आँख और पेटकी बीमारी
सभी मनुष्योंमें दो तरहकी बीमारी है—आँखकी बीमारी और पेटकी बीमारी। आँखकी बीमारी क्या है?
इस दुनियामें एक अँधेरा,
सबकी आँखमें जो छाया।
जिसके कारण सूझ पड़े नहीं,
कौन हूँ मैं कहाँसे आया॥
कौन दिशाको जाना मुझको,
किसको देख मैं ललचाया।
कौन है मालिक इस दुनियाका,
किसने रची है यह माया॥
और पेटकी बीमारी क्या है?
इस दुनियामें एक कूप है,
जिसका पार कोई नहीं पावै।
जिसको भरने कारण प्राणी,
देश दिगन्तरको जावै॥
दीन भये पर घरमें जाकर,
सेवा कर कर मर जावै।
भजन ध्यान चिन्तन ईश्वरका,
जिसके कारण बिसरावै॥
इस विषयमें एक कहानी है। एक वैद्य रहते थे। उनके पास एक रोगी पहुँचा। उसने वैद्यसे कहा कि मेरी आँखमें बड़ी पीड़ा हो रही है और पेटमें भी पीड़ा हो रही है। वैद्यने उसको लिटाकर उसका पेट देखा और आँख देखी। इतनेमें एक दूसरा रोगी आया। उसने भी कहा कि मेरी आँखमें और पेटमें बड़ी पीड़ा हो रही है। वैद्यने विचार किया कि यह कैसी हवा चली है, सबको एक ही बीमारी! वैद्यने दोनों रोगियोंके लिये अलग-अलग दवा लिख दी और कहा कि कम्पाउण्डरसे दवा ले लो। कम्पाउण्डरने दोनोंको दवाकी दो-दो पुड़िया बनाकर दे दी, एक आँखके लिये और एक पेटके लिये। वैद्यने समझा दिया कि देखो, यह आँखमें डालनेकी पुड़िया है। इसको रातमें सोते समय आँखमें डालना और बार-बार पलक झपकाना, जिससे आँखमें गरम-गरम पानी निकल जायगा। फिर सो जाना। इससे आँख ठीक हो जायगी। यह दूसरी पुड़िया पेटके लिये है। इसको एक पाव जलमें डालकर आगपर रख देना। जब जल एक छटाक रह जाय, तब वह काढ़ा छानकर पी लेना। इससे पेट ठीक हो जायगा और दस्त लगनेसे आँखमें भी लाभ होगा।
दोनों रोगी दवा लेकर चले गये। घर जाकर एक रोगीने तो ठीक वैसा ही किया, जैसा वैद्यने कहा था। आँखकी दवा आँखमें डाल दी और पेटकी दवा पेटमें। परन्तु दूसरे रोगीने पुड़िया उलट दी! उसने पेटकी दवा आँखमें डाल दी और आँखकी दवा पेटमें डाल दी। आँखमें थोड़ा-सा कचरा भी पड़ जाय तो पीड़ा होने लगती है, पर उसने पेटका चूर्ण आँखमें डाल दिया! इससे आँखकी पीड़ा बढ़ गयी! आँखकी दवा ठण्डी होती है, वह पेटमें चली गयी तो पेटकी पीड़ा भी बढ़ गयी! अब वह वैद्यको गाली देने लगा कि तेरे बापको मैंने मारा था क्या? वह तो अपनी मौत मरा था। फिर मेरेसे किस दिनका बदला लिया है! दूसरे दिन वह दवाखाना खुलनेसे पहले ही वहाँ जा बैठा। वैद्यजी आये और दवाखाना खोलकर उससे पूछा—कहो, कैसे हो?
वह बोला—कैसे क्या हूँ!
वैद्यने कहा—अरे, क्या हुआ?
वह बोला—हुआ क्या, जो तुमने किया, वही हुआ!
वैद्यने कहा—हमने क्या किया?
वह बोला—ऐसी दवा दे दी कि मेरी आँखकी पीड़ा भी बढ़ गयी और पेटकी पीड़ा भी बढ़ गयी! साफ कह देते कि मैं दवा नहीं देता! मेरे पास ज्यादा रुपया तो है नहीं, इसलिये उलटी दवा दे दी।
वैद्यने कहा—भाई, पीड़ा कैसे बढ़ गयी? किसी आदमीको दवा जल्दी असर करती है, किसीको नहीं करती, यह तो अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार होता है, पर पीड़ा बढ़नेका तो कोई कारण ही नहीं है!
वह बोला—मैं तो भुक्तभोगी हूँ, मेरी पीड़ा तो बढ़ गयी!
इतनेमें दूसरा रोगी आया। वैद्यने उससे पूछा—कहो, तुम कैसे हो? वह बोला—महाराज, बहुत आराम है। एक-दो दस्त लगे, पेट भी ठीक है और आँखें भी ठीक हैं। यह सुनते ही पहला रोगी बोला—देखो, यह पैसेवाला आदमी है, इसको तो बढ़िया दवा दे दी, मेरेको घटिया दे दी ! वैद्यने कहा—घटिया कैसे दे दी? जो दवा उसको दी, वही तुमको भी दी। तुम्हारी पुड़िया कैसी थी? रोगीने जेबसे चूर्णकी पुड़िया निकालकर वैद्यके सामने पटक दी और बोला—यह है वह पुड़िया। वैद्यने कहा—दूसरी पुड़िया? वह बोला—दूसरी तो मैं काढ़ा बनाकर पी गया! यह पुड़िया आँखमें डाली थी, दवा ज्यादा थी, इसलिये बच गयी। वैद्यने कहा कि इसको निकालो यहाँसे! उलटी दवा तो यह खुद लेता है और कहता है कि तुमने मेरी पीड़ा बढ़ा दी!
इसी तरह हम सब लोग रोगी हैं। हमारी आँखकी बीमारी क्या है? वास्तविक बात सूझती नहीं है। खुद तो जानते नहीं, दूसरेकी मानते नहीं। जो अधूरा जानते हैं, उसीको पूरा मान लेते हैं कि बस, यही ठीक है। पेटकी बीमारी क्या है? पेट कभी भरता ही नहीं! दरिद्रका भी पेट नहीं भरता और लखपति-करोड़पतिका भी पेट नहीं भरता। कितना ही मिल जाय तो भी कहते हैं कि क्या करें, काम नहीं चलता। इन दोनों रोगियोंके लिये भगवान्ने हमें दो पुड़िया दी हैं—प्रारब्ध और पुरुषार्थ। आँखकी बीमारीके लिये ‘पुरुषार्थ’ है और पेटकी बीमारीके लिये ‘प्रारब्ध’ है। पुरुषार्थ करेंगे, सत्संग-स्वाध्याय, विवेक-विचार करेंगे तो आँखका रोग दूर होगा और अपने कर्तव्यका पालन करते हुए प्रारब्धपर विश्वास करेंगे कि जो हमारे भाग्यमें लिखा है, वही मिलेगा* तो पेटका रोग दूर होगा।
* यदभावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा।
इति चिन्ताविषघ्नोऽयमगद: किं न पीयते॥
‘जो नहीं होनेवाला है, वह होगा नहीं और जो होनेवाला है, वह होकर ही रहेगा। चिन्तारूपी विषका नाश करनेवाली इस औषधका पान क्यों न किया जाय?’
प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर।
तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुबीर॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
(मानस, बाल० ५२। ४)
प्रारब्ध शोक-चिन्ता मिटानेके लिये है, आलसी-अकर्मण्य बनानेके लिये नहीं। जैसे, बेटा बीमार हो तो अपनी सामर्थ्यके अनुसार उसका भलीभाँति इलाज करते-करते अगर वह मर जाय तो मनमें इस बातको लेकर चिन्ता, शोक, दु:ख नहीं होगा कि हमने अपनी तरफसे उसके इलाजमें कमी रखी। बेटा तो प्रारब्धके अनुसार ही मरेगा, पर अपने पुरुषार्थमें कमी होगी तो चिन्ता, शोक, दु:ख होगा कि हमने अपने कर्तव्यका ठीक पालन नहीं किया! इसलिये जो करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न रहते हैं, उनकी आँखका रोग भी ठीक हो जाता है और पेटका रोग भी। परन्तु जो पुड़िया उलट देते हैं अर्थात् आँखके रोगके लिये प्रारब्ध और पेटके रोगके लिये पुरुषार्थ लगा देते हैं, उनके ये दोनों ही रोग बढ़ जाते हैं। ऐसे लोगोंसे सत्संग-स्वाध्याय, भजन-ध्यान करनेके लिये कहा जाय तो वे कहते हैं कि कैसे करें महाराज! हमारे तो भाग्यमें ही नहीं है। प्रारब्धसे मिलनेवाले धनके लिये रात-दिन पुरुषार्थमें लगे रहते हैं। सारा पुरुषार्थ पेटके लिये लगा देते हैं और आँखके लिये कुछ करते ही नहीं! भगवान्का नाम लेनेके लिये कहो तो कहते हैं कि नाम कैसे लें, मुखमें सौ मनका ताला लगा है! नाम लेना हमारे भाग्यमें लिखा ही नहीं है! भगवान्की ऐसी ही मरजी है, हम क्या करें? हमारा क्या दोष है?
अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिका प्राप्त होना ‘प्रारब्ध’ के अधीन है और प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करना ‘पुरुषार्थ’ के अधीन है। इसलिये कर्तव्य-पालन, सत्संग-स्वाध्याय, भजन-ध्यान आदि करनेमें तो मनुष्य स्वतन्त्र है, पर धन कमानेमें स्वतन्त्र नहीं है। मनुष्य यह नियम तो ले सकता है कि मैं रोजाना इतनी माला जप करूँगा, इतना स्वाध्याय करूँगा, पर यह नियम नहीं ले सकता कि मैं रोजाना इतने रुपये कमाऊँगा। कारण कि भजन-ध्यान आदि करना पुरुषार्थके अधीन है और रुपये कमाना प्रारब्धके अधीन है। परन्तु जहाँ पुरुषार्थ लगाना चाहिये, वहाँ प्रारब्ध लगा दिया और जहाँ प्रारब्ध लगाना चाहिये, वहाँ पुरुषार्थ लगा दिया। इससे दोनों बीमारियाँ बढ़ गयीं। पेटकी बीमारी बढ़नेसे जीवन-निर्वाहका खर्चा बहुत बढ़ गया। पढ़ाई-लिखाईमें, खान-पानमें, स्वाद-शौकीनीमें, रहन-सहनमें खर्चा बढ़ गया और कहते हैं कि स्टैण्डर्ड ऊँचा होना चाहिये ! सारा पुरुषार्थ स्टैण्डर्ड ऊँचा करनेमें, पेट भरनेमें लगा दिया और आँखसे कुछ दीखता ही नहीं है कि भगवान् क्या हैं? संसार क्या है? मैं कौन हूँ? मेरेको क्या करना है? ‘रात-दिन’ हाय पैसा! हाय पैसा! करते हैं। अगर ‘हाय भगवन्! हाय भगवन्!’ करें तो निहाल हो जायँ! जिस लगनसे धन कमाते हैं, उस लगनसे साधन करें तो कल्याण हो जाय! परन्तु साधककी यह दशा है कि नित्य-नियम पूरा हुआ तो सोचते हैं कि आजकी आफत तो मिटी! माला पूरी हुई तो मानो जेलसे छूट गये! दूकानमें रोज सौ रुपये कमाते हैं और वे सौ रुपये अगर सुबह ही पैदा हो जायँ तो भी दूकान दिनभर खोलकर बैठे रहेंगे। पर जप पूरा हो जाय तो माला लपेटकर रख देंगे! यह क्या है? यह उलटी पुड़िया ले ली। इसलिये जो मिला है, उसमें सन्तोष करें, जो नहीं मिला है, उसकी कामना न करें; अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करें, दूसरोंकी सेवा करें और भगवान्का भजन-स्मरण, सत्संग-स्वाध्याय करें तो आँखकी पीड़ा भी ठीक हो जायगी और पेटकी पीड़ा भी।