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पाप प्रारब्धके फल नहीं

प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल ५, संवत् १९९५, दिनाङ्क ३। ६। ३८, दोपहर, कर्णवास

काम-क्रोध ही आत्माका पतन करनेवाले हैं, इसलिये इनका नाश कर देना चाहिये। बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करना चाहिये। हम जितने पाप करते हैं, इनमें आसक्ति हेतु है। इसलिये पापी कामको मार डालना चाहिये। पाप प्रारब्धसे होता है—यह कभी भी नहीं मानना चाहिये। जो भी कुछ अनुचित प्राप्त हो जाय, उसका त्याग कर देना चाहिये। आज हमको लाख रुपये मिले, इनका हम त्याग कर सकते हैं, इसी तरह झूठ, कपट, लोभ आदिका हम त्याग कर सकते हैं। त्यागसे ही शान्ति मिलती है। ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ यदि यह मान लिया जाय कि प्रारब्धसे पाप होता है तो फिर घोर दु:ख उठाना पड़ेगा। वे महान् दम्भी और पाखण्डी पुरुष हैं जो ऐसा कहते हैं। जो ऐसा मान लेता है कि झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार—ये सब हमको प्रारब्धवश करना पड़ता है, वह घोर नरकमें जाता है। ईश्वरने हमें बुद्धि दी है। ईश्वर ऐसा प्रारब्ध बनाता ही नहीं, यदि ऐसा बनावे तो ईश्वरमें ईश्वरत्व ही क्या है? चोरी और डकैतीका फल दण्ड है, इसी तरह प्रभु भी पापका फल दण्ड देते हैं। यदि इस प्रकार विधाताने ऐसा लिख दिया तो फिर विधाता ही भोगे, क्योंकि उसीने ऐसा प्रारब्ध बनाया है, फिर यह भी झूठा हो जायगा कि ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ इत्यादि, क्योंकि लोग कह देंगे कि हमारे प्रारब्धमें तो है ही नहीं। इस नीतिसे शास्त्र झूठे होते हैं, इसलिये यह बात बिलकुल झूठी है। ईश्वर स्वयं अच्छे काममें हमें सहायता देता है, क्योंकि प्रभुने कहा है—‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ जो भगवान‍्के प्रतिकूल काम करता है, उसे भगवान् दण्ड देते हैं। इसलिये जो शास्त्रोंका तात्पर्य न समझकर दूसरा ही अर्थ निकालकर उसी तरह कार्य करने लगता है, वह नरकमें जाता है। मुक्ति अथवा भगवत्-प्राप्तिसे ऊपर कोई भी चीज नहीं है। वहाँ परम आनन्द, परम शान्ति है। सारी दुनिया उसकी प्रशंसा करती है। यह सर्वोपरि चीज है। इसीके उपार्जनके लिये मनुष्य-शरीर मिला है। उसकी प्राप्तिके बाद मनुष्यका पतन कभी भी नहीं होता। महाप्रलयके बाद भी वह नष्ट नहीं होता, क्योंकि भगवान‍्ने कहा है—‘प्रलये न व्यथन्ति च’ स्वर्ग गया हुआ तो वापस आता है, किन्तु मुक्त नहीं आता। वह तो सदाके लिये परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है। कोई कह दे कि मुक्त जीव आता है। जिसके यह संस्कार है कि मुक्त जीव वापस आता है, उसकी मुक्ति होती ही नहीं। यही मानना पड़ता है कि मुक्त जीव वापस नहीं आता। भगवान‍्ने गीतामें कहा है—

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
(गीता २। १९-२०)

जो इस आत्माको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तवमें न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है।

यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।

जिस समय नचिकेता यमराजके पास गये, यमराजने उनसे तीन वर माँगनेके लिये कहा। अन्तके वरमें उसने पूछा—आत्मा है अथवा नहीं। यमराजने भी जो उत्तर दिया वह उपरोक्त गीताके भावसे ही मिलता-जुलता है। भगवान् तो समदर्शी हैं। पूर्वजन्मके अनुसार ही भगवान् मनुष्यको बनाते हैं। जैसे किसीको धनी, किसीको निर्धन और किसीको पशु। कोई कहे कि पहले हमारा जन्म हुआ ही नहीं, यह बात बिलकुल ठीक नहीं, क्योंकि फिर भगवान् किसीको पशु क्यों बनाते। जब मनुष्यको यही पता नहीं कि मैंने एक वर्षकी अवस्थामें क्या किया? दो वर्षकी अवस्थामें क्या किया? यह भी पता नहीं तो फिर जन्मोंकी बात कैसे बता सकते हैं। यह भी पता नहीं कि दस दिन पहले शामको कौन-सा साग खाया था, तब जन्मकी बात कैसे याद आ सकती है। जब मनुष्य जन्म लेता है, तब जन्मते ही रोता है, यह रोना किसने सिखलाया। इससे सिद्ध होता है कि पूर्वमें रोये थे, इसलिये वह स्वभावसिद्ध था। बालक हँसता भी है, वह हँसना भी किसने सिखलाया। माता दूध देती है, तब वह स्तनसे दूध खींच लेता है, इससे भी सिद्ध होता है कि पूर्वमें जन्म हुआ था। मनुष्य दु:ख पाता है, इसलिये सिद्ध होता है कि उसने पाप किया था। जो आत्माका नाश मानता है, वही जन्म लेता है और जो आत्माको अविनाशी और नित्य मानता है वह मुक्त हो जाता है। एक भाई कहता है परलोक है, दूसरा कहता है नहीं है। इसका फल यही होगा कि यदि परलोक होगा तो माननेवालेको तो परलोक और नहीं माननेवालेको नरक मिलेगा। क्योंकि वह तो परलोकके लिये यत्न करेगा नहीं, इसलिये परलोक माननेमें ही लाभ है।

त्यागमें सुख है, क्योंकि संयोगका वियोग अवश्य होना है। संयोग वियोगको लेकर होता है। प्रिय वस्तुके वियोगमें दु:ख होता है, इसलिये वियोगके पूर्व ही हमें इनका त्याग कर देना चाहिये। एक चील थी, उसके मुँहमें मांसका टुकड़ा था। उसके पीछे बहुत-सी चीलें चलने लगीं, अन्तमें उसने उसका त्याग कर दिया तो फिर वह सुखी हो गयी। त्याग करना अपने हाथकी बात है, किन्तु सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्ति अपने हाथकी बात नहीं है। त्यागमें पूर्ण स्वतन्त्रता है। त्यागसे पूर्ण शान्ति मिलती है। ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ जो रुपयोंको नहीं त्यागता है तो निश्चय रखो, रुपयोंका वियोग तो होगा ही, किन्तु उस वियोगका बहुत दु:ख होगा। इसलिये विचारवान् पुरुषको विवेकके द्वारा पहले ही त्याग देना चाहिये। मूर्खताके कारण त्याग नहीं होता। इसलिये विवेकीको सम्पूर्ण पदार्थोंको नाशवान् समझकर, क्षणभंगुर समझकर सर्वथा त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि इनका नाश तो होना ही है। समझदार तो वही है जो नित्य वस्तुके साथ सम्बन्ध जोड़ता है। जो सुख अनित्य है, उस सुखसे सम्बन्ध जोड़ना केवल मूर्खता ही है। जब हम देखते हैं कि सारा संसार नाशवान् है, फिर भी यदि इनमें अपना समय व्यतीत करें तो फिर घोर पश्चात्ताप करना पड़ेगा। मनुष्य पुत्रका पालन कर रहा है, खूब प्रेम कर रहा है। वही रात्रिको मर जाय तो फिर उसे कितना दु:ख होगा, इसलिये जो चीज आज है और कल नहीं है, उससे सम्बन्ध जोड़ना, आसक्ति करना प्रत्यक्षमें मूर्खता है। उसका गौणवृत्तिसे पालन करना चाहिये। भविष्यमें तो सावधान हो जाना चाहिये कि ये सब अनित्य हैं।

जैसे महीनेभरमें सौ रुपये इकट्ठे किये और उन्हें रात्रिको चोर ले गया तो उसे अपनी मूर्खताके कारण ही रोना पड़ता है। सबसे वियोग होनेवाला है। इसलिये उस अविनाशी चीजका संग्रह करना चाहिये। वह अविनाशी चीज प्रभु है। इस शरीरको खूब हृष्ट-पुष्ट करना, खूब वृद्धि करना यह भी मूर्खता है, क्योंकि आज यह शरीर है, कल मृत्यु हो गयी तो फिर उसकी राख हो जायगी। समय बहुत थोड़ा है। ‘अनित्यमसुखम्’ यह शरीर अनित्य है, सुखरहित है, इसलिये समय रहते-रहते अपना काम बना लेना चाहिये। जबतक अपना कार्य समाप्त नहीं हो जाय, तबतक विश्राम ही नहीं लेना चाहिये। इससे हम जितना काम ले लेंगे उतना ही अच्छा है। जो काम तो लेता नहीं और इसका खूब शृंगार करता है, उसे विचारना चाहिये कि समयान्तरमें इसकी राख हो जायगी। यह समझना चाहिये इसकी लागत व्यर्थ न जाय, इसलिये हमें इससे काम ले लेना चाहिये। एक किसान था। उसने एक खेत किरायेपर लिया था। उसमें कई चीजोंकी खान थी। उसकी मियाद तीन वर्षकी थी। वह बुद्धिमान् था। उसने मशीन लगाकर सम्पूर्ण सोना, चाँदी निकाल लिया। इसी तरह यह शरीर खान है, इसमेंसे रतन निकाल लेना चाहिये और मिट्टी छोड़ देनी चाहिये। एक बार बीकानेरनरेश एक आदमीसे रुष्ट हो गये और बोले—एक महीनेमें तू अपनी चीजोंको उठाकर चला जा। उसने एक महीनेमें सब चीजें बेंच दी और दूसरी जगह सुखसे रहने लगा। इसी तरह इस मनुष्यलोककी बात है, इसमेंसे यदि हम चीजें ले लेंगे तो ठीक है, अन्यथा पश्चात्ताप करना पड़ेगा। शरीर, रुपये कुछ भी साथ नहीं ले जा पायेगा। साथ जानेवाली चीज तो धर्म है, इसलिये धर्मका संग्रह करना चाहिये। मनुष्यशरीर पता नहीं कब समाप्त हो जाय, इसलिये इतना प्रयत्न कर लेना चाहिये कि फिर निश्चिन्त हो जाय। कोई तिथि तो मालूम है नहीं कि कब शरीर छूटेगा, इसलिये इससे लाभ उठा लेना चाहिये।

एक देश था, उसमें तीन वर्षके लिये राजा बना दिया जाता था और फिर उसे नदीके पार भयंकर जंगलमें छोड़ दिया जाता था। एक बार एक बुद्धिमान‍्को राजा बनाया गया। उसका तीन वर्षतक पूरा अधिकार था। उसने मन्त्रियोंको बुलाकर राज्यका भार तो उन्हें सौंप दिया और बोला—उस तरफका जंगल बिलकुल साफ कर दो। खेती करो। किला बनाओ और सारा धन वहाँ भेज दो। अच्छी-अच्छी प्रजाको वहाँ भेज दिया, फिर तीन वर्ष बाद वह भी वहाँ चला गया और बड़ा प्रसन्न हुआ। वहाँ वह सदाके लिये सुखी हो गया। यह संसार राजधानी है, इसमें तीन वर्षकी आयु है और मरनेके बाद जो विदेशमें जाना है, वही परलोकमें जाना है तथा जो सारा धन है, उसे भगवान‍्के अर्पण कर दे। धर्मरूपी धनको खूब इकट्ठा करके भेज दे। शरीरको भी उस काममें लगा देना चाहिये, जिससे फिर अटल शान्ति मिले। ये जितने जीव हैं, इनमें जो चेतनता है, वह साक्षात् परमात्माका स्वरूप है। इनकी सेवा ही परमेश्वरकी सेवा है। सेवारूपी धनको खूब इकट्ठा करना चाहिये। यह धन साथमें जानेवाला है। अपनी सारी वस्तुओंको भगवान‍्के अर्पण कर देना चाहिये।

एक बड़ा भारी व्यापारी था। वह विदेशसे एक जहाज माल लाया और अपने परिवारको भी लादकर लाया। जब वह जहाज समुद्रके बीचमें आया तो कुछ संकट आ गया। किसी प्रकारसे वह उस जहाजको खतरेसे निकालकर ले गया, किन्तु दैवयोगसे उस जहाजमें छेद हो गया और आठ आनेभर पानी भर गया। उसने कहा अब मर जाओगे, इसलिये यहाँ नाव है। उसपर चढ़कर चले जाओ और सामान भी निकाल लो। उस व्यापारीने अपना सारा माल बचा लिया और अपना परिवार भी बचा लिया। वह जहाज धीरे-धीरे डूब गया। यह जो मेरा-मेरा है वह भार है। जितनी आयु बीती जा रही है, वही जहाजमें पानी आ रहा है। जिसकी आयु आठ आने व्यतीत हो गयी, उसे समझना चाहिये कि आधा जहाज डूब गया और अन्तमें अवश्य डूबेगा, इसलिये वही बुद्धिमान् है जो इससे मैं और मेरारूपी माल उठा दे।

जिस चीजमें अपना अधिकार है, उन सबको नौकाओंसे पार कर देना चाहिये, अर्थात् दूसरोंके हितके लिये, गुणोंके उपार्जनके लिये खर्च कर देना चाहिये। अपने-आपका कूदना यही है कि इस देहसे अभिमान उठा देना चाहिये। शरीर तो नाश होनेवाला है ही। सारे संसारको हम इदं बुद्धिसे देखते हैं, किन्तु मैं, मेरा इसको छोड़ देना चाहिये। इसलिये जिसमें अहंकार है उसका त्याग कर देना चाहिये। जैसे हम सारे संसारको पर समझते हैं, इसी तरह अपने शरीरको भी पर जानना चाहिये, क्योंकि एक ही जातिकी चीज है। जैसे हमने इस शरीरमें अहंता की है और इसे आत्मा मानते हो, इसी तरह सबमें आत्माको मानना चाहिये। जिससे महात्मा बन जाय।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(गीता६।२९)

सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें कल्पित देखता है।

सबकी आत्मा ही अपनी आत्मा है। जिसकी आत्मा बड़ी हो जाय, वही महात्मा है। सब हमारा ही शरीर है या तो ऐसा मान लो, अथवा कुछ भी नहीं है। विवेकके द्वारा समझ लेना चाहिये, यदि ये बातें समझमें आ जायँ तो फिर कल्याण है। एक आनन्दके सागरमें अपने-आपको निमग्न कर देना चाहिये। यह समझना चाहिये कि सिवा आनन्दके कुछ नहीं है। विज्ञानानन्दघन परमात्मा सारे भूत प्राणियोंके चारों ओर हैं, जैसे बर्फकी नगरीके चारों ओर पानी-ही-पानी है, उसी प्रकार सब भूत प्राणी आनन्द ही हैं। जैसे बर्फ जल बन जाता है, उसी तरह हम आनन्द बन जायँगे। यह विज्ञानानन्दघनका ध्यान है। हम आनन्दका आस्वादन लें। आनन्द परमात्मा है, इस प्रकार परमात्माका आस्वादन लें, आनन्दके सिवाय कुछ नहीं है, ऐसा अनुभव करना चाहिये। ऐसे आनन्दका निरन्तर पान करते रहना चाहिये। हर समय उस रसका पान करना चाहिये। बोध आनन्द है, ज्ञान आनन्द है, इस प्रकार आत्मासे अनुभव करना चाहिये। यह मानने लग जाय कि आनन्द-ही-आनन्द है। ऐसा माननेसे फिर आनन्द-ही-आनन्द हो जायगा।

उस प्यारे प्रभुकी मनमोहिनी मूर्तिको हर समय देखते रहना चाहिये। उसके रूप-गुण-प्रभावको देखकर मुग्ध होना चाहिये। आनन्द-ही-आनन्द है ऐसा करते-करते प्रत्यक्ष आनन्द आने लग जायगा। उस प्रेममयी मूर्तिको देखते रहना चाहिये। उस रसके आनेके बाद प्रभुको हम नहीं भुला सकते।

जो अपना खास काम है, उसकी तरफ बहुत ही ज्यादा ध्यान देना होगा। हमारे जितने घरवाले हैं, उन सबको भक्तिमें लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये। इसमें घाटेका तो काम ही नहीं है। इसलिये इस मनुष्य-शरीरको क्षणिक समझकर उस प्रभुकी तरफ मन लगाना चाहिये।

यह नियम-सा बना लेना चाहिये कि आजसे हम यथाशक्ति कभी भी प्रभुको भूलेंगे नहीं, पकड़े रहेंगे। वह पकड़ना बड़ा आनन्द देनेवाला है। भगवान‍्के चरणारविन्दको पकड़े रहना चाहिये। भगवान् शङ्कर कहते हैं कि ईश्वरके चरणारविन्दको पकड़ना ही इस संसारमें हमारा सहारा है, प्रभुको कभी भी नहीं भूलना चाहिये। जहाँ नेत्रोंकी दृष्टि जाय वहीं प्रभुको देखें।

इस घोर निद्रासे जागना चाहिये, नहीं तो फिर घोर अनर्थ हो जायगा। चेत जाना चाहिये। शरीर नाशवान् है। हमलोगोंका जन्म धर्मका पालन करनेके लिये और अपनी आत्माका सुधार और उद्धारके लिये तथा दुष्टोंको भी जिस किसी प्रकारसे समझानेके लिये मिला है। जिनका यह भाव रहता है कि सबका कल्याण हो, हे प्रभो! सबका कल्याण हो, हे प्रभो! हे दीनबन्धु! हे हरि! सबका कल्याण करो। एक दिन वह ऐसा बन सकता है। भगवान‍्के भक्त दूसरोंके हितके लिये नरकमें भी ठहर सकते हैं।

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