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स्वार्थरहित सेवाका महत्त्व

जैसे हाथ, पैर, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, मस्तिष्क आदि एक ही शरीरके अनेक अवयव हैं और ये सब मिलकर शरीर-निर्वाहके लिये काम करते हैं। इन सबके काम तो अलग-अलग हैं, पर अलग-अलग काम करते हुए भी ये सभी परस्पर एक-दूसरेके हितमें लगे रहते हैं। ऐसे ही संसारमात्रके जो अनेक प्राणी हैं, उन सबको भी मिलकर समष्टि संसारके हितके लिये काम करना चाहिये। गलती वहाँ होती है, जब वे केवल अपने लिये ही काम करते हैं। जैसे, हाथ केवल अपने लिये ही काम करें, पैर, आँख, कान आदि किसीके लिये नहीं, तो शरीरका निर्वाह नहीं होगा। पैर कहें कि हम तो अपने लिये ही काम करेंगे, शरीरको हम क्यों उठायें? हाथोंको हम क्यों उठायें? तो शरीरका काम नहीं चलेगा। इसी तरह स्वार्थमें आकर हर प्राणी अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहे तो संसारका काम नहीं चलेगा। अपने स्वार्थके लिये काम करनेसे ही काम बिगड़ता है।

सम्पूर्ण प्राणी एक ही संसारके अनेक अवयव हैं। किसी भी रीतिसे शरीर संसारसे अलग सिद्ध नहीं हो सकता। बनावटकी दृष्टिसे, धातुकी दृष्टिसे, संरक्षककी दृष्टिसे देख लो, शरीरको संसारसे अलग सिद्ध नहीं कर सकते। जैसे शरीरके अवयव अलग-अलग होते हुए भी एक ही शरीरके अंग हैं, ऐसे ही संसारमें छोटे-बड़े जितने भी प्राणी हैं, वे सब एक विराट्-(समष्टि-संसार) के ही अंग हैं। एक विराट्के अंग होकर भी वे अपना व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करते हैं—यह गलती है।

अपना स्वार्थ सिद्ध करें या नहीं करें—इसका ज्ञान पशु-पक्षियोंमें नहीं है; परन्तु मनुष्यमें इसका ज्ञान (विवेक) है। मनुष्य विवेकपूर्वक यह विचार कर सकता है कि यह सम्पूर्ण संसार अपना कुटुम्ब है, फिर एक अपने स्वार्थके लिये काम कैसे करें? नीतिमें भी आया है—

अयं निज: परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
(पंचतन्त्र, अपरीक्षित ३७)

‘यह तो हमारा है और यह दूसरोंका (पराया) है—ऐसा विचार तो तुच्छ हृदयवाले लोगोंका हुआ करता है। जिनका हृदय उदार है, उनके लिये तो सारा संसार ही कुटुम्ब है।’

संसारका कोई भी प्राणी हो, चाहे वह स्थावर हो या जंगम, अपने ही कुटुम्बका है। शास्त्रोंमें आया है कि जैसे अपने घरमें रहनेवाले लोग अपने कुटुम्बी हैं, ऐसे ही अपने घरमें रहनेवाली चींटियाँ, मक्खियाँ, चूहे आदि भी अपने कुटुम्बी ही हैं। वे भी उस घरको अपना घर मानते हैं। चिड़ियाँ उस घरमें जहाँ अपना घोंसला बनाती हैं, वहाँ दूसरी चिड़ियोंको नहीं रहने देतीं। विचार करें, एक घरमें भी कितने घर हैं! सबका अपना-अपना घर है। अत: घरको केवल अपना ही मानना और केवल अपने घरके लिये ही सब काम करना पशुता है। मनुष्यता नहीं। भागवतमें आया है कि इस पशुबुद्धिका त्याग कर दो—‘पशुबुद्धिमिमां जहि’ (श्रीमद्भागवत १२। ५। २)। सबके हितमें अपना हित मानना ही मनुष्यबुद्धि है।

आज जो आध्यात्मिक उन्नतिमें देरी हो रही है, उसका खास कारण यही है कि आप अपना व्यक्तिगत हित ही चाहते हैं अर्थात् अपने व्यक्तित्वको, परिच्छिन्नताको कायम रखते हैं। मेरी मुक्ति हो, मेरेको सुख मिले, मेरा हित हो, मेरा मतलब सिद्ध हो—इस व्यक्तित्त्वको, एकदेशीयताको आप छोड़ते नहीं। पशुका जो स्वभाव है, उसी स्वभावको लेकर आप काम करते हैं।

गीतामें आया है—

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
(३।१०-११)

‘प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजाकी रचना करके उनसे (प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग अपने कर्तव्यके द्वारा अपनी वृद्धि करो और वह कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो! अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।’

तात्पर्य है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीके देवता तथा चन्द्र, सूर्य आदि देवतामात्र जीवोंकी वृद्धि करें, उनका पालन करें, उनकी सेवा करें। मनुष्य यज्ञके द्वारा देवताओंका पूजन करें, उनकी वृद्धि करें, उनकी सेवा करें। यहाँ ‘देव’ शब्द उपलक्षणरूपसे है; अत: ‘देव’ शब्दके अन्तर्गत मात्र प्राणियोंको लेना चाहिये। मनुष्यका कर्तव्य मात्र प्राणियोंका हित चाहना है, उनकी सेवा करना है। इसलिये मनुष्यको अपने-अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनी चाहिये। जैसे, ब्राह्मण अपने ब्राह्मणोचित कर्मसे सबकी सेवा करे, क्षत्रिय अपने क्षत्रियोचित कर्मसे सबकी सेवा करे, वैश्य अपने वैश्योचित कर्मसे सबकी सेवा करे और शूद्र अपने शूद्रोचित कर्मसे सबकी सेवा करे। इस प्रकार एक-दूसरेकी सेवा करनेसे परमश्रेयकी प्राप्ति हो जायगी।

परमश्रेयकी प्राप्तिमें केवल अपनी स्वार्थ-भावना ही बाधक है। आपके पास जितनी वस्तुएँ हैं, वे समष्टिकी हैं और सबकी सेवाके लिये हैं। उन वस्तुओंसे अपना निर्वाह भी दूसरोंकी सेवाके लिये करो, अपने सुखभोगके लिये नहीं—‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस ७। ४४। १)। मनुष्य-शरीरका उद्देश्य विषय-भोग करना, संसारका सुख लेना नहीं है, प्रत्युत सबकी सेवा करना है। इसीलिये सबको सुख कैसे पहुँचे, सबको आराम कैसे पहुँचे, सबका भला कैसे हो—यही चिन्तन करो, यही विचार करो। ब्रह्माजी कहते हैं—

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्‍क्ते स्तेन एव स:॥
(गीता ३।१२)

‘यज्ञसे भावित (पुष्ट) हुए देवता भी तुमलोगोंको कर्तव्यपालनकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंसे प्राप्त हुई सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है।’

मनुष्यको जो सामग्री मिली है, वह सबकी सेवा करनेके लिये मिली है केवल अपने उपभोगके लिये नहीं, जो अकेला उसका उपभोग करता है, उसको चोर कहा गया है—‘स्तेन एव स:’। अगर मिली हुई सामग्री अपने उपभोगके लिये ही होती, तो उसको चोर नहीं कहते! इसलिये मनुष्यको जो भी सामग्री मिली है, उसको अकेले भोगनेका वह अधिकारी नहीं है। जैसे परिवारमें जो आदमी पैसे कमाता है, उसके द्वारा कमाये हुए पैसोंपर अकेले उसका ही हक नहीं लगता, प्रत्युत उसके पूरे परिवारका हक लगता है। अगर वह अपनी स्त्रीसे कह दे कि ‘मैं अकेला ही खाऊँगा; तू तो घरपर बैठी रहती है, तेरेको क्यों दिया जाय? माँ-बापसे कहे कि आप तो ऐसे ही घरपर बैठे रहते हैं, आपको क्यों दिया जाय? मैंने मेहनत की है, मैंने कमाया है; अत: मैं अकेला ही भोग करूँगा’ तो ऐसी परिस्थितिमें क्या परिवारमें सुख-शान्ति रहेगी? परिवारका काम ठीक तरहसे चलेगा? कभी नहीं। इसी तरहसे अगर लोग केवल अपने स्वार्थकी पूर्तिमें ही लगे रहेंगे तो सृष्टिका काम ठीक तरहसे नहीं चलेगा।

हमारे पास जो कुछ है, वह सब हमें संसारसे ही मिला है। शरीर और उसके लिये अन्न, जल, वस्त्र, हवा, रहनेका स्थान आदि हमें समष्टि-संसारसे मिले हैं। धनी-से-धनी व्यक्ति, राजा-महाराजा भी ऐसा नहीं कह सकता कि मैं दूसरेसे सेवा लिये बिना अपना निर्वाह कर लूँगा। कैसे कर लेगा? वह सड़कपर चलेगा, तो क्या सड़क अपनी बनायी हुई है? किसी वृक्षके नीचे ठहरेगा, तो क्या वह वृक्ष अपना लगाया हुआ है? कहीं जल पीयेगा, तो क्या कुआँ अपना खुदवाया हुआ है? उसे संसारसे लेना ही पड़ेगा, परवश होकर लेना पड़ेगा। लेना तो पशुओंको भी पड़ेगा, फिर मनुष्यकी बुद्धिकी क्या विशेषता हुई? लिया है तो देना भी चाहिये; परवशतासे जो लिया है, उससे भी ज्यादा देना है—यह मनुष्यबुद्धिकी विशेषता है। भगवान् ने कहा है—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ (गीता १२। ४) ‘जो मनुष्य प्राणिमात्रके हितमें रत होते हैं, वे मेरेको ही प्राप्त होते हैं।’ प्राणिमात्रके हितमें रति होनी चाहिये। उनका हित कर दें—यह हाथकी बात नहीं है। सारा संसार मिलकर एक आदमीकी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकता, तो फिर एक आदमी सारे संसारकी इच्छा पूरी कैसे कर देगा? मनुष्यका कर्तव्य यह है कि उसके पास जो सामग्री है, उसको वह उदारतापूर्वक दूसरोंके हितके लिये समर्पित कर दे। ऐसा करनेसे उसको कल्याणकी प्राप्ति हो जायगी।

मनुष्य जितना-जितना व्यक्तिगत स्वार्थभाव रखेगा, उतना ही वह संसारमें नीचा माना जायगा। कमानेवाला केवल अपना ही पेट भरेगा, अकेला ही सामग्रीका उपभोग करेगा तो वह न घरमें आदर पायेगा, न बाहर। वह जितना-जितना व्यक्तिगत स्वार्थका त्याग करके कुटुम्बकी सेवा करेगा, उतना ही वह अच्छा माना जायगा। अगर वह केवल कुटुम्बका ही नहीं, पड़ोसियोंका भी हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा। केवल पड़ोसियोंका ही नहीं, सम्पूर्ण गाँवका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा। केवल गाँवका ही नहीं, प्रान्तका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा। केवल प्रान्तका ही नहीं, सारे देशका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा। अगर वह देश-विदेशका, सम्पूर्ण पृथ्वीका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा! अगर वह देवता, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि मात्र जीवोंका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा। अगर वह भगवान् की सेवा करेगा, भगवान् का भजन-कीर्तन-ध्यान करेगा तो वह सर्वश्रेष्ठ हो जायगा। जैसे वृक्षके मूलमें जल डालनेसे सम्पूर्ण वृक्ष स्वत: हरा हो जाता है, ऐसे ही संसाररूपी वृक्षके मूल भगवान् का चिन्तन करनेसे, भजन करनेसे संसारमात्रकी सेवा स्वत: हो जाती है।

सिद्धान्त यह हुआ कि मनुष्यके द्वारा जितनी व्यापक सेवा होगी, उतना ही वह श्रेष्ठ हो जायगा। हमें जो कुछ मिला है, वह सृष्टिसे मिला है। इसलिये उसको बड़ी ईमानदारीसे सृष्टिकी सेवामें लगा देना चाहिये। यह गीताका कर्मयोग है।

नारायण! नारायण! नारायण!

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