अधिकार और कर्तव्य
परंतु एक बात ध्यानमें रखनेकी है कि ऐसी लीलाका नायक सिवा भगवान्के और कोई भी नहीं हो सकता। गोपीभावसे भगवान् की उपासना करनेका अधिकार सभी वैराग्य और प्रेमसम्पन्न जीवोंको है। गोपीभाव न तो केवल स्त्रियोंके ही लिये है, न स्त्रीके-जैसी पोशाक पहनकर स्त्री सजनेकी ही जरूरत है। जरूरत है गोपियोंको आदर्श मानकर उनके जैसा प्रेमभाव हृदयमें उत्पन्न करनेकी। यह उपासना भावनासिद्ध है, वेष-सिद्ध नहीं है। जिसमें ऐसा अपार्थिव निष्काम अनन्य प्रेम होगा, वही गोपीभावसे उपासना कर सकेगा। परंतु उपास्य केवल परमात्मा ही होंगे।
गोपीभावके उपासकोंकी धारणामें सभी लोग भावदेहसे प्रकृति हैं और पुरुषप्रधान अप्राकृत नवीन मदन व्रजेन्द्रनन्दन ही सबके एकमात्र पति—परम पति हैं। एक श्रीनन्दनन्दनको छोड़कर वे दूसरे पुरुषकी कल्पना ही नहीं कर सकते। ‘सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं।’ इस दिव्य प्रेमराज्यमें श्रीकृष्णके सिवा अन्य किसी भी पुरुषका और श्रीकृष्णप्रेम-रसभावितमति भक्तरूपा रमणीके सिवा अन्य किसी नारीका प्रवेशाधिकार या प्रवेशसामर्थ्य नहीं है। भगवान् की आनन्दमयी शक्तिके इस दिव्य-प्रेम-सदनमें दूसरे साधारण नर-नारियोंका प्रवेश सर्वथा निषिद्ध है। इस महामन्दिरमें प्रवेश करनेवालेको दरवाजेपर पहरा देनेवाली सखीको प्रवेशपत्र दिखलाना पड़ता है और श्रीकृष्ण-प्रेम-रसमें डूबी हुई बुद्धिरूपी उस प्रवेशपत्रीको वही प्राप्त कर सकता है जो अपना तन-मन-धन प्रियतम प्रभुके अर्पण कर, सर्वथा कामशून्य होकर, काम-क्रोध-लोभादि विकारोंसे रहित होकर, वैराग्यरूप परम सुन्दर वस्त्रोंको धारणकर, दैवी गुणोंके अलंकारोंसे सुसज्जित होकर प्रेमकी वेदीपर अपनी बलि चढ़ा देता है—
प्रथम सीस अरपन करै, पाछे करै प्रबेस।
ऐसे प्रेमी सुजनको, है प्रबेस यहि देस॥
अतएव इसमें कोई भी मनुष्य कदापि श्रीकृष्ण नहीं बन सकता, चाहे वह महान् आचार्य, उपदेशक, प्रेमी, जीवन्मुक्त या दिव्य भाववाला ही क्यों न समझा जाता हो; इसलिये यदि कोई मनुष्य श्रीकृष्ण बनकर गोपीभावसे उपासना करानेका दावा करे तो उससे सदा दूर रहना चाहिये। खास करके स्त्रियोंके द्वारा गोपीभावसे अपनी उपासनाकी बात कहनेवाले मनुष्यको तो दुराचारी ही मानना चाहिये। साधक पुरुषके लिये तो स्त्रीकी बात दूर रही, स्त्रियोंके संग करनेवालेका संग भी त्याज्य है।
स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्।
(श्रीमद्भा० ११। १४। २९)
यह प्रेम अत्यन्त ही दुर्लभ है। इसमें देवताओंका भी अधिकार नहीं है। जो भगवान्के व्रजरसके रसिक हैं, व्रजभावके भावुक हैं, व्रज-प्रेमके प्रेमी हैं, वे भक्त ही इस अत्यन्त उच्च प्रेमरसका पान किया करते हैं। गोपीपदाश्रय करके गोपीभावका अवलम्बन करनेसे ही यह दुर्लभ, कामगन्धहीन, विषयाभिलाषाशून्य दिव्य प्रेम और प्रेमस्वरूप प्रेमाधार श्यामसुन्दरकी प्राप्ति हो सकती है। श्रीचैतन्यचरितामृतमें कहा है—
सेइ गोपीभावामृते जाँर लोभ हय,
बेदधर्म सर्व त्यजि सेइ कृष्णेरे भजय।
रागानुरागमार्गे भजे जेइ जन,
सेइ जन पाय व्रजे व्रजेंद्रनंदन॥
परंतु प्रेमी वेदधर्म छोड़ना नहीं चाहता, प्रेमके प्रकट होनेपर वह वेदधर्म ही अपने परमफलस्वरूप प्रेमपदको प्राप्त हुआ जानकर उस साधकको छोड़ देता है। जो जान-बूझकर छोड़ता है उसका तो पतन ही होता है—
एक नेम यह प्रेमको, नेम सबै छुटि जाहिं।
पै जो छाँडे जानिकै तहाँ प्रेम कछु नाहिं॥
यह पथ विषयकामियोंका नहीं है; यह मार्ग बाह्य वेषधारियोंका नहीं है। यह तो उन सच्चे त्यागियोंका पावन पथ है जो सारे जगत्का मोह और सारी कामनाएँ त्यागकर एकमात्र भगवान् को ही भजना चाहते हैं। जिनके हृदयमें भोग-लालसा है उनका तो इस मार्गपर पैर रखना मानो धधकती हुई अग्निमें कूदना या काल-सर्पके मुँहमें हाथ देना है—
प्रेम अमिय पीयौ चहै, करै बिषयसों नेह।
बिष ब्यापै, जारै हियौ, करै जरजरित देह॥
इसीलिये शुकदेवजी सबको सावधान करते हुए कहते हैं—
नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वर:।
विनश्यत्याचरन् मौढ्याद्यथारुद्रोऽब्धिजं विषम्॥
गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम्।
योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्ष: क्रीडनेनेह देहभाक्॥
अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थित:।
भजते तादृशी: क्रीडा या: श्रुत्वा तत्परो भवेत्॥
(श्रीमद्भा० १०। ३३। ३१, ३६-३७)
‘शिवजी हलाहल पी गये, हरेक आदमी नहीं पी सकता। इसी प्रकार भगवान् ने यह लीला की, मनुष्य नहीं कर सकता। अत: असमर्थ मनुष्योंको भगवान् की इस लीलाका अनुकरण कभी मनसे भी नहीं करना चाहिये। यदि कोई मूर्खतावश करेगा तो वह नष्ट हो जायगा। भगवान् तो गोपियोंके, उनके पतियोंके और सम्पूर्ण देहधारियोंके आत्मा हैं, साक्षीरूपसे सबके हृदयमें विराजमान हैं। उन्होंने लीलासे ही शरीर धारणकर अवतार लिया था और जीवोंपर कृपा करनेके लिये ही उस दिव्य देहसे ऐसी अलौकिक लीलाएँ की थीं जिन्हें सुन करके लोग भगवत्परायण हो जायँ।’
अतएव भगवान् की अलौकिक लीलाओंका अनुकरण न कर पवित्र गोपीभावको आदर्श मानकर अपना सब कुछ भगवान्के अर्पण करके बुद्धि, मन और इन्द्रियोंके द्वारा सब प्रकारसे भगवान् की सेवा करनी चाहिये और उनका नित्य-निरन्तर प्रेमपूर्वक चिन्तन करना चाहिये, भक्त बनना चाहिये, भगवान् नहीं।
जीव भगवान् का अंश है, इसलिये इसमें भी आनन्दांश है— ह्लादिनी शक्तिका अंश है। यदि मनुष्य आनन्दमयी शक्तिके इस अंशको भ्रमसे सुखरूप भासनेवाले अनित्य क्षणभंगुर दु:खमय भोगोंसे हटाकर भगवान्के सौन्दर्य-माधुर्य सुखकी ओर लगा दे तो उस अनित्य और भ्रमपूर्ण तुच्छ विषयानन्दके बदले उसे शाश्वत भूमानन्द-प्रेमानन्द मिल सकता है। मनुष्यकी यह आनन्दग्राहिणी शक्ति उन्नत और परिष्कृत होनेपर कैतवशून्य और कामगन्धशून्य होकर केवल श्रीकृष्ण-सौन्दर्य-माधुर्य-रसास्वादनके लिये लालायित हो उठती हैं, परंतु जबतक जीवकी यह आनन्दग्राहिणी शक्ति विषय-भोगोंमें डूबी रहती है, तबतक इसकी कृष्णाभिमुखी गति नहीं होती। इसलिये विषयानुरागको विषबेलिके समान त्यागकर सदा-सर्वदा परम श्रद्धाके साथ श्रीराधाकृष्णकी लीलाका श्रवण, कीर्तन करते-करते और श्रीकृष्णकी किसी प्रेममयी सखीको गुरु बनाकर उसके आज्ञानुसार श्रीकृष्णलीलाका ध्यान करते-करते तन-मनकी सुधि भुलाकर प्रेममें तन्मय हो जाना चाहिये।
गोपी-प्रेमका यह इधर-उधरसे संग्रह किया हुआ वर्णन सर्वथा रसहीन हुआ है। गोपी-प्रेम दिव्यरसपूर्ण है। उस रसको साधारण मनुष्य कहाँसे प्राप्त करे और वाणी या लेखनी कैसे उसका वर्णन करे? हमलोगोंको उचित है कि परम प्रेममयी गोपिकाओंके चरण-वन्दन कर उनसे प्रेमकी भिक्षा माँगें और उनके प्यारे श्यामसुन्दरके नाम-गुणोंका गान कर जन्म-जीवनको सफल करें। श्रीललितकिशोरीजी कहती हैं—
रुचिकर साँवरे नाहिं अंग-अंग स्यामा-स्याम,
ऐरी धिक्कार और नाना कर्म कीबेपै।
पायनको धोइ निज करन ना पान कियो,
आली अंगार परैं सीतल जल पीबेपै॥
विचरे न बृंदावन कुंज-लतान तरे,
गाज गिरै अन्य फुलवारी-सुख लीबेपै।
‘ललितकिसोरी’ बीते बरस अनेक, दृग
देखे ना प्रानप्यारे, छार ऐसे जीबेपै॥
श्यामसुन्दर आज भी हैं, उनकी लीला भी नित्य है। परंतु हमें वे श्यामसुन्दर कैसे दीखें और हमें उनके चरण धोनेका सौभाग्य कैसे प्राप्त हो? नित्य-निरन्तर निष्काम प्रेमभावसे उनका नाम जपना, उनके गुणोंका कीर्तन करना, उनके प्रेमी भक्तोंका संग करना, उनके अनुकूल कार्य करना, उनके आज्ञानुसार चलना, उनके प्रत्येक विधानमें संतुष्ट रहना, जगत्का मोह छोड़कर उनकी रूपमाधुरीपर न्योछावर होनेकी साधना करना, उनकी लीलाओंका मनन करना और प्राण खोलकर हृदयके अन्तस्तलसे उनके पानेके लिये रोना—यही सब उपाय है। यदि चाहते हैं तो विषयासक्ति छोड़कर इन उपायोंका अवलम्बन कीजिये। करते-करते आप ही भावोंका विकास होगा और श्रीकृष्ण हमें सर्वस्वरूपमें मिल जायँगे। बोलो गोपी और गोपीनाथके पदपद्मपरागकी जय!