महात्मा बननेके उपाय
इसका वास्तविक उपाय तो परमेश्वरके अनन्य शरण होना ही है, क्योंकि परमेश्वरकी कृपासे ही यह पद मिलता है। श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् श्रीकृष्णने कहा है—
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(१८।६२)
‘हे भारत! सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही अनन्य-शरणको प्राप्त हो, उस परमात्माकी दयासे ही तू परम-शान्ति और सनातन परमधामको प्राप्त होगा।’
परन्तु इसके लिये ऋषियोंने और भी उपाय बतलाये हैं। जैसे मनुमहाराजने धर्मके दस लक्षण कहे हैं—
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
(मनु० ६।९२)
‘धृति, क्षमा, मनका निग्रह, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध—ये दस धर्मके लक्षण हैं।’
महर्षि पतञ्जलिने अन्त:करणकी शुद्धिके लिये (जो कि आत्मसाक्षात्कारके लिये अत्यन्त आवश्यक है) एवं मनके निरोध करनेके लिये बहुत-से उपाय बतलाये हैं। जैसे—
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदु:खपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।
(योगसूत्र १।३३)
‘सुखियोंके प्रति मैत्री, दु:खियोंके प्रति करुणा, पुण्यात्माओंको देखकर प्रसन्नता और पापियोंके प्रति उपेक्षाकी भावनासे चित्त स्थिर होता है।’
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:।
(२।३०)
शौचसन्तोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:।
(२।३२)
‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह—ये पाँच यम हैं और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान—ये पाँच नियम हैं।’
और भी अनेक ऋषियोंने महात्मा बननेके यानी परमात्माके पदको प्राप्त होनेके लिये सद्भाव और सदाचार आदि अनेक उपाय बतलाये हैं।
भगवान्ने श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें अध्यायमें श्लोक ७ से ११ तक ‘ज्ञान’ के नामसे और सोलहवें अध्यायमें श्लोक १-२-३ में ‘दैवी सम्पदा’ के नामसे एवं सतरहवें अध्यायमें श्लोक १४-१५-१६ में ‘तप’ के नामसे सदाचार और सद्गुणोंका ही वर्णन किया है।
यह सब होनेपर भी महर्षि पतञ्जलि, शुकदेव, भीष्म, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास, यहाँतक कि स्वयं भगवान्ने भी शरणागतिको ही बहुत सहज और सुगम उपाय बताया है। अनन्यभक्ति, ईश्वरप्रणिधान, अव्यभिचारिणी भक्ति और परमप्रेम आदि उसीके नाम हैं।
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८।१४)
‘हे पार्थ! जो पुरुष मुझमें अनन्य चित्तसे स्थित हुआ सदा ही निरन्तर मुझको स्मरण करता है, उस मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥
(वा०रा०६।१८।३३)
‘जो एक बार भी मेरे शरण होकर ‘मैं तेरा हूँ’ ऐसा कह देता है, मैं उसे सर्व भूतोंसे अभय प्रदान कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है।’
इसलिये पाठक सज्जनोंसे प्रार्थना है कि ज्ञानी, महात्मा और भक्त बननेके लिये ज्ञान और आनन्दके भण्डार सत्यस्वरूप उस परमात्माकी ही अनन्य शरण लेनी चाहिये। फिर उपर्युक्त सदाचार और सद्भाव तो अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं।
भगवान्की शरण ग्रहण करनेपर उनकी दयासे आप ही सारे विघ्नोंका नाश होकर भक्तको भगवत्-प्राप्ति हो जाती है। योगदर्शनमें कहा है—
‘तस्य वाचक: प्रणव:’, ‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’,
‘तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च’
(१।२७—२९)
‘उसका वाचक प्रणव (ओंकार) है।’ ‘उसका जप और उसके अर्थकी भावना करनी चाहिये।’ ‘इससे अन्तरात्माकी प्राप्ति और विघ्नोंका अभाव भी होता है।’
भगवत्-शरणागतिके बिना इस कलिकालमें संसार-सागरसे पार होना अत्यन्त ही कठिन है।
कलिजुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि भव उतरहु पारा॥
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
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हरेर्नामैव नामैव नामैव मम जीवनम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(ना० पु० १।४१। ११५)
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता ७। १४)
‘कलियुगमें हरिका नाम, हरिका नाम, केवल हरिका नाम ही (उद्धार करता) है, इसके सिवा अन्य उपाय नहीं है, नहीं है, नहीं है।’
‘क्योंकि यह अलौकिक (अति अद्भुत) त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, जो पुरुष निरन्तर मुझको ही भजते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं यानी संसारसे तर जाते हैं।’
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरिभजन न जाहिं।
भजिअ राम सब काम तजि अस बिचारि मन माहिं॥