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महापुरुषोंकी महिमा

संसारमें सबसे अधिक संख्या तो सांसारिक भोगोंमें आसक्त मनुष्योंकी ही है। भगवत्प्राप्तिके साधनमें लगे हुए अच्छे पुरुषोंकी संख्या भी कुछ अंशमें देखनेमें आती है, पर महापुरुष तो विरले ही हैं और जो हैं उनसे लोग पूरा लाभ नहीं उठा रहे हैं। इसके मुख्य कारण दो हैं—(१) अश्रद्धा और (२) पहचाननेकी योग्यताका अभाव। श्रद्धा या तो श्रद्धावान् पुरुषोंके संगसे होती है अथवा अन्त:करणकी शुद्धिसे। पर श्रद्धालुओंकी संख्या भी बहुत कम है और जो हैं भी उनमें हमारी श्रद्धा नहीं है। महापुरुषोंको न पहचाननेका कारण भी अश्रद्धा ही है।

मनुष्योंकी दृष्टि स्वभावत: दोष-दर्शनकी ओर ही अधिक रहती है, जिसके कारण श्रद्धा पहले तो कठिनतासे उत्पन्न होती है और होती है तो उसका स्थिर रहना बड़ा ही कठिन होता है। अच्छे पुरुषोंमें भी लोग दोष-बुद्धि कर ही लेते हैं। साक्षात् भगवान् श्रीराम और भगवान् श्रीकृष्ण हमारी विशेष श्रद्धाके पात्र हैं, परन्तु दोषदृष्टिवालोंको उनके चरित्रकी आलोचना करनेपर उनमें भी दोष मिल ही जाते हैं। वाल्मीकीय रामायणमें तो श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रमें अनेक दोष और सन्देहजनक स्थल मिल ही सकते हैं पर जिन गोस्वामी तुलसीदासजीने दोषोंका बहुत कुछ परिहार करनेकी चेष्टा की है उनके ‘मानस’ में भी अज्ञ और अश्रद्धालु लोग दो-तीन स्थलोंपर सन्देह, तर्क और अश्रद्धा कर बैठते हैं। उनका कहना है कि रामने बालिको छिपकर बाणद्वारा मारा, शूर्पणखाके साथ मजाक किया और अग्नि-परीक्षामें उत्तीर्ण हो जानेपर भी निरपराधिनी सीताका परित्याग करके लोकनिन्दाको अधिक महत्त्व देकर न्याय और आत्मबलकी न्यूनता दिखलायी। इसके सिवा श्रीराम साधारण मनुष्योंकी भाँति सीताके लिये विलाप करने और जोर-जोरसे रोने लगे। इसी प्रकार श्रीकृष्णकी बाल-लीलामें वे चोरी, व्यभिचार और झूठ आदिके दोष लगाते हैं। उनके प्रौढ़ावस्थाके कार्योंमें भी अनेक दोषोंकी कल्पना करते रहते हैं—जैसे युधिष्ठिरको मिथ्याभाषणके लिये प्रेरित करना, युद्धक्षेत्रमें शस्त्र धारण न करनेकी प्रतिज्ञाको तोड़कर आवेश और क्रोधमें आकर उन्मत्तकी भाँति भीष्मके सम्मुख दौड़ना। इन स्थलोंपर उन्हें श्रीकृष्णमें मिथ्याभाषण, प्रतिज्ञाभंग और अनुचित व्यवहारके दोष प्रत्यक्ष दृष्टिगत होते हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि दोष देखनेवालोंको तो निर्विकार अवतारोंमें भी दोष मिल ही जाते हैं। तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है? परन्तु बात तो यह है कि हम विषय-विमूढ़ जीव भगवान‍्की लीला और उनके कार्योंको क्या समझें? उनपर किसी प्रकारका कानून तो लागू है नहीं और यदि है भी तो हम उसे समझ ही कैसे सकते हैं? जब ज्ञानीकी क्रियाओंको समझनेमें ही हमारी बुद्धि जवाब दे देती है तो फिर साक्षात् मायापति ईश्वरके कार्योंको विचारने और समझनेकी हममें योग्यता ही क्या है? यदि हम स्वभाव-दोषसे उनको तर्ककी कसौटीपर कसनेका निन्दनीय प्रयास करें तो वह हमारी युक्ति और तर्कके आधारपर ही ईश्वरकी सिद्धि हुई। फिर ईश्वरमें ईश्वरत्व ही क्या रहा? ऐसी दशामें तो कोई भी व्यक्ति श्रद्धाके योग्य प्रमाणित नहीं होता—किसीपर भी श्रद्धा नहीं की जा सकती।

पर, हमें यह बात भलीभाँति समझ लेनी चाहिये कि उत्तम क्रियाशील ज्ञानीकी समस्त क्रियाओंको हम समझ नहीं सकते। अत: उनमें शंका करनी किसी भी प्रकारसे उचित नहीं है। यदि श्रद्धाकी कमीके कारण उनमें कोई दोष दीख भी जाय तो विचारद्वारा मनमें समाधान करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। इतना करनेपर भी यदि सन्तोष न हो तो श्रद्धा और विनयपूर्वक उन्हें पूछकर भी सन्देह निवृत्त किया जा सकता है। महात्माओंको न पहचाननेमें प्रधान हेतु अन्त:करणकी मलिनतासे पैदा हुई अश्रद्धा ही है। जब हम किसी महापुरुषके पास जाते हैं तो अश्रद्धाको प्राय: साथ ही लेकर जाते हैं। हम इसी बातकी परीक्षा करते फिरते हैं कि किन महात्माजीमें कितना पानी है। दु:खकी बात तो यह है कि हम एक साधारण वैद्यकी भी इतनी परीक्षा नहीं करते। वह चाहे नितान्त अज्ञ ही हो, पर फिर भी हम अपना जीवन सर्वतोभावेन उसके समर्पण कर देते हैं। यदि वह विष पिला दे तो भी हम उसे पीनेमें नहीं हिचकते। मेरे कहनेका यह अभिप्राय नहीं कि कोई ढोंगी मनुष्य महात्मा बन बैठा हो तो उसीमें अन्धे होकर श्रद्धा कर लेनी चाहिये। श्रद्धा करनेकी आवश्यकता है सच्चे महापुरुषोंमें, पर जबतक हमको ऐसे पूर्ण महात्मा न मिलें, तबतक हम जिन्हें अपनी बुद्धिसे अच्छे पुरुष समझें, उन्हींके सद‍्गुणोंको ग्रहण करना चाहिये। दुर्गुण तो किसीके भी नहीं लेने चाहिये। उपनिषद्‍में कहा है—

यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। यान्यस्माकॸसुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि।

(तैत्ति० १।११।२)

गुरु कहता है—‘हे शिष्य! जो शास्त्रोक्त कर्म हैं उन्हींका तुम्हें आचरण करना चाहिये, शास्त्रविरुद्धका नहीं; हममें भी जो अच्छे कर्म हैं केवल उन्हींका तुम्हें अनुकरण करना उचित है, दूसरे (निन्दनीय) कर्मोंका नहीं।’

पूर्ण महात्माओंके दर्शन हो जायँ तब तो कहना ही क्या है, क्योंकि उनके मुखसे जो शब्द निकलते हैं वे पूर्णत: तुले हुए होते हैं। जैसे एक व्यापारी अपनी दूकानका माल तौल-तौलकर ग्राहकोंको देता है—अन्दाजसे नहीं। इसी प्रकार महापुरुषकी वाणीका प्रत्येक शब्द उसके हृदयरूपी तराजूपर तुल-तुलकर आता है। उनके वाक्य अमूल्य होते हैं, उनकी क्रियाएँ अमूल्य होती हैं और उनका भजन अमूल्य होता है। उनके मन, वाणी और शरीरके प्रत्येक कार्य महत्त्वपूर्ण और तात्त्विक होते हैं। उनकी मौन—अक्रिय-अवस्थामें भी विश्व-कल्याणका उपदेश भरा रहता है। अत: उनका भाषण, स्पर्श, दर्शन, कर्म, ध्यान और यहाँतक कि उनकी छूई हुई वस्तु भी पवित्र समझी जाती है। भगवान‍्ने ऐसे ही महापुरुषोंका अनुकरण करना बतलाया है।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(गीता ३।२१)

वे जो कुछ प्रमाणित कर देते हैं (स्वयं चाहे न करें और केवल कह दें कि मैं अमुक कार्यको अच्छा मानता हूँ) लोग उसीको प्रामाणिक मानने लगते हैं। उनका उपदेश, उनको किया हुआ नमस्कार, उनके साथ किया हुआ सम्भाषण—सभी कुछ कल्याणकारक होता है। ज्ञान-प्राप्तिद्वारा आत्मोद्धारके लिये उन पुरुषोंकी शरण ग्रहण करनी चाहिये। भगवान् श्रीकृष्णने कहा है—

तद्विद्धि प्रणिपातेन प्ररिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(गीता ४।३४)

‘हे अर्जुन! उन तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी पुरुषोंसे, भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम, सेवा और निष्कपट-भावसे किये हुए प्रश्नोंद्वारा उस ज्ञानको जानो, वे मर्मको जाननेवाले ज्ञानीजन तुम्हें उस ज्ञानका उपदेश करेंगे।’

इस प्रकारके पुरुष यदि हमें मिल जायँ और फिर हम उन्हें पहचानकर उनका अमोघ संग करें तथा उनकी बातोंको लोहेकी लकीर—ईश्वरकी आज्ञाके तुल्य मानकर काममें लावें तो हम अपना तो क्या, दूसरोंका भी कल्याण करनेमें समर्थ हो सकते हैं! गंगाके स्नान-पानसे जिस प्रकार बाहर-भीतरकी पवित्रता होती है, उससे भी बढ़कर महात्माओंका संग पावन करनेवाला होता है। दुर्भाग्यवश यदि ऐसे सिद्ध भक्तोंकी प्राप्ति न हो अथवा होकर भी यदि हम उन्हें पहचान न सकें तो दूसरे दर्जेमें शास्त्रों और दैवी सम्पदावाले साधकोंको आधार बनाना चाहिये। शास्त्रोंकी अधिकता और उनमें प्रतिपादित विषयोंकी गूढ़ताको न समझ सकनेके कारण केवल गीता ही हमारे लिये पर्याप्त हो सकती है, क्योंकि भगवान‍्ने इसमें सब शास्त्रोंका सार भर दिया है। अत: सर्वस्वका नाश होनेपर भी गीता और महात्मा पुरुषोंकी बात नहीं टालनी चाहिये। इतनी श्रद्धा हो जानेपर फिर कल्याण होनेमें देरीका कोई काम नहीं। जिस माताके गर्भसे ऐसा सुपुत्र उत्पन्न हो, वह निस्सन्देह ही पुण्यवती और सौभाग्यशालिनी है।

पुत्रवती जुबती जग सोई।
रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥

ऐसे महापुरुष भागीरथीकी तरह स्वयं पवित्र और दूसरोंको भी पवित्र करनेवाले होते हैं। शास्त्रकारोंने तो महात्माओंकी महिमा गंगासे भी बढ़कर बतलायी है। इस विषयकी निम्नलिखित कथा प्रसिद्ध है—

एक बार गंगाने ब्रह्माजीके पास जाकर यह प्रार्थना की कि ‘महाराज! असंख्य पापियोंके दल मुझमें स्नान करके अपने अनन्त जन्मोंके पाप छोड़ जाते हैं, फिर मेरे लिये भी तो कोई ऐसा उपाय होना चाहिये कि जिससे मैं भी पापमुक्त और पवित्र बन सकूँ।’ इसके उत्तरमें ब्रह्माजी बोले—‘गंगे! सन्तोंके होते हुए तुझे चिन्ता ही किस बातकी है? उनके चरण-स्पर्शमात्रसे तेरे समस्त पापोंका तत्काल विध्वंस हो जायगा।’ वास्तवमें सन्तोंकी चरणरजमें ऐसी अद‍्भुत शक्ति है कि उसे मस्तकपर रखते ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। ऐसे भगवद‍्भक्त पवित्रको भी पवित्र करनेवाले होते हैं। ‘तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि।’ (नारदभक्तिसूत्र ६९) वे जहाँ तप करते हैं वही भूमि तीर्थ बन जाती है। तीर्थोंका तीर्थत्व सन्तों और प्रभुके संगसे ही माना जाता है। जहाँ भगवान‍्ने वास किया अथवा महापुरुषोंने तपस्या की वही स्थान तीर्थ बन गया। कपिलायतन और भारद्वाज-आश्रमके दर्शनार्थ लोग इसीलिये जाते हैं कि वहाँ कपिल और भारद्वाजने तपस्या की थी। पंचवटी और चित्रकूटकी पवित्रता भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके वहाँ निवास करनेके कारण ही मान्य है। नर-नारायणकी तपोभूमि होनेके कारण ही बदरिकाश्रमके दर्शनार्थ लोग कठिन कष्ट सहकर भी जाते हैं। पुलको वानर-सेनाने बनाया था, इसीसे आज सेतुबन्ध-रामेश्वरके पाषाणखण्डोंको लोग पूज्य मानते हैं। भक्त जो क्रिया कर जाते हैं, वह लाखों वर्षोंके बाद भी पूजित होती है। नैमिषारण्यमें सन्त एकत्र होकर हरि-चर्चा किया करते थे, इसीसे वह स्थान तीर्थ माना जाता है। अवध और सरयूकी महिमाका प्रधान कारण श्रीरामावतार ही है। मथुरा, गोकुल और वृन्दावन आदि तीर्थ श्रीकृष्णावतारके कारण ही इतने अधिक मान्य और पूजित हैं। संसारमें जितने भी तीर्थ और देवस्थान हैं उन सबकी महिमाके प्रधान कारण भगवान् और उनके भक्त ही हैं। परमपावनी भागीरथी प्रभुचरणोंके प्रभावसे ही सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं—

स्रोतसामस्मि जाह्नवी
(गीता १०।३१)

कहीं-कहीं तो भक्तोंकी महिमा भगवान‍्से भी बढ़कर बतलायी गयी है यथा—

मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा॥

इन चौपाइयोंमें श्रीरामकी निन्दा नहीं समझनी चाहिये, इनसे उनकी महिमा और भी बढ़ती है। यद्यपि प्रत्यक्षमें इनके द्वारा भक्तोंकी महिमा ही प्रकट होती है पर वस्तुत: यह महिमा भगवान‍्की ही है, क्योंकि उनकी महामहिमासे ही भक्त महिमान्वित होते हैं। ऐसे महापुरुषोंका संग मिलना बड़ा ही कठिन है, पुण्यके प्रभावसे ही उनकी प्राप्ति होती है—

पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।
सतसंगति संसृति कर अंता॥

भगवान् श्रीकृष्णने भी कहा है—

अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३। २५)

दूसरे यानी जो मन्द-बुद्धिवाले पुरुष हैं वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे यानी तत्त्वके जाननेवाले महापुरुषोंसे सुनकर उपासना करते हैं—उनके कहनेके अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर होकर साधन करते हैं (इससे) वे सुननेके परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूपी संसार-सागरसे निस्सन्देह तर जाते हैं।

वेद, उपनिषद्, इतिहास, पुराण सभी शास्त्रोंमें स्थान-स्थानपर महापुरुषोंकी महिमाका एक स्वरसे गान किया गया है। फिर परमात्माकी गुणगरिमाकी तो बात ही क्या है? उनकी महिमाका जितना भी गान किया जाय, सभी थोड़ा है। महात्माओंकी अथवा वैभव-सम्पन्न सांसारिक लोगोंकी जो कुछ भी बड़ी-से-बड़ी महिमा हमारे देखने-सुननेमें आती है, वह सब वास्तवमें भगवान‍्की ही महिमा है। भगवान‍्ने कहा है—

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥
(गीता १०।४१)

‘हे अर्जुन! जो-जो भी ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे ही तेजके अंशसे उत्पन्न हुई जान।’ ऐसे महामहिम प्रभुके या प्रेमी भक्तोंके समागमद्वारा भी जो मनुष्य लाभ नहीं उठा सकते, उनके लिये भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने ठीक ही कहा है—

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥

सन्त-शिरोमणि तुलसीदासजीने तो साधु-संगके सुखको मुक्तिके सुखसे भी अधिक आदर दिया है—

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥

उन्होंने तो यहाँतक कह दिया है कि बिना सत्संगके मनुष्यका उद्धार हो ही नहीं सकता—

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥

इस प्रकार महात्माओंके अमोघ संग और महती कृपासे जो व्यक्ति परमात्माके रहस्यसहित प्रभावको तत्त्वसे जान जाता है वह स्वयं परम पवित्र होकर इस अपार संसार-सागरसे तरकर दूसरोंको भी तारनेवाला बन सकता है।

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