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सद्‍व्यवहार

इस बातका मनमें निश्चय करो कि शरीरके नाशसे तुम्हारी मृत्यु नहीं होती; तुम शरीर नहीं हो, इस शरीरके पहले भी तुम थे और पीछे भी रहोगे। तुम आत्मा हो, तुम्हारा स्वरूप नित्य है। जो वस्तु नित्य होती है वही सर्वगत, अचल, स्थिर और सनातन होती है। इस नित्य सनातन, सर्वव्यापी स्वरूपमें न जन्म है, न मरण है; न विषमता है, न विषाद है; न राग है, न रोग है; न दोष है, न द्वेष है; न विकार है, न विनाश है। यह सत् है, चेतन है और आनन्दमय है।

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यही आनन्दमय सत्-चेतन-स्वरूप आत्मा सर्वगत है; संसारमें जितने जीव हैं सबमें यही निर्दोष और सम आत्मा स्थित है। इसलिये जिसकी दृष्टि इस आत्माकी ओर होगी वह न किसीसे घृणा करेगा, न द्वेष; वह सबमें समान भावसे अपने आत्मस्वरूपको देखकर सबके प्रति आत्मवत् व्यवहार करेगा।

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आत्मवत् व्यवहारमें—अपने ही शरीरके दायें-बायें और ऊपर-नीचे अंगोंके साथ और उनके द्वारा होनेवाले व्यवहारकी भाँति क्रियामें भेद रहेगा; क्योंकि बाह्यव्यवहार सारे-के-सारे प्रकृतिमें हैं और प्रकृतिमें भेद है ही। इस प्रकृतिभेदके कारण ही समस्त संसारमें विषमता नजर आ रही है। न सबका वर्ण एक-सा है, न बुद्धि एक-सी है, न ढाँचा एक-सा है, न शरीरकी ताकत एक-सी है, न चेहरा एक-सा है; कुछ-न-कुछ भेद अवश्य है। इस भेदमय संसारमें अभेद देखना ही तो आत्मबुद्धि है—शुद्ध ज्ञान है। ये सारे भेद विनाशी हैं और वह अभेद अविनाशी है। अतएव जितने जीव हैं, सब अलग-अलग भिन्न-भिन्न रूपोंमें दीख पड़ते हैं, उन सबमें एक विभागरहित नित्य अविनाशी आत्माको देखो और ऐसा देखते हुए ही यथायोग्य बर्ताव करो। तुम्हारे सब बर्ताव अंदरसे सर्वथा निर्दोष हो जायँगे।

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एक ही विशाल वृक्षके बहुत-सी डालियाँ हैं, लाखों पत्ते हैं और हजारों फूल तथा फल लगे हैं। डालियों और पत्तोंकी अलग-अलग आवश्यकता भी है और सार्थकता भी; क्योंकि फूल तथा फल इन्हींसे मिलते हैं। निरे ठूँठसे फल-फूल नहीं मिलते, परन्तु कोई भी बुद्धिमान् पुरुष डालियों और पत्तोंके लिये ठूँठकी जड़को नहीं काटता, जड़ ही कट गयी तो डाली-पत्ते और फूल-फल फलेंगे ही किसके आधारपर? पर केवल जड़की रक्षा करके डाली-पत्तोंको काटनेसे भी काम नहीं चलेगा। इसी प्रकार मूल वृक्ष आत्मा और उसके डाली-पत्तेस्वरूप विभिन्न बाह्य अंग हैं। अतएव न तो सर्वगत, एकरस, निर्दोष और सम आत्मामें भेदकी कल्पना करो और न बाहरके व्यवहारमें विभिन्नता देखकर इस विभिन्नताको नाश करनेकी व्यर्थ चेष्टा करो। विभिन्नतामें ही फल है और इसीमें सौन्दर्य है। प्रकृतिका महान् सौन्दर्य हम वृक्षके चित्र-विचित्र शाखा-पत्र और रंग-बिरंगी मनोमोहक पुष्प तथा रसीले स्वादु फलोंमें ही देख पाते हैं। इस रंग-बिरंगी रसीली व्यावहारिक सृष्टिको मिटाकर विविध विचित्रताओं और नाना रंगोंसे रहित सदा एकरस और एकरंग आत्माकी उपलब्धि सहज नहीं है। इस विचित्रता और अनेकतामें ही उस नित्य एक समत्व और एकत्वका अनुभव करो—व्यावहारिक अनित्य भेदमें ही पारमार्थिक नित्य अभेदके दर्शन करो।

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सर्वगत एकरस निर्दोष अभेदमय आत्माको देखते हुए ही भेदमय व्यवहार करो। व्यवहारका भेद तुम्हारे मिटाये मिट नहीं सकता और आत्मामें तुम भेद उत्पन्न कर नहीं सकते। अतएव व्यवहारमें आवश्यक भेद रखो—परन्तु आत्मदृष्टि रखते हुए ही; कहीं आत्माको भूलकर शरीर और शरीरसम्बन्धी भेदोंको ही अपना असली स्वरूप मान लोगे तो राग-द्वेष और अपने-परायेके अज्ञान और पापमय झगड़ेमें पड़कर पतित हो जाओगे। तुम भारतवासी हो, हिन्दू हो, सनातनी हो, युक्तप्रान्तके हो, ब्राह्मण हो, गृहस्थ हो, पण्डित हो, परन्तु इन सबके पहले ‘आत्मा’ हो—इन सभी परवर्ती स्वरूपोंकी पूरी रक्षा करो—सब मर्यादाओंका पालन करो; परन्तु वैसे ही जैसे नाटकका पात्र नाट्यमंच (स्टेज)-पर अपने स्वाँगके अनुसार ही खेल खेलता है, लेकिन अपने निजस्वरूपको कभी नहीं भूलता। ये सब केवल तुम्हारे इसी शरीरके स्वाँग हैं, आत्मा तुम्हारा यथार्थ नित्य निजरूप है। तुम मरनेपर यूरोपमें जन्म ले सकते हो, अहिन्दू हो सकते हो, परन्तु आत्मासे अनात्मा नहीं हो सकते। अवश्य ही नाटकके उसी पात्रकी उन्नति होती है और वही खेलमें ऊँचे स्वाँगको पाता है, जो अपने स्वाँगके खेलको उसीके अनुसार ठीक-ठिकानेसे निबाहता है; दूसरेकी क्रिया भूलकर भी नहीं करना चाहता। यही वर्णाश्रमका रहस्य है। प्रत्येक उन्नतिकामी व्यक्तिको वर्णाश्रमकी इस मर्यादाका अवश्य पालन करना चाहिये। परन्तु इसीको असली रूप मानकर दूसरे स्वाँगोंसे—दूसरे देश, जाति, धर्म, प्रान्त, वर्ण, आश्रम और आजीविकाके कार्योंसे कभी न घृणा करो, न उन्हें अपनेसे नीचा समझो। अपने-अपने स्वरूपमें सभीकी आवश्यकता और सार्थकता है और सभी बड़े हैं। जैसे नीचा समझकर दूसरे किसीसे घृणा न करो, वैसे ही ऊँचा समझकर दूसरे किसीकी नकल या चाह भी न करो। एक ही नित्य अविनाशी सत् चेतन आनन्दमय आत्मामें यह प्रकृतिके विविध खेल हो रहे हैं। यही समझकर और इसीकी ओर दृष्टि रखकर नित्य आत्माका ध्यान करते हुए ही शरीरसे यथायोग्य व्यवहार करो।

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यह आत्मा परमात्माका ही सनातन अभिन्न अंश है, परमात्माका ही स्वरूप है। परन्तु जबतक इसकी स्थिति प्रकृतिमें है, तबतक यह जीवात्मा कहलाता है और तबतक इसे प्रकृतिजन्य गुणोंको भोगना तथा गुणोंके संगसे अच्छी-बुरी योनियोंमें जाना पड़ता है। असंग, अक्रिय, नित्य, आनन्दमय होनेपर भी इसे प्रकृति-स्थित होनेसे सुख-दु:खका भोग करना पड़ता है। इस प्रकृतिमेंसे ‘अहम्’ को निकालकर उसे सत् और आनन्दमय सर्वगत अविनाशी एक आत्मामें स्थापित करो और प्रकृतिजन्य गुणोंके फंदेसे छूटकर सुख-दु:खसे अतीत अनामय आनन्दमय ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त हो जाओ।

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यह स्मरण रखो कि देहमें स्थित होनेसे जो सुख-दु:ख-भोगी जीवात्मा कहलाता है, वही साक्षीरूपसे द्रष्टा, अंदरसे सच्ची आवाज देनेवाला होनेसे अनुमन्ता, धारण-पोषण करनेवाला होनेसे भर्ता, नियामकरूपमें ईश्वर और निर्गुणरूपमें परमात्मा है। यह सभी स्वरूप एक ही कालमें एक ही भगवान‍्में हैं। सिर्फ कार्यभिन्नतासे स्वरूपभिन्नता है। यही उनकी अनिर्वचनीय लीला है।

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इसी समग्र परमात्माके मुख्यत: दो नित्यस्वरूप हैं—एक अव्यक्त, दूसरा व्यक्त। अव्यक्तमें दो भेद हैं—एक अव्यक्त निर्गुण और दूसरा अव्यक्त सगुण। अव्यक्त निर्गुण उस स्थितिका नाम है जिसमें शक्तिकी लीला बंद है, शक्ति शक्तिमान‍्में विलीन है। इसीको विज्ञानानन्दघन ब्रह्म कहते हैं। अव्यक्त सगुण ही सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापी, सबका नियामक और विभु है; आत्मा, जीवात्मा, द्रष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता इसीके स्थिति-भेद हैं। शक्तिकी क्रिया होनेकी स्थितिमें ही वह सगुण कहलाता है। वही परमात्मा नित्य दिव्य विग्रहरूपमें व्यक्त है। इसीके श्रीराम, कृष्णादि अवताररूप विष्णु, शिव, देवी, ब्रह्मा, सूर्य आदि दिव्य स्वरूप हैं। इन सब स्वरूपोंको कदापि स्वरूपत: और तत्त्वत: अलग-अलग मत मानो। एकके ही अनेक अव्यक्त और व्यक्त लीला-वपु हैं। अपने इष्टरूपके अनन्य भक्त रहो। शेष सब रूपोंको या तो उसीमें विलीन करके सर्वत्र सर्वदा सर्वथा एक उसीको देखो, सुनो। विलीन न कर सको तो सब रूपोंको अपने उस एक ही लीलामय इष्टदेवके विभिन्न स्वरूप समझो। यह निश्चय रखो—सर्वमय, सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार, सर्वव्यापी, सर्वरूप, भगवान‍्के किसी भी व्यक्त साकार रूपकी एकमात्र महेश्वरबुद्धिसे परम श्रद्धायुक्त होकर अनन्य उपासना करनेवाला भक्त और नित्य निर्गुण विज्ञानानन्दघन परमात्माकी अभेदोपासना करनेवाला ज्ञानी दोनों अन्तमें एक ही भगवत्तत्त्वको प्राप्त होंगे। क्योंकि परमात्मा एक ही है। अवश्य ही लीलामय साकारस्वरूपका अनन्य उपासक श्रेष्ठ योगवेत्ता पुरुष प्रेमके अलभ्य रसको विशेषरूपसे उपलब्ध करेगा।

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भगवान‍्के नित्यविग्रह श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि स्वरूपोंको कभी जन्मने और मरनेवाला समझकर इनकी अवहेलना न करो। इनका प्रादुर्भाव और तिरोभाव अथवा प्राकट्य और अन्तर्धान होता है, न कि जन्म-मरण। जो लोग इनके अज, अविनाशी महेश्वररूप परम पुरुषोत्तम भावको न जानकर इन्हें जन्मने-मरनेवाले मनुष्य समझते हैं, उनकी बातोंपर विश्वास कभी न करो और परम श्रद्धाके साथ इन दिव्य स्वरूपोंका अपनी-अपनी रुचिके अनुसार ध्यान-भजन करते रहो। यह भगवान‍्की योगमायाका बड़ा प्रभाव है। योगमायाका पर्दा डालकर प्रकट होनेके कारण ही तो हम मूढ़ लोग अज और अविनाशी भगवान‍्को न पहचानकर श्रीराम-कृष्ण-रूपको मायाबद्ध मानवरूप कहते हैं। याद रखो—भगवान‍्की दुरत्यय मायासे वही पुरुष बचकर पार जा सकता है जो मायाके अधिपति भगवान‍्के शरण हो जाता है। अतएव भगवान‍्के अव्यक्त और व्यक्त निर्गुण-सगुण रूपोंमें भेदभाव न कर विवादको छोड़कर, तर्कको तिलांजलि देकर केवल प्रेमपूर्वक भजन ही करो।

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चाहे अव्यक्तको भजो या व्यक्तको, प्राणिमात्रके साथ सद्‍व्यवहारकी दोनोंमें ही जरूरत है। अव्यक्तमें सब ब्रह्ममय है और व्यक्तमें श्रीकृष्णमय या श्रीराममय। बात एक ही है! चाहे सबको ब्रह्म समझकर अपनेको भी उनसे अभिन्न मानकर अनिवार्य व्यावहारिक भेदको रखते हुए ही अभेद व्यवहार करो। चाहे सबको श्रीरामस्वरूप मानकर श्रीरामके दिये हुए अपने स्वाँगके अनुसार सबकी यथायोग्य सेवा करो। याद रखो, सेवा स्वकर्मसे ही अच्छी प्रकार हो सकेगी! यह आदर्श साधकोंके लिये है। सिद्धोंकी बात तो सिद्ध ही जानते हैं।

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