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भगवत्प्राप्ति क्रियासाध्य नहीं

एक बात विशेष ध्यान देनेकी है कि जिसको मुक्ति, कल्याण अथवा भगवत्प्राप्ति कहते हैं, वह स्वत:सिद्ध है, क्रियाके द्वारा सिद्ध होनेवाली चीज नहीं है। यह बहुत विलक्षण बात है! आप कृपा करके इस बातकी तरफ ध्यान दें। संसारकी जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब प्रकृतिका कार्य होनेसे उनमें हरदम परिवर्तन होता रहता है। क्रियाशील होनेसे उन वस्तुओंकी प्राप्ति भी कर्मोंके द्वारा ही होती है। अत: संसारकी वस्तुएँ क्रियासाध्य हैं। परंतु परमात्मतत्त्व सदा ज्यों-का-त्यों रहता है, उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। अत: परमात्मतत्त्व क्रियासाध्य नहीं है। सिद्धान्तकी एक बहुत बढ़िया और सूक्ष्म बात यह है कि परमात्मतत्त्व स्वत:सिद्ध है। वह क्रियाओंके द्वारा प्रापणीय नहीं है। यह बात विशेष ध्यान देनेकी है। आपका ध्यान आकृष्ट करनेके लिये कहता हूँ कि यह बात मेरेको बहुत वर्षोंके बाद सन्तोंसे मिली है। यह बात सर्वशास्त्रसम्मत भी है। अत: केवल इस बातकी तरफ ही आप ध्यान दें तो बहुत ही लाभकी बात है। अब इसका खुलासा कहता हूँ, आप ध्यान दें।

हम यह मानते हैं कि परमात्मा सब समयमें हैं, सब जगह हैं, सभीमें हैं और सबके हैं। अब इन चारों बातोंपर विचार करें। (१) परमात्मा सब समयमें हैं, तो इस समय हैं कि नहीं? अगर इस समय नहीं हैं, तो परमात्मा सब समयमें हैं—यह कहना नहीं बनेगा। (२) परमात्मा सब जगह हैं तो यहाँ हैं कि नहीं? अगर यहाँ नहीं हैं, तो परमात्मा सब जगह हैं—यह कहना नहीं बनेगा। (३) परमात्मा सभीमें हैं। वे जड-चेतन, स्थावर-जंगम आदि सभीमें हैं। सजीवके दो भेद हैं—स्थावर और जंगम। वृक्ष आदि स्थावर हैं और मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जंगम हैं। जड-चेतनमें, स्थावर-जंगममें परमात्मा हैं। नीचे-से-नीचे समझे जानेवाले प्राणीमें तथा दुष्ट-से-दुष्ट आचरणवाले मनुष्यमें भी परमात्मा हैं। सन्त-महात्माओंमें भी परमात्मा हैं। शुद्ध-से-शुद्ध वस्तुमें तथा अपवित्र-से-अपवित्र वस्तुमें भी परमात्मा हैं। नरकोंमें भी परमात्मा परिपूर्ण हैं। जब वे सबमें हैं तो हमारेमें हैं कि नहीं? अगर वे हमारेमें नहीं हैं, तो परमात्मा सबमें हैं—यह कहना नहीं बनेगा। (४) परमात्मा सबके हैं। यह नहीं कि वे साधुओंके हैं, गृहस्थोंके नहीं; भाइयोंके हैं, बहनोंके नहीं; ब्राह्मणोंके हैं, अन्त्यजोंके नहीं। ऐसा आप नहीं कह सकते कि परमात्मा किसी व्यक्ति-विशेषके हैं। परमात्मा दुष्ट-से-दुष्ट पुरुषके भी वैसे ही हैं, जैसे महात्मा-से-महात्मा पुरुषके हैं। परमात्मापर महात्मा-से-महात्माका जैसा हक लगता है, वैसा ही हक दुष्ट-से-दुष्टका भी लगता है। उनमें कभी किंचिन्मात्र भी पक्षपात नहीं है। उनमें पक्षपात हो ही नहीं सकता, असम्भव बात है। अत: परमात्मा सबके हैं, तो हमारे भी हैं। अगर वे हमारे नहीं हैं, तो परमात्मा सबके हैं—यह कहना नहीं बनेगा। अब सिद्ध क्या हुआ? कि परमात्मा सब समयमें हैं तो अभी भी हैं, सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं, सभीमें हैं तो मेरेमें भी हैं और सबके हैं तो मेरे भी हैं।

उपर्युक्त चार बातोंकी तरफ ध्यान देनेसे एक बात सिद्ध होती है कि परमात्मा हमें नित्यप्राप्त हैं। हम भगवान् का भजन करते हैं, नाम-जप करते हैं, कीर्तन करते हैं, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थ पढ़ते हैं, सन्तोंकी वाणी पढ़ते हैं, तो यह भाव रहता है कि परमात्मा फिर मिलेंगे। अभी हम परमात्माकी प्राप्तिके योग्य नहीं हुए हैं, इसलिये परमात्मा अभी नहीं मिलेंगे, भविष्यमें मिलेंगे। यह धारणा साधकोंके लिये महान् बाधक है। मनमें तो वे समझते हैं कि हम भगवान् की तरफ चल रहे हैं, पर वास्तवमें भगवान् से अलग होनेका उद्योग कर रहे हैं। यह चिन्तन कर रहे हैं अभी भगवान् नहीं मिलेंगे। जब मेरा अन्त:करण शुद्ध हो जायगा, तब भगवान् मिलेंगे। अभी कैसे मिल जायँगे? मैं योग्य नहीं हूँ, मैं पात्र भी नहीं हूँ। साधकके लिये यह धारणा महान् पतन करनेवाली है। विचार करना चाहिये कि क्या हमारी अपात्रतासे भगवान् अटक सकते हैं? क्या भगवान् इतने कमजोर हैं कि हम अयोग्य हैं, इसलिये वे हमें नहीं मिल सकते? अगर ऐसी बात है तो फिर उनको दयालु कहना ही निरर्थक है। जब वे योग्यको मिलते हैं, अयोग्यको नहीं मिलते, तो फिर दयाका क्या लेना-देना?

भगवान् ने अपनेको प्राणिमात्रका सुहृद् कहा है—‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५। २९), तो क्या दुष्ट-से-दुष्ट मनुष्यके भी भगवान् सुहृद् नहीं हैं? मैं कैसा ही क्यों न हूँ, क्या भगवान् मेरे सुहृद् नहीं हैं? अगर उनमें पक्षपात है तो वे भगवान् कैसे? मैं दुष्ट हूँ, ज्यादा अयोग्य हूँ तो भगवान् की कृपा मेरेपर अधिक होगी—

पापी हुलस विशेषी अबकी बेर उबारियो।
(करुणासागर)

पापीके मनमें अधिक आनन्द होता है; क्योंकि भगवान् पतित-पावन हैं। इसलिये उनपर पतितोंका ज्यादा हक लगता है। माँ भी अपने अयोग्य लड़केका ज्यादा खयाल रखती है, तो क्या भगवान् मेरा खयाल नहीं रखेंगे? वे मेरेपर कृपा न करें—यह हो ही नहीं सकता। इसलिये भजन-ध्यान करते हुए, नाम-जप करते हुए इस बातपर विशेष ध्यान दें कि जिह्वामें, नाममें, श्वासमें, मनमें, बुद्धिमें, अन्त:करणमें, शरीरमें सब जगह परमात्मा परिपूर्ण हैं, पूरे-के-पूरे विद्यमान हैं। वे सबमें लबालब भरे हुए हैं। अब यह शंका होती है कि जब वे परमात्मा सबमें हैं, सब जगह मौजूद हैं तो फिर नाम-जप क्यों करते हैं? नाम-जपके बिना हमारेको संतोष नहीं होता; इसलिये करते हैं। सनकादि ऋषियोंकी बात आपने सुनी होगी। वे चारों भाई एक समान ही ब्रह्मज्ञानी हैं। उनमें एक तो भगवान् की कथा सुनाता है और बाकी तीन कथा सुनते हैं। इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी होते हुए भी वे भगवान् की कथा कहते रहते हैं; क्योंकि भगवान् की कथा ही ऐसी है—

आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरि:॥
(श्रीमद्भा० १। ७। १०)

‘ज्ञानके द्वारा जिनकी चित्-जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान् की निष्काम भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान् के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी ओर खींच लेते हैं।’

भगवान् हैं ही ऐसे कि उनके भजनके बिना साधक रह नहीं सकता। उतना रस, उतना आनन्द कहीं है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं। इसलिये हम उनका भजन करते हैं। भजनके द्वारा हम भगवान् को खरीद लेंगे—ऐसा भाव मत रखना। भगवान् तो अपनी कृपासे ही पधारते हैं। भजन-ध्यान, नाम-जप, कीर्तन आदिमें हमारा अनन्य प्रेम होना चाहिये। कारण कि हमने संसारमें आसक्ति, प्रियता करके बड़ी भारी गलती की है। अब इस गलतीके संशोधनके लिये हमें भजन-ध्यान, नाम-जप आदि करना है। परमात्मा भजन-ध्यान आदिके अधीन हैं—ऐसी बात नहीं है। भगवान् स्वयं कहते हैं—

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
(गीता ११। ५३)

अर्थात् मैं वेदाध्ययन, तप, दान, यज्ञ आदिके द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। उपनिषदोंमें आता है—

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
(कठ० १। २। २३)

अर्थात् प्रवचनसे, पण्डिताईसे, बहुत शास्त्रोंका बोध होनेसे परमात्मा नहीं मिलते। इसका आप उलटा अर्थ मत लेना कि सत्संग सुनना, पढ़ना, शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करना खराब है। इनको तो करते ही रहना है। कहनेका भाव यह है कि इनके द्वारा भगवान् के ऊपर कब्जा नहीं कर सकते, अधिकार नहीं जमा सकते। जैसे, किसी वस्तुकी जो कीमत होती है, वह कीमत पूरी देनेपर उस वस्तुपर हमारा अधिकार हो जाता है। परन्तु भगवत्प्राप्तिके विषयमें ऐसी बात नहीं है। साधन करके भगवान् पर अधिकार नहीं किया जा सकता। उनपर अधिकार करनेका भी एक तरीका है। वह तरीका यह है कि सर्वथा भगवान् का ही हो जाय। तन, मन, वचन, विद्या, बुद्धि, अधिकार आदि किसीका भी किंचिन्मात्र भी सहारा न लेकर केवल भगवान् का ही हो जाय, तो भगवान् उसके वशमें हो जायँगे। परंतु हमने साधना की है, हमने जप किया है, हमने कीर्तन किया है, हमने अभ्यास किया है, हम गीताको जानते हैं, हम अनेक शास्त्रोंको जानते हैं—ऐसी हेकड़ीसे भगवान् वशमें हो जायँ, यह असम्भव बात है। भगवान् वशमें होते हैं तो कृपा-परवश ही होते हैं। उनकी कृपा उसीपर होती है, जो सर्वथा उनका हो जाता है। वे सस्ते हैं तो इतने सस्ते हैं कि ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ’—इतना सुनते ही भगवान् कहते हैं कि ‘हाँ बेटा! मैं तेरा हूँ।’ आप कितनी ही विद्या, बुद्धि, योग्यता आदि लगा लो, उससे आपका ज्ञान बढ़ सकता है, आपमें पवित्रता आ सकती है, पर उससे भगवान् वशमें हो जायँ—यह बात नहीं होगी।

भगवान् हमारे हैं और हम भगवान् के हैं—यह सच्ची बात है। इसलिये भजन-ध्यान करते हुए इस बातको विशेषतासे याद रखें कि भगवान् अभी हैं, यहाँ हैं, मेरेमें हैं और मेरे हैं। अब निराशाकी जगह ही कहाँ है? जैसे बालक मानता है कि माँ मेरी है, तो वह माँपर अपना हक लगाता है, पूरा अधिकार जमाता है। माँ इधर-उधर देखती है तो उसकी ठोड़ी पकड़कर कहता है कि तू मेरी तरफ ही देख, बस। अत: माँको उसकी तरफ देखना पड़ता है। ऐसे ही हम भगवान् से कह दें कि हम तुम्हारे हैं, तुम हमारे हो, इसलिये मेरी तरफ ही देखो। सन्तोंने कहा है—‘न मैं देखूँ और को, नतोहि देखन देउँ।’ मैं औरको देखूँगा नहीं और तेरेको भी दूसरी तरफ देखने दूँगा नहीं। ऐसा होनेपर भगवान् वशमें हो जायँगे। हम जो दूसरी तरफ देखते हैं, यही बाधा है।

एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की॥
(मानस ३। १०। ४)

इसलिये कोई कैसा ही हो, उसको भगवान् की तरफसे निराश नहीं होना चाहिये। आपका विश्वास न बैठे तो जप करो, कीर्तन करो, सब कुछ करो और विश्वास बैठे तो भी सब कुछ करो; क्योंकि यह तो करनेकी चीज है! परन्तु जप-ध्यान आदिके द्वारा भगवान् पर कोई कब्जा कर ले—यह बात नहीं है। हम अपने-आपको देकर ही उनपर कब्जा कर सकते हैं। हमने अपने-आपको संसारको दे रखा है, इसीलिये दु:ख पा रहे हैं। अगर अपने-आपको भगवान् को दे दें, तो निहाल हो जायँ।

बिलकुल शास्त्र-सम्मत बात है कि क्रियाओंके द्वारा भगवान् पर कब्जा नहीं कर सकते। कितनी ही योग्यता प्राप्त कर लें, उनपर अधिकार नहीं जमा सकते। कारण कि इनके द्वारा अधिकार उसीपर होता है, जो इनसे कमजोर होता है। सौ रुपयोंके द्वारा हम उसी चीजपर कब्जा कर सकते हैं, जो सौ रुपयोंसे कम कीमतकी है। कोई चीज सौ रुपयोंकी है तो हम एक सौ पचीस रुपये देकर उस चीजपर कब्जा कर सकते हैं। ऐसे ही भगवान् को किसी योग्यतासे खरीदेंगे, तो उस योग्यतासे कमजोर भगवान् ही मिलेंगे। अत: ये विरक्त हैं, ये त्यागी हैं, ये विद्वान् हैं, ये बड़े हैं, इनको भगवान् मिलेंगे हमारेको नहीं—यह धारणा बिलकुल गलत है। अगर आप भगवान् के लिये व्याकुल हो जाओ, उनके बिना रह न सको, तो बड़े-बड़े पण्डित और बड़े-बड़े विरक्त तो रोते रहेंगे, पहले आपको भगवान् मिलेंगे। आप भगवान् के बिना रह नहीं सकोगे तो भगवान् भी आपके बिना रह नहीं सकेंगे। इसलिये परमात्माकी तरफसे किसीको कभी किंचिन्मात्र भी निराश नहीं होना चाहिये और संसारकी आशा नहीं रखनी चाहिये। कारण कि संसार आशामात्रसे नहीं मिलेगा। अगर मिल भी जायगा तो टिकेगा नहीं। अगर यह टिक भी जायगा तो आपका शरीर नहीं टिकेगा। संसार अभावस्वरूप है, इसलिये उसका सदा अभाव ही रहेगा। परमात्मा भाव-स्वरूप हैं, इसलिये उनका सदा भाव ही रहेगा, अभाव कभी होगा ही नहीं—यह सिद्धान्त है।

नारायण! नारायण! नारायण!

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