका फल भुगता देते हैं।

प्रश्न—दशरथजीको कितनी मुसीबतें उठानी पड़ीं! अर्जुनको भी कितना दु:ख हुआ! इसलिये हमारा विश्वास है कि कर्मोंका फल नष्ट नहीं होता, भोगना ही पड़ता है?

उत्तर—दोनों ही बात ठीक हैं। नष्ट नहीं भी होता है, हो भी जाता है। राजा दशरथके लिये श्रवणके पिताका शाप वरदान हो गया। शाप सुनकर उन्होंने सोचा कि मेरे तो पुत्र है ही नहीं, शापसे पुत्र तो होगा! पुत्र होना भी लाभ और भगवान् के वियोगमें मरना भी लाभ—दोनों लाभ हुए। भगवान् उसीमें उनका हित समझते थे, नहीं तो उलट-पुलट कर देते।

अर्जुनके लिये भी यही बात थी। भगवान् संधि करा देते, पर दुष्टोंका नाश कैसे होता? इससे युद्ध कराना ही उचित समझा। तुम केवल निमित्तमात्र बन जाओ। तू निमित्त नहीं भी बनेगा तो भी ये मरेंगे ही। भीष्म, द्रोण आदि सब मरनेवाले हैं—यह उन्होंने विश्वरूपमें दिखा दिया। भगवान् ने इसीमें सबका हित देखा, इसलिये अपने प्यारे प्रेमी अर्जुनको शरणागतवत्सल भगवान् ने संकटमें डाला और उसका बाल भी बाँका नहीं होने दिया। अन्तमें फल उत्तम हुआ।

भावीमें होनेवाले दु:खोंका नाश भजन करनेसे हो जाता है, परन्तु प्रारब्ध कर्मका नाश हो भी जाता है, नहीं भी होता-दोनों ही बातें देखनेमें आती हैं। एक भाईके पुत्र नहीं है, उसके प्रारब्धमें नहीं है। पुत्रेष्टि-यज्ञ करता है तो हो भी जाता है, नहीं भी होता। प्रायश्चित्त करना भी भोग ही है।

भगवान् की भक्ति करनेसे दु:खकी निवृत्ति होती है, नहीं तो आर्त भक्त हो ही कैसे? श्रवणकी कथा वाल्मीकि रामायणमें बड़ी सुन्दर है। जो मनुष्य उसे पढ़ता है, उसके अश्रुपात होने लग जाता है। आज भी कोई लड़का माता-पिताकी सेवा करता है तो उसे श्रवण कहते हैं। अपने भी श्रवण बनें, कंस नहीं बनें।

माताके साथ किस प्रकारका व्यवहार करें? जिस प्रकार भगवान् श्रीरामने कैकेयीके साथ किया। अच्छे पुरुषोंकी कथा इसीलिये है कि हम उनका अनुकरण करें। भगवान् राम साक्षात् परमेश्वर थे। वे हमें सिखा गये कि तुम इस प्रकारका व्यवहार करो। भगवान् जो कुछ लीला करते हैं, उसमें हमारा हित भरा रहता है। जिसमें जितना त्याग है, वह उतना ही परमात्माके निकट है। हमलोगोंको त्याग सीखना चाहिये। त्याग ही सबसे बढ़कर चीज है। त्यागमें आप स्वतन्त्र हैं, पर फलमें आप परतन्त्र हैं। भगवान् कहते हैं—कर्ममें तुम्हारा अधिकार है, फलमें नहीं। त्याग ही प्रधान है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

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