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नित्य नियमसे अपने घरमें स्वाध्याय, भगवत् चर्चा करें

प्रवचन दिनांक—२८-११-१९४५

हमलोगोंको महात्मा बनना चाहिये। मेरे हाथकी बात होती तो अभीतक महात्मा बना ही देता, बाकी थोड़े ही रखता। मेरे हाथकी बात नहीं है। भगवान् सब कुछ कर सकते हैं। उनके शरण होकर उनसे प्रार्थना करनी चाहिये, यही अच्छा उपाय है। प्रभुसे पुकार लगानी चाहिये। लोग कहते हैं—भगवान् का दर्शन करा दें, किन्तु बात-ही-बात करते हैं, कोई चाहता नहीं। चाहना कैसी होनी चाहिये? चाहनाके अनुसार लगन होगी—

लगन लगन सब कोई कहै लगन कहावै सोय।
नारायण जा लगन में तन मन दीजे खोय॥

यह तो बहुत ऊँची लगन है। रुपयोंके लिये जैसी लगन है, ऐसी लगन हो जाय तो भी काम बन जाय।

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम॥
(रा०च०मा०उत्तरकाण्ड दोहा १३० ख)

किसीको महात्मा बनना हो तो महात्माको लक्ष्य रखकर साधन करना चाहिये। महात्मा पुरुष कैसे होते हैं, इसका बार-बार विचार करना चाहिये। गीताके बारहवें अध्याय, चौदहवें अध्यायमें जो लक्षण लिखे हैं, इन्हें अपनेमें घटाना चाहिये। इतनी बात समझमें नहीं आये तो एक समताको अपनेमें उतार लें तो सब काम हो जाय। सबमें सम—स्तुति-निन्दामें सम, मान-अपमानमें सम; एक समता आपमें घट जाय तो भगवान् कहते हैं कि मैं सब क्षमा कर दूँगा। विषमतामें रात-दिन जूते पड़ते हैं। घरमें आसक्त पुरुषके रात-दिन जूते पड़ते हैं, किन्तु फिर भी आसक्ति नहीं छोड़ते।

कोई व्यक्ति अनुचित तरीकेसे धनार्जन करता है,मैं उसका विरोध ही करता हूँ। हमारे भाग्यमें जितना पैसा होगा, स्वत: ही आ जायगा, छप्पर फाड़कर भगवान् दे देगा, किन्तु कोई सुनते ही नहीं। डटकर रहे कि हम अनुचित रीतिसे धनार्जन नहीं करेंगे, जो आना होगा, वह स्वत: ही आ जायगा। क्या बताया जाय, कुछ समझमें नहीं आता है। ईश्वरकी माया अलौकिक है।

भगवत्प्राप्तिके विषयमें अपने सहारेकी बात नहीं है। भगवान् की प्राप्तिका करार नहीं करते। कितना जमाना बीत गया, यह जमाना भी चला जायगा, हमलोग भी चले जायँगे। यह निश्चय कर ले कि या तो मर मिटेंगे या इसको करेंगे, तब काम चले, नहीं तो बड़ी कठिनाई है। कलियुगसे लड़ाई लड़नी है।

जैसे उस दिन कहा था—घरमें आधा घण्टा सत्संगकी पुस्तकें पढ़ो। और समय भले ही रुपया कमाईमें लगाओ, परन्तु कम-से-कम आधा घण्टा इकट्ठा होकर भगवत्-चर्चा करो। इस प्रकार अपना समय नियमपूर्वक बितावें। नियम कर लें कि यह नहीं होगा तो भोजन नहीं करेंगे। भोजनवाली शर्त बड़ी कड़ी है। यदि किसीको अपना सुधार करना हो तो यह शर्त लगा दे कि भोजन नहीं करेंगे। वह काम स्वयं ही होगा, अवश्य होगा। जिस दिन नहीं हो, भोजन मत करो।

आपलोग उचित समझें तो यह कार्य आजसे ही अपने घरमें आरम्भ कर दें। इससे घर बैठे ही भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचारका ज्ञान हो जाता है। इससे अवश्य लाभ होता है। काममें लेकर देख लो, घाटेकी चीज नहीं है। घाटा दीखे तो छोड़ दो। अकेला हो तो अकेला ही स्वाध्याय कर ले। गीता तत्त्वविवेचनी, भागवत, महाभारत, पद्मपुराण, रामायण, सत्संगकी पुस्तकें आदिका अध्ययन करो। एकका अध्ययन समाप्त हो जाय तो दूसरी आरम्भ कर दो। समयका कोई बंधन नहीं, जिसको जब सुविधा हो, करो। यह भी नहीं कि पूरी उम्र तक करो। थोड़ा करके देखो, लाभ हो तो और बढ़ाओ।

परमात्माकी प्राप्ति कठिन है ही नहीं, सीधी-सी बात है, किन्तु वह सीधी-सी भी करनेसे ही होगी। भोजन सब जुटा दो तो भी खानेवाला काम तो खानेसे ही होगा। यह हो नहीं सकता कि खाये दूसरा, पेट तुम्हारा भर जाय। बगीचा लगाया, आम लगाया, लाकर रख दिया, चाकू रख दिया, छील-सुधार कर रख दिया, उसे खाना तो तुमको ही होगा। उठाओ, मुँहमें डालो। पुस्तकें बनाकर रख दी, उन्हें आप पढ़ो। आमके टुकड़ेकी तरह पुस्तकें गीताप्रेसमें पड़ी हैं। लिस्ट बनाकर दे दो तो घर पहुँचा दें। पढ़नी तो आपको ही होगी। पुस्तक सामने रख दी, पढ़नी तो आपको ही पड़ेगी। यहाँ सत्संग होता है। यहाँ तो स्वतन्त्रता ही है, कोई भी आओ। गोपियोंवाली बात थोड़े ही है कि कोई नहीं आ सकता।

कम-से-कम स्वाध्याय तो आरम्भ कर ही देना चाहिये।

दो बात आज बतायी—एक तो अपनेमें समता उतारनी चाहिये। दूसरी यह कि अपने घरमें स्वाध्याय करना चाहिये। सब इकट्ठे होकर सुनें और एक सुनावे।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

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