प्राप्त और प्रतीति
दो वस्तुएँ हैं—प्राप्त और प्रतीति। इन दोनोंमें फरक है। प्राप्त ‘परमात्मा’ और प्रतीति ‘संसार’ है। जो प्राप्त है, वह तो दीखता नहीं और जो प्रतीत हो रहा है, वह रहता नहीं।
‘मैं हूँ’—यह जो अपनी सत्ता है, अपना होनापन है, यह प्राप्त है। कारण कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, समाधि और मूर्च्छा—इन अवस्थाओंमें अपने सत्ताका कभी भी अभाव नहीं होता। परंतु यह सत्ता दीखती नहीं। जो शरीर और संसार दिखायी दे रहे हैं, उनकी केवल प्रतीति हो रही है, वास्तवमें उनकी सत्ता नहीं है।
जो प्राप्त है, उसका कभी नाश नहीं होता। वह सबको सदा ही प्राप्त है। परंतु उसकी प्रतीति नहीं होती अर्थात् उसका ज्ञान ‘इदंता’ से नहीं होता। जैसे आँखसे संसार दीखता है, पर आँखको किससे देखें? ऐसे ही जो सबको जाननेवाला है, सबका आधार है, सबका प्रकाशक है, उसको किससे देखें? ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्’ (बृहदारण्यक० २। ४। १४)।
परन्तु जैसे जिससे यह संसार दिखायी देता है, वही आँख है, ऐसे ही जिसकी सत्तासे यह संसार प्रतीत हो रहा है, जिसके आधारपर संसार टिका हुआ है, जिसके प्रकाशसे संसार प्रकाशित हो रहा है, वही प्राप्त (परमात्मतत्त्व) है।
जो प्रतीत होता है, वह संसार कभी एकरस रहता ही नहीं। वह प्रतिक्षण बदल रहा है। यह कोई अपरिचित बात नहीं है, सीधी-सादी सबके प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है। यदि संसार रहनेवाला होता तो फिर वह बदलता कैसे? परन्तु इस बातको जानते हुए भी हम इसे मानते नहीं, प्रत्युत संसारको ‘है’ मान लेते हैं। जिस ‘है’ से यह संसार प्रकाशित हो रहा है, जिस ‘है’ के आधारपर यह दीख रहा है, उसको प्राप्त करनेमें बड़ी कठिनता मान ली। बड़े आश्चर्यकी बात है कि जो नित्यप्राप्त है, उसको अप्राप्त मान लिया और जो प्रतिक्षण बदल रहा है, उसको प्राप्त मान लिया।
जासु सत्यता तें जड़ माया।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
(मानस १। ११७। ४)
परमात्माकी सत्तासे ही यह जड माया (संसार) मूढ़ताके कारण सत्यकी तरह दीखती है। मूढ़ताके कारण यह सत्य भले ही दीखे, पर वास्तवमें सत्य है नहीं। इस संसारको देखनेवाली इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और दीखनेवाला संसार—ये दोनों एक ही जातिके हैं। शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिका प्रकाशक जीवात्मा और संसारमात्रका प्रकाशक परमात्मा—ये दोनों भी एक ही जातिके हैं। जीवात्मा और परमात्मा नित्यप्राप्त हैं; क्योंकि ये नित्य रहते हैं तथा शरीर और संसार नित्य ही अप्राप्त हैं; क्योंकि ये प्रतिक्षण बदलते हैं। जो प्रतिक्षण बदल रहा है, बह रहा है, वह टिकेगा कैसे? टिक सकता ही नहीं, प्रत्यक्ष बात है। आपका जो बचपन था, वह कहाँ गया? पहले जो परिस्थिति थी, वह कहाँ गयी? यह सब-का-सब ‘नहीं’ में ही भरती हो रहा है। परंतु जो ‘नहीं’ में भरती होनेवालेको जानता है, वह ‘नहीं’ में भरती कैसे होगा? वह तो है ही। यदि वह नहीं हो तो फिर ‘नहीं’ को जानेगा कौन? जो ‘नहीं’ को जाननेवाला है, उसकी प्राप्तिके लिये क्या करें? कुछ नहीं करें। कुछ नहीं करनेका अर्थ आलस्य, अकर्मण्यता, प्रमाद नहीं है। कुछ नहीं करनेका अर्थ है—जो ‘है’ है, उसमें स्थित हो जाय। गीताने कहा है—‘आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ (६। २५)। तात्पर्य है कि जो आत्मा सर्वत्र गया हुआ है (‘अतति सर्वत्र गच्छति इति आत्मा’) अर्थात् जो सर्वत्र परिपूर्ण है, उसमें स्थित हो करके कुछ भी चिन्तन न करे। कारण कि परमात्माका चिन्तन करोगे तो अपनी स्थितिसे नीचे आ जाओगे। परमात्माको अपनेसे अलग माननेपर ही चिन्तन होगा, क्योंकि चिन्तनमें जिसका चिन्तन किया जाय, वह और चिन्तन करनेवाला—दोनों अलग-अलग होते हैं। इसलिये ‘है’ में स्थित होकर चुप हो जायँ—यह युक्ति बहुत बढ़िया है। चुप होनेसे ‘है’ में अपनी स्वत:सिद्ध स्थितिका अनुभव हो जायगा। इस स्वत:सिद्ध स्थितिको गीताने ‘स्वस्थ:’ (१४। २४) पदसे कहा है। वास्तवमें सभी मनुष्य ‘स्व’ में ही स्थित रहते हैं, पर भूलसे अपनी स्थिति ‘पर’ (शरीर) में मान लेते हैं।
गीताने कहा है—‘पुरुष:सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते’ (१३। २०) अर्थात् पुरुष सुख-दु:खोंके भोक्तापनमें हेतु बनता है। कौन-सा पुरुष सुख-दु:खोंका भोक्ता बनता है? ‘पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’(१३। २१) अर्थात् प्रकृतिस्थ पुरुष ही प्रकृतिजन्य गुणोंका, सुख-दु:खोंका भोक्ता बनता है। वह सुख-दु:खमें सम कब होता है? ‘स्व’ में स्थित होनेपर। ‘स्व’ में स्थित होनेमें भी क्या कोई मेहनत करनी पड़ती है? ‘स्व’ में स्थित तो हैं ही। इसलिये कोई भी चिन्तन न करें। इस अवस्थामें जितना ठहर सको, उतना ठहर जाओ। कोई स्फुरणा पैदा हो तो उसको सत्ता न दो; वह अपने-आप नष्ट हो जायगी। पैदा होनेवाली चीज नष्ट होनेवाली होती है। पैदा होनेके बाद खास काम नष्ट होना ही है। अत: नष्ट होनेवाली चीजका क्या खयाल करें? आ गयी तो आ गयी, चली गयी तो चली गयी। लहर उठ गयी, फिर शान्त हो गयी। इसमें राजी और नाराज क्या हों? आयी हुई चीज जाती हुई दीख जाय तो क्या अपराध हो गया? उसको अच्छी और मन्दी समझना ही फँसना है। वह आयी है तो उसको जाने दो। उसकी उपेक्षा करो, उससे उदासीन रहो।
लोग मनको रोकनेके लिये बहुत मेहनत करते हैं, पर मन रुकता नहीं। मनको रोकना नहीं है। मनको न तो रोकना है और न चलाना है। मन जैसा है, वैसा ही छोड़ दो; उसकी उपेक्षा कर दो, उदासीन हो जाओ। फिर संकल्प-विकल्प आप-से-आप मिट जायँगे। वे तो आप-से-आप ही मिट रहे हैं। जान-बूझकर उनको मिटानेकी आफत क्यों मोल लेते हो? उनको मिटानेकी चेष्टा करना ही उनको सत्ता देना है।
भगवान् ने अपनी तरफसे कहीं ऐसा नहीं कहा कि मनको वशमें करनेके लिये अभ्यास करना चाहिये, प्रत्युत ‘शनै: शनैरुपरमेत्’ (६। २५) पदोंसे उपराम होनेके लिये कहा है। मनको पकड़नेके विषयमें अर्जुनके पूछनेपर ही भगवान् ने उनको बताया कि अभ्यास और वैराग्यसे यह मन पकड़ा जाता है (६। ३३—३५)। अर्जुनने दो श्लोकोंमें प्रश्न किया और भगवान् ने दो श्लोकोंमें ही उत्तर दे दिया। इतना थोड़ा भगवान् किसी प्रश्नके उत्तरमें बोले ही नहीं। दो श्लोकोंमें भी भगवान् ने केवल आधे श्लोकमें ही उत्तर दिया और आधे श्लोकमें अर्जुनकी बातका समर्थन किया। फिर भगवान् ने बताया कि मनको पकड़नेमात्रसे मुक्ति नहीं होती, मनको वशमें करना चाहिये—
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥
(६।३६)
‘जिसका मन वशमें नहीं है, उच्छृंखल है अर्थात् सांसारिक भोगोंमें जिसकी रुचि है, उसके द्वारा योग प्राप्त करना कठिन है। परंतु जिसका मन वशमें है, ऐसे यत्न करनेवाले साधकको योग प्राप्त हो सकता है।’ मनको वशमें करनेका अर्थ यह नहीं है कि मनको मैं पकड़ लूँ, एकाग्र कर लूँ। मनके वशमें न होना ही मनको वशमें करना है। इसी तरह भगवान् ने इन्द्रियोंके तथा राग-द्वेषके वशमें न होनेकी बात कही है—‘रागद्वेषवियुक्तैस्तु....प्रसादमधिगच्छति॥’ (२।६४); ‘इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे.........परिपन्थिनौ॥’ (३।३४) वशमें न होनेका अर्थ है कि उसके कहनेके अनुसार काम न करे और उसकी दशा देखकर चिन्तित न हो। वह ज्यों बहता है, त्यों बहता रहे। स्वयं उससे अलग रहे, तटस्थ रहे। वास्तवमें आप उससे तटस्थ ही हो। आप उसके साथ रहते नहीं हो। वह तो बदलता है, पर आप नहीं बदलते हो। आप बिलकुल उससे अलग हो। इस तरह उसको अपनेसे अलग जानना है।
मनके चंचल होनेसे आपका क्या बिगड़ गया? आप तो ज्यों-के-त्यों हो और वह बह रहा है। यह भी एक तमाशा है। मनको ठीक करनेमें कई वर्ष लग जाते हैं, पर ठीक होता नहीं। ठीक कैसे हो? वह ठीक होनेवाला है ही नहीं। आप तो उलटे उसको बल देते हो, उसको चंचल बनाते हो और कहते हो कि मनको रोकते हैं। संसारको याद करते हो और कहते हो कि भगवान् का पूरा भजन-ध्यान करते हैं। एकान्तमें घण्टाभर बैठे, तो उसमें कितनी देर भगवान् याद आये? भगवान् को तो याद करना पड़ता है, पर संसार आप-से-आप याद आता है। इस विषयमें एक बात बड़ी शान्तिसे समझनेकी है कि जो आप-से-आप याद आता है, उसकी आपपर जिम्मेवारी नहीं होती। अत: जो आप-से-आप याद आता है, उसमें मुफ्तमें ही क्यों उलझते हो? स्फुरणा आप-से-आप उत्पन्न होती है और आप-से-आप शान्त हो जाती है, आप क्यों आफतमें पड़ते हो? मनुष्यकी जिम्मेवारी करनेपर होती है। जिसको आप करते ही नहीं, प्रत्युत जो आप-से-आप होता है, उसकी जिम्मेवारी आपपर नहीं है। आप जवानसे बूढ़े हो गये, तो क्या आपपर इसकी जिम्मेवारी है कि आप बूढ़े क्यों हो गये? आपने गलती क्यों की? ऐसे ही आप संसारको याद नहीं करते, पर संसार आप-से-आप याद आता है तो इसकी जिम्मेवारी आपपर नहीं है। इसलिये आप अपनी तरफसे कुछ भी चिन्तन न करें—‘न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।’ चिन्तन आ जाय, तो वह जैसे आया है, वैसे ही चला जायगा। आप उसमें कुछ दखल न करें। यह बहुत ही बढ़िया युक्ति है। आपके विश्वासके लिये कहता हूँ कि हमारेको तो यह युक्ति बहुत वर्षोंके बाद मिली है। आप तो इस युक्तिको अभी ही काममें ले लो। मनकी उपेक्षा कर दो। बस, आप ठीक ठिकाने आ गये। मनके साथ मिलकर उसको एकाग्र करनेकी चेष्टा करना इतना बढ़िया उपाय नहीं है। कारण कि ऐसा करनेसे उसको सत्ता मिलेगी, उसको महत्त्व मिलेगा। जो है ही नहीं, उसको मिटानेकी चेष्टा करनेका अर्थ है—उसको ‘है’ मानना।
चिन्तन या तो भूतकालका होता है या भविष्यकालका। वर्तमानका चिन्तन नहीं होता। अत: जो वर्तमानमें है ही नहीं उसको ‘है’ मान लिया—यही तो गलती की है। उसको ‘है’ मानकर फिर उसको मिटाते हो तो यह मिटाना नहीं हुआ, प्रत्युत उसको दृढ़ करना हुआ। जो घटना बीत गयी, वह अब है ही नहीं और जो घटना भविष्यमें हो सकती है, वह भी अभी नहीं है। जो अभी है ही नहीं, उसको तो पकड़ते हो, उससे युद्ध करते हो, पर जो परमात्मा अभी है, उसकी तरफ देखते ही नहीं! वर्तमानमें जो केवल परमात्मा ही है, उसको तो मानते ही नहीं और जो वास्तवमें है ही नहीं, उसको मान लिया। वास्तवमें वर्तमानकालकी सत्ता ही नहीं। भूत और भविष्यकी संधिको ही वर्तमान कह देते हैं। वर्तमान तो एकमात्र परमात्मा ही है। भगवान् कहते हैं—
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
(गीता ७।२६)
‘जो प्राणी भूतकालमें हो चुके हैं, जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे उन सबको मैं जानता हूँ, पर मेरेको कोई नहीं जानता।’
यहाँ ‘अहं वेद’ पदोंमें केवल वर्तमानकालका प्रयोग करनेका तात्पर्य है कि परमात्माके लिये सब कुछ वर्तमान ही है। अत: वर्तमानमें सत्तारूपसे एक परमात्मा ही है। अब उसका चिन्तन क्या करें? उसमें ही पूरे डूबे रहें। वह हमारा है, हम उसके हैं। वह हमारेमें है—‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत’ (गीता १३। २)। अब उसकी प्राप्तिमें कठिनता किस बातकी? उसकी प्राप्तिके समान सुगम काम कोई है ही नहीं। पर सुगम भी तब कहा जाय, जब कुछ करना पड़े। जब कुछ करना ही न पड़े, तब उसको सुगम भी कैसे कहें? उसको कठिन माना है इसलिये कठिनताका भाव दूर करनेके लिये कहते हैं कि यह तो बड़ा सुगम है!
परमात्मा है और सदा ही प्राप्त है—इसपर दृढ़ रहना है। चाहे कितनी ही उथल-पुथल हो जाय, वह सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। संसार तो निरन्तर बहता है, पर वह परमात्मा ‘है’ रूपसे वही रहता है।
नारायण! नारायण! नारायण!