महत्त्वपूर्ण चेतावनी
जयदयालका प्रेमसहित जय गोपाल बंचना। भगवान् को हरदम याद रखना चाहिये, भूलना नहीं चाहिये। जपका अभ्यास रात-दिन करो। ज्यादा क्या लिखूँ, एकदम निष्काम हो जाओ। आनन्दरामजीने मेरे पास आनेके लिये लिखा है, उनका बहुत मन देखो तो आनेकी सलाह भले ही दे देना, नहीं तो सलाह न देना। विशेसरलालजी खेमकाका साधन सकाम बहुत है, साधन तो निष्काम करना चाहिये। संसारके भोगोंसे पिंड छुड़ाना चाहिये, रात-दिन सत्संग करना चाहिये, प्रतिदिन पाँच आदमियोंको इकट्ठे होकर घंटा-दो-घंटा सत्संग करना चाहिये। श्रीहरिके नामका जप बहुत लगनके साथ करो, तुम्हें और कुछ नहीं करना है। अपने काममें सावधान रहो, प्रभुकी प्रभु जानें। एक हरिकी शरणागति निष्कामभावसे होनी चाहिये, फिर कोई चिन्ता नहीं है। भाईजी! तुम्हारे आनन्द नहीं होनेका क्या कारण है? तुम्हारे तो सारी बातोंका संयोग बना हुआ है। फिर भाईजी! तुम किसलिये आनन्दमें मगन नहीं होते हो? तुम्हारे किस बातकी इच्छा रही, गुप्त भावसे खोज करो; तुम किसलिये ईश्वरमें रात-दिन मन नहीं लगाते हो? किसलिये संसारकी मिथ्या वस्तुओंको देखकर अति वैराग्य नहीं करते हो? अभी संसारमें तुम किसलिये रहते हो? अब तुम दृढ़ वैराग्यको धारण करो। मिथ्या पुत्र, स्त्री, धनका आसरा छोड़ो। एक हरिके नामका आसरा धारण करो। मान-बड़ाई छोड़ो। अज्ञाननिद्रासे चेत करो। तुम्हारे साथी पार हो रहे हैं।
अभी अज्ञानमें सोनेका समय नहीं है। अभी तुम्हारा मार्ग अधिक दूर नहीं है। भाईजी! तुम्हारा धन्य भाग्य है। चिट्ठी बार-बार पढ़ना। जिस समय मन कम प्रसन्न रहे, उसी समय पढ़ना। तुम्हारी सारी बातोंकी व्यवस्था है।
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। भाई हनुमानदाससे जयदेवका राम-राम। मैं बहुत प्रसन्न हूँ।
हरिके नामका स्मरण ही सार है। स्मरण-भक्तिसे, भजनसे उद्धार होना कोई बड़ी बात नहीं है। बहुत दिन चले गये। अब तुम्हारी स्थिति ठीक मालूम देती है। रातको सत्संग होना चाहिये, चार-पाँच व्यक्तियोंको साथ बैठकर भजनकी बातें करनी चाहिये। गीता भी कुछ पढ़नी चाहिये, जिससे भजनमें प्रेम हो। भजन ज्यादा होनेके लिये सत्संग तथा शास्त्रोंका विचार ही सार है। बिना सत्संग भजन नहीं हो सकता। भजन निष्काम होनेके बाद तो कुछ भी करना बाकी रहता ही नहीं। हरिकी शरण होना चाहिये।
कहा भरोसो देहको बिनसि जाय छिन माहिं।
स्वास स्वास सुमिरन करो और जतन कुछ नाहिं॥
कहता हूँ कहि जात हूँ कहूँ बजाकर ढोल।
स्वासा खाली जात है तीन लोकका मोल॥
जिवना थोड़ा ही भला जो हरिका सुमिरन होय।
लाख बरसका जीवना लेखे धरै न कोय॥
कहता हूँ कहि जात हूँ सुनता है सब कोय।
सुमिरन सो भल होयगा नातर भला न होय॥
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श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन कार्तिक कृष्ण १४, सोमवारको रात्रिमें दो बजे बहुत आनन्दसे किया, आपने भी किया होगा। पूज्य चाचाजीसे जयदेवका चरण स्पर्श बंचना। निष्कामभावसे श्रीहरिके शरणागत होना चाहिये। दिन बीते जा रहे हैं, फिर कुछ भी उपाय नहीं चलेगा। रात-दिन उनका नाम जपो। निष्कामभावसे उनका स्मरण रखो, फिर कुछ भी करनेकी आवश्यकता नहीं है। शरीर भी आपका नहीं है, फिर लाख रुपये किस काम आयेंगे। शरीरमें यदि पाँच सेर माटी अधिक भी होगी तो क्या लाभ है, बल्कि लोगोंको ले जानेमें कष्ट होगा। शरीर पशुकी तरह पालनेपर यह किस काम आयेगा। शरीर तो नष्ट होगा। जो आनन्द रात-दिन रहे, नष्ट न हो, उसका आसरा करो। मिथ्या वस्तु , नाशवान् का आसरा छोड़ो। धन, पुत्र, स्त्री कोई भी काम नहीं आयेगा, चेत करो। अब भी किसलिये गफलतमें पड़े हो। एक दिन श्मशानमें लकड़ियोंकी शरण लेनी ही पड़ेगी, तब शौकीनी किस काम आयेगी। थोड़ेसे स्वादके लिये स्त्रियोंके भोगोंमें डूबकर हरि-जैसे सज्जनको छोड़नेवालेको धिक्कार है। अब असली वस्तुका आसरा लो। अज्ञाननिद्रामें सोये हुएको चेत करना चाहिये। भोर हुआ जाता है।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
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भाई हनुमानदाससे जयदेवका प्रेमसहित राम-राम। मैं प्रसन्न हूँ। तुमने लिखा कि प्रेम बना है तो फिर और क्या चाहिये। रात-दिन भगवान् को जितना याद कर सको करना चाहिये। प्रेमीके नामका जप, स्मरण, ध्यान, भजन, भक्ति जिस प्रकार हो, करनी चाहिये। काम जल्दी बनानेकी लिखी सो तो भगवान् की कृपा साथ है। हरदम भजन, सत्संग तथा शास्त्रोंका विचार होनेसे कृपा हो सकती है। मैं जब आया था, तब भी मैंने कहा था, किन्तु तुम्हें याद नहीं रहती। रातके समय भी इसी प्रकार करना चाहिये। सभी जो एकत्रित हो सकें, होकर भगवान् के भजनमें, प्रेममें रोयें। शरीर मिथ्या है। जब यह नष्ट हो जायगा फिर उससे कुछ भी काम नहीं लिया जा सकेगा। यह शौकीनी कुछ काम नहीं आयेगी—
हरि ना कह्यो मुख गाय कै तैं कहा कियो जग आयकै।
घर त्याग तृष्णा ना मारी कहा करी राख लगायकै॥
कियो भेष तैं जग ठगन कौ कहा करो चर्स चढ़ायकै।
नारी निहारी और की कहा करो लँगोट लगायकै॥
उपदेश दियो नहीं कर्मको कहा करो घर घर जायकै।
बहुरंगके टीके दिये कहा भयो भक्त कहायकै॥
चोला मलमलके पहिन कै कहा कियो भगुवे रँगायकै।
प्रभुको प्रसन्न तैं नहिं कियो, कहा कियो जगत रिझायकै॥
पुरुषोत्तम कहै हरिको भजो फिर रहोगे पछितायकै॥
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यहाँ रहना नहीं वहाँ जाना है, प्रीत करो सबसे भाई। टेर
एकहि राह बनी सबहिनकी, कहाँ रंक कहाँ राना है।
वेद पुराण षट् शास्त्र पढ़े तुम अब कहा तुम्हें सुनाना है॥
सोयो खायो हरि नहिं गायो वे सब जीव नादाना है।
बालक तरुनाई बूढ़ापन कहाँ पीना कहाँ खाना है॥
सुर नर असुरपना खर कूकर पाप पुण्यका न पाना है।
बागी भयो फिरत अनुरागी यह जग उसका पाना है।
पुरुषोत्तम के आवे न जावै जिनका उनसे याराना है॥
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जोग लिखी ऋषिकेशसे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम बंचना। तुम्हारा शरीर ज्यादा लाचार हो तो शरीरके लिये बुलानेका तार भले ही दे दो, किन्तु मिलनेकी इच्छा हो तो नहीं बुलाना चाहिये। कष्टमें जो भजन अधिक होना चाहिये था, वह भजन किसलिये नहीं हुआ। ऐसे अवसरपर तो भजन अवश्य करना चाहिये था। भजन बिना तुम्हारी सहायता करनेवाला कौन है। ध्यानकी बात निगह की। जो कुछ है सब भगवान् ही हैं। एक सच्चिदानन्दमें सब कुछ है। हर समय एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही हैं। भजनके प्रतापसे ही ऐसा ध्यान हर समय होता है।
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥
निष्काम भजनके बिना स्वप्नमें भी शान्ति होनी कठिन है। मेरा कुछ है ही नहीं तथा संसार एवं शरीर सभी दिखनेवाली चीजें मिथ्या हैं। देखनेवाले सर्वव्यापी साक्षी* होनेपर ‘मैं’ रूपसे साक्षी रहनेवाला ‘मैं’ भाव भी नहीं रहता। यह ज्ञान तथा अनुभव भजनसे ही हो सकता है।
* सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(गीता ६।२९)
अपनेको सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखना तथा सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेमें देखना यह सर्वव्यापी साक्षी होकर देखना है।
श्री रघुबीर प्रताप तें सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥
आपने अपने लायक काम पूछा सो जिस कामके लिये आप आये हैं, वही काम करना चाहिये। हर समय भगवान् का जप करना ही मनुष्यका काम है, भगवान् को कभी नहीं भूलना चाहिये। यही मनुष्यका धर्म है। भाई हनुमानसे जयदेवका राम राम बंचना। प्रेम तुम्हारा है ही। गंगाजल आनन्दरामजीके साथ भेज दिया है। तुम्हारे जँचे जिस तरह भजन करो।
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भाई हनुमानसे जयदेवका राम-राम बंचना। प्रेम हरदम रहना चाहिये। फिर कुछ हर्ज नहीं है। राम नामका जप निष्कामभावसे होनेसे ही पूर्ण प्रेम होता है, यह जान लो। इसलिये सत्संग और शास्त्रोंकी आवश्यकता है। थोड़ा बहुत शास्त्र सीखनेकी चेष्टा होनी चाहिये। थोड़ी बहुत गीताकी भी चेष्टा होनी चाहिये। रातके समय चार-पाँच आदमी मिलकर सत्संगकी बातें करें तो बहुत ठीक है। बद्रीनारायण कन्हैयालालसे राम-राम। पूज्य माँजीने कहा कि मालियेकी माजी सेवा अच्छी करती है, यह बहुत आनन्दकी बात है। कन्हैयालालजीकी माँजीसे पूछना कि बद्रीनारायण और उसकी बहू सेवा किस प्रकार करती है और कन्हैयालालकी दादीजीसे भी पूछना।
तुमने अपराध क्षमा करनेकी बात लिखी सो नहीं लिखनी चाहिये। कोई मेरे उपदेशके अनुसार नहीं चल सके तो कोई भूल नहीं है। चलना कौन-सा अपने हाथमें है? मनमें आशा एवं चेष्टा रखनी चाहिये। भविष्यमें तुम्हारी कोई भूल हो जाय तो मनमें बहुत जोश रखना चाहिये कि भविष्यमें भूल नहीं करेंगे। नियमकी तरह धारण कर लेना चाहिये। आजसे किसी तरह भी कोई भूल नहीं होवे। याद रहे तो प्रह्लादरायजी धानुकाको बारम्बार राम-राम कहना चाहिये। मुझे वह बहुत याद करता है।
एक भगवान् के नामको सदैव याद रखना चाहिये। समय अमोलक समझकर एक पल भी वृथा नहीं बिताना चाहिये। यदि एक पल भी वृथा गया तो हमारी मूर्खतासे फालतू गया।
आज कहै मैं काल भजूँ काल कहै फिर काल।
आजकालके करत ही औसर जासी चाल॥
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेव डेडराजका श्रीराम-राम। भाई हनुमानदाससे जयदेवका राम-राम।
प्रेम दिन-प्रतिदिन ज्यादा हो वैसा ही उपाय करना चाहिये। अभी मेरा खड़गपुर जानेका विचार नहीं है। सपनेमें मुलाकात भले ही हो। पूज्य काकाजी बद्रीनारायणजीकी चिट्ठी आयी है। उत्तर कहाँ दूँ कुछ लिखा नहीं है। मैंने अनुमानसे ऋषिकेश चिट्ठी दी है और आपका चरणस्पर्श लिख दिया है। बद्रीनारायणजीका पोस्टकार्ड बहुत आनन्द देनेवाला है, वह पढ़ लेना।
इस शरीरसे अपनेको भिन्न देखो। फिर अपनेको भी मत देखो। फिर आनन्दरूपको देखो, फिर तुम आनन्दरूप हो। अपने-आपको समझो। तुम सर्वव्याप्त एक आनन्द हो। आनन्दमय होकर संकल्परहित, फुरणारहित हो जाओ।
सुमरन सुरत लगायकर मुख ते कुछ ना बोल।
बाहरके पट देयकर अंतरके पट खोल॥
माला तो करमें फिरै जीभ फिरे मुख माहिं।
मनुवा तो चहुँ दिसि फिरै यह तो सुमरन नाहिं॥
कहता हूँ कहि जात हूँ कहूँ बजाकर ढोल।
स्वासा खाली जात है तीन लोकका मोल॥
ऐसे महँगे मोलका एक श्वास जो जाय।
चौदह लोक पट तर नहीं काहै धूर मिलाय॥
कबीर ते नर अंध हैं गुरुको कहते और।
हरि रूठे गुरु मेलसी गुरु रूठे नहीं ठौर॥
तुलसी पिछले पापसों हरिचरचा न सुहाय।
जैसे ज्वरके जोरसे भोजनकी रुचि जाय॥
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बाँकुड़ासे जयदेवका राम-राम बंचना। आते समय एक व्यक्तिने मेरे गलेमें पुष्पोंकी माला डाली थी, उनका अपमान नहीं होना चाहिये इसलिये मैंने कुछ भी नहीं कहा। भविष्यमें इस प्रकार नहीं होना चाहिये। माला तो भगवान् के गलेमें ही डालो, फूलोंमें जीव बहुत होते हैं। मैं जीव हिंसा नहीं देख सकता और मान करना मिथ्या है, ऊपरका लोकदिखाऊ प्रेम है। मैं मानका भूखा नहीं हूँ। मैं तो एक पूर्ण प्रेमका भूखा हूँ, प्रेम भी सच्चा और जोरका होना चाहिये। जैसे—
जिन प्रेम प्याला पियो झूमत तिनके नैन।
नारायण वा रूप मद छके रहे दिन रैन॥
रूप छके झूमत रहै तनको तनिक न ज्ञान।
नारायण दृग जल भरै यही प्रेम पहिचान॥
प्रेम होनेके बाद अपमान भी मान है। जैसे भगवान् ने भी प्रेमके ही कारण अर्जुनके घोड़े भी हाँके एवं और भी सेवकोंके करनेयोग्य कई काम आनन्द सहित किये। मैं तो तुच्छ साधारण आदमी हूँ, बाकी जहाँ प्रेम है वहाँ नियम नहीं है। मान तो प्रेममें संकोच करनेवाला है। भविष्यमें मान ज्यादा नहीं होना चाहिये। मान होनेसे मेरा कलकत्ता जानेका ध्यान कम रहता है और संसारके भोगोंके प्रेमके लिये हमारे साथ प्रेम करनेवालेका प्रेम कच्चा है। संसारकी वस्तुओंको लेकर मेरा जो मान है वह अपमान ही समझना चाहिये। भोगी और शौकीन आदमी संसारके मानको अच्छा समझते होंगे। आत्मारामजी हों तो उन्हें प्रेमसहित बारम्बार जै गोपाल कहना चाहिये, उनका प्रेम और मेहरबानी कहाँतक कही जाय। उन्हें मैं तुमसे भी उत्तम समझता हूँ।
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भाई हनुमानदाससे जयदेवका राम-राम बंचना। कृपा प्रेम बनाये रखियेगा। प्रेम आनन्द बना पड़ा है। श्रीपरमेश्वरको हरदम याद रखें। भाई महादयालको लोगोंके सामने मेरी इतनी बड़ाई नहीं करनी चाहिये। सौ आदमियोंके दर्शनकी बहुत बड़ी बात है। मैं तो साधारण व्यक्ति हूँ।
आपका कोई कसूर नहीं है। प्रेममें कहने-सुननेमें कोई भूल भी हो जाय तो उसका विचार नहीं करना चाहिये। मेरी इच्छाके अनुसार ही सारी बातें होती हैं। पीछे तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है। मैंने तुम्हें रेलमें कहा था कि तुम्हारा भी हमारेमें पूरा प्रेम नहीं है। भाईजी! पूरा प्रेम होनेके बाद कुछ देर नहीं लगती। पूर्ण प्रभाव जाननेके बाद कुछ बाकी नहीं रहता। संसारके हिसाबसे तुम्हारा बहुत प्रेम है। सबसे अधिक प्रेम है।
ईश्वरभावसे पूर्ण विश्वास हो तो परमेश्वर तो सभी जगह मौजूद हैं, दर्शन हुआ ही पड़ा है। फिर कोई चिन्ता नहीं रहती।
हमारे कहनेमें पूरा विश्वास तथा हमारेपर पूर्ण विश्वास तथा प्रेम पूर्ण होनेके बाद संसारमें कुछ कर्तव्य बाकी नहीं रहेगा और कुछ पूछना हो तो मिलनेपर पूछ लीजियेगा।
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। प्रेम दिन-प्रतिदिन ज्यादा हो ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये। नामजपसे सारे साधन होते हैं। रात-दिन हरिका स्मरण हो सके जितना रखना चाहिये।
तुलसी विलम्ब न कीजिये भजिये राम सुजान।
जगत मजूरी देत है क्यों राखे भगवान॥
चतुराई चूल्हे पड़ी भट्ठे पड़ो अचार।
तुलसी हरिकी भक्ति बिन चारों वर्ण चमार॥
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श्रीआनन्दरामजीसे जयदेवका राम-राम बंचना। कृपा-प्रेम ज्यादा हो, प्रेम बढ़े ऐसी चेष्टा करनी चाहिये और भजन सत्संगकी बातपर ध्यान देना चाहिये। दया, कृपाकी बात मेरेको नहीं लिखनी चाहिये। उपकार, दया करनेवाले एक हरि ही हैं। संसारका मिथ्या झंझट तो शरीर रहे जहाँतक हमारे साथ है, हमारे ऊपरके झंझटकी ओर मत देखो। तुम अपना काम जल्दी बनाओ। अभी तुम्हारे विशेष झंझट नहीं है। लगभग तीन घंटा दूकानका काम देखना चाहिये। एक घंटा भी सत्संग होवे तो अच्छा है। मेरे रहनेका कुछ ठिकाना नहीं। मिथ्या कामके लिये इतना समय नहीं लगाना चाहिये। एक पलक भी मिथ्या काममें जाय तो उसका विचार करना चाहिये। जन्म-मरणका दु:ख याद करना चाहिये। कालको भूलना नहीं चाहिये। परमार्थके काममें शरीरको लगाना चाहिये। राम-नाम ही धन है। हमारी बातका विश्वास रखो। राम-नाम धन इकट्ठा करना चाहिये—
कबिरा सब जग निरधना धनवंता नहिं कोय।
धनवंता सोइ जानिये जाके राम नाम धन होय॥
मर जाऊँ माँगूँ नहीं अपने तनके काज।
परमारथ के कारणे मोहि न आवे लाज॥
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श्रीआनन्दरामजीसे जयदेवका राम-राम। आपका पत्र मिला। मैं कृपा करनेवाला कौन हूँ?
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥
जिनमें विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, धर्म कोई भी गुण नहीं है। वह इस लोकमें भूमिके लिये भारभूत है। वृथा ही मनुष्यरूप धरा है। दीखनेमें मनुष्यका रूप है वास्तवमें पशु है। मनुष्य-शरीरका फल भजन है। भजनसे सारे गुण आते हैं और सत्संगसे भजन अधिक होता है, यह आपको बहुत बार लिखा ही है। संसारके भोगोंमें मनुष्य किसलिये जाता है। संसार भी साथ नहीं जाता तो भोग थोड़े ही साथ जायगा। दिन बीता जाता है, फिर भोग तुम्हारे किस काम आयेगा। बार-बार लिखनेपर भी आप संसार और शरीरमें आसक्त हो गये फिर लिखना क्या काम आया। जहाँतक हो समय भजन, शास्त्रोंकी बातें और सत्संगमें बिताना चाहिये। हरिके नामका सुमिरण ही सार है। मेरे तो किसी समय कोई, किसी समय कोई, थोड़ा बहुत झंझट रहता ही है। मेरे झंझटका खयाल नहीं करना चाहिये, जो काम करना हो झटपट कर लेना चाहिये।
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥
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श्रीरामवल्लभ सरावगीसे जयदेवका राम-राम बंचना। कलियुगके समान आनन्द देनेवाला और कोई युग नहीं है क्योंकि राम-नामका गुण गानेसे संसारसे उद्धार हो जाता है। इसी प्रकार तुलसीदासजीने लिखा है—संसारका जितना गुण-दोष है, सब हरिकी मायाका है। इससे हरिके भजन बिना नहीं जीता जा सकता। भगवान् की प्राप्तिका सुख भगवान् की भक्ति बिना होना सम्भव नहीं है। इसलिये हरिकी भक्ति ही सार है।
माता-पिता, बड़े भाई, भाभीकी सेवा करनी, आज्ञा माननी, नित्य चरण-स्पर्श करनेके बराबर कौन-सी तपस्या है।
जीवोंपर दया, परोपकार, निष्कामभावसे करनेके समान धर्म नहीं है। हरि नामके जपके बराबर उद्धारका उपाय नहीं है।
जिस तरह दूसरेकी स्त्रीको माताके समान, दूसरेके धनको धूलके समान, सभी प्राणियोंको अपनी आत्माके समान समझनेवाला ही पण्डित है, उसी तरह ईश्वरके शरणागतका उद्धार होनेमें कोई शंका नहीं है।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥
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चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम।
विशृतानि बहून्येव तीर्थानि विविधानि च।
अंशेनापि न तुल्यानि नामसंकीर्तनस्य च॥
बहुत-से तीर्थोंमें बुद्धि-अनुसार स्नान करनेका फल भी हरिके एक नामके बराबर भी नहीं होता—इस प्रकार शास्त्र कहते हैं। फिर भी नामका जप-स्मरण नहीं होता तो आपको क्या लिखा जाय। स्वार्थ छोड़कर सारी दुनियाकी सेवा भगवान् की ही सेवा समझनी चाहिये। किसीसे सेवा नहीं करानी चाहिये। माँजीके चरणोंकी सेवा, आज्ञा तुम तथा भाभीजी पूर्णरूपसे पालन करो तो बहुत आनन्दकी बात है। शरीर तो नष्ट होगा ही और अपना साथ भी सदा थोड़े ही रहेगा। ऐसा मौका कहाँ मिलेगा। हम बराबर कहकर भी क्या करें। तुम्हारे रुपये, स्त्री, पुत्र कोई भी सहायता नहीं करेंगे। एक हरि ही मालिक हैं। उस मालिकको भूलकर नमकहराम नहीं होना चाहिये। रात-दिन जितना भजन करोगे उतना ही आनन्द होगा। संसारका भोग भुगता तो क्या और शरीरको कष्ट हो तो क्या, शरीर जाये तो क्या? शरीरको मुर्देके समान समझकर और मान-अपमानको छोड़कर सबको ईश्वरकी तरह मानकर सबकी सेवामें लगना चाहिये।
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भाई हनुमानदाससे जयदेवका राम-राम। भाईजी परमात्मामें प्रेम होकर हरिके दासकी पदवी प्राप्त कर लेंगे तो हम भी अपना परिश्रम सफल मानेंगे। तुम जो कुछ करते हो उसका फल तुम्हें ही मिले, ऐसा मेरा भाव है। मैं किसीसे कुछ भी नहीं चाहता हूँ। भगवान् रामचन्द्रजी प्रजासे कहते हैं—जो कोई मेरी आज्ञा मानेगा, वही मेरा सेवक, दास और प्रेमी है। भाईजी आज्ञा पालनसे भगवान् भी वशमें हो जाते हैं फिर मनुष्यकी तो बात ही क्या है? आपको भी मेरा लिखना है, जहाँतक हो सके निष्कामभावसे रामनामका अभ्यास करना चाहिये। जब अमोलक समझकर रामनामसे प्रेम होगा, तब दुनियासे स्वत: ही वैराग्य होगा। यदि ऐसा मौका पाकर भी भवसागर नहीं तरेंगे, ऐसी मंडलीके साथ होकर भी भवसागर नहीं तरेंगे तो आत्महत्यारा, निन्दा करनेयोग्य, मूर्खकी गतिको ही प्राप्त होंगे।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई।
मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
वास्तवमें ऐसा मौका मिलकर भी हरिका दर्शन नहीं हो तो अपनी आत्माका स्वत: ही नाश करना है तथा फिर ऐसा मौका मिलना बहुत ही कठिन है। अत: भाईजी! अपने भी वैसा ही मौका मानकर हरिके बराबर किसीको नहीं मानकर उनके सिवाय और किसी बातकी इच्छा नहीं करनी चाहिये।
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन कार्तिक कृष्ण ३०, बृहस्पतिवार रात्रिमें बहुत आनन्दसे हुआ।
केवल भजन ही सार है। भजनमें इतना आनन्द होनेपर भी मिथ्या संसारके भोगोंमें जो मूर्ख होगा वही फँसेगा। जो तुम्हारा है उसीका आसरा लेना चाहिये। संसार नष्ट हो जाता है, संसारमें कोई भी तुम्हारा नहीं है। गये हुए दिन वापस नहीं आते। इसलिये पहलेसे ही इस प्रकार समय बिताना चाहिये, जिससे पीछे पछताना न पड़े। ऐसी भक्ति करनी चाहिये जिससे कुछ करना बाकी न रहे। जैसे—सुतीक्ष्णने भक्ति करके भगवान् से वर पाया था—
तुम्हहि नीक लागै रघुराई।
सो मोहि देहु दास सुखदाई।
अबिरल भगति बिरति बिग्याना।
होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥
अब प्रभु संग जाउँ गुरु पाहीं।
तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥
भगवान् ने स्वत: ही वरदान दे दिया। भाईजी! मुनिको कुछ भी माँगना नहीं पड़ा। भगवान् सब जगह व्याप्त हैं। अत: कुछ भी चिंता नहीं है। तुम विश्वास रखो। इतना लिखनेपर भी कुछ प्रभाव नहीं पड़ता तो कहाँतक लिखा जाय। एक हरिका आसरा ही सच्चा है। जो कुछ भी हो उसमें आनन्द मानना चाहिये। राजा जनककी तरह सब झूठा मानकर पानीमें कमलकी तरह रहना चाहिये।
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम राम। कामका झंझट एवं सत्संगकी कमी होनेसे भजन कम होता है। इसके कारण आनन्द एक-सा नहीं रहता। थोड़ा बहुत प्रारब्धका भी कारण है। इसकी कुछ चिंता नहीं। पुरुषार्थ बलवान् है। इस प्रकार ध्यान होनेपर परमपदकी प्राप्ति उसी समय हो जाती है। तुमने लिखा कि तुम्हारे प्रभावको किस तरह जाना जाय? हमारा तो कुछ प्रभाव है नहीं, फिर जाना क्या जाय? परमपदकी प्राप्ति होनेपर श्रीपरमात्माका पूर्ण प्रभाव जाना जा सकता है। स्वार्थको छोड़ो, निष्कामभावसे जितना स्मरण, चिन्तन किया जाय, जितना उनका गुणानुवाद सुना जाय, उतना ही आनन्द, प्रेम निष्काम होगा, उतना ही प्रभाव जाना जायगा तथा संसारसे वैराग्य भी होगा।
नारायणकी भक्ति किये बिन मुक्ति कोई नहिं पायेगा।
तामस राजस देवहिं पूजै रजतमपुरमें जायेगा॥
भैरव भूत प्रेत चंडिहित गन्दा भोजन खायेगा।
तामस बोली तामस वृत्ति तामस शास्त्र सुहायेगा॥
यही जान रज तमको त्यागो हृदयमें पुरुष दिखावेगा।
देव मनुष्य ऋषि दास हरिके सबसे प्रीति सुहावेगा॥
भक्ति करै सो सबसे उत्तम द्विज मुनि यदि कहायेगा।
पुरुषोत्तम को दास दास मिल वे परमपद पहुँचायेगा॥
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। भाईजी! सबसे गरीब बननेसे गरीबनिवाज तुरन्त मिलते हैं। सबसे गरीब तथा सबका दास होकर, सेवाभाव रखकर चाहे जहाँ रहो, मन वशमें करना चाहिये। विषय-भोगोंसे मन हटाकर भगवान् में लगाना चाहिये—
नारायण मैं सच कहूँ भुज उठाय के आज।
जो जिय बने गरीब तूँ मिले गरीब निवाज॥
जिनको मन निज बस भयो तजकर विषय विलास।
नारायण ते घर रहो चाहे कर बनवास॥
इसलिये तुम चाहे कलकत्ता रहो, चाहे बाँकुड़ा रहो, विषय-भोग, शौकीनी और ऐश-आरामको छोड़कर निष्कामभावसे काम करना चाहिये। भाईजी! तुमको चिन्ता किस बातकी है। भजन करते हुए भले ही काम करो, भजन नहीं छोड़ना चाहिये। तुम भजनको नहीं छोड़ोगे तो भगवान् भी तुम्हें कभी नहीं छोड़ेंगे। उनके नामका जप और ध्यान निष्कामभावसे करना ही असली शरणागतिका भाव है। जो कार्य मैं-भाव करके किया जाय, वह काम ही नाशवान् फल देनेवाला है।
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भाईजी अपने प्रेमकी बात तो तुम जानते ही हो। जैसा प्रेम तुम हमारे साथ रखते हो, वैसा मैं भी रखता हूँ। भाईजी! इच्छा-वासनामात्र ही खराब है। जैसे भगवान् ने गीतामें अर्जुनसे कहा है—
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
(गीता २। ७०)
समुद्र अपनी महिमामें स्थित है, पूर्ण है, अचल है, तभी सब नदियोंका जल उसमें गिरता है। उसी प्रकार निष्काम पुरुषमें सभी आनन्द, शान्ति स्वत: ही आ जाते हैं, कामनावालेमें नहीं।
हीरालालजीके अभी इच्छा तथा वासना तो है, क्योंकि वासनाका नाश तो परमपदपर पहुँचे बिना नहीं होता। अभी तो संसारके भोगोंकी भी कुछ इच्छा है। भजनके बदले भगवान् से कुछ माँगे नहीं। श्रीशंकराचार्यजी महाराजने चार बातोंका उत्तर बहुत ही अच्छा दिया है—
को वा दरिद्रो हि विशालतृष्ण: श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोष:।
जीवन्मृत: कस्तु निरुद्यमो य: किं वामृतं स्यात्सुखदा निराशा। ५।
(प्रश्नोत्तरी ५)
प्रश्न—दरिद्र कौन है?
उत्तर—जो बहुत तृष्णावाला है।
प्रश्न—धनवान् कौन है?
उत्तर—जिसके पूर्ण संतोष है।
प्रश्न—जीता हुआ ही मृतक कौन है?
उत्तर—पुरुषार्थहीन जीता हुआ मृतकके समान है।
प्रश्न—अमृत वस्तु क्या है?
उत्तर—जो सुखकी भी आशासे रहित है।
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लिखी चक्रधरपुरसे भाई हनुमानदाससे जयदयालका बारंबार राम-राम। कामका झंझट तो जबतक परमेश्वरकी प्राप्ति नहीं होती तबतक रहता है। भाईजी! झंझटके कारण भजन कम नहीं होना चाहिये। भजन ही सार है। भजन तो चाहे प्रेमसे हो, चाहे सखाभावसे हो, चाहे दासभावसे हो, भले ही वैरभावसे हो, उनका स्मरण होना चाहिये। जैसे—
रात मरे ना दिन मरे मरे न भीतर बार।
बैर बाँध भगवानसे जीत लिया संसार॥
भाईजी! भजन कम हो तो ध्यान भी विशेष काम नहीं आयेगा, उनका स्मरण ही सार है।
१-उनके नामको याद रखकर जो काम हो सो करना चाहिये।
२-मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ—हर समय यह याद रखना चाहिये।
३-सब कुछ वासुदेव है, एक परमात्मा ही सब कुछ है, यही भाव हर समय रहे।
४-उस सर्वव्याप्त भगवान् में मैं-भावको रमा दे। सब जगह व्यापक, सब जगहसे देखनेवाले, सब जगहसे सुननेवाले—ऐसे जाननेयोग्य भगवान् हैं—
सर्वत:पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वत:श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥
(गीता १३। १३)
वह सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है; क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है।
फिर मैं और संसारको मिथ्या कल्पना करके मैं और संसार कुछ भी वस्तु नहीं है, पहले भी कुछ वस्तु नहीं थी—ऐसा मानना चाहिये।
बद्रू धानुकाका समाचार निगह किया। उनको विचारना चाहिये कि तुम अपना काम छोड़ मिथ्या संसारकी फाँसीमें पड़े हुए क्यों दु:ख पा रहे हो। मिलनेकी इच्छा रहती है सो ठीक है, किन्तु मिलनेके लिये ढिलाई रहती है यह मालूम है। होनीमें आनन्द मानना तो बहुत ठीक है।
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लिखी चूरूसे खूबचन्द जयदयालका राम-राम बंचना। राजसी फुरणा भले ही हो, नामका जप होना चाहिये। हर समय नामका जप होनेका उपाय पूछा सो भगवान् का प्रभाव जाने बिना एवं प्रेम हुए बिना कोई उपाय नहीं है। भगवान् का बिछोह भले ही हो, कोई चिन्ता नहीं, किन्तु उस प्रेम प्यारेका चिन्तन प्रेमसहित हर समय निष्कामभावसे जपसहित होना चाहिये तथा और कुछ भी नहीं हो तो केवल उन प्रभुसे अनन्य प्रेम होना चाहिये। भगवान् का जप, ध्यान, सत्संग करनेसे ही प्रभाव जाना जाता है। वैराग्य भले ही मत हो। नामका जप, ध्यान और सत्संग करनेमें हर समय प्रेम होना चाहिये।
मिलनेकी बात लिखी सो मिलना यद्यपि संयोगाधीन है, फिर भी प्रेम होनेके कारण चेष्टा हर समय ही करनी चाहिये। मिलना भले ही कम हो, किन्तु प्रेम कम नहीं होना चाहिये।
भाईजी! श्रीगीताजी भगवान् के मुखसे निकली हुई है। उसे पढ़नेका अभ्यास करना चाहिये। उनका वचन पालन करनेसे ही उनका प्रेमी, भागवत, दास तथा सखा समझा जायगा। रामायणमें भी भगवान् ने कहा है—
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई।
मम अनुसासन मानै जोई॥
भाईजी! मेरेपर आपको विश्वास है और प्रेम है तो बहुत उत्तम है। असली प्रेम तो तभी समझा जाय, जब प्रेमीकी बात प्राणोंसे भी प्रिय समझे। ऐसा प्रेम निष्कामभावसे होना चाहिये। आप-सरीखा प्रेमी होकर भी ऐसा प्रेम नहीं निभायेगा तो और किसको लिखूँ। तुम्हारे ऊपर घरमें भी कोई मालिक नहीं है। फिर आपमें पूर्ण प्रेमके बर्तावकी तथा भावकी त्रुटि किसलिये है। मैं तो फिर भी कुछ अधीन हूँ।
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ध्यान इस प्रकार करना चाहिये। शरीरसे मैं अलग हूँ। शरीर, संसार सभी मिथ्या, मृगतृष्णामात्र हैं। सर्वत्र परमात्मा ही आनन्दरूपसे व्याप्त हैं। मैं कुछ भी नहीं है। परमात्मासे ही सब हो रहा है। दीखनेवाला मिथ्या कल्पनामात्रकी तरह है, स्वप्न है। भाई! तुम भी एक जगहमें अपना भाव मत देखो। सर्वव्याप्त परमात्मा ही है। तुम नहीं हो, परमात्मा ही एक जगह रहता हुआ न्यारा-न्यारा दीखता है। जब तुम शरीर तथा नाम नहीं हो फिर संसारका जो कुछ नुकसान होवे तुम्हारे क्या अन्तर पड़ता है। संसारकी सभी वस्तुएँ शरीरको लाभ पहुँचानेवाली हैं। तुम चिन्ता-फिक्र किसलिये करते हो। तुम्हारे भले ही कुछ भी होवे, तुम तो एक राम ही राम, राम ही राममय संसार देखो। नीचे-ऊपर सभी जगह आनन्दरूप व्याप्त हो रहा है। जो कुछ दीखता है एवं देखनेवाला है, सब मायामात्र है, भ्रममात्र है। नाश हुआ पड़ा है शनै:-शनै: बदल रहा है।
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पाने दूजेका राम-राम बंचना। हनुमानदासने मिलनेकी इच्छा लिखी सो मेरे ध्यानमें है। इतनी इच्छा नहीं रखनी चाहिये। इतनी इच्छा तो भगवान् के दर्शनोंकी रखनी चाहिये। वह तो सभी जगह हाजिर ही है। इतनी तीव्र इच्छा होनेपर भी मिलनेमें ढील हो तो तुम्हें उसमें भी आनन्द ही मानना चाहिये, यदि इस मर्मको तुम समझ सको। तुमने पूछा था कि पूर्ण प्रेमसे बिछोह कितने दिन और देखना पड़ेगा। भाईजी! पूर्ण प्रेमके लिये आनन्दस्वरूपका बिछोह इतने दिन होगा इसका कुछ नियम नहीं लिखा जा सकता। तुमने लिखा कि मेरी जानमें हो सके उतना पुरुषार्थ करता हूँ। भाईजीका आसरा है, इतनी ही पुरुषार्थकी त्रुटि है। भगवान् का भक्त तो भगवच्चरणका, उनके नामके स्मरणका आसरा रखता है, अन्य किन्हीं भोगोंका तथा देवका आसरा नहीं मानता। संसारके मिथ्या बर्तावमें भले ही संसारी वस्तुओंके लिये भोगोंकी बात कहो और किसी महात्माको बड़ाई देते समय भले ही कहो कि मेरे धन्यभाग्य हैं। वास्तवमें भगवान् के नामका और चरणके ध्यानका ही आसरा रखना चाहिये। इतना लिखनेपर भी धारण नहीं होता यह समझनेकी त्रुटि है। भाईजी भीतरका अन्धकार मिटे बिना समझना नहीं हो सकता। सत्संग, भजन और भगवान् के ध्यानसे भीतरी अन्धकार नष्ट होता है। मिलनेके लिये पुरुषार्थ पूछा सो नामका जप और ध्यान ही परम पुरुषार्थ है। उसके करनेसे स्वयं भगवान् को भी मिलना पड़ता है। सत्संगकी आवश्यकता समझनेपर स्वत: ही वैसी व्यवस्था हो जाती है, अन्यथा उन्हें स्वयं ही महात्माका रूप धरकर मिलना पड़ता है। इसलिये उनके नाम और ध्यानका जितना अभ्यास हो सके करना चाहिये। तुमने लिखा इतना काम होकर भी भगवान् याद रहें वह उपाय लिखिये सो भगवान् में प्रेम रखना चाहिये। प्रेम ही प्रधान है, नामजप अधिक होनेकी चेष्टा होनी चाहिये। जिस किसी उपायसे भी हो मालिकका स्मरण रहनेकी कोशिश होनी चाहिये। उसपर भी मालिकका काम करना चाहिये। भूल हो जाय तो कोई चिन्ता नहीं। जबतक संचित पापोंका जोर है तबतक तो मालिककी खटाली करनी पड़ेगी, इसमें आलसी नहीं होना चाहिये। आनन्दसहित मालिकका सब काम राजी-खुशी करना चाहिये। जिस समय मालिक समझ लेगा कि प्रेम हो गया है, फिर मालिक स्वत: ही नहीं छोड़ेगा। तबतक वे जो कुछ करते हैं, हमें पक्का करनेके लिये करते हैं।
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भाई हनुमानदाससे जयदेवका राम-राम बंचना। मैंने सुना है कि तुमने पूज्य चाचाजी लालचन्दजीको चिट्ठी दी जिसमें लिखा है कि आप चेष्टा करके चौबारा बनवा देंगे तो बालकोंके लिये जगह हो जायगी। भाईजी! इस प्रकार लिखनेसे सकामभाव प्रकट होता है। बहुत विचारनेकी बात है कि तुम्हारा शरीर जानेके बाद बालकोंके रहनेके लिये इतनी लाचारीका समाचार लिखना बहुत ही सकामभावकी बात है। मरनेके बाद भी घरवाले जो बचे रहें, वे कष्ट न पायें यह कामना पुन: जन्म देनेवाली है। बहुत सकामतासे विचार करनेसे किसी समय यह भाव भी होना कोई बड़ी बात नहीं है कि लड़का अच्छा होगा तो मरनेके बाद अच्छा करेगा, जिसका मुझे अच्छा फल होगा तथा मरनेके बाद मेरा नाम चलता रहेगा तथा मेरे लड़के, स्त्री कष्ट नहीं पायेंगे। भाईजी बहुत विचारकी बात है। तुम्हें लड़के-स्त्रीकी जैसी चिन्ता है वैसी ही सबके लिये होनी चाहिये। अन्यथा किसीके लिये भी नहीं होनी चाहिये। मरनेके बाद जो कुछ हो उसकी चिंता नहीं करनी चाहिये और घरवालोंको अच्छी शिक्षा देनी चाहिये। मरनेके समय घरवालोंको कुछ कहना न पड़े। अनुमान किया जाता है कि यदि मेरा शरीर शान्त हो तो मुझे मेरे मरनेके बादके प्रबन्धकी किसी भी बातके लिये घरवालोंको कुछ कहना ही नहीं पड़ेगा और तुम्हारे लिये भी यही उचित है। इसी प्रकार करना चाहिये तथा श्रीभगवान् की प्राप्तिके लिये भजन, ध्यान, सत्संगकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। जैसे चौबारा करानेकी इच्छा और चेष्टा है इसी प्रकार परमधाम बनवानेके लिये चेष्टा करनी चाहिये। भाईजी! इस जगहका चौबारा बनवाना तो साधारण बात है। अपने इस तुच्छ आरामके लिये कुत्ता भी घर बना लेता है। किन्तु हम तो उसको धन्यवाद देते हैं जिसने परमधाममें रहनेके लिये अटल चौबारा बना लिया, यदि इतनी शक्ति नहीं हो तो श्रीपरमात्मदेवकी शरण लेनी चाहिये। यानि हर समय उसको याद रखनेकी कोशिश प्राणपर्यन्त करनी चाहिये, ताकि अन्तमें तो काम पार पड़ जाय। नहीं तो कुत्तेकी तरह ही संसारमें रहना समझा जायगा। सांसारिक कामके लिये किसीसे लाचारी प्रकट नहीं करनी चाहिये। आत्मामें कुछ त्यागका जोर भी होनेकी विशेष आवश्यकता है। यह भजन, ध्यान, सत्संगसे होता है तथा श्रीगीताजीके अभ्याससे होता है। जिसके लिये तुम्हें बहुत कम फुरसत है, अपना असली काम बनाकर तैयार रहना चाहिये। जिस कामके लिये तुम आये थे उस कामको शीघ्र बना लेना चाहिये। जैसे यात्री टिकट कटाकर रेलगाड़ीकी प्रतीक्षा करता है, उसी तरह टिकट कटाकर मृत्युकी प्रतीक्षा करनी चाहिये। मृत्यु चाहे जब आये, हर समय सब काम पूरा करके तैयार रहना चाहिये। जिससे मरनेके बादकी कुछ भी चिन्ता हो ही नहीं। यह चिट्ठी सत्संगियोंको भी पढ़वा सकते हो।
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हनुमानदासजीके बँटवारेका समाचार इस प्रकार है—
लोग यह बात देख रहे हैं कि जयदयाल यदि हनुमानका पक्ष लेकर बोले तो इसकी भी निन्दा करें और भी बहुत-सी कठिनाइयाँ हैं, क्योंकि बिना पक्षपात किये भी लोग मुझे तुम्हारे पक्षमें समझ लेते हैं। इसमें कौन-सी बड़ी बात है। मैं तो साधारण मनुष्य हूँ। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीको बहुत-से मूर्ख अर्जुनका पक्ष लेनेवाला समझते थे। अभी मकान बनानेवाले काममें रुकावट नहीं है, किन्तु अधिक दिन निकलनेसे हर्जा हो सकता है। ऐसी चेष्टा करनेका विचार है जिस तरह मकान बनानेवाला काम बंद नहीं होवे। बाकी भाईजी! परमधाममें मकान बनवानेवाला काम बंद नहीं होना चाहिये। बहुत जोरसे चलना चाहिये। बंद होनेसे काममें बहुत हर्जा हो रहा है। बंद तो नहीं हुआ है, किन्तु बन्द नहीं होना चाहिये। जबतक शरीर ठीक है, बहुत चेष्टा करके तेजीसे काम चलाना चाहिये।
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लिखी चूरूसे खूबचन्द जयदयालका भाई हनुमानदाससे राम-राम।
स्त्रीमें इतना प्रेम नहीं होना चाहिये। इन वर्षोंमें तुमने गहना, कपड़ा अपनी पत्नीके लिये बनवाया, यह उसकी आसक्ति तथा शौकीनी है। हमलोगोंके पास गहना लगभग सवा दो हजारका है। हमारे-तुम्हारे घरकी इज्जत तथा धनका बहुत फर्क है। तुम्हें अपने लड़के, लड़कियोंके विवाह-सगाईके लिये रकमकी व्यवस्था करनी चाहिये थी। इतनी आमदनी होकर भी तुम्हारे पूँजी विशेष जुड़ी नहीं। तुम्हारा शरीरमें प्रेम और शौकीनी नहीं छूटेगी तो भगवान् का दर्शन होना कहाँ पड़ा है। पूर्वमें संसारमें जिन पुरुषोंको ज्ञान हुआ है वे भोगोंमें आसक्त नहीं थे। जब शरीर ही नष्ट हो जायगा तो फिर शौकीनी किस काम आयेगी। इज्जत तथा मान-बड़ाई सब धरी ही रह जायगी। अभी इतना समय नहीं है। कलियुग ठहरा। जल्दी उपाय करना चाहिये। अच्छा कपड़ा पहननेसे सांसारिक भोगी पुरुषोंको प्रसन्नता होती है। मोटा-सोटा, फटा हर कैसे कपड़ेमें आनन्द मानना ही वैराग्य है। बहुत दृढ़ वैराग्य हुए बिना भगवान् नहीं मिलते। तुमने मोठ तथा बाजरेके लिये केदार धानुकाको बहुत कड़ा तकादा लिखा सो बीमारीको मिटानेवाली वस्तु-मोठ बाजरा नहीं है। तुम्हारेमें आसक्ति है, और कोई कारण समझमें नहीं आया। गहना कपड़ा बहुत कम बनवाना चाहिये। मोटा-सोटा खा करके बचे वह राशि मालिकके काममें लगानी चाहिये। मालिकका काम तो दूर रहा, तुम्हारे लड़के-लड़कियोंका विवाह, सगाईका काम चले तो बहुत है। शरीर और मनके वशीभूत होकर मालिकका पैसा काममें लेना बंद करो। नहीं तो झूठ-मूठ मेरेसे उपदेश मँगाया तो लिखना ही पड़े, किन्तु कुछ भी नहीं मानो तो लिखाना और पढ़ाना दोनों ही व्यर्थ है। मुझे तो सभी कुछ करना ही पड़ता है, किन्तु तुम अच्छी तरह विचार करो। तुम्हारे कारण सांसारिक लोगोंकी बहुत हानि हो रही है। बहुत-से लोग कहते हैं कि प्रेमसहित मेरी इतनी संगति करके भी हनुमानकी शौकीनी एवं संसार और शरीरका प्रेम नहीं गया। फिर लोगोंको संतोष कैसे हो? शौकीनी, शरीर, भोग, स्त्री, पुत्र, धन सभी कुछ धरा ही रह जायगा। तुम अपने काममें किसलिये सावधान नहीं हो रहे हो। किसलिये अज्ञान-निद्रामें सोये पड़े हो। ऐसा मौका फिर कब मिलेगा, अत: जल्दीसे जल्दी काम बनाना चाहिये। संसारके भोगोंको अनर्थरूप मानकर जबरदस्ती छोड़ देना चाहिये। मिथ्या इज्जतके लिये सच्ची इज्जत धूलमें नहीं मिलानी चाहिये।
झाबर सिंघानिया बीमार है। उसने लिखा है कि भगवान् का दर्शन हो गया है, भगवान् हाजिर खड़े हैं, बहुत आनन्द हो रहा है। उसका पोस्टकार्ड तुम्हें भेजनेका विचार है, इस चिट्ठीको बहुत सँभालकर रखना। संसारके भोग दु:खरूप हैं और संसारचक्रमें गिरानेवाले हैं। उनकी वासना भी बुरी है। ऐसी वासना यदि मरते समय हो जाय तो संसारचक्रमें घूमना पड़ता है। इसलिये संसारका काम तो लोकदिखाऊ थोड़ा-बहुत उतना ही करना चाहिये जितनेमें पेट भर जाय। मोटा-सोटा खानेसे एक रुपयेमें अच्छी तरह पेट भर सकता है। जिसने रोज सारा दिन पेट भरनेमें लगा दिया उससे तो पशु भी अच्छा है। मुटिया-मजूरी करके भी पेट भरनेवाला आदमी है। तुमको अपना शरीर मेहनती बनाना चाहिये। अपने लड़कोंको भी अमीर-शौकीन बनाना अपने और उन लड़कोंके लिये भी हानिकर है। खर्च अधिक करनेकी मत मानो, साफ कह सकते हो कि बिना आय कहाँतक खर्च किया जाय। तुम्हारी स्त्री और माँजी कोई भी तुम्हारी सहायता नहीं कर सकेंगे। यदि हमारा कहना मानो तो शौकीनी छोड़नी चाहिये और खर्च कम करनेका विचार, हरदम भजन करते हुए रहना चाहिये। केवल संसारका काम बिना प्रेम करना चाहिये। लोकदिखाऊ संसारके काममें भले ही हर्जा हो जाय, किन्तु ईश्वर-दर्शनमें हर्जा नहीं होना चाहिये। भीख माँगकर खाना अच्छा है, किन्तु ईश्वर-दर्शनमें ढील होवे—ऐसा काम नहीं करना चाहिये। भीख माँगकर भी तथा सिर काटनेपर भी भगवान् का दर्शन मिले तो भी तुरन्त स्वीकार कर लेना चाहिये।
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लिखी चक्रधरपुरसे हनुमानदाससे जयदेवका राम-राम बंचना। जो कुछ होता है उनकी आज्ञासे ही होता है, अत: जो कुछ भी हो उसमें आनन्द मानना चाहिये। तुम्हें विश्वास नहीं तो मैं क्या करूँ? हरि तो तुम्हारे पास ही हाजिर हैं। उनको तुम जानते नहीं हो तब मैं क्या उपाय करूँ। तुम्हें यदि विश्वास हो तो लिखे हुएपर विचार करो। फिर लिखते हैं। उस हरिकी शरणसे सभी बात स्वत: ही होती है। शरण होनेके बाद तो फिर जो कुछ वे करते हैं, उसमें आनन्द किसलिये नहीं मानते हो? पूर्वकी बात याद करके भोगोंमें, संसारकी मायामें फँसना ठीक नहीं है, फिर तुम्हारी इच्छा। समय बीता जा रहा है। तुम अपने कर्तव्यको याद करो।
बहुत गयी थोड़ी रही नारायण अब चेत।
काल चिरैया चुग रही निशिदिन आयू खेत॥
आज कहे मैं काल भजूँ काल कहे फिर काल।
आज कालके करत ही औसर जासी चाल॥
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। भूरामलजी पहुँच गये हैं। भूरामलजी कह रहे थे कि हनुमानबक्स, बद्रीदास, कन्हैयालाल, आनन्दरामजी, रंगलाल, प्रह्लाद आदि मिले थे। भाईजी! उद्धवजी जैसे गोपियोंकी खबर लाये थे, भूरामलजी उसी प्रकार तुमलोगोंकी खबर लाये हैं। ध्यान करना ही सार है। भाईजी! संसार और भोग, शरीर तथा कुटुम्ब, धन, पुत्र, पुत्री सब नाशवान् हैं। शरीर भी साथ नहीं जायगा फिर किसलिये मन ललचाते हो। उनसे प्रेम छोड़ना चाहिये। सबसे प्रेम छोड़कर एक हरिमें लगाओ, फिर तो विलम्ब है नहीं। जो थोड़े दिनों बाद छोड़नी पड़ेगी उसे छोड़नेमें क्या हानि है। शरीर तुम्हारा नहीं है, तुम भी शरीर नहीं हो। जो कुछ होवे, चाहे कोई शरीरको काटो, पीटो, चाहे शरीर अभी नष्ट हो जाय। एक पलक भी वृथा नहीं जाना चाहिये। चेत करना चाहिये। एक बात भी वृथा नहीं निकालनी चाहिये। जल्दी-जल्दी रास्ता तय करना चाहिये।
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बाँकुड़ासे जयदेवका राम-राम बंचना। आत्मारामजीके बारेमें तुमने पूछा था कि कितना मार्ग तय हो गया। मैंने उस समय तुमसे कुछ नहीं कहा था, इसलिये चिट्ठीमें मुझे जैसा अनुमान होता है वह लिख रहा हूँ, तुम्हारेसे श्रेष्ठ मालूम देता है बाकी पक्की बात राम जाने। हनुमानसे फिर राम-राम बंचना। भाईजी! भजन करना ही सार है। नहीं तो पछताना पड़ेगा। एक भजनमें पुरुषोत्तमदासजी कहते हैं—
प्रभुजी मैं सब विध चोर तुम्हारो।
जो कोई निंदित कर्म जगतमें करत करत नहिं हारो।
जन्म अनेक मैं पाप ही कीन्हें जप्यो न नाम तुम्हारो॥
आज्ञा भंग करी अनगिनती वेद बिचारो हारो।
पुरुषोत्तमकी एकहि विनती माफ करो तो उधारो॥
समयको अमूल्य जाननेके बाद कोई कठिनाई नहीं है। भगवान् प्रेमसे मिलते हैं। स्वार्थ छोड़नेवाला भगवान् को बहुत प्यारा लगता है। निष्काम भजनसे भगवान् की शरण हो जाता है। शरण होनेके बाद कोई विलम्ब नहीं है। पूर्ण शरण होनेका उपाय एक भजन-सत्संग ही है। शरण होनेके बाद कुछ कर्तव्य नहीं है। सब कुछ मालिकका है। लाभ-हानि उनकी है। मैं-मेरा कुछ भी नहीं है। एक सच्चिदानन्दरूप ही है। आनन्दके सिवाय और कुछ नहीं है। और कुछ भी प्रतीत हो सो मिथ्या जानो। सब मनको प्रतीत होता है। मन भी कल्पित है। चिन्तनमें आनेवाली सभी चीजें मिथ्या हैं। द्रष्टा-दृश्य सब कुछ कल्पित है। सबका अभाव हो जाय। रहे वही अनुभवरूप सच्चिदानन्द अपने आपमें स्थित है। वहाँ वाणीका गम नहीं, मनका गम नहीं, फिर कौन जाने। आप ही पूर्णमें समाया है, अपना भी ज्ञान पूर्ण नहीं रहता, अपने-आपमें सदा ही स्थिर हो जाओ। मन तथा मनकी कल्पना मिट गयी। इनके साथ कल्पित विषय भी चले गये। जो बचा वह तो सदा था ही, वहीं है। आनन्दमयमें जानेके बाद अन्त:करण हर समय मगन रहता है।
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भाई हनुमानदाससे लिखी बाँकुड़ासे जयदेवका राम-राम। ‘मैं नहीं हूँ’ नामजपके साथ यह अभ्यास हर समय करना चाहिये। शरीरसे मैं-भाव निकालना चाहिये। अन्यथा कठिनाई है—
मैं मैं बड़ी बलाय है सको तो निकलो भाग।
कब लग राखे रामजी रुई लपेटी आग॥
शरीर तो मिथ्या है नाश होगा ही। भाईजी! रूई लपेटी आग कबतक रहेगी। शरीरसे जल्दी बाहर निकलना चाहिये। मिथ्या शरीरमें मैं-भाव आरोपित हो गया। जिसे निकालनेमें भाईजी! ढील नहीं होनी चाहिये। संसारमें बहुत-से मनुष्य मैं-मेरे भावकी डोरीसे बँधे हुए हैं। जिनके भगवान् का आधार है उनके कोई बंधन नहीं है—
मोर तोर की जेवड़ी गल बंधा संसार।
दास कबीरा क्यों बँधे जाके राम अधार॥
बंधन हो तो भी टूट जाय, इसलिये उस परमात्माका आधार रहना चाहिये। श्रीपरमात्माका आसरा ऐसा लेना चाहिये कि जो कुछ है भगवान् हैं। प्राणोंसे भी बढ़कर मालिकको मानना चाहिये। उनका गुणानुवाद तथा प्रभाव सुननेसे प्रेम अधिक होता है। भगवत्-प्रभाव सत्संगसे जाना जाता है, इसलिये सत्संग करना चाहिये। शास्त्रका अभ्यास करना चाहिये। हरिकथासे हरिमें भाव बैठता है। भावसे मिलनेकी इच्छा तीव्र होती है। इच्छा तीव्र होनेपर चेष्टा होकर भजन अधिक होता है, फिर निष्काम प्रेम होकर भगवान् का दर्शन होता है। इस प्रकार महात्मा लोग तथा भक्तजन कहते हैं। तुमने लिखा कि संसारकी आसक्तिके कारण मेरा तुम्हारेसे बिछोह होता है। सो भाईजी! आसक्ति तो खराब ही है। बिछोहका कारण समझना कठिन है। भाईजी! नामका जप और सत्संग, भगवान् का ध्यान तथा भावसहित निष्कामभावसे स्मरण करके प्रेम बढ़ना चाहिये, फिर मिलना भले ही कम हो। वास्तवमें प्रेम चाहिये। प्रेम ही प्रधान है। यदि प्रेम नहीं हो तो मिलना प्रधान नहीं है।
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बाँकुड़ासे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम बंचना।
संसारसे प्रेम हटाने एवं साधनमें लगनेके लिये सत्संग और श्रीगीताजीका अभ्यास करना चाहिये।
दो बातनको भूल मत जो चाहत कल्यान।
नारायण एक मौत को दूजे श्रीभगवान॥
भजन, साधन, सत्संगके समान संसारमें कुछ भी नहीं है। इस प्रकार समझनेसे साधनमें उत्कण्ठा हो सकती है। भोगोंको साँपकी तरह समझकर भूलकर भी उनमें सुख जानकर भोग भोगनेमें अपना कल्याण नहीं खोना चाहिये। आलस्य और आरामका मूल है पाप, इसलिये संसारसे छुट्टी ले लेनी चाहिये। श्रीनारायणदेवके प्रेममें कलंक नहीं लगाना चाहिये। जो संसारसागरसे उद्धार करनेवाला है और तुम्हारा निष्काम परम हित करनेवाला है, उसे कभी नहीं भूलना चाहिये।
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भाई हनुमानदाससे जयदेवका प्रेमसहित राम-राम बंचना। ब्रह्मपुरीके पन्नेपर सही करनेवाले तथा नहीं करनेवाले दोनों ही मेरे लिये समान प्रेमी हैं। मुझे इन बातोंकी आवश्यकता नहीं है। भगवान् का प्रभाव जाननेके बाद तो संसारके भोग फीके लगने लग जाते हैं। इसमें कौन-सी बड़ी बात है। पूरा प्रभाव जाननेके बाद तो संसार एवं संसारके भोग एकदम भासते ही नहीं। भाई नानूरामसे प्रेमसहित राम राम। हाजिर हो तो चिट्ठी भी पढ़ा सकते हो। तुम्हारे भजन, ध्यान, सत्संगका समय किस प्रकार है लिखना। हर समय मन परमेश्वरमें रहे, ऐसा दिन कब आयेगा यह तो कौन जाने, किन्तु ऐसी फुरणा भी सच्चे मनसे हो तो बहुत उत्तम है। नामजपकी चेष्टा करते हुए भी भूल होती है ऐसा तुमने लिखा सो अभ्यासकी त्रुटि लगती है। अधिक लाभ तो गणपतरायजीको हुआ लगता है। प्रेमका बर्ताव किस प्रकार बढ़े, कैसे करना चाहिये? प्रेमी जो कुछ आज्ञा दे उसे बहुत प्रसन्नताके साथ धारण करना चाहिये तथा अपना प्रेमी मित्र जो कुछ अपने लिये कर दे उसको आनन्दसहित मानना चाहिये। अपने प्रेमीके किये हुए कामको बहुत उत्तम मानना चाहिये। भले ही अपने देखनेमें खराब ही मालूम दे, किन्तु अपनी बुद्धिको तुच्छ समझकर उस प्रेमीके लिये उस कामको प्रसन्नतासे स्वीकार करना चाहिये और निष्काम प्रेमी मित्रका पूर्ण विश्वास करके उसके भरोसे रहना चाहिये। उसको यदि कष्टसहित स्वीकार किया जाय तो ठीक नहीं, भले ही अपने मनके अनुकूल बिलकुल न हो। ऐसा नहीं होनेसे आगे जाकर प्रेम कम हो जाता है।
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चूरूसे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम बंचना। स्वप्नमें तथा ध्यानमें मिलना हुआ यह बात तथा आनन्दकी बात निगह की। अभी तो तुम्हें ही आनन्द हो रहा है, किन्तु तुम तो आनन्दरूप हो, यह अभी नहीं जाना, यह पूर्ण आनन्दकी कमी है। पूर्णरूपको जाननेसे ही पूर्ण आनन्द होता है। वैराग्य ठहरता नहीं सो संसारको सच्चा जान भोगोंके मिथ्या आनन्दको आनन्द मान रहे हो। मिथ्या भोगोंमें फँसनेवाले भोगोंके कीड़ेको असली आनन्द क्या मालूम। मिलनेकी इच्छा लिखी, किन्तु छुट्टी नहीं मिली सो ठीक है। कुछ चिन्ता नहीं है, तुम्हारा भगवान् में प्रेम होना चाहिये। भगवान् तो सब जगह हाजिर हैं। उनके लिये छुट्टी नहीं लेनी पड़ती, तुम्हारा पूर्ण प्रेम होना चाहिये। भगवान् सगुणरूपसे सब जगह हाजिर हैं। भगवान् से मिलना होनेके बाद जयदयालसे भले ही मिलना न हो। मेरे शरीरमें ईश्वरका दर्शन किस प्रकार हुआ, यह बात पूरी समझमें नहीं आयी। अपना सिर कटनेसे भी यदि भगवान् मिलें तो तुरन्त दर्शन करना चाहिये। तुमने मिथ्या भोगोंको बहुत कठिनतासे पकड़ रखा है, मोटा-सोटा खाना-पीना, पहननेका बरताव नहीं कर सकते तो और क्या करोगे। तुमने तो यह मान रखा है कि जयदयाल अपना मित्र है, फिर क्या चिन्ता है सो ऐसा भरोसा नहीं रखना चाहिये। जयदयालकी मित्रता क्या काम आयेगी? तुम जयदयालका कहा हुआ तो मानते नहीं फिर जयदयाल क्या करेगा। जयदयाल स्वत: ही किस प्रकार करेगा। तुम्हें उन भगवान् की शरण हो जाना चाहिये। जो सभीके मालिक हैं। हाड़-मांसका पुतला मनुष्य जयदयाल तुम्हारी किस तरह सहायता कर सकेगा। तुम उस असली रूपको जानोगे तो उद्धार होनेमें कोई भी शंका नहीं है।
परमात्माके वास्तविक रूपको जाननेवाला ब्रह्मलोकके भोगोंको भी काकविष्ठाके समान मानकर त्याग देगा। तुम किसलिये मिथ्या शरीरके लिये मिथ्या भोगोंमें फँसे हो। शरीर और भोगोंके साथ तुम्हारा क्या प्रयोजन है।
तुम अपना काम करो, अपने स्वरूपको किसलिये भूले हो, तुम शरीर तथा हनुमान नहीं हो, शरीर और हनुमान तो नाशवान् है, एक दिन नष्ट होगा ही। उस मिथ्या वस्तुका आसरा किसलिये ले रहे हो। स्वप्नके बगीचेमें आनन्द भोगनेकी इच्छा करनेवाला तो महामूर्ख है। ऐसा जानकर शरीरको मिथ्या जानो। ईश्वर प्राप्तिके लिये इस शरीरको धूलमें मिलाना चाहनेवालेके लिये तो उसी समय भगवान् तैयार हैं, अन्यथा मनुष्य-जन्म लेना वृथा ही है—
नारायण अति कठिन है हरि मिलवे की बाट।
या मारग तब पग धरे प्रथम शीश दे काट॥
जो सिर साटे हरि मिलें तो पुनि लीजै दौर।
नारायण ऐसी न हो ग्राहक आवे और॥
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम बंचना। कल मैंने प्रेमसे तुम्हें कुछ कड़े समाचार दिये थे। जो आनन्दकी बात समझना। तुम अपनेको उपदेश ही मानना। कृपा, दया परमात्माकी सबके ऊपर बनी पड़ी है। नमक हलाल करना चाहिये, उनको भूलना नहीं चाहिये, रात-दिन उनके नाममें मगन रहना चाहिये। निष्कामभावसे उनका जप करो। उनकी स्मृति रहनेके बाद और उपदेशकी आवश्यकता नहीं है। चिट्ठी आवश्यकता हो तो देना।
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भाई हनुमानदास नानूरामसे जयदेवका बाँकुड़ासे राम-राम बंचना। और सबके साथ प्रेम छोड़कर एक परमेश्वरमें प्रेम होनेके बाद परमेश्वरकी प्राप्तिमें विलम्ब नहीं है। सब कुछ परमात्मा ही है। ईश्वर संसारके निमित्त कारण और ईश्वर ही उपादान कारण हैं। ईश्वर पूर्ण प्रेम होनेपर मिलते हैं।
सुनत न काहू की कही कहै न अपनी बात।
नारायण वा रूपमें मगन रहे दिन रात॥
देह गेहकी सुधि नहीं टूट गयी सब प्रीत।
नारायण गावत फिरे प्रेम भरे रस गीत॥
आनन्दमें, प्रेममें मगन होकर चुपचाप रहे। वाणी गद्गद हो जाय, कुछ बोल भी नहीं सके। ऐसा प्रेम होना चाहिये। पूर्ण प्रेम हुए बिना भगवान् नहीं मिलते। इसलिये ईश्वर सभी जगह सगुण तथा गुणातीत जैसा चाहो उसी रूपमें हाजिर हैं।
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चक्रधरपुरसे जयदयाल डेडराजका श्रीजयगोपाल बंचना। आज नानूरामको चिट्ठी भेजी है, जिसमें बहुत मेहनत की है। नानूरामको कह दिया है कि जब किसी समय भोगोंमें मन फँसे, उसी समय इसे पढ़ो तथा तुम भी जँचे तो नकल उतार लेना।
उपदेश देनेवाला मैं कौन हूँ। महात्मा लोग कहते हैं कि एक भगवन्नामका स्मरण ही सार है—
सुमिरन रस्ता सहजका सतगुरु दिया बताय।
श्वास श्वास जो सुमरता इक दिन मिलिहै आय॥
जिसे हर समय भगवान् का नाम अर्थसहित याद रहे, उसकी तो बात ही क्या है? नामजप ही सब साधनोंका मूल है। वासनाका नाश, संकल्पका नाश निष्काम जपसे बहुत ही जल्दी होता है। निष्काम नहीं करनेपर भी नष्ट तो होता है, कुछ विलम्ब लगता है। सकाम काम भी होते हैं और जपते-जपते आगे जाकर निष्काम हो जाता है। नामका जप होना चाहिये। जप करनेमें ढील नहीं करनी चाहिये। आज-कलका भरोसा नहीं रखना चाहिये। भजन, भक्ति, ध्यान, सत्संग तुरन्त ही करना चाहिये—
आज कहे मैं काल भजूँ काल कहे फिर काल।
आज काल के करत ही औसर जासी चाल॥
समय बीता जाता है, गया हुआ समय वापस नहीं आता।
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदयाल डेडराजका जयगोपाल बंचना। भजन, सत्संग ही सार है। भगवान् के भक्तको तो एक हरिके मिलनेकी ही चिन्ता रखनी चाहिये। भगवान् के नाममें चित्त लगाना चाहिये। मिथ्या वस्तुकी चिन्ता भक्तको नहीं करनी चाहिये।
चिंता तो हरि नामकी और न चितवे दास।
जो कुछ चितवै नाम बिनु सोई कालकी फाँस॥
राम नामको सुमिरता उधरे पतित अनेक।
कह कबीर नहिं छोड़िए राम नामकी टेक॥
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चक्रधरपुरसे जयदयाल डेडराजका जयगोपाल बंचना। यम-नियमका पन्ना फलसहित साधारण रूपसे भेज रहा हूँ। स्मरणमें ढील नहीं करनी चाहिये। भक्तलोग तो एक भगवन्नामके जपको ही सार लिखते हैं। कालका भरोसा नहीं है। समय बीता जा रहा है। लाख रुपये देकर भी एक पल नहीं मिल सकता। संसारके मिथ्या झंझटमें ऐसा अमूल्य समय नहीं बिताना चाहिये। यदि समय व्यर्थ जाय तब भी साथमें नामका जप तो होना चाहिये। जप होनेपर ध्यान होकर, निष्काम प्रेम होकर भगवान् मिल सकते हैं। अधिक समय नहीं है, जल्दी चेतना चाहिये। गये हुए दिन वापस नहीं आयेंगे, भजन ही सार है। एक भक्त कहता है—
सुमिरन रस्ता सहज का सदगुरु दिया बताय।
श्वास श्वास जो सुमरता इक दिन मिलिहै आय॥
आज कहे मैं काल भजूँ काल कहे फिर काल।
आज काल के करत ही औसर जासी चाल॥
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भाई हनुमानसे लिखी बाँकुड़ासे जयदेवका राम-राम बंचना। तुम्हारे आनन्दकी बात बद्रीदासको भी एकान्तमें कहनी चाहिये। नाम-जपके पहले स्वरूपका ध्यान ही प्रधान है। बहुत-से लोगोंने उसके प्रतापसे परमपद लाभ किया है। नामके जपसे प्रेम होता है, भगवान् दर्शन देते हैं—
सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भये मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू।
भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
सब कुछ नामके प्रतापसे होता है, नामकी और भी महिमा कहाँतक लिखी जाय। रेलमें जो ध्यान हुआ, उसको एक पलक भी नहीं छोड़ना चाहिये। भले ही सब नष्ट हो जाय। उस आनन्दको नहीं छोड़ना चाहिये, फिर तुम्हारे कौन काम आयेगा। सदाके लिये आनन्दरूप उस आनन्दको किसलिये छोड़ते हो? ऐसा मौका भगवान् के मिलानेसे ही मिलता है, अपनी चेष्टासे नहीं मिलता। समय सदा एक-सा नहीं रहता है। चेतकर भी कूँएमें गिरनेवाला महामूर्ख है।
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भाई हनुमानदाससे लिखी बाँकुड़ासे जयदयाल गोयन्दकाका राम-राम बंचना। उपदेश देनेवाला मैं कौन हूँ। तुमको तो लिखा भी बहुत, किन्तु तुम कुछ हाथोंहाथ धारण करो तब तो लिखना सफल हो जाय। जो कुछ है सब भगवान् में है। भगवान् की शरण होना चाहिये।
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना।
रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें।
आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
उन भगवान् के नाम-जपकी शरण लेनी चाहिये। नामकी बड़ाई मैं कहाँतक लिखूँ। नाम जपते हुए काम करनेमें कोई आपत्ति नहीं है। सभी बातें नाम-जपसे होती हैं। अच्छे संगसे भजन अधिक होता है। अब मेरा शरीर बहुत ठीक है। दूकानका काम करते हुए भी समय ठीक बीतनेकी पूछी सो प्रेम पूर्ण होनेसे समय ठीक बीतता है। भाईजी! एकान्तमें भी यदि समय ठीक बीतता हो तो बहुत आनन्द मानना चाहिये। लोग तो काम छोड़कर भी भजनके लिये बैठते हैं, तब भी मन स्थिर नहीं रहता। काम करते हुएकी बात तो बहुत दूर रही। अभ्यास करनेपर यह कोई बड़ी बात नहीं है। अभ्यास होनेसे प्रेम हो जाता है और प्रेम ही प्रधान है। संसारके कामको मिथ्या, फालतू और भजनको प्रधान काम समझना चाहिये, फिर कुछ चिन्ता नहीं है।
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भाई हनुमानदाससे लिखी बाँकुड़ासे जयदेवका राम-राम। हर समय भगवान् को याद रखना चाहिये। भगवान् तो भक्तोंके लिये ही अवतार लेते हैं—
जन्म मरणसे रहित है नारायण करतार।
हरि भक्तन के हेत सों लेत मनुज अवतार॥
ऐसे करुणामय भगवान् को एक पल भी नहीं भूलना चाहिये। ऐसा प्रेमी कौन मिलेगा। महात्माका संग तथा मैत्री होकर जो एक दिन भी भगवान् को नहीं सुमरेगा उसका वह दिन वृथा ही गया—
जब लौं सुमरे ना हरि जो संतन को मीत।
वे दिन गिनती में नहिं गये वृथा सब बीत॥
ऐसा जानकर महात्मा पुरुषोंके साथ प्रेम तथा मैत्री करनी चाहिये। नहीं तो भजन करना चाहिये। बिना भजनके जो दिन जाते हैं वे वृथा समझे जाते हैं।
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भाई हनुमानदाससे जयदेवका प्रेमसहित राम-राम बंचना। एक बार कलकत्तामें बात हुई थी, चूरूमें ब्रह्मपुरी (परिवारसहित ब्राह्मण-भोजन) बंद करनेके लिये, किन्तु उस समय काम पार नहीं पड़ा। उस समय ब्राह्मणोंकी ओरसे डर लग रहा था। बादमें पूज्य फूलचन्दजीने ब्राह्मणोंको इकट्ठा करके पूछा कि हम सूखा अन्न देनेका विचार कर रहे हैं, यह ब्राह्मणोंने बहुत प्रसन्नतासे स्वीकार कर लिया। तब चूरूके गोयन्दका भाइयोंने इकट्ठे होकर दो बातोंकी व्यवस्था इस प्रकार की है—
१-खर्च और विवाहकी ब्रह्मपुरी कोई भाई नहीं करें। सूखा अन्न तथा वस्तु चाहे जितनी दो तथा ब्राह्मण-भोजनके लिये निमन्त्रण भी पाँच सौसे अधिक लोगोंको न दें। २-भविष्यमें किसीकी मृत्यु होनेपर चूल्हे पीछे एक व्यक्ति जो उपलब्ध होगा, उसे जाना होगा।
इसी प्रकार व्यवस्था हुई। जिसमें प्राय: चूरूके सभी गोयन्दका भाइयोंका हस्ताक्षर हो गया है। केवल जयनारायणजी, रामवल्लभने नहीं किया, कहा कि काम तो बहुत अच्छा है, किन्तु कलकत्तावालोंके किये बिना हम हस्ताक्षर नहीं करेंगे। पन्ना कलकत्ता भेजा है। नानूराम आदिके सामने श्रीफूलचन्दजीने भिजवाया है। भाईजी सुना है कि चूरू और रतनगढ़में विदेशी खराब घृत आ गया है। खर्चसे पैदा कम होता है तो क्या उपाय। ब्रह्मपुरीमें बहुत ही धर्मभ्रष्टता देखनेमें आती है तथा सूखा अन्न देना उत्तम समझकर ही मैंने हस्ताक्षर किया है। तुम्हारी निगहके लिये लिखी है।
भाईजी समय बीता जा रहा है। दिन-दिन कलियुग आ रहा है। देखा जाय क्या पार पड़ता है।
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श्रीहनुमानदाससे लिखी चूरूसे जयदयालका जयगोपाल बंचना। भगवान् के नामका स्मरण ही सार है। एक भी श्वास वृथा नहीं जाना चाहिये। हर समय नामका स्मरण करनेसे एक दिन भगवान् अवश्य मिल सकते हैं। शास्त्रोंमें इसी प्रकार लिखा है। ऐसे पूर्ण प्रेमी भगवान् को छोड़कर मिथ्या संसारमें मूर्ख ही फँसेगा। समय बीता जा रहा है, एक पलका भी भरोसा नहीं करना चाहिये। कल भगवान् आकर पूछेंगे फिर कुछ उपाय नहीं रहेगा। इसलिये जल्दी चेतना चाहिये। भगवान् के नामका जप, ध्यान, सत्संग निष्कामभावसे करना ही सार है—
धन विद्या गुण आयु बल यह न बड़प्पन देत।
नारायण सोई बड़ा जाको हरिसे हेत॥
प्रेमसहित असुवन ढरै धरै युगल को ध्यान।
नारायण वा भक्तको जग में दुर्लभ जान॥
नारायण जाके हिये उपजत प्रेम प्रधान।
प्रथमहिं वाकी हरत है लोक लाज कुल कान॥
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बाँकुड़ासे जयदेवका प्रेमसहित राम-राम बंचना। श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन कार्तिक कृष्ण ३०, बृहस्पतिवारको बहुत आनन्द-मंगलसे कर लिया है। समय बीता जा रहा है, जल्दी चेतना चाहिये। दीवाली आ गयी है, पिछली दीवालीके बाद आजतक कितना साधन तेज हुआ, सँभाल करनी चाहिये। अब और भी तेज चलना चाहिये, और कामका भले ही चाहे जितना नुकसान हो जाय, किन्तु भगवान् के नाम-जपमें ढील नहीं होनी चाहिये। भजन, साधन, ध्यान बहुत तेज होना चाहिये। संसारी काम भगवान् को याद रखते हुए ही करना चाहिये। भजन, ध्यान होते हुए जितना काम हो उतना करना चाहिये। काममें हर्जा भले ही हो, किन्तु भजन-ध्यानमें हर्जा नहीं होना चाहिये।
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लिखी चक्रधरपुरसे हनुमानदाससे जयदेवका राम-राम।
भाईजी! आपने वैराग्य कम हुआ लिखा सो नामका जप कम हुआ होगा, सत्संग कम हुआ होगा, संसारका, स्त्री आदिका भी झंझट है, दूकानका काम भी ज्यादा देखा होगा। सारा प्रारब्धका गोलमालका काम है। कोई हर्ज नहीं, एक हरिके नामका जप और सत्संगका पुरुषार्थ करना चाहिये। भाईजी! पुरुषार्थसे सब कुछ बनता है। पुरुषार्थ होना चाहिये जिसका उपाय तो करनेसे ही होगा। प्रारब्ध बननेका उपाय बहुत है। भाईजी! वैराग्यका कपड़ा ही दूसरा है। तुम तो तुच्छ वैराग्यको वैराग्य मान रहे हो। प्रेम ही प्रधान है—
है न्यारो सब पंथ ते प्रेम पंथ अभिराम।
नारायण यामे चलत बेग मिले पिय धाम॥
मनमें लागी चटपटी कब निरखूँ घनश्याम।
नारायण भूल्यो सभी खान पान बिश्राम॥
संसारका प्रेम ही डुबानेवाला है। शरीर, भोग, संसार, स्त्री, पुत्र, मान, बड़ाई सभी नाशवान् हैं। शरीर भी तुम्हारा नहीं है और तो कौन होगा। समय बीतता जा रहा है, अभीतक तुम समझे नहीं। कई बार लिख चुका कि समय अमोलक है। बहुत दिन बीत गये सदा ऐसा साथ थोड़े ही रहेगा। मिथ्या भोग तो लोकदिखाऊ राजा जनककी तरह ऊपरसे बरतना चाहिये। भगवान् तो बाजीगरका तमाशा कर रहे हैं। तुम सच्चा मानकर किसलिये फँसते हो। तुम शरीर नहीं हो, शरीर भी तुम्हारा नहीं है। संसारका सम्बन्ध शरीरके पीछे है। जो कुछ तुम्हारा है उसको ढूँढो।
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हनुमानदास गोयन्दकासे लिखी चक्रधरपुरसे जयदयाल गोयन्दकाका राम-राम बंचना। शास्त्र कहते हैं कि मैं-भाव मिटाकर मेरा कुछ नहीं है—ऐसा जानकर भजन करे तो हरिका दर्शन होनेमें विलम्ब नहीं हो। भाईजी! आप किस कामके लिये आये थे फिर विचार करें। तुम मिथ्या काममें फँस जाओगे तो मिथ्या काम आपके कौन काम आयेगा। भाईजी! शरीरमें इतना मोह नहीं होना चाहिये। शरीरसे आसक्ति तो छोड़नी ही पड़ेगी। भाईजी! अन्न और अच्छी-अच्छी वस्तुएँ खाकर वृथा ही मैला बना रहे हो। ऐसे शरीरके संगकी इच्छा किसलिये कर रहे हो। भोग, धन सब शरीरके आरामके लिये है। शरीर ही जब तुम्हारा नहीं है, फिर शरीरका आराम तुम्हारे क्या काम आयेगा। जमीनपर सोये तो क्या? फूलोंकी सेजपर सोये तो क्या? अच्छा पदार्थ खाया तो क्या? रूखी-सूखी रोटी, वृक्षके पत्ते खाकर दिन बिताया तो क्या? भाईजी! उन लोगोंको धन्यवाद है जो गंगाके किनारे पत्थरकी शिलापर बैठकर सत्संग करके गुफामें ध्यान लगाकर संसारसे मुक्त हो गये। भाईजी! अच्छे कपड़े पहने या खराब अथवा मैले पहने क्या अन्तर पड़ता। समय तो बीतता जाता है, फिर कोई उपाय काम नहीं आयेगा। जो समयके महत्त्वको जानेगा, वह अमोलक वस्तुके लिये ही समय लगायेगा, कुछ तो वैराग्य धारो। नहीं तो इतना लिखना फालतू है। ऐसा मौका बड़े भाग्यसे ही मिलता है। इतनेमें ही जानो।
इस चिट्ठीको हर समय पढ़ो तो आनन्दकी बात है। यदि तुम्हारे इसके पढ़ते रहनेसे आनन्द हो जाय तो पीछे परमात्मा भले ही न मिलें या विलम्बसे मिलें तो क्या हर्ज है।
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बद्रीदाससे लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। यदि भगवान् के शरणागत हो तो जो कुछ होवे उसमें आनन्द मानो। झूठा भार उनपर दो तो बात न्यारी है। आपने लिखा कि खुशामदसे काम हो जाय सो हरि मिथ्या खुशामद सुननेवाले नहीं हैं। सच्ची खुशामदसे काम चलेगा। उससे भी प्रेम, भक्ति तथा सखाभाव होनेपर बहुत ही शीघ्र काम हो जायगा।
भजन-स्मरण बिना उद्धार होना बड़ा कठिन है। तुम विशेष भजन करो तो आनन्द हो। मुफ्तमें आनन्द माँगो तो कहाँसे आये। तुम तो बिना कमाये धनकी इच्छा करते हो। नहीं तो खुशामदकी बात नहीं लिखते। तुम्हें परिश्रम करना चाहिये। कन्हैयालालसे जयदयालका राम-राम। कुछ चेत करो, शौकीनी कपड़ा, मान, बड़ाई कौन काम आयेगा। शरीर भी तुम्हारा है नहीं, फिर और कौन तुम्हारा होगा। भोगोंमें फँस जाओगे तो फिर हरिका दर्शन कैसे होगा। भोगोंको मिथ्या जानना चाहिये। पीछे खुशी तुम्हारी, तुम जिस कामके लिये आये थे उस कामको कर लेना चाहिये था।
पुष्पे गंधं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्यात्मानं विवेकत:॥
जैसे फूलमें गन्ध, तिलमें तेल, काष्ठमें आग, दूधमें घी, ईखमें गुड़ है, वैसे ही देहमें आत्माको जानना चाहिये।
एकवृक्षे समारूढा नानावर्णा: विहंगमा:।
प्रभाते दिक्षु दशसु यान्ति का परिदेवना॥
नाना प्रकारके पखेरू एक वृक्षपर बैठते हैं, प्रभातसमय दसों दिशाओंमें चले जाते हैं, उसमें क्या शोक है। क्योंकि सब है नहीं मिथ्या कल्पित वस्तु है। स्वप्नके साथ कितने समय ठहर सकते हो। संसार भी स्वप्नकी तरह है। वह भी अन्तमें चिड़िया रैन-बसेरेकी तरह है। असलमें स्वप्नकी तरह कुछ नहीं है। एक मनका ही संकल्प है। बंधन और मोक्षका हेतु एक मन ही है।
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श्रीविशेसरलालजीसे जयदेवका राम-राम। इतने दिन हो गये आप क्या करते हैं। जो कोई आपके साथ ईर्ष्या करे, उसके साथ भी प्रेम करना चाहिये। जो कोई आपका बुरा करे उसका भी उपकार करना चाहिये। वैर रखे उसके भी भलेकी चेष्टा रखनी चाहिये। सबसे मित्रभावका बर्ताव करना चाहिये। आप सबसे स्वार्थ छोड़ें और मान-बड़ाई छोड़ें, नम्र भावसे प्रेम करना ही असली काम है। इनको जीतनेवाला ही दुर्लभ है। इसलिये आप नीचे लिखे दोहेपर विचार करें—
कंचन तजना सहज है सहज तियाका नेह।
मान बड़ाई ईर्ष्या दुर्लभ तजना येह॥
क्रोध करें तो अपने अवगुणोंपर करें। दूसरोंके अवगुणोंपर ध्यान ही नहीं देना चाहिये। ये दोष भजन, सत्संग होनेसे स्वत: ही छूट जाते हैं। सबसे निष्काम होओ। कामना नष्ट होनेपर फिर क्रोध, वैर और मान-बड़ाई नहीं होते। होते हैं तो निष्काम नहीं हुआ।
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चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम बंचना। भाईजी! तुम हमारी बातसे भी रुपयोंको अच्छा समझते हो। आप चिंता नहीं करना हम बहुत प्रसन्न हैं। कामदेवके बारेमें बात यह है कि हरिचरणोंका ध्यान करो फिर कामदेवके बापकी भी सामर्थ्य नहीं है। भोगोंको मिथ्या जानोगे तब वैराग्य होगा। रात-दिन निष्कामभावसे राम-नामका जप तथा सुमिरण करो और हरि चरणोंका आसरा लो।
नीच नीच सब तर गये संत चरण लवलीन।
जातिहि के अभिमान से डूबे बहुत कुलीन॥
काम क्रोध मद लोभ की जब लग मनमें खान।
तुलसी पण्डित मूरखा दोनों एक समान॥
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पण्डित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़ै सो पण्डित होय॥
प्रेम बराबर योग नहिं प्रेम बराबर दान।
प्रेम भक्ति बिन साधका सब ही थोथा ज्ञान॥
गद्गद वाणी कंठ में आँसू टपके नैन।
वह तो विरहन पीवकी तलफत है दिन रैन॥
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चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। हरिसे प्रेम दिन-प्रतिदिन ज्यादा होना चाहिये। मेरेको बहुत उपमा देकर चिट्ठी लिखी, इसके लिये पहले भी मनाही की थी। लिखनेका तुम्हारा मन हो तो लिखकर अपने पास रखो, मिलनेपर भले ही मेरेको दिखाओ। यहाँ दूसरे आदमी रहते हैं। एक वही भाव रखो, पूर्ण आनन्द करना मेरे हाथ नहीं है। भगवान् अपने हाथमें रखते हैं। मेरेको कृपा, दया, दर्शनकी बात नहीं लिखनी चाहिये। मैं बदलेमें तुम्हें कृपा करनेके लिये लिखूँगा तो तुम नाराज होओगे। तुमने लिखा कि तुम सबपर बिना ही कारण दया कर रहे हो। जिसका बड़ा भाग्य होगा उसे तुम्हारा दर्शन होगा। इस प्रकार आपको नहीं लिखना चाहिये। तुम्हारे मनमें कुछ भी हो, लिखनेकी क्या आवश्यकता है—
कबिरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाइ।
यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखहु आइ॥
जिनके नौबत बाजती मंगल बंधते वारि।
एक हरिके नाम बिन गये जनम सब हारि॥
कबिरा देवल हाड़का माटी तना बंधान।
खर हरला पाया नई देवल का सहि दान॥
कबिरा देवल ढह परा ईंटा रहे सँवारि।
करी चिजारा प्रीतडी ज्यूँ ढहे न दूजी वारि॥
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भाई हनुमानदाससे लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। सच्चे कामके लिये मिथ्या कामका भले ही कुछ हर्जा हो जाय। रात-दिन भजन होता रहे इसके लिये कुछ कर सकते हो तो करो। भाईजी! सारे दिन एकसे नहीं रहते। लाख रुपया देनेपर भी एक पल नहीं मिलेगा। बहुत तेजीसे भजन-स्मरण निष्कामभावसे चलाओ—
भक्तिका बाग लगा ले मेवा निकलेगा अन्त न पार।
कबिरा खेत किसान का मिरगन खाया झार।
खेत बिचारा क्या करे धनी करै नहिं बार॥
बिन रखवारे वाह री चिड़ियाँ खाया खेत।
आधा परदा ऊबरे चेत सके तो चेत॥
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भाई हनुमानदाससे लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। भाईजी! सब कुछ परमात्मा है यह ध्यान ठीक है। सब कुछ मैं हूँ—इसमें मैं रहता है, यह ध्यान रहे। सारी वस्तुएँ आनन्दरूप दीखती हैं, यह बहुत अच्छी बात है। पूर्ण आनन्द होनेपर एक बार तो बोली बंद हो जायगी, वाणी गद्गद हो जायगी। मेरी कृपा तथा बड़ाईकी बात नहीं लिखनी चाहिये। अपने तो भगवान् की कृपा, बड़ाईकी बातें करनी चाहिये। जो सबके भीतरकी जाननेवाला एवं सब जगह व्यापक है। जैसे श्रीरामचन्द्रजी वनवासमें गये तब मुनि लोगोंसे पूछा इतनी हड्डियाँ किसकी हैं। मुनि कहने लगे—
जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी।
सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥
उन श्रीरामकी बड़ाई लिखा करो और उन्हें सबका मालिक जानो। ऐसे उन परमात्माके शरणागत होना चाहिये।
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चक्रधरपुरसे जयदेवका प्रेमसहित राम-राम। पूज्य दीपचन्दजीसे चरण-स्पर्श। बीमार तो भगवान् अच्छेके लिये करते हैं। आपलोगोंको यह बतानेके लिये कि शरीर क्षणभंगुर है, तब भी आपलोग नहीं चेतते। देखो शरीर तो एक दिन नष्ट होगा ही। शरीरके द्वारा जितना काम लेना है ले लो, पीछे हाथसे डोर छूट जायगी तो क्या उपाय चलेगा। इस समय ध्यान कम लिखा वह कम नहीं होना चाहिये। आपने शरीरकी कमजोरी लिखी सो भजनमें कमजोरी नहीं होनी चाहिये। कपड़ेकी शौकीनी छोड़कर हरिभजनकी शौकीनी पकड़ो। लोगोंको अच्छा लगे वैसे ही सफेद कपड़े पहनो। मोटे कपड़ेमें कोई दिक्कत नहीं है। शौकीनी कामदेवकी सेना है, उसे नष्ट करो। हरि चरणोंकी निष्कामभावसे शरण लेनेवालेसे काम, लोभ, मोह डरते रहते हैं।
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लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम। मेरे साथ संसारी प्रेम तुम्हारे-जैसा किसी औरका नहीं है, किन्तु पारमार्थिक विषयको लेकर कई आदमियोंका है। भक्ति परमात्माकी ही होती है। मनुष्यकी क्या सामर्थ्य है। भक्ति-सेवा करके परमात्माका भजन तो भाईजी! दुनियामें बहुत आदमियोंने किया है। मेरा साथ करके भी कई आदमियोंने किया है, उसमें भी तुम्हारे-जैसे थोड़े ही हैं, पूर्ण आनन्दकी बात निगह की। पूर्णरूपको जाननेपर ही पूर्ण आनन्द होता है, यह साधारण बात नहीं है। तुम तो अपनी चेष्टा करते जाओ, चिन्ता किसलिये करते हो, चिन्ता करना तुम्हारा काम नहीं है। बिना आशा सब कुछ मिलता है, गीता २। ७०* में देखना। भाईजी! बद्रीदासके पहलेकी कमाई है और हीरालालके भी पहलेकी कमाई है। तुम्हारे पहलेकी कमाई कम थी।
* आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
जैसे नाना नदियोंके जल सब ओरसे परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंको चाहनेवाला नहीं।
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बद्रीनारायणसे लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम बंचना। भाई हनुमानके कारण दाना-पानी हुआ तो मिलनेका विचार है। तुम्हारे साथ भी रेलमें हुई बातोंसे संयोग हुआ है। अत: मिलाप तो होना चाहिये। पीछे राम जानें। एक मालिकको नहीं भूलना चाहिये। मालिककी शरण पकड़नी चाहिये। उनके नामका जितना स्मरण करोगे उतना ही प्रेम होगा। इस बार तुम्हारी याद कम आयी, भाई हनुमानसे सपनेमें भी मिलना हुआ था। कानजीका प्रेम अधिक हो उसकी चेष्टा तुम किया करो। तुम्हारी पत्नीका तुम्हारी माँजीमें प्रेम बढ़े, तुम्हारेमें, हमारेमें, हरिमें प्रेम बढ़े ऐसी चेष्टा करनी चाहिये। समय बीता जा रहा है। काम बहुत भारी पड़ा है। हरिका दर्शन होनेके बाद तो हरज नहीं है। कोई नई बात हो तो लिखना चाहिये। स्मरणसे सब कुछ हो सकता है। तुम अपने काममें मत चूको। शरीरका सुख छोड़ो। शरीर भले ही धूलमें मिले। दो दिन बाद मिलेगा तो पहले मिल जाय, भोगोंमें नहीं फँसना चाहिये।
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चूरूसे जयदयालका हनुमानदाससे प्रेमसहित राम-राम बंचना। बद्रीदासका बेटा आनन्द चलता रहा बहुत ही चिंताकी बात है। किन्तु चिंता करनेसे कुछ काम नहीं बनेगा। तुम तो तुम्हारे साथ जो कुछ हो, उसे भगवान् की कृपा समझो। अभी तुम्हारे संसारका क्या झंझट पड़ा है। तुम अपना काम करो। समय बीतता जाता है। सत् कमाईसे पैसा पैदा करना चाहिये। अन्यायसे उपार्जित लाखों रुपये किस काम आयेंगे। हरिकी शरण एवं उनके नाम-जपसे सब कुछ होता है। भजन ही सार है। तुम काम करते हुए जप करते रहो तो तुम्हारे क्या लगता है, बादमें जीभ किस काम आयेगी। इतना लिखनेपर भी विश्वास हो जाय तो फिर हर समय भजन होना चाहिये। मुफ्तकी कमाई नहीं छोड़नी चाहिये। जैसे भगवान् की भक्ति हो वही काम करना चाहिये। भगवान् के भक्तको ही धन्यवाद है। लक्ष्मणजीकी माँ अपने पुत्रसे कहती हैं—
पुत्रवती जुबती जग सोई।
रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी।
राम बिमुख सुत तें हित जानी॥
अब तुमको कौन बातकी परवाह है। मान-बड़ाई कोई काम नहीं आयेगी। अपने जन्मको सुधारो, समय बीतता जा रहा है।
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ऋषिकेशसे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम बंचना। भाईजी! मन, वचन, कर्मसे निष्कामभावसे भगवान् का स्मरण करनेसे उसके हृदयमें भगवान् को वास करना पड़ता है, ऐसा महात्मा लोग कहते हैं—
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं नि:काम।
तिनके हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥
भजन बिना भगवान् में प्रेम होना कठिन है। भगवान् के अलावा सब मतलबी हैं। ऐसे प्रेमीको कभी नहीं भूलना चाहिये। समय अमोलक समझना चाहिये।
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बद्रीदाससे लिखी चक्रधरपुरसे जयदयालका राम-राम जयगोपाल बंचना। तुमलोगोंने प्रेमी लिखा सो नहीं लिखना चाहिये। सच्चे पूर्ण प्रेमी तो एक नारायण हैं। अन्य तो साधारण प्रेमी हैं। आप भी तो प्रेमी हैं। मेरेमें तुम्हारेसे अधिक प्रेम रखनेवाले संसारमें थोड़े ही हैं। और ज्यादा क्या लिखूँ। संसारमें एक प्रेम ही सच्ची वस्तु है। प्रेमको प्रेमी ही जानता है। सच्चे प्रेमका जिसे इश्क लग जाता है वह झूठी वस्तुओंको कुछ भी नहीं समझता। विशेष प्रेम बढ़ानेके लिये विशेष उत्कंठाकी आवश्यकता है। तुमको भी अधिक प्रेमकी आवश्यकता हो तो प्रेमकी उत्कंठावालेका मैं दास हूँ।
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श्रीबद्रीदाससे लिखी चूरूसे जयदयालका जयगोपाल बंचना। तुम्हारी चिट्ठी फिर नहीं आयी सो क्या बात है, इस प्रकार नहीं भूलना चाहिये।
एक बात मैं पूछऊँ तोही।
कारन कवन बिसारेउ मोही॥
आजकल कपड़ेका बाजार ठीक है, इस कारण तुम्हारी चिट्ठियाँ कम आयी लगती हैं। अपने असली बाजारकी दशा कैसी है? अनुमानसे तो ढीली ही मालूम होती है। मिथ्या संसारके कपड़ोंके बाजारकी तेजीके कारण चिट्ठी देनेमें ढील होना बहुत ही विचारवाली बात है। समय बीतता जा रहा है, सब संसार अपने मतलबका है। एक भगवान् के सिवाय कोई भी तुम्हारी सहायता करनेवाला नहीं है। ऐसा विश्वास होता तो फिर भगवान् को थोड़े ही भूलते। अब कुछ तो खयाल करना चाहिये। मिथ्या शरीर और भोगोंके आसरेको छोड़ो। सच्चे निष्कामी, प्रेमप्यारे मनमोहन भगवान् को मन अर्पण करना चाहिये। भगवान् तो अपने प्रेमियोंके मनको स्वत: ही खींच लेते हैं, किन्तु थोड़ा भी प्रेम नहीं हो तब क्या उपाय? मेरेको भूलनेमें तो कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु मनमोहन प्यारेको नहीं भूलना चाहिये। उससे हमलोगोंको बहुत काम है। संसारके भोगोंको भी तुमने सच्चा जान रखा है तो भले ही जानो, किन्तु इतना भोंदू तो भगवान् भी नहीं हैं, जो संसारके भोगों जितना भी आनन्द आनन्दस्वरूपका नहीं मानते। आप मानें उसी प्रकारसे भगवान् दर्शन देते हैं, बाकी तुम्हारी इच्छा। कोई-कोई तो भगवान् के लिये अपना सर्वस्व ही छोड़ देते हैं। कोई पुरुष तो भगवान् को प्राणोंसे भी अधिक प्यारा समझते हैं। उनके लिये भगवान् हाजिर हैं, उनको धन्यवाद है।
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श्रीरामचन्द्रजीसे लिखी चक्रधरपुरसे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम। परमात्मामें पूर्ण प्रेम होनेके बाद तो कुछ भी करना बाकी नहीं रहता। भगवान् के नामका जप तथा भगवान् के गुणानुवाद और प्रभावकी बातें सुनने-पढ़नेसे ही प्रेम होता है। भगवान् के नाम-जपमें भूल नहीं हो इसका उत्तम उपाय नाम-जपका तीव्र अभ्यास तथा सत्संग करनेकी चेष्टा ही है, यदि नाम-जप हर समय होने लग जाय तो फिर कुछ भी आवश्यकता नहीं है। प्रेम तो स्वत: होगा ही। जिन पुरुषोंके नाम-जप हर समय होगा उनको ही पूर्ण प्रेमी समझा जायगा। वह पुरुष दर्शन करनेयोग्य है। नाम-जपका मूल्य जाननेसे ही नाम-जप अधिक होता है। नाम-जपके समान और कोई साधन नहीं है। इस प्रकार मनमें सत्य माने तब नाम-जप अधिक होता है। इसमें मन बहुत धोखा दिया करता है, अत: बहुत सावधानीसे विचारकर देखना चाहिये कि सब साधनोंसे नामको अधिक समझा गया या नहीं। समझनेपर नाम-जप किसी भी समय नहीं छूट सकता। भूलसे यदि किसी समय छूट जाय तो उस भूलकी कोई विशेष स्थिति नहीं है। दासकी ओर देखना चाहिये ऐसा नहीं लिखना चाहिये। दास तो हम सब भगवान् के हैं। दास मात्र ही हैं, क्योंकि वास्तविक दास तो भगवान् की सेवा करनेवाला तथा उनकी आज्ञापालन करनेवाला माना जाता है। तुमने लिखा कि संसारी कामसे तुम्हारा मन चिट्ठी मिलनेसे ही हटता है सो बहुत आनन्दकी बात है। चिट्ठी तो बहुत-सी गयी। संसारके कामसे मन कितना हटा, लिखना चाहिये। तुम्हारा साधन कैसा है?
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श्रीबद्रीदाससे लिखी चक्रधरपुरसे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम। भगवान् के भजन, सत्संग तथा ध्यान बिना जितना समय बीता वह धूलमें गया ऐसा मानना चाहिये। ऐसा माननेवालेका समय धूलमें कम ही जायगा। समय धूलमें खोनेके लिये कहाँसे आये। सब जगह नारायण पूर्णरूपसे विराजमान हैं। इस प्रकार सब जगह, सब समय जो याद रखता है वही धन्यवादका पात्र है। संसारके एवं विवाहके काममें मूर्ख ही फँसता है। संसारका काम तथा विवाह नदीका वेग है। जो भगवान् की चरणरूपी नौकाको तथा भगवान् के नाम-जपरूपी नौकाको पकड़ लेता है, वह बच जाता है। बाकी सभीको नदीका वेग बहाकर ले जाता है। जो भगवान् को जानेगा वह कभी संसार-नदीमें नहीं बहेगा।
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लिखी चूरूसे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम बंचना। चूरूमें प्लेगकी बीमारी बहुत जोरसे हो रही है, इस अवसरपर मुझे चूरूमें रहना चाहिये था, बाकी पूज्य माँजीकी आज्ञानुसार ही करनेका विचार है। परसों ऋषिकेश जानेके लिये उनकी आज्ञा है। समय मिथ्या संसारके धन्धेमें नहीं जाना चाहिये।
पाँच पहर धन्धे गया तीन पहर रया सोय।
एक पहर हरि ना भजा मुक्ति कहाँसे होय॥
हर समय भगवान् के नामका जप हो तो भले ही धन्धेमें जाये कोई हर्ज नहीं है।
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बद्रीदाससे लिखी चक्रधरपुरसे जयदेवका राम-राम बंचना। सब समय नारायणका चिन्तन हो ऐसी चेष्टा बहुत जोरसे करेंगे, तब भले ही नारायणमें मन लगे। इस प्रकार विचार कर सब समय नारायणमें मन लगानेकी चेष्टा रखनी चाहिये। भले ही सब कुछ नष्ट हो जाय, नारायणके चिन्तनमें हर्जा नहीं होना चाहिये, नारायणके प्रेममें त्रुटि नहीं होनी चाहिये, और कुछ भी काम नहीं आयेगा। सभी नष्ट होनेवाली वस्तुएँ हैं। उनका आसरा छोड़ो। सच्चे पूर्ण प्रेमी नारायणकी ही शरण लेनी चाहिये। संसारमें नारायणके समान कोई भी प्रेमी नहीं है। उनके प्रेमके मर्मको जो जान जायगा, वह सब कुछ छोड़कर तुरन्त नारायणका सच्चा प्रेमी बन जायगा।
सोऊँ तो सपने मिलूँ जागूँ तो मन माँय।
लोचन राते शुभ घरी बिसरत कबहूँ नाहिं॥
ऐसा होनेसे भगवान् बहुत शीघ्र मिल सकते हैं।
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श्रीहीरालालजीसे लिखी चूरूसे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम। संसारमें श्रीहरिका चिन्तन ही सार है एवं प्रेम करनेयोग्य भी श्रीहरि ही हैं। उनका प्रभाव, भाव तथा स्वभावका मर्म जो जानता है वह उन्हें कभी नहीं बिसारता। जो सबसे उत्तम भजनको तथा श्रीभगवान् के चिन्तनको समझता है वह मनुष्य पूजनेके लायक तथा धन्यवाद देनेके लायक है। बाकी लोग अपना जन्म वृथा ही गँवाते हैं।
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चूरूसे भाई हनुमानदाससे जयदेवका प्रेमसहित राम-राम बंचना। समय बीता जा रहा है। बहुत चेष्टाके साथ नामका जप और ध्यान करना चाहिये, फिर कुछ भी हर्ज नहीं है। हर समय भगवान् का स्मरण रहना चाहिये। भगवान् भले ही न मिलें। मिलनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम्हारा प्रेम भगवान् में होगा तो उन्हें उपस्थित होना पड़ेगा। उन्हें भी गरज है। तुम किसलिये चिन्ता करते हो? यदि तुम्हारी भजन, ध्यान, सत्संगमें त्रुटि होगी तो ठीक नहीं है। आनन्द भी भले ही मत हो। आनन्दकी जगह भले ही उलटा दु:ख ही हो। भगवान् के नामका जप और चिन्तन होना चाहिये। चिन्तन एक पल भी नहीं छूटना चाहिये। छूटनेका कोई हेतु भी नहीं है।
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लिखी बाँकुड़ासे भाई हनुमानदाससे जयदेवका प्रेमसहित राम-राम।
ग्रंथ पंथ सब जगतके बात बतावत तीन।
राम हृदय मनमें दया तन सेवामें लीन॥
दो बातनको भूल मत जो चाहत कल्यान।
नारायण एक मौतको दूजो श्रीभगवान॥
इसी भाँति कवि लोगोंने कहा है। यह चार बातें सार हैं—
१-सत्संग और सत्शास्त्रको देखना।
२-परमेश्वरके नामका जप अर्थसहित निष्कामभावसे करना।
३-सब जीवोंको ईश्वररूप समझ उनकी सेवामें अपना सब कुछ अर्पण करना।
४-नीतिके साथ निष्कामभावसे सबके साथ बर्ताव करना। बादवालीसे पहलेवाली बात श्रेष्ठ है। सबसे बढ़कर एक नम्बर है। उससे सब होता है। इससे यम-नियमादि तथा छब्बीस गुण आ जाते हैं।
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लिखी ऋषिकेशसे जयदेवका राम-राम बंचना। सबसे बड़ा रामका नाम है।
धन विद्या गुण आयु बल ये न बड़प्पन देत।
नारायण सो ही बड़ो जाको हरिसे हेत॥
इसलिये जो उन्हें भजे वही बड़ा है। भगवान् से पूर्ण प्रेम होना चाहिये। हमारेसे भी अधिक प्रेम भगवान् से होना चाहिये, भगवान् को कभी भूलना नहीं चाहिये। भगवान् का प्रेम ही उद्धार करनेवाला है। भजनके बिना कुछ भी नहीं होता। भगवान् के ज्ञान बिना पण्डित भी पशु समान है। भगवान् का भजन करनेवाला मूर्ख भी अच्छा है—
नारायण बिन बोधके पण्डित पशू समान।
तासो अति मूरख भलो जो सुमिरे भगवान॥
एक भजन ही सार है। भजन-ध्यान बुखारमें भी कम नहीं होना चाहिये। भाईजी! फिर कब होगा? शरीरकी आसक्ति छोड़ देनी चाहिये। शरीरको प्रारब्धके भरोसे छोड़ देना चाहिये। ऐसा होनेसे भगवत्प्राप्ति शीघ्र हो सकती है। शरीर तो प्रारब्धके अनुसार ही भोग भोगता है। जो कुछ हो उसीमें आनन्द मानना चाहिये। जिस समय भगवान् का नाम तथा स्वरूप याद आये, उस समय भगवान् की बहुत कृपा माननी चाहिये। याद आये बिना भगवान् की कृपा नहीं होती, ऐसा जानो। जब-जब भगवान् के नामका जप तथा ध्यान हो उसी समय भगवान् की बहुत ही कृपा जाननी और बहुत ही आनन्द मानना चाहिये। बारम्बार मानकर आनन्दमें मगन होना चाहिये।
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लिखी ऋषिकेशसे जयदयालका प्रेमसहित राम-राम बंचना। भाईजी! निष्कामभावसे भजन तथा परमार्थ दो बातें ही सार हैं।
देह धरेको फल यही भज मन कृष्ण मुरार।
मनुष्य जन्मकी मौज यह मिले न बारम्बार॥
मनुष्य-जन्म लेकर हर समय भगवान् का भजन करना ही सार है, ऐसा मौका मिलना बहुत भारी भाग्यकी बात है। भगवान् के नामका जप और उनका गुणानुवाद सुनना तथा कहना ही गुप्त धन है। यह बाँटनेसे भी बढ़नेवाली वस्तु है। यानी भजन करना तथा दूसरोंसे करवाना चाहिये।
कृष्ण नाम गुण गुप्त धन पावे हरिजन संत।
खरचेसे छीजै नहीं दिन दिन होय अनन्त॥
भगवान् के नामका गुणानुवाद करना, सुनना तथा दूसरोंको सुनाना सभी प्रकारसे उसकी वृद्धि होती है।
सपनेमें मिलनेकी बात जानी। समय बीत रहा है, जल्दी चेतना चाहिये—
इस अवसर चेता नहीं पशु ज्यों पाली देह।
राम नाम जाना नहीं अंत पड़ी मुख खेह॥
भाईजी! बहुत बार अपनी बात हुई है। इस प्रकार ढील नहीं होनी चाहिये। आपके बाद लगनेवालोंने भी बहुत कुछ लाभ उठा लिया। तुम मेरे मित्र किसलिये बने। भाईजी! रुपये, भोग और शरीरकी आसक्तिमें नहीं फँसना चाहिये। दिन बीता जा रहा है। शरीर क्षय हुआ जा रहा है। बड़े-बड़े राजा भी चले गये। कुछ भी साथ नहीं गया—
कबिरा यह तन जात है सको तो लेहु बहोर।
खाली हाथों सो गये जिनके लाख करोर॥
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भाई हनुमानदाससे लिखी ऋषिकेशसे जयदयालका राम-राम। एक भगवान् के नामका आसरा चाहिये।
राम नामको सुमरता उधरे पतित अनेक।
कह कबीर नहिं छाड़िये राम नामकी टेक॥
उस भगवान् के नामके जपकी शरण नहीं छोड़नी चाहिये। नामका जप करनेसे भगवान् में निष्काम प्रेम स्वत: ही हो जाता है—ऐसा सुना है तथा प्रत्यक्ष लाभ भी होता है। भाईजी! रामनाम जपा जाय तो फूसकी झोपड़ी भी अच्छी है, नहीं तो सोनेका महल भी किसी कामका नहीं है—
राम जपत निर्धन भला टूटी घर की छान।
कंचन मंदिर जारि दे जहँ भक्ति न सारंगपान॥
जब भगवान् की भक्ति नहीं तो फिर कोई कामका नहीं। एक दिन सबका नाश होना है। जो कुछ आकर प्राप्त हो, उसमें संतोष करना चाहिये।
भगवान् का तथा गीताजीके वचनोंकी आज्ञाका पालन तो अवश्य करना चाहिये। भगवान् का वचन माननेवाला भगवान् को बहुत ही प्यारा है। भगवान् कहते हैं—
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(गीता १८। ६९)
जो मेरे गीतारूपी वचनको संसारमें फैलायेगा, उससे बढ़कर कोई मेरा प्रेमी नहीं है और धारण करे उसकी तो फिर बात ही क्या है। भजन-ध्यान करते-करते यदि फुरणा होवे तो कुछ हर्ज नहीं है। बहुत चेष्टासहित नामका जप और भगवान् का चिंतन बना रहे, तुम इसी उपायमें रहोगे तो सभी फुरणा नष्ट होना कुछ बड़ी बात नहीं है।
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भजन, ध्यान करते हुए काम करनेकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। यदि भजन, ध्यान करते हुए काम करना सम्भव नहीं होता तो भगवान् अर्जुनको गीता ८। ७ में किसलिये आज्ञा देते तथा सांख्यके अनुसार भी श्रीभगवान् किसलिये कहते (गीता १४। १९) इससे मालूम होता है कि भजन, ध्यान करते हुए काम अच्छी तरह हो सकता है। गीता १८। ५६—५८ के अनुसार काम करते हुए भी भगवान् में चित्त लगानेसे परमगति हो सकती है। यदि भगवान् में चित्त लगानेसे काम नहीं होता तो भगवान् कहते भी नहीं।
एकान्तमें ध्यानका साधन जमाना चाहिये। काम करते हुए भी सावधान रहना चाहिये। जबतक स्थिति नहीं हो तबतक विशेष सावधानीसे काम करना चाहिये। पीछे तो स्वत: ही काम हो सकता है। निराकारका ध्यान रहते हुए ध्यान होवे तो निराकारका ध्यान करना चाहिये। साकारका ध्यान करते हुए ध्यान होवे तो साकारका ध्यान करना चाहिये। भजन, ध्यान हर समय रहना चाहिये, असली बात यही है।
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समयको अमूल्य समझकर अमोलक काममें लगाना चाहिये। उत्कण्ठा होनेसे भजन, ध्यान, सेवा, सत्संगका प्रचार हो सकता है। इसलिये भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये। प्रार्थना भी नहीं करनी और भी अच्छी बात है। प्रार्थना भी खुशामदकी बात है। केवल चेष्टा करनी चाहिये। उन्हें गर्ज हो तो प्रचार करें, नहीं तो उनकी मर्जी। दोनों तरफकी गर्ज बिना काम नहीं चलता। यदि भगवान् को गर्ज नहीं है तो हमें ही क्या गर्ज है, उन्हें संसारमें भजन, ध्यान, सत्संगका प्रचार करना हो तो स्वत: ही कुछ प्रचार हो सकता है। पहले भी जो कुछ प्रचार हुआ है वह उनकी कृपासे ही हुआ है। आपके पिताजी, माँजीकी सेवा होनी चाहिये, उनकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। संसारके लोगोंकी सेवा करनी चाहिये। निष्कामभावसे दूकानका काम भी सच्चाईके साथ करना चाहिये। व्यवहार शुद्ध होनेसे दूकानदारीसे भी भगवान् का दर्शन हो सकता है। दूकानके व्यवहारसे यदि भगवान् के मिलनेका मार्ग लोगोंके समझमें आ जाय तो बहुत आदमियोंका कल्याण हो सकता है। फिर संसारकी वस्तुओंको खरीदने, बेचनेसे भगवान् की प्राप्ति हो सकती है।
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जयदेवका प्रेमसहित राम-राम। आपलोगोंको दिल्लीमें सत्संग, भजन, ध्यान और श्रीगीताजीके अभ्यासकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। श्रीगीताजीका प्रचार करनेवालेके समान कोई भी भगवान् का प्रेमी, भक्त नहीं है। गीता १८। ६८ में भगवान् कहते हैं उसका अर्थ देखना चाहिये तथा श्रीगीताजीका प्रचार संसारमें करनेकी सामर्थ्य नहीं हो तो सामर्थ्य बनवानेकी चेष्टा करनी चाहिये। इस संसारमें निष्कामभावसे जो श्रीगीताजीका जितना प्रचार करता है वह उतना ही श्रीभगवान् को अधिक प्रिय है। इस प्रकार समझना चाहिये। श्रीगीताजीमें भगवत्प्राप्तिवाले पुरुषोंके बहुत-से लक्षण लिखे हैं। इन गुणोंसे भगवान् के भक्तको पहचानकर, उनका संग करके श्रीगीताजीका मर्म जानना चाहिये। यदि प्रचार नहीं भी हो तो अपने कल्याणके लिये उसका अर्थसहित अभ्यास तो अवश्य ही करना चाहिये। जो श्रीगीताजीका अभ्यास करता है वह उत्तम है। श्रीभगवान् कहते हैं कि मैं उसके द्वारा ज्ञानयज्ञसे पूजित होता हूँ। गीता १८। ७० में भगवान् कहते हैं, उसका भाव श्रीगीतामें देखना चाहिये। श्रीगीताजीको सुनना भी बहुत उत्तम है। उसके सुननेमात्रसे भी उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होती है। यदि धारण कर ले तो परमपदकी प्राप्ति हो जाय।
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श्रीगीताजीके अभ्यासकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। श्रीतुलसीकृत रामायणका अभ्यास भी ठीक है, किन्तु श्रीगीताजीके समान तो गीताजी ही हैं। नामजपके सहित ध्यान करनेकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। ध्यानके प्रतापसे पूर्वमें मुनिलोग परमगतिको प्राप्त हुए हैं। उसके अनुसार साधन करनेसे भगवान् में प्रेम होकर दर्शन हो सकता है।
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श्रीगीताजीके अभ्यासकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। श्रीगीताजीका अभ्यास करनेसे भगवान् की कृपासे श्रीगीताजीके अनुसार आचरण हो सकता है। फिर भगवान् के मिलनेमें विलम्ब नहीं है। यदि आप श्लोक नहीं पढ़ सकते तो अर्थ ही पढ़नेसे और अभ्यास करनेसे यदि धारण हो जाय तो श्रीभगवान् का दर्शन हो सकता है। इसीलिये श्रीगीताजीके अभ्यास करनेकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। सत्संगकी भी चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकार करनेसे निष्कामभावसे भगवान् का भजन-ध्यान हो सकता है।
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जयदेवका प्रेमसहित राम-राम। आपके प्रेमके अनुसार तो मैं पूरी चिट्ठी ही नहीं दे सकता। तब भी आप तो चिट्ठी दिये ही जाते हैं। मेरे चिट्ठी देनेमें विलम्ब होता है, इस दोषको भी आप दोष तथा हमारी गलती नहीं समझते, यह आपके प्रेम और विश्वासकी बात है। श्रीभगवान् के विषयको लेकर जो प्रेम है वह भगवान् के ही साथ प्रेम है। आपके पिताजी बीमार हैं उनको छोड़कर उनकी आज्ञाके बिना तुम्हारा आना ठीक नहीं है। मैं भी कई कारणोंसे वहाँ नहीं आ सकता, क्योंकि मिलनेमें कुछ प्रारब्ध भी कारण समझा जाता है।
श्रीनारायणदेवके साथ यदि प्रेम किया जाय तो उनके मिलनेमें प्रारब्ध कुछ भी अड़ंगा नहीं लगा सकता। ऐसा पहले भी लिखा था फिर भी लिखना है कि एकदम श्रीनारायणदेवके साथ पूर्ण प्रेम हो ऐसी चेष्टा करनी चाहिये। संसारमें श्रीभगवान् के प्रेमके समान कुछ भी नहीं है। श्रीपरमात्मदेव ही प्रेमके मर्मको अच्छी तरह जानते हैं। उनके साथ प्रेम होनेपर उनको आना पड़ेगा, उन्हें कोई भी रोकनेवाला नहीं है। श्रीनारायणदेव तो प्रेमके अधीन हैं। प्रेमका मर्म जो जानता है वही प्रेममें बिक जाता है। श्रीनारायणके जो प्रेमी भक्त हैं उनसे जब श्रीनारायणका वियोग सहा नहीं जाता तो उनको आना पड़ता है। आपलोग श्रीभगवान् का वियोग सह सकते हैं, इसलिये आपके भी वियोग हो रहा है। जिस दिन भगवान् के वियोगमें गोपियोंकी तरह विह्वल हो जायँगे फिर भगवान् को तुरन्त आना पड़ेगा। यदि प्रेमके द्वारा श्रीनारायणदेवको जीतना चाहते हैं तो और भी अधिक प्रेमकी आवश्यकता है। जो बहुत भारी तेज प्रेमी है वह तो करुणभावमें विह्वल होकर भगवान् के आनेके लिये भी प्रार्थना नहीं करते। उन लोगोंके मनमें ऐसा भाव होता है कि यदि भगवान् इतने भारी प्रेमी होकर भी मेरा वियोग सहते हैं, फिर मैं तो साधारण ही प्रेमको जाननेवाला हूँ। मुझको तो उनके दर्शनके लिये कभी आतुर नहीं होना चाहिये। जो प्रेमके अधीन हैं और प्रेमके पूर्ण मर्मको जाननेवाले हैं वे ही प्रेमीके प्रेममें बिकनेके लिये तैयार रहते हैं। प्रेमीके पास गये बिना एक पल भी नहीं रह सकते, ऐसे प्रेमी हैं। इस समय भगवान् देख रहे हैं, यदि मुझको बुलानेके लिये प्रार्थना करे तो मेरी बात रह जाय। नहीं तो अन्तमें जाना तो है ही। समझदार प्रेमी कभी भगवान् को बुलानेके लिये प्रार्थना नहीं करता। वह यह जानता है कि भगवान् अन्तर्यामी और प्रेमके मर्मको जाननेवाले हैं और प्रेमके अधीन हैं। फिर किसलिये खुशामद करनी चाहिये और दूसरी बात यह है कि इतना प्रेमी होकर भी साधकका वियोग सह रहा है। फिर तुम्हारे लिये वियोग सहना कुछ बड़ी बात नहीं है क्योंकि तुम तो प्रेमका इतना मर्म भी नहीं जानते। इसलिये इस विषयमें तुमको शूरवीरता रखनी चाहिये। तुम प्रेम करते रहोगे तो अन्तमें हारकर उनको दर्शन देना पड़ेगा। इस विषयमें भगवान् इतने शूरवीर नहीं हैं। यदि तुम खुशामद करोगे तो वे अधिक खुशामद करवा सकते हैं, इसलिये विशेष खुशामद करनेकी आवश्यकता नहीं है। यदि करे भी तो उलटी गर्ज करानी चाहिये, यदि तुम्हारा निष्कामभावसे तेज प्रेम होगा और तुम उलटी गर्ज करवाओगे तथा धक्का भी मारोगे तो भी वे आयेंगे।
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बहुत दिन हुए संसारके जालमें फँसकर श्रीनारायणदेवको भूल रहे हो, अब तो चेतना चाहिये। समय बीतता जा रहा है। गये हुए दिन वापस नहीं आयेंगे। एक दिन अचानक आकर मृत्यु पछाड़ेगी, तब तुम्हारी सहायता कौन करेगा। एक नारायणदेवके बिना और कोई भी तुम्हारा नहीं है। सब संसार अपने मतलबका है। कोई भी तुम्हारा नहीं है। ऐसा समझकर निष्कामी प्यारे प्रेमी भगवान् को कभी भी नहीं भूलना चाहिये। संसारके जितने पदार्थ हैं सब नाशवान् और क्षणभंगुर हैं, इसलिये उनके साथ प्रेम छोड़कर एक श्रीपरमात्मदेवके साथ ही प्रेम करना चाहिये, क्योंकि संसारके सब पदार्थ नष्ट होनेवाले हैं। श्रीनारायणदेव अविनाशी हैं। उनके साथ किया हुआ प्रेम भी अविनाशी है। तुम्हारे शरीरके नष्ट होनेपर भी भगवान् के साथ किया हुआ प्रेम कभी नष्ट नहीं होगा। मरनेके बाद कोई भी वस्तु साथ नहीं जायगी, तुम्हारा शरीर भी तुम्हारे साथ नहीं जायगा, यदि आप करेंगे तो श्रीभगवान् का भजन ही काम आ सकता है।
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जल्दी ही चेतकर खूब चेष्टा करनी चाहिये, अन्यथा बहुत कठिनाई है। आजकल धर्मपर आफत है। इसलिये धर्मके थोड़े ही पालनसे बहुत अधिक लाभ मिलता है। जैसे संवत् १९१४ में गदर मची थी, उस समय किसी हिन्दूने किसी अंग्रेजकी सहायता पहुँचायी, उसका सरकारने बहुत सत्कार किया। उसी प्रकार इस समय कोई धर्मका पालन करे तो उसका श्रीनारायणदेव बहुत सत्कार कर सकते हैं, क्योंकि इस समय धर्म-भक्तिका प्रचार भी कम है। इसलिये धर्मका थोड़ा भी पालन करनेसे अर्थात् धर्मके विषयका थोड़ा भी प्रचार करनेसे बहुत लाभ है।
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घरमें सभी लोग भजन, ध्यान, सत्संग तथा श्रीगीताजीके अर्थसहित अभ्यास करनेके लिये लगें तो लगानेके लिये विशेष चेष्टा करनी चाहिये। पूर्वमें मुनि लोग भजन, ध्यानके ही प्रतापसे परमगतिको प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार समझकर निष्काम प्रेमभावसहित भगवान् के नामका जप तथा ध्यान निरन्तर बने, वहाँतक विशेष चेष्टा करनी चाहिये। अन्य काममें हर्ज हो तो कुछ हर्ज नहीं है। श्रीभगवान् के भजन, ध्यानमें जो हर्जा है वही असली हर्जा है। आपलोग इस अवसरपर भी नहीं चेतेंगे तो पीछे कब चेतेंगे।
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तुम्हारा समय अधिकतर किस काममें बीतता है। इस समय आप नहीं चेतेंगे तो फिर कब चेतेंगे। मनुष्यजीवन बहुत ही अमोलक है, उसे अमोलक काममें लगाना चाहिये। एक पल भी फालतू काममें नहीं बिताना चाहिये। स्त्री-पुत्रके साथ प्रेम करनेसे तथा संसारके मनुष्योंके साथ प्रेम करनेसे तथा उनके साथ फालतू बातें करनेमें समय बितानेसे बहुत ही हानि है। वास्तवमें तो अपना समय भजन, ध्यान, सत्संग और गीताजीके प्रचारमें ही बिताना चाहिये—
इस दुनिया के बीचमें चार वस्तु है सार।
भजन ध्यान साधुसंगति श्रीगीताका प्रचार॥
इसलिये ऊपर लिखे हुए काममें समय बिताना चाहिये तथा निष्कामभावसे श्रीनारायणदेवके लिये रुपये कमानेवाले काममें भी समय बिताया जाय तो कुछ हर्ज नहीं, किन्तु फालतू काममें समय नहीं बिताना चाहिये।
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भजन, ध्यान, सत्संगका साधन कैसा चल रहा है। श्रीगीताजीके अभ्यास और प्रचारकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। स्वराज्यकी प्राप्तिमें श्रीगीताजीका प्रचार मैं प्रधान उपाय समझता हूँ और श्रीपरमात्माकी प्राप्तिमें तो प्रधान उपाय है ही। इसलिये संसारके सुधारके लिये और आत्माके कल्याणके लिये श्रीगीताजीके प्रचारकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये।
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श्रीभगवान् का भजन, ध्यान और अच्छे पुरुषोंका संग श्रीभगवान् की दयासे ही होता है। श्रीभगवान् की दया समझनेसे श्रीभगवान् की दयाका पूर्ण भाव जाना जाता है, तब पूर्ण फल होता है। बिना जाने पूर्ण फल नहीं होता। जैसे घरमें पारस हो, परन्तु उसका प्रभाव जाने बिना दरिद्रताका नाश नहीं होता, उसी प्रकार भगवान् की दयाका प्रभाव जाने बिना पूर्ण लाभ नहीं होता। जाननेसे ही लाभ है। यह दया तो जीवोंपर भगवान् की सदा ही है। इसका नाम सामान्य दया है और विशेष दया उसका नाम है, जो अधिक दया बिना ही कारण भगवान् की ओरसे होती है, आजकल तो भगवान् की अधिक दया है, यानी विशेष दया है। बहुत-से जीव भजन, ध्यान, सत्संग नहीं करना चाहते तो भी भगवान् अपने भक्तोंद्वारा उन्हें जबरदस्ती अपनी ओर लगानेकी चेष्टा कराते हैं। यह भगवान् की अधिक दया है। यदि जीवोंके कर्मकी ओर देखा जाय तो हजारों जन्ममें उद्धार होना कठिन है। उन जीवोंका भी जल्दी उद्धार हो ऐसी चेष्टा श्रीनारायणदेव अपने भक्तोंके हृदयमें प्रेरणा करके कर रहे हैं। यह भगवान् की विशेष दया है। संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध तीन प्रकारके कर्म हैं। उनमें संचितसे उत्तम फुरणा होती है, प्रारब्धसे संग प्राप्त होता है, फिर पुरुषार्थ किया जाय तो उस पुरुषार्थका नाम क्रियमाण है। तीन प्रकारका कर्म जिनका अच्छा नहीं है उन पुरुषोंको भजन, ध्यान सत्संगमें लगानेकी जो भगवान् के भक्तोंकी चेष्टा है, वह भगवान् की प्रेरणासे है। यह बिना ही कारण जीवोंपर भगवान् की विशेष दया है। ऐसी दया होनेपर भी जिस किसी जीवका उद्धार नहीं हो तो उसके भाग्य और पुरुषार्थको धिक्कार देना चाहिये और उसको महान् मूर्ख समझना चाहिये। उसकी दुर्गति अवश्य होनी है। इससे बढ़कर श्रीनारायणदेव और क्या दया करेंगे? श्रीनारायणदेव स्वयं अवतार लेकर आये, उससे भी यह विशेष दया समझी जाती है। जब भगवान् अवतार लेते हैं, उस समय भी बहुत-से अभागे जीव रह जाते हैं। उनको महान् मूर्ख समझना चाहिये। नदी किनारे खेत होनेपर एवं साथ-साथ समय समयपर वृष्टि हो तो खेतमें केवल अन्न बोनेसे ही अनाज पैदा हो जाता है, विशेष परिश्रमका काम नहीं है। तब भी आलस्य करे और अन्न बिना मर जाय तो उसके समान और कौन मूर्ख है? जो भगवान् की सामान्य दया है वह तो मनुष्यशरीररूप खेतके किनारे नदी है और विशेष दया है वह ठीक समयपर होनेवाली वृष्टि है और भगवान् के नामका निष्कामभावसे ध्यानसहित जप खेतमें बीज है। भगवान् की प्राप्ति उसका फल है और जन्म-मृत्यु ही काल है। देशके स्वराज्यकी उन्नति किस प्रकार हो सकती है? इस विषयमें कई बार पहले भी विचार हुआ था, किन्तु पूरी बात समझमें आयी ही नहीं। अब ठीक समझमें आ गयी है। जितने व्यक्ति स्वतन्त्रता संग्राममें लग रहे हैं वह सब गीताजीको अर्थसहित कंठस्थ कर लें तो देशको स्वराज्य मिल सकता है और बहुत-से आदमियोंको भगवान् की प्राप्ति हो सकती है।
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ध्यानकी स्थिति होनी तथा ठहरनेका उपाय पूछा सो सत्संग करनेसे ठहर सकता है। सत्संगकी शरण भगवान् की ही शरण है। जहाँ सत्संग होता रहे उस जगह पहुँचना चाहिये। भले ही चाहे सो होवे, हो सके वहाँतक सत्संगमें जाना चाहिये। सत्संगमें शरीरको नित्य उपस्थित कर देनेसे सत्संग उसके लिये जो कुछ उद्धारका उपाय हो वह कर सकता है। आपके लिये तो केवल इतना ही कर्तव्य है कि नित्य प्रति श्रीभगवान् का गुणानुवाद और प्रभावसहित प्रेमकी बात हो उस जगह जाना एवं महान् पुरुषोंका वचन सुनकर अपनी सामर्थ्यके अनुसार उसके पालनकी चेष्टा करनी चाहिये। फिर भजन, ध्यान स्वत: ही ठीक होकर भगवान् की प्राप्ति होनी सहज है। आप अपने कर्तव्यका पालन यदि ऊपर लिखे अनुसार करेंगे, फिर आपके उद्धारका भार सत्संगके ऊपर रहेगा। जिस जगह तुम्हारी समझमें भगवान् का गुणानुवाद और प्रभावकी उत्तम बातें होती हों उस जगह जाकर भगवान् के गुणानुवाद और प्रेमसहित भगवान् के प्रभावकी बात सुननेका नाम सत्संग है। लाख शुभ अवसर छोड़कर सत्संगमें जाना चाहिये। कोई कठिनाई नहीं हो तो लोटा, घंटा बेचकर भी सत्संग करना उत्तम है, किन्तु ऋण करके नहीं।
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जिन पुरुषोंका सत्संगमें लगाव है, उन पुरुषोंका संग करनेसे सत्संगमें लगाव हो सकता है। संसारमें सत्संगके समान और कुछ भी नहीं है। भगवान् के प्रेमी भक्तोंके साथ मिलनेकी उत्कण्ठा होनेसे यदि प्रारब्धके कारण उनका आना नहीं हो सके तो उनका ही स्वरूप धारण करके भगवान् को दर्शन देना ही पड़ेगा। इससे बढ़कर, भक्तोंके साथ प्रेम करनेके समान क्या है? भगवान् के साथ प्रेम करना तो और भी उत्तम है, क्योंकि भगवान् के मिलनेकी उत्कण्ठा होनेसे श्रीनारायणदेव अपने विशेष स्वरूपसे स्वयं दर्शन दे सकते हैं। भगवान् का स्वरूप कौन है? यदि यह पूछो तो उसका उत्तर है भगवान् का भक्त, भगवान् का जैसा स्वरूप अपनी बुद्धिके अनुसार समझकर ध्यान करे, उस ध्यानके अनुसार जो स्वरूप है वही खास स्वरूप है। कोई भगवान् के प्रेमी भक्तोंकी शरण जाय, यदि भगवान् के भक्त उसे स्वीकार न करें तो भले ही न करें, क्योंकि उनके बसका नहीं है, शरण जानेवाला अच्छी तरह मनसे शरण हो जाय तो शरण होनेका लाभ उसे अवश्य होता है। जैसे एकलव्य भीलने द्रोणाचार्यकी शरण होकर धनुर्विद्या सीख ली। उससे भी बढ़कर श्रीनारायणदेवकी शरण है, क्योंकि श्रीनारायणदेवकी प्रतिज्ञा है कि कोई कैसा ही पापी हो मेरी शरण होनेके बाद मैं उसे त्याग नहीं सकता। श्रीनारायणदेवका प्रभाव कोई नहीं जानता, इसलिये भगवान् ने अपने भक्तोंकी शरण लेनेके लिये आज्ञा दी है। जैसे अर्जुनके प्रति भगवान् ने कहा—
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(गीता ४। ३४)
महापुरुषोंका प्रभाव जाननेपर उसी समय भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। उनको जाननेके बाद उनका संग नहीं छूट सकता। जबतक सगुण भगवान् का दर्शन होता रहे, तबतक मन और नेत्र दूसरी ओर नहीं जा सकते। वे भले ही अन्तर्धान हो जायँ, किन्तु प्रेमी भक्त तो छोड़ नहीं सकता।
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श्रीभगवान् के नामका जप ही कलियुगमें परम कल्याण करनेवाला है। इसलिये श्रीभगवान् के नामको कभी नहीं भूलना चाहिये। यदि ध्यानसहित श्रीभगवान् के नामका निष्कामभावसे निरन्तर जप किया जाय तो और कुछ भी करनेकी आवश्यकता नहीं है। नामजपके प्रतापसे स्वत: ही सब कुछ हो जाता है। रामायणमें यह जगह-जगह लिखा है। मनुस्मृति २। ८७* का अर्थ देखना चाहिये। श्रीभगवान् के नामजपके प्रतापसे सब विघ्न भी नष्ट हो सकते हैं, क्योंकि बिगुल बजानेके साथ राज्यके सिपाही और दरोगा आ जाते हैं और बिगुल सुननेसे चोर और डाकू भाग जाते हैं, उसी प्रकार भगवान् के नामजपके प्रतापसे सारे विघ्न भाग जाते हैं अर्थात् नष्ट हो जाते हैं। कोई भी विघ्न पास नहीं आ सकता। इसलिये उचित है कि जबतक श्रीभगवान् की प्राप्ति नहीं हो, यानी भगवान् के परमधामतक पहुँचनेमें कमी रहे, तबतक हर समय भगवान् की नामरूपी बिगुल निरन्तर बजानी चाहिये। फिर कुछ भी चिन्ता नहीं है, यदि बिगुल छोड़कर गाफिल हो जायँगे तो कठिनाई है। यदि चोर डाकू मिल जायँगे तो आत्मारूपी धनका हरण कर लेंगे, इसलिये हर समय चेत रखना चाहिये। काम, क्रोधादि ही चोर, डाकू हैं।
* जप्येनैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशय:।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते॥
ब्राह्मण जपसे ही सिद्धिको पाता है, इसमें सन्देह नहीं है, अन्य कुछ करे या न करे, वह जपमात्रसे ही ब्रह्ममें लीन हो जाता है तथा सबका मित्र बन जाता है।
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संसारकी ओरसे तथा शरीरकी ओरसे प्रेम हटाकर श्रीनारायणदेवकी ओर करना चाहिये। इस अवसरपर भी नहीं करेंगे तो पीछे कब करेंगे। ऐसा अवसर सदा ही रहनेका नहीं है। आपलोग पहलेसे ही यदि बहुत तेज साधन करते तो क्या आजके पहले ही श्रीभगवान् का दर्शन नहीं हो जाता। मेरी समझमें तो अवश्य हो सकता था। श्रीभगवान् के दर्शनमें विलम्ब हो रहा है। विचारना चाहिये, यदि थोड़ा-सा भी पैसा कम हो तो क्या गन्तव्यका टिकट मिल सकता है। एक पैसा कम होनेसे भी नहीं मिलता। एक स्टेशन पीछेकी टिकट भले ही ले लो, इसी प्रकार भगवान् की प्राप्तिमें समझना चाहिये। हमारी बात सुनो तो हमारा लिखना है कि भले ही चाहे जो हो जाय, ध्यानसहित निष्कामभावसे भगवान् के नामका निरन्तर जप करते हुए ही संसारका काम करना चाहिये। संसारके काममें हर्जा होवे तो भले ही हो, ध्यानसहित भजनमें कमी नहीं करनी चाहिये। प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। फिर कुछ चिन्ता नहीं है।
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तुमने लिखा कि मेरेमें प्रेम नहीं है, फिर कलकत्ता आनेके लिये किस तरह लिखूँ सो प्रेम एक नम्बर हो उसके लिये चेष्टा करनी चाहिये। इसमें तो चेष्टा ही प्रधान है। मेरी समझमें मैं तो बहुत ही चेष्टा करता हूँ, फिर मेरे साथ बहुत तेज प्रेम नहीं होता इसमें तुम्हारी ओरसे चेष्टाकी ही कमी समझमें आती है। यदि भगवान् के साथ प्रेम करेंगे तो सम्भवत: विलम्ब भी हो सकता है, क्योंकि भगवान् को तो किसीकी आवश्यकता है नहीं, फिर भी कोई प्रेम करता है उससे प्रेम करनेके लिये भगवान् भी तैयार हैं।
मेरे साथ पहले तो भाई हनुमानदासका प्रेम एक नम्बर था, फिर तुम्हारा हुआ। अब घनश्यामदासका है। तुम चेष्टा करो तो क्या तुम्हारा प्रेम घनश्यामदाससे भी अधिक नहीं हो सकता, मेरी समझमें तो हो सकता है। बाकी तुम्हें क्या गर्ज है। यदि घनश्यामदासकी स्थिति सबसे उच्च समझते तब तो शायद तुम्हारी विशेष चेष्टा हो सकती थी। खैर! मेरे साथ प्रेम कम भी रहे तो कुछ हर्ज नहीं, किन्तु श्रीनारायणदेवके साथ प्रेम कम नहीं होना चाहिये। उनके साथ तो अनन्यप्रेमकी आवश्यकता है। क्योंकि जबतक अनन्य विशुद्ध प्रेम तथा भगवान् में भाव नहीं होगा, तबतक भगवान् का दर्शन होना कठिन है। इसलिये निष्कामभावसे निरन्तर भजन, ध्यान करके भगवान् में अनन्यप्रेम शीघ्र होनेके लिये चेष्टा करनी चाहिये।
मैं तो बिना प्रेम तथा थोड़े ही प्रेमसे कलकत्ता जा सकता हूँ तथा तुम बाँकुड़ा आकर भी मिल सकते हो, विशेष परिश्रमका काम नहीं है, किन्तु मेरेसे मिलनेमात्रसे संसारके जालसे छूटना नहीं होगा। यदि कहो हो सकता है तो यह कहना नहीं बनता। यदि यह कहना सच्चा हो तो हजारों मनुष्योंका उद्धार तो आजसे पूर्व ही हो जाता। भगवान् के दर्शनमात्रसे उद्धार हो सकता है। शास्त्र और वेद प्रमाण हैं तथा कुछ विलम्बसे भी हो जाय तो कुछ हर्ज नहीं, अन्तमें होनेमें तो कुछ संशय है ही नहीं।
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भाई हनुमानदास गोयन्दका। भाईजी! तुम भी प्रेमसहित राम-राम लिखते हो और मैं भी लिखता हूँ, किन्तु उसके अनुसार हमलोगोंको प्रेम भी करना चाहिये। दिन-प्रतिदिन प्रेम अधिक हो, इसके लिये बहुत चेष्टा करनी चाहिये। यदि अधिक चेष्टा न हो तो कुछ तो प्रेम बढ़ाना चाहिये।
हमारेसे भी श्रीभगवान् में प्रेम बहुत अधिक करनेकी आवश्यकता है। इसके लिये तो प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। हमारे साथ यदि प्रेम नहीं भी हो तो भी हर्जा नहीं है, क्योंकि संसारमें बहुत-से भगवान् के ज्ञानी भक्त हैं, मैं जिनका नाम भी नहीं जानता, क्या उनको परमगति नहीं मिलेगी? अवश्य ही मिलेगी। कोई भी क्यों न हो, ज्ञानी भक्तको अवश्य ही परमगति मिलेगी, परन्तु जिनका श्रीनारायणदेवमें पूर्ण प्रेम नहीं है, उनके लिये महान् हानि है। इसलिये श्रीभगवान् में पूर्ण प्रेम होनेके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा करना तुम्हारा काम है। फिर प्रेम नहीं हो तो कोई बात नहीं। पहले तुम्हारा जिस प्रकार सत्संगमें प्रेम था, सत्संगके सामने तुम रुपयोंको कुछ भी नहीं समझते थे तथा सत्संगके लिये शरीरके कष्टको भी कुछ नहीं समझते थे। उससे बहुत अधिक सत्संगमें प्रेम होना चाहिये और सत्संगसे भी बहुत अधिक प्रेम भगवान् में होना चाहिये। सत्संगमें जो प्रेम है वह भी भगवान् के लिये ही है। इसलिये उसे भी भगवान् के ही साथ समझना चाहिये। भगवान् के मिलनेके उपायमें विलम्ब भी होवे तथा कलंक भी लगे तो प्राण भले ही चले जायँ, किन्तु भगवान् के मिलनेमें ढील नहीं होनी चाहिये। एक पल भी जो भगवान् से बिछोहमें बीते, वह एक युगके बराबर लगे, तब उनके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा समझी जाय। जैसे ध्रुव, प्रह्लाद और गोपियोंकी चेष्टा थी। उस प्रकार भगवान् के लिये चेष्टा होवे तब श्रीभगवान् में प्राणपर्यन्त चेष्टा समझी जाय।
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श्रीघनश्यामदासजी बिरलाको भेजे गये सन्देशकी नकल।
१-आपकी चालसे आपका कल्याण कितने वर्षोंमें आपके अनुमानसे हो सकता है।
२-यदि होनेमें शंका हो तो उसके लिये कटिबद्ध होकर चेष्टा क्यों नहीं की जाती है।
३-मनुष्यशरीरके भोगनेयोग्य प्राय: सभी पदार्थ आपके अनुकूल हैं, इससे बढ़कर और क्या चाहते हो।
४-प्राय: सभी प्रकारकी अनुकूलता होनेपर भी यदि आप चेष्टा नहीं करेंगे तो कब करेंगे।
५-ऐसा मौका फिर सदा थोड़े ही मिलेगा, क्योंकि सदा एक-सी व्यवस्था रहेगी, यह मुश्किल है।
६-आपको अपना आदर्श इससे बहुत उच्च श्रेणीका बनाना चाहिये, क्योंकि बहुत लोग आपका अनुकरण कर सकते हैं।
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श्रीहनुमानदासजी गोयन्दका। अब साधन और भी तेज हो इसके लिये बहुत जोरकी चेष्टा करनी चाहिये। इस अवसरपर भी नहीं चेतोगे तो फिर कब चेतोगे। इस प्रकार आपको चेतानेवाला दूसरा मिलना कठिन है। क्योंकि तुम्हारा साधन नहीं होनेसे किसका काम अटक रहा है? करोड़ों जन्मोंसे तुम संसार चक्रमें फिर रहे हो। अब भी नहीं चेतोगे तो फिर कब चेतोगे।
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श्रीआत्मारामजी। समय दिन-प्रतिदिन बहुत तेज काममें लेना चाहिये। संसारमें श्रीभगवान् के प्रेमका प्रवाह बहुत जोरसे चलाना चाहिये।
ध्यानकी युक्तियाँ योग्य पुरुषोंको बतानी चाहिये तथा जो अयोग्य हों, उन्हें योग्य बनानेकी चेष्टा करनी चाहिये। योग्य बन जाय तब श्रीभगवान् के गुप्त रहस्यकी बात भी बतानी चाहिये। काम तेज किये बिना संसारमें श्रीभगवान् के भावोंकी जागृति कैसे होगी? निष्काम कर्म, उपासना, ध्यान तथा सत्यभाषणका भाव लोगोंको अच्छी तरह समझानेकी चेष्टा करनी चाहिये। श्रीभगवान् के ध्यानमें मगन रहते हुए ही संसारके लोगोंकी परम सेवा करनेकी उत्कण्ठा रखनी चाहिये। फिर उसकी सामर्थ्य स्वत: ही हो जायगी। श्रीनारायणदेव ऐसे सेवकके हाथमें अपना परम धन देनेके लिये तैयार हैं। धनकी कमी है ही नहीं। निष्कामभावसे सेवा करनेवाले सेवकोंकी कमी है।
हर समय समयकी ओर ध्यान रखनेसे समय बहुत ऊँचे काममें लग सकता है। समय बहुत ही मूल्यवान् है। ऐसा समझकर एक पल भी समझकर ही बिताना चाहिये, फिर कुछ हर्ज नहीं है।
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आपने लिखा कि चिट्ठी आनेसे लाभ होता है सो कितनी देरतक टिकता है लिखना। तुमने संसारमें आकर कितना मार्ग तय कर लिया। तुम संसारमें किसलिये आये थे? यदि भगवान् के नाम, ध्यानमें पूर्ण प्रेम और विश्वास होता तो एक पल भी भजन बिना नहीं जाता। इतना लिखनेपर भी तुमको चेत नहीं होता तो फिर क्या उपाय किया जाय? जो कुछ करना हो शीघ्र करना चाहिये और भगवान् को सब जगह व्याप्त जानना चाहिये। सब जगह विराट् रूपसे सगुणका ध्यान एवं सब शरीरोंमें नारायणका रूप जानना चाहिये। जिस समय भगवान् अवतार लेते हैं उस समय सच्चिदानन्द भगवान् का सगुणरूप भक्तोंके और संसारके हितके लिये एवं धर्मकी मर्यादाके लिये एक स्थानमें प्रकट होता है। वास्तवमें सब कुछ भगवान् का रूप है—
जनम मरणसे रहित है नारायण करतार।
हरि भगतन के हेत से लेत मनुज अवतार॥
निर्गुणभावसे सत्-चित्-आनन्दरूपका ध्यान सब जगह करना चाहिये। ध्यानके बारेमें सब बातें शिवभगवानजीको बतायी थी, उनसे निगह करनी चाहिये और शिवभगवानजीने भक्तिके अवतारकी बात बतायी थी, इसके बारेमें कुछ भी नहीं लिखा जा सकता, किंतु कुछ समय ठीक मालूम देता है पीछे राम जाने। आगे भक्तिके विषयमें कुछ अच्छा समय दीखता लग रहा है, पक्की बात लिख नहीं सकता। किंतु संसारके हिसाबसे कष्टका समय भी लगता है और आगेकी बात किस तरह मालूम हो। समय बीतता जा रहा है जिस कामके लिये आये हो, उस कामको जल्दी बना लेना चाहिये। एक भगवान् ही तुम्हारे सहायक हैं। राम-नामका जप निष्काम प्रेमभावसे होनेका ही नाम पुरुषार्थ है। पुरुषार्थहीनका उपाय होना कठिन है, अत: पुरुषार्थहीन नहीं होना चाहिये।
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पूज्य श्रीरामकुमारजी। आपने लिखा कि मनमोहनमें प्रेम हो जाय, ऐसा उपाय लिखना चाहिये। ऐसा किस प्रकार हो कि सर्वत्र मनमोहन-ही-मनमोहन दीखने लग जायँ? जैसे डरपोक मनुष्यको रात्रिमें भूत-ही-भूत दीखते हैं, वैसे ही प्यारे मनमोहनके सिवाय और कुछ दीखे ही नहीं। दीखे तो उनका रूप और सुने तो उनका गुणानुवाद एवं बोले तो उनका नाम या यश। न तो कानोंसे दूसरी बात सुनायी पड़े, न नेत्रोंसे दूसरी कोई चीज दीखे, न मुखसे दूसरी बातका उच्चारण ही हो, इसीका नाम सच्चा प्रेम है।
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श्रीहनुमानदासजी गोयन्दका।
सुखके माथे सिल पड़ो जो नाम हृदयसे जाय।
बलिहारी वा दुखकी जो पल पल नाम रटाय॥
इसलिये नामका जप होता रहे तो भले ही दु:ख हो एवं नामका जप नहीं हो, उस सुखपर भले ही पत्थर पड़े, नामजप ही सार है। यदि आपको विश्वास हो तो नामको सार समझना चाहिये। सार समझनेके बाद एक पल भी वृथा नहीं जाता। संसारका काम चाहे जितना हो, नाममें प्रेम रहते हुए ही हो सके उतना काम शरीरसे अवश्य करना चाहिये। जैसे पनिहारका ध्यान पानी लाते समय चलते-फिरते सभी क्रियामें पानीकी ओर ही रहता है—
सुमिरनकी सुध यों करो ज्यों गागर पनिहार।
हाले डोले सुरतमें कहे कबीर विचार॥
इस प्रकार नाममें मन रहना चाहिये, फिर भले ही काम करो। जहाँतक हो दूसरे किसीको तुम्हारा नामजप मालूम भी नहीं पड़ना चाहिये। भाईजी ऊपरसे मनके द्वारा व्यवहारकी बातें एवं सांसारिक काम होना चाहिये तथा भीतरसे मन भगवान् में रहना चाहिये।
सुमिरन सुरत लगायकर मुखते कछू न बोल।
बाहरके पट देयकर अन्तरके पट खोल॥
उन भगवान् में सूरत लगानी चाहिये। भीतरका पट खोल देना चाहिये, फिर कुछ चिन्ता नहीं है। चिन्ता तो किसी बातकी कभी नहीं करनी चाहिये। मालिक जिसमें प्रसन्न हों, उसीमें प्रसन्न रहना चाहिये।
एक रात आपने चक्रधरपुर आनेके लिये लिखा था। आना नहीं हुआ यह भाग्यकी बात है, ऐसा लिखा। भाईजी भाग्य भले ही खराब हो, भाग्यका भरोसा तो कायर ही किया करते हैं। भजन, भक्ति, सत्संगमें भाग्य कुछ भी नहीं कर सकता। भक्तिमें विघ्न करनेकी किसीमें भी सामर्थ्य नहीं है। सभी भगवान् की माया है। मालिकके दासपर अत्याचार कौन कर सकता है। दासका कर्तव्य चेष्टा करनेका है। आने-जानेकी चेष्टा करनी चाहिये, फलकी इच्छा नहीं रखनी चाहिये। जो कुछ भी कर्म हो फल भुगताना मालिकके हाथ है, फिर भाग्यका आसरा तो मूर्ख तथा पुरुषार्थहीन ही लिया करते हैं। जिनके थोड़ा-सा भी भगवान् का भरोसा तथा भजनका प्रेम होगा वह तो मालिकका ही आसरा लेगा। उनके आगे भाग्य कौन चीज है। मेरेसे मिलनेकी इच्छा लिखी सो मेरेसे मिलनेकी इतनी इच्छा नहीं रखनी चाहिये, इतनी इच्छा तो भगवान् के दर्शनकी ही होनी चाहिये, वे सब जगह उपस्थित हैं। इतनी इच्छा होनेपर भी विलम्ब हो तो भी आनन्द ही मानना चाहिये। यदि तुम इस मर्मको समझ सको तो।
तुमने पूछा कि पूर्ण प्रेमीसे बिछोह कितने दिन और देखना पड़ेगा? भाईजी! जबतक तुम पूर्ण प्रेमी, पूर्ण आनन्दस्वरूपका बिछोह मान रहे हो, तबतक इसकी अवधि नहीं लिखी जा सकती। तुमने लिखा कि मैं मेरेसे जितना सम्भव है उतना पुरुषार्थ करता हूँ। सो भाईजी! आप भाग्यका आसरा लेते हैं, इतनी ही पुरुषार्थकी कमी है। भगवान् के भक्त तो भगवान् के चरणोंका आसरा रखते हैं। उनके नाम-स्मरणके सिवाय और किसी भाग्यका तथा देवका आसरा नहीं मानते। सांसारिक मिथ्या बर्तावमें भले ही सांसारिक चीजोंके लिये भाग्यकी बात कहो और किसी महात्माको बड़ाई देनी हो, तब भले ही भाग्यकी बात कहो।
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अब सत्य बोलनेकी चेष्टा रखनी चाहिये। सत्य भी भगवान् की प्राप्तिमें सहायता देनेवाला है। सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण। (मुण्डकोपनिषद्)
यह आत्मा सत्यभाषण करनेसे ही प्राप्त होता है और सम्यक् ज्ञानसे तथा ब्रह्मचर्यसे प्राप्त होता है।
सत्यमेव जयति नानृतम्।
सत्येन पन्था विततो देवयान:॥
संसारको सत्यवादी ही जीतता है। मिथ्यावादी कदापि नहीं जीत सकता। सत्यसे देवयान मार्ग मिलता है। भजन बहुत जोरसे करनेसे स्वत: ही सब ठीक हो जाता है। मिथ्या बोलनेवाले झूठे आदमियोंका भगवान् थोड़े ही विश्वास करते हैं। सारे लोकोंके मालिककी बराबरीवाला पद झूठ बोलनेवालेको थोड़े ही मिलता है। भाईजी! पद मिलना तो दूर रहा, झूठ बोलनेवालेका परमपदसे मूलसहित नाश हो जाता है। जैसे—
समूलो वा एव परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति॥
जो मिथ्या भाषण करता है मूलके सहित उसका नाश हो जाता है।
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श्रीघनश्यामदासजी जालान। भगवान् का भजन शीघ्र करके जिस कामके लिये आये हो उस कामको बना लेना चाहिये। व्यर्थ काममें दिन नहीं बिताना चाहिये।
टाले टालो दिन गया ब्याज बढन्ता जाय।
ना हरि भज्यो न खत फट्यो काल पहूँचो आय॥
समय बीतता जाता है। बादमें पछतानेसे कुछ भी लाभ नहीं होगा। एक भगवान् के बिना कोई भी संसारसे पार उतारनेवाला नहीं है। जिस समय प्राण जायँगे स्त्री, पुत्र, धनकी तो बात ही क्या है, अपना शरीर भी छोड़कर जाना पड़ेगा। भगवान् के अलावा कोई भी पास नहीं आयेगा। किसीकी भी सामर्थ्य नहीं है जो भगवान् के बिना उद्धार कर सके। ऐसे प्रभुसे मित्रता जिस प्रकार दिन-दिन अधिक हो वही करना चाहिये। उनमें प्रेम उनका गुणानुवाद सुननेसे, पढ़नेसे, भजनके द्वारा विश्वास होकर होता है—
केशव केशव कूकिये न कूकिये असार।
रात दिवसके कूकते कबहुँ तो सुने पुकार॥
मिथ्या सांसारिक बातें बकनेसे मौन रहना ही अच्छा है। भगवान् के नामका जप, उनके गुणानुवाद सुननेसे, भगवान् में विश्वास होनेसे भजन अधिक होता है।
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कबिरा यह तन जात है सको तो लेहु बहोर।
खाली हाथों सो गये जिन्हके लाख करोर॥
राजा राना राव रंक बड़ा जो सुमिरे राम।
कहे कबीर बंदा बड़ा सो सुमिरे निष्काम॥
समय बीतता जा रहा है, जल्दी चेतना चाहिये। रुपये और कुटुम्बकी बात तो परे रही, यह शरीर भी साथ नहीं जायगा। भगवान् के निष्काम भजनके सिवाय और कोई बड़ी बात नहीं है। चाहे कितनी बड़ी आपत्ति पड़े, भगवान् से सांसारिक वस्तुके लिये प्रार्थना नहीं करनी चाहिये, किंतु स्वामी ही दें तो सभी कुछ भगवान् के ही अर्पण समझना चाहिये। एक भगवान् ही हमारे हैं। जो कुछ होता है, सब भगवान् की नजरमें होता है, ऐसा जानकर जो कुछ हो उसीमें आनन्द मानना चाहिये। भगवान् जो कुछ करते हैं उसीको प्रेममें मग्न होकर आनन्दसहित धारण करना चाहिये।
सुमिरन सो मन लाइये जैसे दीप पतंग।
प्राण तजे छिन एक महँ जरत न मोरे अंग॥
जैसे पतंग दीपकमें प्रेम रखता है वैसा प्रेम भगवान् में होना चाहिये। भले ही शरीर नष्ट हो जाय, तब भी पतिंगा दीपकके पास ही जाता है। उसी प्रकार चाहे जो हो जाय, एक भगवान् के सिवाय कुछ भी चीज नहीं माँगे। जो कुछ होता है प्रभुकी आज्ञासे होता है। तब चिन्ता करना, नाराज होना तो प्रभुमें विश्वासकी कमी है। जो कुछ हो उसीमें आनन्द मानना चाहिये। जप करनेसे तथा शरण होनेसे मन भी नामजपमें स्वत: ही लगता है।
वनकी चिड़िया भी जालमें भूलसे ही फँसती है। आप लोग भोगरूपी दानेके लोभमें फँसे हुए हैं। कामरूपी बहेलियेके आनेके पहले ही निकलनेका उपाय करना चाहिये। इस सांसारिक जालको काटनेका उपाय परमेश्वरके नामका जपरूपी छूरा है, अत: जिह्वाके द्वारा हर समय रगड़कर भगवान् के जपकी ओर जोरसे लगना चाहिये।
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श्रीगंगाधरजी। रामनामके भजनका कुछ भी प्रभाव आपने नहीं जाना, इसलिये मिथ्या सांसारिक भोगोंमें आठों पहर बिताते हैं। अन्याय करके धन उपार्जित करनेपर पाप भोगना ही पड़ेगा। धनका भोग सब कुटुम्बवाले करेंगे, किंतु जिस समय प्राण जायँगे तब कोई भी सहायता नहीं कर सकेगा। जब शरीर भी साथ नहीं जायगा तब औरोंकी तो बात ही क्या है? फिर तुम्हारे कुटुम्ब किस काम आयेगा और घरके प्यारे लोग जहाँतक पायेंगे, सभी कुछ लूटकर तुम्हें भस्मीभूत कर श्मशानमें डाल देंगे—
कबिरा हरि हरि सुमिर ले प्राण जाहिंगे छूट।
घर के प्यारे आदमी चलते लहेंगे लूट॥
इसलिये जिस कामके लिये आना हुआ है, उस कामको जल्दी बना लेना चाहिये। एक भगवान् के सिवाय मनमें कुछ भी चिन्ता नहीं रखनी चाहिये। भगवान् के सिवाय जो कुछ संकल्प किया जाता है वही कालकी फाँसी है। इसीलिये भगवान् का दास एक भगवत्प्राप्तिकी ही चिन्ता करता है—
चिन्ता तो हरिनामकी और न चितवै दास।
जो कुछ चितवे नाम बिनु सोई कालकी फाँस॥
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श्रीगौरीशंकरजी।
मोर तोरकी जेवड़ी गलबन्धा संसार।
दास कबीरा क्यों बँधे जाके राम अधार॥
मैं, मेरा, तू, तेरा भाव छोड़कर भले ही घरमें रहें कोई हर्ज नहीं है। सेवा भगवान् के शरणागत होनेसे होती है। बिना नामके जप नहीं होता और नाममें श्रद्धा भगवान् के गुणानुवाद सुननेसे होती है। नामके जपसे साधक निष्काम भी स्वयं ही होता है। निष्काम होनेसे ही पूर्ण होता है। इसीलिये भगवान् के नामका जप एवं अर्थका मनमें स्मरण ही उद्धार करनेवाला है। स्मरणके समान कुछ भी नहीं है, जो भजता है वही जानता है
जप तप संयम साधना सब सुमिरनके माँहि।
कबिरा जाने रामजन सुमिरन सम कुछ नाहिं॥
इसलिये भगवान् के स्मरणकी शरण नहीं छोड़नी चाहिये।
राम नाम को सुमिरता उधरे पतित अनेक।
कह कबीर नहिं छोड़िये राम नाम की टेक॥
एक भगवान् में मन लगाना ही उद्धार करनेवाला है।
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श्रीघनश्यामदासजी। मुझे पूज्य नहीं लिखना चाहिये। पहले भी मनाही की थी। पत्र पढ़नेसे ध्यान अच्छा हुआ सो आनन्दकी बात है। भोगोंसे वैराग्य और भजनमें प्रेम होनेके बाद ध्यान अच्छी तरह लग सकता है। आपने मिलनेकी इच्छा लिखी, केवल मिलनेमें क्या पड़ा है। तुम्हारे पिताजी, चाचाजी आदि तुम्हारी सेवाकी सराहना करें, तब मिलना सफल गिना जाय। माताके द्वारा प्रशंसा पाया हुआ पुत्र अच्छा नहीं समझा जाता है। तुमने पहले लिखा था कि पिताजीकी आज्ञा बिना ब्राह्मणकी सेवाके लिये काशीजी नहीं गया। मैंने सुना है कि पहले आपके काकाजी बीमार थे, उनकी सेवा भी तुम्हारे द्वारा पूरी नहीं बनी। तब दूसरेकी सेवा क्या बनेगी? जन्म देनेवालेकी सेवा पूरी ही करनी चाहिये। उनकी आत्मा दु:ख पायेगी तो फिर उद्धार कैसे होगा? चाहे कोई भी कष्ट हो, उनकी चाकरी तो करनी ही चाहिये, उनकी आज्ञा नहीं टालनी चाहिये। भाई हरिकृष्णने चूरूमें तुमको क्या कहा था? पूज्य पिताजीने तुमको क्या कहा था? सभी बातें याद रखकर बहुत चेष्टासे कर्तव्य पालन करना चाहिये। कलकत्तावालोंका प्रारब्ध धन्य लिखा सो धन्य तो उसीका भाग्य समझो जिसने कुछ लाभ उठाया है। तुम लाभ समझते तो सभी बातें धारण करते। तुम एक बात भी किसलिये छोड़ते हो, धारण नहीं कर सकते। तुम्हारा हमारेमें पूर्ण प्रेम होता तो हमारी बात भी किसी कामके लिये नहीं छोड़ते। शरीरको मिथ्या समझकर जिस प्रकार प्रेम बढ़े वही करते।
है न्यारो सब पंथ से प्रेम पंथ अभिराम।
नारायण यामें चलत बेग मिले पिय धाम॥
मनमें लागी चटपटी कब निरखूँ घनश्याम।
नारायण भूल्यो सभी खान पान बिश्राम॥
सुनत न काहू की कही कहै न अपनी बात।
नारायण वा रूपमें मगन रहे दिन रात॥
देह गेहकी सुधि नहीं टूट गयी जग प्रीति।
नारायण गावत फिरे प्रेम भरे रसगीत॥
ऐसा प्रेम भगवान् से होनेके बाद बेड़ा पार होनेमें देर नहीं है। मेरेसे भी प्रेम है, वह भगवान् के लिये ही हो तो कुछ हर्जा नहीं, किन्तु भगवान् से ही प्रेम होना चाहिये। तुमने लिखा कि तुम्हारे पत्रका ही आधार है, यह लिखना भूल है। आधार तो अन्न-जलका है तथा संसारिक भोगों एवं रुपयोंका है। यदि हमारे पत्रका ही आधार होता तो उसके अनुसार ही चलते। हमारे पत्रकी शरण तो उसी दिन समझी जायगी, जिस दिन हमारी लिखी हुई बातोंको प्राण जानेपर भी नहीं छोड़ोगे। सत्संग सभी जगह है, तुम्हें विश्वास हो तो पत्थर भी उपदेश देनेके लिये खड़ा हो जाय। भगवान् तो सभी जगह हैं।
सन्त जगत में सो सुखी मैं मेरी का त्याग।
नारायण गोविन्द पद दृढ़ राखत अनुराग॥
तू तू करता तू हुआ रही न मुझमें हूँ।
वारी तेरे नामकी जित देखों तित तूँ॥
इसलिये भगवान् के नामका जप और ध्यान ही सार है।
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श्रीशिवभगवानजी। शरीर और भोग सभी मिथ्या जानकर हरिके स्मरणमें हर समय मगन रहना चाहिये। चाहे लाख रुपयोंका नुकसान हो, चाहे सर्वस्व नष्ट हो जाय। हरिकी लगन ऐसी होनी चाहिये कि सर्वस्व नाश भले ही हो, भगवान् से बिछोह न हो, एक भगवान् ही मिलें—
लगन लगन सब कोइ कहै लगन कहावै सोय।
नारायण जा लगनमें तन मन दीजै खोय॥
नारायण हरि लगनमें यह पाँचों न सुहात।
विषयभोग निद्रा हँसी जगत प्रीति बहुबात॥
जैसे मिलें भगवान् शीघ्र मिलें। हर समय भगवान् के नामका जप और ध्यानमें पागलकी तरह हो जाय, तब मिलनेमें विलम्ब नहीं है। भगवान् प्रेमके अधीन हैं। ऐसे प्रेमीका प्रेम छोड़कर संसारसे मित्रता करनेवाला महामूर्ख है।
पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र
धरा धन धाम है बन्धन जीको।
बारहिं बार विषय फल खात
अघात न जात सुधारस फीको॥
आन औसन तज अभिमान
कहि सुन कान भजो सीय पी को।
पाय परमपद हाथ सों जात
गयी सो गयी अब राख रही को॥
सारा संसार मोहकी फाँसी है एक सत्-चित्-आनन्द ही अपना है। उनसे भिन्न जो कुछ है, सब मिथ्या है ऐसा जानना चाहिये। मिथ्या भोगोंको भोगते बहुत दिन हो गये, शरीरका अभिमान छोड़कर एक हरिके नामका जप हर समय करना चाहिये। एक पल भी उन हरिको किसलिये छोड़ते हो, जिसलिये छोड़ते हो, वह सब मिथ्या है। गया हुआ समय तो हाथ आता नहीं और जो शेष है उसे छोड़ना नहीं चाहिये। जबतक शरीर भस्म न हो तबतक ही इससे जो कुछ काम ले सकते हो ले लो। जो शरीरके सुखमें डूबेगा उसे सदाके लिये पछताना पड़ेगा। जबतक इस शरीरपर तुम अपना अधिकार मानते हो, तबतक जो करना है सो कर लो। एक दिन तो श्मशान भूमिमें इसकी दुर्दशा होगी वह समय निकट आता जा रहा है। रुपये और संसारका आराम, भाई, बन्धु कौन काम आयेंगे, जिनके लिये तुम अपना अनन्त आनन्द छोड़ रहे हो। अन्तमें कोई भी सहायता नहीं कर सकेगा, ऐसा जानकर परमपिता परमेश्वरके आनन्दस्वरूपको एक पल भी भूलना पूर्ण मूर्खता है।
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श्रीकृष्णदासजी दिल्ली। आपलोगोंको दिल्लीमें सत्संग, भजन, ध्यान और गीताजीके अभ्यासकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। श्रीगीताजीका प्रचार करनेवालेके समान भगवान् का कोई भी प्रेमी भक्त नहीं है। श्रीगीता अध्याय १८। ६८ में श्रीभगवान् ने कहा है। उसका अर्थ देखना चाहिये तथा गीताजीका प्रचार संसारमें करनेकी सामर्थ्य न हो तो सामर्थ्य बनानेकी चेष्टा करनी चाहिये, जो इस संसारमें निष्कामभावसे श्रीगीताजीका जितना प्रचार करता है, वह उतना ही श्रीभगवान् का अधिक प्रेमी है। इस प्रकार समझना चाहिये।
श्रीगीताजीके अभ्यासकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। तुलसीकृत रामायणका अभ्यास भी ठीक है, किन्तु श्रीगीताजीके समान तो गीताजी ही हैं और नाम-जपके सहित ध्यान करनेकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये।
रात्रिमें श्रीभगवान् का भजन, ध्यान करते हुए ही सोना चाहिये। फिर निद्रामें यदि प्राण भी चले जायँ तो कुछ हर्जा नहीं है और जब भी चेत रहे उस समय भगवान् को याद करना चाहिये।
श्रीगीताजीका अभ्यास करनेसे श्रीभगवान् की कृपासे ही श्रीगीताजीके अनुसार आचरण हो सकता है। यदि आप श्लोक नहीं पढ़ सकते तो अर्थ पढ़नेसे ही और अभ्यास करनेसे यदि धारण हो जाय तो श्रीभगवान् का दर्शन हो सकता है।
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श्रीहनुमानदासजी। साधन और भी तेज हो उसके लिये बहुत जोरसे चेष्टा करनी चाहिये। ऐसे अवसरपर भी नहीं चेतोगे तो फिर कब चेतोगे? इस प्रकार चेतानेवाला आपको दूसरा मिलना कठिन है, क्योंकि किसके क्या आपत्ति है। तुम करोड़ों जन्मोंसे संसारचक्रमें फिरते हुए आ रहे हो, अब भी नहीं चेतोगे तो फिर कब चेतोगे। श्रीनारायणदेवमें तुम्हारा पूर्ण प्रेम न होकर स्त्री, पुत्र और शरीरमें इतना प्रेम किसलिये हो रहा है? पहले भी संसारमें प्रेम रहा तब जन्म लेना पड़ा, अब तुम्हें क्या ताम्रपात्र मिल गया या बुद्धिमें फर्क पड़ गया या भ्रम हो गया, क्या बात है? लिखना चाहिये। यदि कहो कि तुम्हारा भरोसा है सो भाईजी! हमारा भरोसा यदि भजन-ध्यान कम करनेके लिये हुआ हो तो बहुत कच्चा भरोसा है। विचारनेकी बात है कि हमारा भरोसा तो भगवान् में प्रेम कम करनेवाला हुआ। इस प्रकारका भरोसा किसीका भी नहीं होना चाहिये। भगवान् में तुम्हारा प्रेम हो उसके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। हमारेमें तुम्हारा प्रेम कम रहे तो भी कुछ हर्ज नहीं, किन्तु श्रीनारायणदेवमें प्रेम कम नहीं होना चाहिये।
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श्रीज्वालाप्रसादजी कानोडिया। श्रीनारायणदेवकी भक्तिभावका प्रचार बहुत जोरसे होना चाहिये। श्रीभगवान् के घरमें धनकी कमी नहीं है। संसारमें निष्कामभावसे भक्ति करनेवाले कम हैं। सेवा करनेकी इच्छा करनेसे सेवा करनेकी सामर्थ्य और सच्ची सेवाके लिये धन जो होना चाहिये, वह उनके खजानेमें बहुत है फिर कुछ भी चिन्ता नहीं है। ऐसा समझकर सेवाका काम बहुत जोरसे होना चाहिये।
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श्रीपण्डित जेष्ठारामजी। भजन-ध्यान होते हुए ही काम करनेका अभ्यास करना चाहिये। ध्यान होते हुए अच्छी प्रकार काम हो सकता है। बातचीत करते समय नामका जप छूट सकता है, किंतु ध्यान नहीं छूट सकता। यदि ध्यान होता हो तो अभ्यास करना चाहिये, अभ्यास ही इसमें प्रधान है। मनमोहनको कभी नहीं भूलना चाहिये। काम करते समय उसको क्षण-क्षणमें याद रखना चाहिये। क्योंकि जो कुछ काम किया जाता है वह उसका ही काम है, इसलिये उसको कभी नहीं भूलना चाहिये। जिसका काम करे उसको भूलना उचित नहीं। मालिकको भूलनेका कोई कारण भी नहीं है। मालिकका साथ ही मालिकको याद करानेवाला है।
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श्रीबद्रीदासजी गोयन्दका। गोविन्द-भवन औषधालयमें लगानेके तेलमें सुगंधके लिये कुछ विदेशी वस्तु मिलायी जाती है, जिसमें कुछ गुण नहीं है, केवल शौकके लिये दी जाती है। उसकी जगह देशी वस्तु दी जा सकती हैं, उसमें गुण है, पवित्रता है। अपना तेल कम बिके तो कोई हर्ज नहीं है; क्योंकि इससे रुपया तो कमाना नहीं है। रुपया तो आपके पास भी बहुत है और श्रीभगवान् का खजाना तो अटूट है। यदि कोई विदेशी वस्तु दी जाय तो छिपानी नहीं चाहिये। शीशीपर लिख देना चाहिये। छिपाव नहीं होना चाहिये। पूज्य मालजीको तो ग्लानि कम है तथा अन्य दूसरे औषधालयोंमें भी ग्लानि कम है, इसलिये तुमको सावधान किया जाता है। मैंने सुना है कि विदेशी वस्तु लगानेके तेलमें दी जाती है एवं छिपायी भी जाती है सो निगह करनी चाहिये। अपने तो कोई भी वस्तु हो कुछ भी छिपानेकी आवश्यकता नहीं है। शीशीपर स्पष्ट उसका नाम लिख देना चाहिये, डंकेकी चोट लोगोंको कह देना चाहिये तथा समझा भी देना चाहिये।
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पूज्य श्रीहरिबक्सजी शर्मा। सविनय प्रणाम, आपका पत्र मिला। मैंने गोविन्द-भवनमें व्याख्यान दिया था, किन्तु अस्पताल और आपके ऊपर आक्रमण, बहिष्कार या विरोध करनेके लिये नहीं। अस्पतालमें आपके द्वारा सुराका प्रयोग होता है, उससे बचनेके लिये कहा था कि हरिबक्सजी नाम छिपाकर सुराका प्रयोग करते हैं। मैंने अस्पतालकी सूचीमें यह भी देखा कि संजीवनी सुराका सुरा नाम हटाकर केवल संजीवनीके नामसे बेची जाती है। आपने भी भाई नानूरामको इसी प्रकार संजीवनी सुराको केवल संजीवनीके नामसे दिया था। संजीवनी सुरा हेय है या उपादेय, इस विषयमें आपके और मेरे विचारमें मतभेद है तथा इस विषयमें आपके साथ मेरा एक मत होना भी कठिन है, क्योंकि आप उसको उपादेय समझकर प्रचार करते हैं और मैं विरोध करता हूँ।
आसवके विषयमें लिखा सो ठीक है। सुराके समान जिस आसवमें मादक द्रव्य हो, उस आसवको भी मैं तो हेय समझता हूँ, किन्तु मेरी कौन सुनता है। आपसे भी मैंने प्रार्थना की थी कि संजीवनी सुरा और चन्द्रहास आसव दया करके अस्पतालमें न रखें। संजीवनी सुराको बंद करनेके लिये तो श्रीरामजीदासजी बाजोरिया और जयदयालजी कसेराको भी संकेत किया था, किन्तु अभीतक बंद नहीं हुई। आपसे सविनय प्रार्थना है कि यह सुरा और चन्द्रहास आसव एवं सुराके ही तुल्य मादक नशेवाले आसवका प्रयोग आप न करें। मुझे अपना प्रेमी एवं सेवक समझकर यदि प्रार्थना सुन लेंगे तो मैं आपका कृतज्ञ होऊँगा। अस्पतालका बहिष्कार करनेका तो कोई कारण ही नहीं है, क्योंकि उसके डॉक्टरी विभागमें सुरा रहती ही है, यह बात सभी जानते हैं। मेरे कहनेका तात्पर्य यही था कि अस्पतालके आयुर्वेदिक विभागमें भी सुराका प्रयोग होता है, वह नहीं होना चाहिये। आपका बहिष्कार मैं कैसे कर सकता था? बहिष्कार तो सुराका किया गया था और उसीके लिये लोगोंको सावधान किया गया था। शास्त्रविषयमें जो आप तर्क किया करते हैं उससे तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती है, यह आप जानते ही हैं, उसकी तो कोई बात ही नहीं है। उसके लिये यदि मुझे दु:ख हो तो मेरी मूर्खता ही समझनी चाहिये। भविष्यमें भी न्याययुक्त तर्क करनेमें आपको संकोच नहीं करना चाहिये। मैंने ईर्ष्या-द्वेषके वश होकर आपका नाम नहीं लिया था, अपितु आपके साथ मेरा हार्दिक प्रेम है इसीलिये लिया था। इससे आपको यदि दु:ख हुआ हो तो क्षमा करें और उत्तरोत्तर प्रेम बढ़ायें। नानूरामके स्वस्थ होनेसे तो मुझे बहुत प्रसन्नता है क्योंकि वह मेरा मित्र है।
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श्रीमोहनलाल। तुम केरोसिन तेल और सूतके कामको गरीब, दु:खी भाइयोंके लिये नुकसानवाला काम समझकर, उससे घबराकर चले गये सो तुम्हारी बहुत भूल हुई। अब तुरन्त पत्र पहुँचे उसी दिन मेरे पास गोरखपुर रवाना हो जाना चाहिये। तुम्हारा दूकानके कामसे मन घबरा गया तो मेरे पास भाई हरिकिशनको पूछकर आ जाना चाहिये था। तुम्हें कोई भी मना नहीं कर सकता और लोभ छोड़कर व्यापार करनेसे केरोसिन तेल तथा सूतके कामसे गरीब भाइयोंका बहुत उपकार हो सकता है। ये बातें समझकर ही मैंने भाई हरिकिशनको बाँकुड़ा भेजा था। यह बात गुप्त रखनेकी थी, इसलिये प्रकाशित नहीं की गयी, अपितु काममें लेनेकी चेष्टा थी और तुमको भी सारी बातें कहनेकी भाई हरिकिशनकी इच्छा थी, किंतु अवकाश नहीं मिला। अपना व्यापार इस समय भी हजारों-लाखों मनुष्योंसे अच्छा है। केरोसिनमें दो पैसा रुपया तथा सूतमें एक पैसा रुपया लाभका विचार है, झूठ, कपट, चोरीका काम नहीं है। पहले तो बहुत पापका काम था उसका बहुत सुधार किया गया, अब और भी सुधार करनेकी सारी बातें भाई हरिकिशनको मैंने गोरखपुरमें समझा दी थीं, परन्तु भाई हरिकिशन तुमको कह नहीं पाया। तुमने हमारा उद्देश्य नहीं समझा। यदि तुमने रुपया इकट्ठा करना ही हमारा उद्देश्य समझा तो बहुत भूल की। खैर, अब तुम्हारी लोकसेवाकी इच्छा सच्चे हृदयसे है और मेरेपर तुम्हारा विश्वास होता हो तो पत्र देखनेके साथ तुम तुरन्त गोरखपुर चले आना। सूत, केरोसिनके काम द्वारा गरीब भाइयोंका उपकार किस प्रकार हो सकता है यह बात भी तुमको समझायी जा सकती है। इस कामपर तुम्हारा चित्त नहीं लगे तो तुम्हारी रुचिके अनुसार तुमको काम दिया जा सकता है। गोपालन, कपड़ा बनाना, खेती जिससे लोकसेवा हो या किसान लोगोंको जिस प्रकार सुविधा हो, तुम जो ठीक समझो उस कामके लिये मुझसे परामर्श करो तो तुम्हारा तथा लोगोंका बहुत ही हित हो सकता है। मेरी रायसे करनेसे बहुत सुविधा है—कार्यमें सफलता हो सकती है। नहीं तो घरवालोंको तथा तुम्हारे ससुरालवालोंको बहुत दु:ख हो सकता है। तुम्हारा तथा लोगोंका हित भी होनेकी विशेष आशा नहीं है, फिर भगवान् जानें। तुम्हारे ऊपर दबाव डालकर, पहले भी काम नहीं कराया तथा अब भी करानेकी इच्छा नहीं है। तुम हमसे भी बिना पूछे, बिना परामर्श किये ही चले गये, यह तुम्हारा बचपन ही है। विचारकर काम नहीं हुआ। कुछ स्वभाव सुधारनेकी आवश्यकता है। १-तुमको हठ बहुत है। २-सोचते नहीं हठसे मनमाना काम करते हो, कोई भी काम सोच-समझकर करना चाहिये। ३-भविष्यकी नहीं सोचते कि इसका क्या परिणाम होगा। ४-अपमान भी सहन नहीं होता। ५-जो कुछ बात होती है उसका स्पष्ट पता नहीं करते हो, इस प्रकार काम नहीं होता।
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लिखी रतनगढ़से जयदयाल हरिकृष्णका राम-राम बंचना। अपरंच श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण ३०, बुधवार,सं० १९९७ रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक किया है, आपलोगोंने भी किया होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सबकी प्रसन्नताके समाचार लिखियेगा। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये। दीपमालिका बीत गयी और बहुत-सा समय चला गया, अब कल्याणके लिये हमलोगोंको सचेत होकर अपने कर्तव्यका शीघ्र पालन कर लेना चाहिये।
यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुष:।
आत्मश्रेयपि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान्
प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश:॥
जबतक गृहरूप यह शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था दूर है, इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण नहीं हुई है और आयुका भी विशेष क्षय नहीं हुआ है, तभीतक बुद्धिमान् को अपने कल्याणके लिये विशेष प्रयत्न करना चाहिये, नहीं तो घरमें आग लग जानेपर कुआँ खोदनेका प्रयत्न करनेमें क्या होगा। अतएव—
काल भजंता आज भज आज भजंता अब।
पलमें परलय होयगी बहुरि भजैगा कब॥
दो बातनको भूल मत जो चाहत कल्यान।
नारायण इक मौतको दूजे श्रीभगवान॥
करसे कर्म करो विधि नाना।
मन राखो जहँ कृपानिधाना॥
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लिखी बाँकुड़ासे जयदयाल गोयन्दकाका सप्रेम हरिस्मरण बंचना। अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मि० कार्तिक कृष्ण ३०, सोमवार, सं० १९९८ रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ है। आपलोगोंने भी किया होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं आप सबकी प्रसन्नताके समाचार लिखियेगा। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
दीपमालिका चली गयी। इसी तरह मनुष्य-जीवनका अमूल्य समय बीता जा रहा है। हमें सचेत होकर शीघ्र ही अपने कल्याणका साधन करनेके लिये तत्पर हो जाना चाहिये। भगवान् ने भी कहा है—
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥
(गीता ६। ५)
मनुष्यको चाहिये कि अपने द्वारा अपना संसारसमुद्रसे उद्धार करे और अपनेको अधोगतिमें न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
यहाँ भगवान् ने अपने द्वारा ही अपना उद्धार करनेकी बात कहकर यह आश्वासन दिया है कि तुम यह न समझो कि प्रारब्ध बुरा है, इसलिये तुम्हारी उन्नति होगी ही नहीं। तुम्हारा उत्थान-पतन प्रारब्धके अधीन नहीं है, तुम्हारे ही हाथमें है। साधना करो और अपनेको अवनतिके गड्ढेसे निकालकर उन्नतिके शिखरपर ले जाओ। अतएव मनुष्यको बड़ी सावधानी तथा तत्परताके साथ सदा-सर्वदा अपने उत्थानकी यानी अभी जिस स्थितिमें है उससे ऊपर उठनेकी, राग-द्वेष, काम-क्रोध, भोग, आलस्य, प्रमाद और पापाचारका सर्वथा त्याग करके शम, दम, तितिक्षा, विवेक और वैराग्यादि सद्गुणोंका संग्रह करनेकी, विषय-चिन्तन छोड़कर श्रद्धा और प्रेमके साथ भजन-ध्यान तथा सेवा-सत्संगादिके द्वारा भगवान् की प्राप्ति करनेकी साधना करनी चाहिये और जबतक भगवत्प्राप्ति न हो जाय, तबतक एक क्षणके लिये भी जरा भी पीछे हटना तथा रुकना नहीं चाहिये यानी भगवत्कृपाके बलपर धीरता, वीरता और दृढ़ निश्चयके साथ अपनेको जरा भी न डिगने देकर उत्तरोत्तर उन्नतिके पथपर ही अग्रसर होते रहना चाहिये। मनुष्य अपने स्वभाव और कर्मोंमें जितना ही अधिक सुधार कर लेता है, वह उतना ही उन्नत होता है। स्वभाव और कर्मोंका सुधार ही उन्नति या उत्थान है तथा इसके विपरीत स्वभाव और कर्मोंमें दोषोंका बढ़ना ही अवनति या पतन है।
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कल मिती कार्तिक कृष्ण १४, संवत् २००५, रविवारको रात्रिके समय दीपावलीके महोत्सवपर श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन हमलोगोंने आनन्दपूर्वक किया है। आपलोगोंने भी वैसे ही किया होगा पत्र आनेसे मालूम होगा।
सदाकी भाँति दीपावलीका निश्चित समय आया और चला गया परन्तु प्रतिक्षण क्षीण होनेपर इस मनुष्य-जीवनके अमूल्य समयका हमने किस हदतक सदुपयोग किया यह विचारणीय है। केवल मनुष्यका ही शरीर ऐसा है जिसमें यह जीव इस जन्म-मरणसे सदाके लिये छूटकर परमानन्दस्वरूप परमात्माको प्राप्त कर सकता है। अगर हमने अपनी असावधानीसे इस दुर्लभ जीवनको पशुओंकी भाँति भोगोंमें ही समाप्त कर दिया तो अन्तमें पश्चात्तापके सिवा और कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। इसीलिये श्रुति हमें चेतावनी देती है—
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥
(केन उ०)
जबतक यह मनुष्यका शरीर प्राप्त है, भगवान् की कृपासे मिली हुई इन्द्रिय और अन्त:करणकी शक्ति विद्यमान है, तभीतक यदि परमात्माको जान लिया तो बहुत ठीक है यदि नहीं जाना तो बड़ी भारी हानि है। जो बुद्धिमान् मनुष्य हैं वे समस्त प्राणिमात्रमें परमात्माका चिन्तन करते हुए इस लोकसे प्रयाण करके अमरत्वको प्राप्त हो जाते हैं। सदाके लिये जन्म-मरणके बन्धनसे छूट जाते हैं।
अत: हमें इस चेतावनीपर अवश्य ध्यान देना चाहिये।
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लिखी बाँकुड़ासे जयदयाल गोयन्दकाका सप्रेम राम राम बंचना। अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन कार्तिक कृष्ण ३०, संवत् २००६, शुक्रवार रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक किया गया है। आपलोगोंने भी किया होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सबकी प्रसन्नताके समाचार लिखने चाहिये तथा सबसे सप्रेम यथायोग्य कहना चाहिये।
समय बीतता जा रहा है। मनुष्यका जन्म बहुत ही दुर्लभ है। ईश्वरकी कृपासे वह हमें प्राप्त हो गया है। ऐसा मौका पाकर अपने समयको एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये। जिस कामके लिये हम आये हैं, उसे सबसे पहले करना चाहिये। मन अधिकतर समयमें निरर्थक चिन्तन करता रहता है, यह हमारे लिये बहुत खतरेकी बात है। अत: मनको व्यर्थ चिन्तनसे हटाकर भगवान् का चिन्तन करना चाहिये; नहीं तो आगे जाकर हमें बहुत पश्चात्ताप करना पड़ेगा। श्रीतुलसीदासजीने कहा है:—
सो परत्र दु:ख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
अतएव आलस्य, प्रमाद, निद्रा, ऐश, आराम, भोग और पापको विषके समान समझकर त्याग करना चाहिये तथा भजन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय, सेवा, मन-इन्द्रियोंका संयम, सद्गुण, सदाचार, ज्ञान, वैराग्य आदिको अमृतके समान समझकर इनका श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सदा सर्वदा सेवन करना चाहिये एवं भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदिका तत्त्व रहस्य जाननेके लिये उनका कानोंसे श्रवण, आँखोंसे पठन, वाणीसे वर्णन और मनसे स्मरण करते हुए मनुष्य-जीवनको सार्थक बनाना चाहिये।
आँखमें ज्योति बहुत कम रह जानेके कारण मैं सही भी करनेमें लाचार हूँ, अत: मेरी ओरसे भविष्यमें किसी पत्रका उत्तर न जाय या देरीसे जाय तो कोई विचार न करें।
• •
कल दिन मिती कार्तिक कृष्ण ३०, संवत् २००९, शनिवारको रात्रिमें दीपावलीके महोत्सवपर हमलोगोंने श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन आनन्दपूर्वक किया है आपलोगोंने भी किया होगा।
सदाकी भाँति दीपमालिकाके महोत्सवका निश्चित समय आया और चला गया। किन्तु प्रतिक्षण क्षीण होनेवाले इस मनुष्य-जीवनके अमूल्य समयका हमने किस हदतक सदुपयोग किया, यह हमें विचारना चाहिये। केवल मनुष्यका ही शरीर ऐसा है, जिसमें यह जीव सदाके लिये जन्म-मरणसे छुटकारा पाकर परमात्माको प्राप्त कर सकता है। यदि हमने अपनी असावधानीसे इस दुर्लभ मानव-जीवनको पशुओंकी भाँति आहार, निद्रा और मैथुनमें लगा दिया तो हमारा जीवन पशु-जीवन ही समझा जायगा।
इसलिये ईश्वरकी कृपासे ऐसा दुर्लभ मानव-शरीर पाकर हमें अपना समय सर्वोच्च काममें ही बिताना चाहिये। वह काम है—परमात्माकी प्राप्ति। उसकी प्राप्तिका उपाय है—ईश्वरकी भक्ति, उत्तम गुणोंका संग्रह, उत्तम आचरणोंका सेवन, संसारसे वैराग्य और उपरति, सत्पुरुषोंका संग और सत्-शास्त्रोंका स्वाध्याय, परमात्माके तत्त्वका यथार्थ ज्ञान और इन्द्रियोंका संयम, दु:खी और अनाथोंकी निष्काम सेवा आदि-आदि। इन्हीं कामोंमें अपना समय अधिक-से-अधिक लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये।
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अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण ३०, शुक्रवार, सं० २०१० को रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ। आपलोगोंने भी किया होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। कृपया आप सबकी प्रसन्नताके समाचार लिखना और सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
जिस प्रकार हम साधन करते आ रहे हैं, उससे काम चलना कठिन है; क्योंकि बहुत काल बीत गया, किन्तु श्रद्धा, विश्वास, उत्साह, प्रेम और आदरकी कमी होनेके कारण अभीतक विशेष उन्नति देखनेमें नहीं आयी। अत: कल्याणकामी पुरुषोंको उचित है कि अब साधन तेज होनेके लिये संसार, शरीर और विषय-भोगोंको क्षणभंगुर और नाशवान् समझकर विवेक-वैराग्ययुक्त चित्तसे उत्साहके साथ प्राणपर्यन्त चेष्टा करें तथा ‘नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्मा सब जगह समभावसे व्यापक हैं’—इस प्रकार बुद्धिसे समझकर मनसे उनका निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर हर समय श्रद्धा-प्रेमपूर्वक स्मरण करते हुए श्वास या वाणीके द्वारा नामका जप करें।
भगवान् में विशुद्ध और अनन्य प्रेम होनेके लिये सम्पूर्ण जीवोंको भगवान् का स्वरूप या सबमें भगवान् का निवास समझकर तथा चेष्टामात्रको भगवान् की लीला समझते हुए शरीर और संसारमें अहंता, ममता, आसक्ति और स्वार्थको त्यागकर तन, मन, धनसे प्रसन्नता और आदरपूर्वक सबकी सेवा करनेका अभ्यास करना चाहिये।
यथाधिकार सन्ध्या-गायत्री, जप-ध्यान, पूजा-पाठ, स्तुति-प्रार्थना, नमस्कार आदि प्रात:काल और सायंकाल नित्य-नियमपूर्वक अर्थ और भावको समझते हुए भगवत्प्रीत्यर्थ श्रद्धा-भक्तिपूर्वक करने चाहिये।
रात्रिमें शयनके समय भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभावका तत्त्व-रहस्य समझते हुए उनकी शरण होकर गीता-रामायण आदिके आधारपर करुणाभावसे स्तुति-प्रार्थना करते हुए सोना चाहिये।
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जयदयाल गोयन्दकाका सप्रेम राम-राम बंचना। अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण ३०, शुक्रवार, संवत् २०१३ को रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ। आपके यहाँ भी हुआ होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सबकी प्रसन्नताके समाचार लिखें। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये। समय बीता जा रहा है, चेतना चाहिये। हमलोग जिस कामके लिये आये थे, उसे करना चाहिये। मनुष्य-जन्म सब दु:खोंके अभाव, परम शान्ति एवं परमानन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है। अत: इसके लिये तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निदंक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
इसलिये—
यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत् क्षयो नायुष:।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान्
प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश:॥
‘जबतक गृहरूप यह शरीर स्वस्थ है, जबतक वृद्धावस्था दूर है, जबतक इन्द्रियोंकी शक्ति नष्ट नहीं हुई है एवं जबतक आयुका भी विशेष क्षय नहीं हुआ है तभीतक समझदार मनुष्यको विशेष प्रयत्न कर लेना चाहिये; अन्यथा घरमें आग लग जानेपर कुआँ खोदनेके लिये परिश्रम करनेसे क्या लाभ?’
अत: हमलोगोंको प्रात: और सायंकाल अपने अधिकारके अनुसार संध्या-गायत्री, जप, ध्यान, पूजा, पाठ, सत्संग, स्वाध्याय आदि अर्थ और भावके सहित श्रद्धा, भक्ति और निष्कामभावपूर्वक नियमितरूपसे करना चाहिये तथा दुर्गुण, दुर्व्यसन, आलस्य, प्रमाद, शोक, मोह और भयका त्याग करके सद्गुण-सदाचार, भक्ति, ज्ञान-वैराग्यका सेवन करना चाहिये और सब कुछ भगवान् का है, मैं भी भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं, मैं जो कुछ कर रहा हूँ, भगवान् की आज्ञाके अनुसार उनके लिये ही कर रहा हूँ’—यह समझकर हर समय भगवान् के नाम और रूपको याद रखते हुए सबके साथ सत्यता और समतापूर्वक नि:स्वार्थभावसे व्यवहार करना चाहिये एवं शयनके समय अन्य सब संकल्पोंसे रहित होकर भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभावको याद करते हुए ही शयन करना चाहिये।
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सादर प्रेमपूर्वक हरिस्मरण। अपरंच श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण १४, मंगलवार, सं० २०१४ को यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ। आपके यहाँ भी हुआ होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सब प्रसन्न होंगे। सबसे यथायोग्य।
मनुष्यका अमूल्य समय क्षण-क्षणमें बीता जा रहा है। समयका उपयोग बहुत ही समझकर करना चाहिये। गया हुआ समय वापस नहीं आता। समयसे सब कुछ मिल सकता है; किंतु समय धन खर्च करने, याचना करने या रोने आदि किसी भी प्रकारसे नहीं मिल सकता। अत: जो समय अपने हाथमें शेष रहा है, उसे भक्ति, ज्ञान, वैराग्य सत्पुरुषोंका सङ्ग, सत्-शास्त्रोंका स्वाध्याय, मन-इन्द्रियोंका संयम, सद्गुण, सदाचार, सेवा, परोपकार और प्रात:काल, सायंकाल साधनके लिये एकान्तवास आदि उत्तम-से-उत्तम कार्यमें ही बिताना चाहिये। एक क्षण भी आलस्य, प्रमाद, भोग, दुर्गुण, दुराचार और दुर्व्यसनमें नहीं बिताना चाहिये। यदि बचे हुए समयमें आप कृतकार्य नहीं हुए तो फिर पश्चात्ताप करनेसे भी कुछ लाभ नहीं है। श्रुति कहती है—
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥
(केन० २। ५)
‘यदि इस मनुष्यशरीरमें परमात्माको जान लिया तब तो बहुत ठीक है, यदि इस शरीरके रहते-रहते उसे नहीं जान पाया तो महान् विनाश है—यही सोचकर धीर पुरुष प्राणिमात्रमें परमात्माको समझकर इस लोकसे प्रयाण करके अमृतस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।’
इसलिये परमात्माकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही ऐन्द्रियिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक, व्यावहारिक, नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति करनेमें ही अपनी आयुका शेष भाग तत्परताके साथ धैर्य और उत्साहपूर्वक निष्कामभावसे निरन्तर भगवान् को याद रखते हुए बिताना चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ बीतनेपर ऐसा सच्चा पश्चात्ताप करना चाहिये कि भविष्यमें कभी ऐसी भूल न हो एवं चलते, फिरते, सोते, जागते सब समय सबमें भगवद्बुद्धि रखते हुए भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यको समझकर श्रद्धा-भक्तिसे निष्कामभावपूर्वक उनके नाम, गुण, प्रभावका श्रवण, मनन, दर्शन और वर्णन करते रहना चाहिये।
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अपरंच श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन आज मिती कार्तिक कृष्ण १४, सोमवार, सं० २०१५ को यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ। आपके यहाँ भी हुआ होगा।
सांसारिक भोग-विलास, ऐश-आराम, स्वाद-शौकीनी आदि सभी क्षणभंगुर, नाशवान्, अनित्य और दु:खरूप हैं। इनमें एक बार तो सुख-सा प्रतीत होता है किन्तु परिणाममें दु:ख ही देनेवाले हैं। अत: इनमें बिलकुल भी आसक्त नहीं होना चाहिये। इसी प्रकार निद्रा, आलस्य, प्रमाद तथा दुर्गुण-दुराचार आदिको विषके समान समझकर इनका कतई त्याग कर देना चाहिये।
यह मनुष्य-शरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है। उत्तम देश, उत्तम काल, उत्तम जाति और उत्तम धर्मकी प्राप्ति होनेपर भी यदि आत्माके उद्धारके लिये प्रयत्न नहीं करेंगे तो फिर कब करेंगे? इस प्रकारकी अनुकूल परिस्थिति सदा रहनेवाली नहीं है। संसारके अन्य सभी कार्य तो आपके पीछे रहनेवाले उत्तराधिकारी भी सँभाल लेंगे; किन्तु यह अपने उद्धारका काम दूसरा कोई भी नहीं कर सकेगा। यह तो आपके करनेसे ही होगा। इसलिये जबतक मृत्यु दूर है, शरीर स्वस्थ है तबतक ही अपने उद्धारके लिये उत्तम-से-उत्तम कार्य बहुत शीघ्र ही कर लेने चाहिये, जिससे आगे जाकर पश्चात्ताप न करना पड़े—
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
इस संसारमें भगवान् के सिवाय आपका परम हितैषी और कोई भी नहीं है। माता, पिता, भाई, बन्धु , स्त्री, पुत्र, मकान, रुपये और सम्पत्ति आदि सभी क्षणभंगुर तथा नाशवान् हैं, कोई भी साथ जानेवाला नहीं है। औरकी तो बात ही क्या है? आपका शरीर भी यहाँ ही रह जायगा। केवल सत्संग, स्वाध्याय, भजन, ध्यान, सद्गुण, सदाचार, निष्कामसेवा, किये हुए सत्कर्म ही साथ जायँगे, इसलिये इनका सेवन विवेकपूर्वक तत्परताके साथ करना चाहिये।
आप सांसारिक क्षणभंगुर सुख प्राप्त करनेके लिये जितना प्रयत्न करते हैं। उतना यदि श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान् के लिये करें तो बहुत शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है।
यहाँ सब प्रसन्न हैं। वहाँ सब प्रसन्न होंगे? सबसे यथायोग्य।
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लिखी बाँकुड़ासे जयदयाल गोयन्दकाका सप्रेम राम-राम बंचना। अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण १४, शनिवार, संवत् २०१६ को रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ। आपके वहाँ भी हुआ होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सबकी प्रसन्नताके समाचार लिखें। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
समय बीतता जाता है, जिस कामके लिये मनुष्यका शरीर मिला है, उसको जबतक मृत्यु दूर है, तत्परतासे कर लेना चाहिये; क्योंकि कालका भरोसा नहीं है।
ऐश-आराम, स्वाद-शौकीनी, विलासिता, निद्रा-आलस्य-प्रमाद, दुर्गुण-दुराचार तथा भोगोंको नाशवान्, क्षणभंगुर तथा विषके समान समझकर इनका विवेक और वैराग्यबुद्धिसे सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये।
गुण-प्रभाव, तत्त्व-रहस्यपूर्वक भगवान् के नामका जप तथा स्वरूपका ध्यान, बड़ोंको आदरपूर्वक नमस्कार, सत्पुरुषोंका संग, सत-शास्त्रोंका स्वाध्याय, पूज्यवरोंकी तथा दु:खी प्राणियोंकी श्रद्धा, प्रेम और विनयपूर्वक सेवा एवं मन-इन्द्रियोंका संयम—इनको अमृतके समान समझकर सेवन करनेसे परम शान्ति और परमानन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र हो सकती है।
समय-समयपर मनसे अपने इष्टदेव भगवान् का आवाहन करके उनके दर्शन, भाषण, स्पर्श और वार्तालापको रसमय, आनन्दमय, प्रेममय और अमृतमय समझकर इन सबके परम मधुर चिन्तनका अभ्यास करनेसे परम दिव्य आनन्दका प्रत्यक्ष अनुभव होता है।
रात्रिमें सांसारिक संकल्पोंके प्रवाहसे रहित होकर भगवान् के परम मधुर गुण-प्रभाव, तत्त्व-रहस्य, नाम और रूपका मनन श्रद्धा-विश्वास-प्रेमपूर्वक करते हुए शयन करना चाहिये—इस प्रकार करनेसे शयनकाल साधनकालके रूपमें बदल सकता है।
नियमितरूपसे प्रात:काल तथा सायंकाल एकान्तमें बैठकर सन्ध्योपासन, गायत्री-जप, भजन-ध्यान, स्तुति-प्रार्थना, योग-वैराग्य-भक्ति और ज्ञानके भण्डाररूप गीताशास्त्रका स्वाध्याय, भगवान् की पूजा तथा उनके परम मधुर आनन्दमय स्वरूपका चिन्तन—इन सबको अर्थ और भाव समझकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निष्काम तथा गुप्तभावसे एकतार करना चाहिये।
सारा संसार भगवान् का, मैं भगवान् का, भगवान् मेरे परम हितैषी हैं—ऐसा समझकर उठते-बैठते, खाते-पीते, चलते और व्यवहार करते समयमें भगवान् को याद रखते हुए भगवान् की आज्ञाके अनुसार भगवान् के ही लिये आदर-प्रेमपूर्वक सबके हितमें रत होकर सबमें भगवद्भाव रखते हुए सबकी सेवाको साधन समझकर करनेसे व्यवहार भी साधनरूप बन सकता है। इस प्रकार अभ्यास करनेसे परमशान्ति और परमानन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति अति शीघ्र हो सकती है।
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अपरंच श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण १४, बुधवार, संवत् २०१७ को रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ। आपके वहाँ भी हुआ होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप भी सब प्रसन्न होंगे। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
मनुष्यजन्मका समय बड़ा अमूल्य है। इसलिये एक क्षण भी साधनके बिना नहीं बिताना चाहिये। आजतक जिस प्रकार शिथिलतापूर्वक समय बिताया गया है, भविष्यमें वैसा नहीं बिताना चाहिये और सचेत होना चाहिये। जीवन बीतता जा रहा है। समय बहुत कम रह गया है। यदि इसी प्रकार शिथिलतापूर्वक समय बिताते रहेंगे तो जिस परमात्माकी प्राप्तिके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, उससे वंचित रह जायँगे। फिर पश्चात्ताप करनेसे भी कार्यकी सिद्धि नहीं होगी। इसलिये एक क्षण भी व्यर्थ चला जाय तो उसके लिये अभीसे ऐसा महान् पश्चात्ताप करना चाहिये, जिसके फलस्वरूप फिर ऐसी भूल न हो।
मन, वाणी, शरीरके जिस गुण, चरित्र, आदत और क्रिया आदिको आप विवेकपूर्वक अपनी बुद्धिके द्वारा बुरा समझते हैं, उसको कभी नहीं करना चाहिये तथा मन, वाणी, शरीरके जिस गुण, चरित्र, आदत और क्रिया आदिको आप विवेकपूर्वक अपनी बुद्धिके द्वारा उत्तम-से-उत्तम समझते हैं, उसको श्रद्धा-विश्वास, प्रेम और आदरपूर्वक आचरणमें लानेके लिये तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त कोशिश करनी चाहिये।
अपने एकान्तकाल, व्यवहारकाल और शयनकाल—इन सभी समयोंको साधनके रूपमें परिणत करना चाहिये। जो परमात्माकी प्राप्तिमें सहायक नहीं है बल्कि बाधक है, उसको तो कभी करना ही नहीं चाहिये। जो कुछ भी कर्म किया जाय, वह भगवान् के अनुकूल होना चाहिये तथा अहंता-ममता-आसक्तिसे रहित होकर भगवान् की प्रसन्नताके लिये उत्साहपूर्वक निष्कामभावसे ही करना चाहिये।
सांसारिक पदार्थ इच्छा करनेमात्रसे प्राप्त नहीं होते, किंतु भगवान् इच्छा करनेसे ही मिलते हैं। इसलिये मनुष्यको सांसारिक पदार्थोंकी कभी इच्छा न करके एकमात्र भगवान् से मिलनेकी ही इच्छा करनी चाहिये।
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अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण १४, मंगलवार, संवत् २०१८ को रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ। आपके यहाँ भी हुआ होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सब भी प्रसन्न होंगे। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
समय बीतता जा रहा है। बहुत-सा समय चला गया है और गया हुआ समय वापस नहीं आता एवं जितना समय शेष रहा है, उससे अधिक समय रोने, याचना करने, धन व्यय करने आदि किसी भी उपायसे नहीं मिल सकता। अत: बचे हुए समयका सदुपयोग करना चाहिये। हमें सावधान होना चाहिये। यदि हम इस मनुष्य-जन्ममें ही उस परमात्माको जान गये तब तो ठीक है, किंतु यदि उसे इस जन्ममें नहीं जान पाये तो बड़ी भारी हानि है। श्रुति कहती है—
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
(केनोपनिषद् २। ५)
अतएव भगवान् को हर समय याद रखना चाहिये। एक क्षणके लिये भी नहीं भूलना चाहिये। यही सबसे बढ़कर सावधान रहना है। क्योंकि यदि हम अन्तकालमें भगवान् के अतिरिक्त किसी भी अन्य प्राणीका चिन्तन करते हुए मरेंगे तो गीता अ० ८ श्लो० ६ के अनुसार हम उसीको प्राप्त हो जायँगे; इससे हमें बहुत भारी हानि होगी। इसलिये हमें गीता अ०८ श्लो० ७ के अनुसार अपने मन-बुद्धिको भगवान् के अर्पण करके भगवान् के स्वरूप और चरित्रको सम्मुख रखते हुए भगवान् की आज्ञाके अनुसार भगवान् की प्रसन्नताके लिये ही अपने शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मका निष्कामभावसे आचरण करते रहना चाहिये। ऐसा करनेसे हमारा शयनकाल, साधनकाल और व्यवहारकाल सभी साधनके रूपमें परिणत हो सकते हैं।
हमें यह मनुष्य-जीवन ऐश-आराम, स्वाद-शौक, विलासिता और स्वर्गके लिये नहीं मिला है, आत्माके कल्याणके लिये ही मिला है। इसे व्यर्थ नष्ट न करके सार्थक बनाना चाहिये एवं आत्माका शीघ्र-से-शीघ्र उद्धार करनेका तत्परतासे प्राणपर्यन्त प्रयत्न करना चाहिये। दुर्गुण, दुराचार, दुर्व्यसन, निद्रा, आलस्य, प्रमाद और भोगको विषके समान समझकर उनका कतई त्याग कर देना चाहिये तथा ज्ञान, वैराग्य, ईश्वर-भक्ति, सद्गुण, सदाचारको अमृतके समान समझकर उनका निष्कामभावसे सेवन करना चाहिये। इससे निश्चय ही कल्याण हो सकता है।
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अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण १४, शनिवार, संवत् २०१९ को रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक हुआ। आपके वहाँ भी हुआ होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सब भी प्रसन्न होंगे। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
समय बीतता जा रहा है। बहुत-सा समय चला गया, गया हुआ समय वापस नहीं आता एवं जितना समय शेष है उससे अधिक समय रोने, याचना करने, विद्या, बल, धन लगाने आदि किसी भी उपायसे नहीं मिल सकता। अत: बचे हुए समयका सदुपयोग करना चाहिये। हमें सावधान होना चाहिये। यदि हम इस मनुष्य-जन्ममें ही उस परमात्माको जान गये तब तो ठीक है, किंतु यदि उसे इस जन्ममें नहीं जान पाये तो बड़ी भारी हानि है। श्रुति कहती है—
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
(केनोपनिषद् २। ५)
श्रीतुलसीदासजीने भी कहा है—
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
अतएव भगवान् को हर समय याद रखना चाहिये। एक क्षणके लिये भी नहीं भुलाना चाहिये। यही सबसे बढ़कर सावधान रहना है। क्योंकि यदि हम अन्तकालमें भगवान् के अतिरिक्त किसी भी अन्य प्राणी-पदार्थका चिन्तन करते हुए मरेंगे तो गीता अ० ८ श्लोक ६ के अनुसार हम उसीको प्राप्त हो जायँगे। इससे हमें बहुत हानि होगी। इसलिये हमें गीता अ० ८ श्लो० ७ के अनुसार हर समय भगवान् को याद रखते हुए अपने मन-बुद्धिको भगवान् के अर्पण करके भगवान् के स्वरूप और चरित्रको सन्मुख रखते हुए भगवान् के अनुसार भगवान् की प्रसन्नताके लिये ही अपने शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मका निष्कामभावसे आचरण करते रहना चाहिये। ऐसा करनेसे हमारा शयनकाल, साधनकाल और व्यवहारकाल सभी साधनके रूपमें परिणत हो सकते हैं।
हमें यह मनुष्य-जीवन ऐश-आराम, स्वाद-शौक, विलासिता और स्वर्गके लिये नहीं मिला है, आत्माके कल्याणके लिये ही मिला है। इसे व्यर्थ नष्ट न करके सार्थक बनाना चाहिये एवं आत्माका शीघ्र-से-शीघ्र उद्धार करनेका तत्परतासे प्राणपर्यन्त प्रयत्न करना चाहिये। दुर्गुण, दुराचार, दुर्व्यसन, निद्रा, आलस्य, प्रमाद और भोगको विषके समान समझकर उनका कतई त्याग कर देना चाहिये तथा ज्ञान, वैराग्य, ईश्वर-भक्ति, सद्गुण, सदाचारको अमृतके समान समझकर उनका निष्कामभावसे सेवन करना चाहिये। इससे निश्चय ही कल्याण हो सकता है।
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अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण १४, शुक्रवार, संवत् २०२० को रात्रिमें आनन्दपूर्वक हुआ। आपके वहाँ भी हुआ होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप भी प्रसन्न होंगे। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
मनुष्य-जीवनका समय बड़ा अमूल्य है। इसलिये एक क्षण भी साधनके बिना नहीं बिताना चाहिये। आजतक जिस प्रकार शिथिलतापूर्वक समय बिताया गया है, भविष्यमें वैसा नहीं बिताना चाहिये और सचेत होना चाहिये। जीवन बीतता जा रहा है। समय बहुत कम रह गया है। यदि इसी प्रकार शिथिलतापूर्वक समय बिताते रहेंगे तो जिस परमात्माकी प्राप्तिके लिये मनुष्यशरीर मिला है, उससे वंचित रह जायँगे। फिर पश्चात्ताप करनेसे भी कार्यकी सिद्धि नहीं होगी। इसलिये एक क्षण भी व्यर्थ चला जाय तो उसके लिये ऐसा महान् पश्चात्ताप करना चाहिये जिसके फलस्वरूप फिर ऐसी भूल न हो।
मन, वाणी, शरीरके जिस गुण, चरित्र, आदत और क्रिया आदिको आप विवेकपूर्वक अपनी बुद्धिके द्वारा बुरा समझते हैं, उसको कभी नहीं करना चाहिये तथा मन, वाणी, शरीरके जिस गुण, चरित्र, आदत और क्रिया आदिको आप विवेकपूर्वक अपनी बुद्धिके द्वारा उत्तम-से-उत्तम समझते हैं, उसको श्रद्धा-विश्वास, प्रेम और आदरपूर्वक आचरणमें लानेके लिये तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त विशेष कोशिश करनी चाहिये।
अपने एकान्तकाल, व्यवहारकाल और शयनकाल इन सभी समयोंको साधनके रूपमें परिणत करना चाहिये। जो परमात्माकी प्राप्तिमें सहायक नहीं है, बल्कि बाधक है, उसको तो कभी करना ही नहीं चाहिये। जो कुछ भी कार्य किया जाय, वह भगवान् के अनुकूल होना चाहिये तथा अहंता-ममता-आसक्तिसे रहित होकर भगवान् की प्रसन्नताके लिये उत्साह और श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निष्कामभावसे ही करना चाहिये।
सांसारिक पदार्थ इच्छा करनेमात्रसे प्राप्त नहीं होते, किन्तु भगवान् इच्छा करनेसे ही मिलते हैं। इसलिये मनुष्यको सांसारिक पदार्थोंकी कभी इच्छा न करके एकमात्र भगवान् की प्राप्तिके लिये ही तीव्र इच्छा करनी चाहिये।
उपर्युक्त सब काम सत्पुरुषोंके संगसे सुगम हैं। जिनके संगसे हमलोगोंमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्यपूर्वक दैवी सम्पदाके लक्षणोंका प्रादुर्भाव हो, वे ही हमारे लिये सत्पुरुष हैं।
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लिखी गोरखपुरसे जयदयाल गोयन्दकाका राम राम बंचना। अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण १४, सोमवारको रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक किया गया है। आपलोगोंने भी किया होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सबकी प्रसन्नताके समाचार लिखियेगा। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
दीपमालिका चली गयी। इसी तरह मनुष्य-जीवनका अमूल्य समय बीता जा रहा है। हमें सचेत होकर शीघ्र ही अपने कल्याणका साधन करनेके लिये तत्पर हो जाना चाहिये।
यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुष:।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान्
प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश:॥
जबतक गृहरूप यह शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था दूर है, इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण नहीं हुई है और आयुका भी विशेष क्षय नहीं हुआ है, तभीतक बुद्धिमान् को अपने कल्याणके लिये विशेष प्रयत्न करना चाहिये, नहीं तो घरमें आग लग जानेपर कुआँ खोदनेका प्रयत्न करनेसे क्या होगा। अतएव प्रत्येक भाई-बहनको अपने कल्याणके लिये नित्य नियमपूर्वक अधिक-से-अधिक संख्यामें भगवन्नामका जप करना चाहिये।
चलते-फिरते, उठते-बैठते, काम-काज करते, सब समय भगवान् को याद रखनेका अभ्यास करना चाहिये। पहले आधे घंटेके अन्तरसे, फिर पन्द्रह मिनटपर, फिर दस मिनटपर, फिर पाँच मिनटपर, इस प्रकार करते-करते निरन्तर भगवत्स्मरण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
नित्य प्रात:सायं बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये। यदि इसका अभ्यास छूट गया हो तो फिरसे प्रारम्भ कर देना चाहिये।
सबसे प्रेम बढ़ाना चाहिये। मेरे द्वारा दूसरोंका हित कैसे हो, निरन्तर यही बात सोचते रहना चाहिये। यथाशक्ति सबकी सेवा-सहायता करनी चाहिये।
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लिखी चूरूसे जयदयाल गोयन्दकाका सप्रेम राम राम बंचना। अपरंच श्रीमहालक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण ३०, रविवार रात्रिमें यहाँ आनन्दपूर्वक किया गया है। आपलोगोंने भी किया होगा। यहाँ सब प्रसन्न हैं। आप सबकी प्रसन्नताके समाचार लिखियेगा। सबसे यथायोग्य कहना चाहिये।
दीपमालिका चली गयी। इसी तरह मनुष्य-जीवनका अमूल्य समय बीतता जा रहा है। हमें सचेत होकर शीघ्र ही अपने कल्याणका साधन करनेके लिये तत्पर हो जाना चाहिये।
१.प्रत्येक भाई-बहनको अपने कल्याणके लिये नित्य नियमपूर्वक अधिक-से-अधिक संख्यामें भगवन्नामका जप करना चाहिये। रोज जितना करते हैं उससे अधिक करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
२.चलते-फिरते, उठते-बैठते, काम-काज करते, सब समय भगवान् को याद रखनेका अभ्यास करना चाहिये। पहले आध घंटेके अन्तरसे, फिर पन्द्रह मिनटपर, फिर दस मिनटपर, फिर पाँच मिनटपर, इस प्रकार करते-करते निरन्तर भगवत्स्मरण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
३.नित्य प्रात:-सायं बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये। यदि इसका अभ्यास छूट गया हो तो फिरसे प्रारम्भ कर देना चाहिये। दिनमें कम-से-कम एक बार तो अवश्य ही गुरुजनोंको प्रणाम करना चाहिये। ऐसा करनेसे घरमें कलह नहीं होता, जो कि बहुत बड़ा लाभ है तथा इससे तप, तेज, आयु , कीर्ति, विनय, बल और धर्मकी वृद्धि एवं मरनेपर उत्तम गति प्राप्त होती है।
४.चौथी बात बहुत ही कीमती है। इसे आजसे ही काममें लानेकी चेष्टा करनी चाहिये। इससे बहुत थोड़े समयमें बहुत लोगोंके भाव सुधर सकते हैं। भगवान् भी जल्दी ही मिल सकते हैं। बात कुछ कठिन भी नहीं है। सबसे प्रेम बढ़ाइये। मेरे द्वारा दूसरोंका हित कैसे हो, निरन्तर यही बात सोचते रहना चाहिये। यथाशक्ति सबकी सेवा-सहायता करनी चाहिये। स्वयं भगवान् ने गीतामें डंकेकी चोट कहा है—
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता १२। ४)
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लिखी बाँकुड़ासे जयदयाल हरिकृष्णका सप्रेम राम राम बंचना। अपरंच यहाँ श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन मिती कार्तिक कृष्ण १४, मंगलवारको रात्रिमें आनन्दपूर्वक हुआ है आपके वहाँ भी हुआ सो ठीक है।
‘शक्ति अंक’ दुबारा छप गया होगा, यदि बिक्री नहीं हुई तो नुकसानका डर है। आपलोगोंका आग्रह था नहीं तो दुबारा छापनेकी मुझे आवश्यकता नहीं दीखती थी। तुमने लिखा कि दीवाली-से-दीवालीतकके हिसाबमें कुछ उन्नति नहीं दीखती तो यह देखकर भविष्यके लिये तो सचेत होना चाहिये, नहीं तो फिर हिसाब देखनेका परिणाम ही क्या हुआ। ‘स्तोत्ररत्नावली’ छापनेके विषयमें घनश्यामसे सलाह करनी चाहिये। टाइपोंके विषयमें वह अधिक जानता है। ‘तत्त्वचिन्तामणि’ पहला भाग छपना आरम्भ हो गया होगा। अंग्रेजी कल्याणके विषयमें तुम्हारी क्या सम्मति है? क्या भविष्यमें इसके ग्राहक अधिक बन सकते हैं। भगवान् का आश्रय लेकर आध्यात्मिक उन्नतिके लिये विशेष चेष्टा होनी चाहिये। समय जा रहा है, मन और शरीरद्वारा जो भी कुछ क्रिया हो, वह सब भगवान् की ओर बढ़ानेवाली होनी चाहिये, सबका एक ही उद्देश्य होना चाहिये। अपनेको भगवान् का बना देना चाहिये।
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सप्रेम राम राम। तुम्हारा पत्र मिला, समाचार जाने। तुमने लिखा गीताप्रेस आये करीब १३ वर्ष हो रहे हैं। भगवान् की तरफ मन लग रहा है या नहीं, अनुमान नहीं लग रहा है, सो मालूम किया। हमें तो स्थिति ठीक मालूम देती है। यदि तुम वहाँ कलकत्ते रहते तो पतन हो सकता था।
तुमने लिखा शुरूमें उत्साह भी था, नियमोंके पालन, सत्संग एवं जपकी चेष्टा रहती थी। यहाँ आनेके बाद काममें बाधा आनेके कारण अभ्यासको जानकर तोड़ दिया सो मालूम किया, तुमने जपका अभ्यास जानकर तोड़ दिया यह बड़ी गलती की। काममें चाहे कितनी ही बाधा आवे, अपना सर्वस्व भी नाश हो जाय, परन्तु जपका अभ्यास जानकर बिलकुल नहीं तोड़ना चाहिये। अब पहलेकी अपेक्षा उत्साह एवं लगनके साथ और ज्यादा करना चाहिये। मनमें विश्वास रखना चाहिये कि भगवान् की कृपासे अब होगा। उनकी कृपाका आश्रय लेकर तत्परतापूर्वक करना चाहिये।
गीताप्रेसका काम भगवान् का काम समझकर जप नहीं भी हो तो कोई हर्ज नहीं है, ऐसा मनको समझाकर जपका अभ्यास तोड़ दिया तथा सत्संगकी प्रधानता नहीं रही, लिखा सो तुमने गलती की। गीताप्रेसका काम भगवान् का काम समझकर सत्संग ढीला कर देना यह तो भूलकी चीज है। जप और सत्संगकी प्रधानता रखकर गीताप्रेसका काम करना चाहिये। भगवान् गीता ८। ७, १८। ५६, ५७ में कहते हैं मेरा स्मरण करता हुआ युद्ध कर। जब युद्ध-जैसी चीज भी भगवान् को याद रखते हुए हो सकती है, तब भगवान् को याद रखते हुए काम होना तो साधारण बात है। ऐसी बात सम्भव नहीं होती तो भगवान् क्यों कहते? इसलिये भगवान् को याद रखते हुए उनका काम समझकर प्रसन्नतापूर्वक करना चाहिये, भगवान् की कृपासे हो सकता है।
काम, क्रोध, लोभ आदि दुर्गुण अब आवेंगे ही क्यों? यह मनमें निश्चय रखना चाहिये और विश्वास करना चाहिये कि भगवान् की दयासे विजय हमारी ही होगी।
दुर्गुणोंका त्याग चाहे जिस प्रकार हो उसका महत्त्व जरूर है पर निमित्त प्राप्त होनेपर कामनादि न हों, यह विशेष महत्त्वकी बात है।
जीवनका एक-एक दिन कम हो रहा है, मौत नजदीक आ रही है, यह समझकर लाभ उठाना चाहिये। गीता ९। ३३-३४ के अनुसार साधन करके जीवन बनाना चाहिये।
दूकानदारके तलपटका उदाहरण देकर तुमने लिखा मैं अपना तलपट देखता हूँ तो अँधेरा-ही-अँधेरा दीखता है। तुम तलपट देखना जानते ही नहीं हो।
भगवान् गीता ६। ४० में कहते हैं मेरा भक्त जितनी दूरतक साधन कर चुका है, वह उसका नष्ट नहीं होता है, कायम रहता है। जैसे दिल्लीसे कलकत्ता जानेवाली गाड़ीका आसनसोलमें आकर पार्ट टूट गया तो गाड़ी वहींपर रुक जायगी, किन्तु वापस दिल्ली थोड़े ही जायगी। पार्ट वगैरह ठीक होनेपर रवाना हो जायगी। इसी प्रकार जो जहाँतक साधन किया हुआ है, वह नष्ट नहीं होता है जो साधनमें अड़चन और रुकावट आती है यही पार्ट टूटना है और अड़चनोंको दूर करनेके लिये लिखा। आदमीसे पूछकर फिर साधन तेज करना है, यही गाड़ीका फिर रवाना होना है। ऐसी परिस्थितिमें मृत्यु आ जाय तो सद्गति होनी असम्भव है लिखा सो ऐसा तुम्हें नहीं मानना चाहिये। भगवान् ही गीता ६। ४० में कहते हैं उसकी असद्गति नहीं होती, तब तुमको क्यों माननी चाहिये। आचरणोंको देखकर जीवन निराधार है लिखा सो अब आधारवाला बनाओ। भगवान् की कृपासे बनानेमें कठिनता मत मानो, विश्वास करो कि अब बनेगा।
तुमने लिखा कि पहले हमारी बात माननेकी विशेष चेष्टा रहती थी अब वह कम हो गयी, आज्ञा मिले तो ठीक, नहीं तो अवहेलना होती है बल्कि बुरी भी लगती है। पहले हमारी बातकी अवहेलना की या भारी लगी हो, मेरी समझमें तो नहीं आयी, तुम्हारी भूल धारणा हो गयी है, इस प्रकार नहीं मानना चाहिये। परदोषदर्शन, परनिन्दासे नहीं बचते हो सो इसकी अवहेलना कर देनी चाहिये। रस तो लेना ही नहीं चाहिये, यह तो विष है।
परनिन्दा प्यारी लगना, पर सुख देखकर जलना, पर पीड़ामें सुख मानना यह तो बहुत नीचे दरजेकी चीज है, इससे तो बचना ही चाहिये और विश्वास करना चाहिये कि भगवान् की कृपासे हमारेमें यह दोष रह नहीं सकते, अवश्य हटेंगे। ऐसा विश्वास होनेसे फिर यह दोष ठहर नहीं सकते।
जिस उद्देश्यसे गीताप्रेसमें आया था, वह भी नहीं रहा। कम-से-कम खर्च लेकर ज्यादा-से-ज्यादा काम करना तथा यह उत्साह था कि बहुत जल्दी भगवत्प्राप्ति हो जायगी लिखा सो उत्साहमें तो कमी आनी नहीं चाहिये यह तो ज्यादा रखना चाहिये। खर्चमें वृद्धि हो गयी, काम कम हो गया, भगवत्प्राप्ति असम्भव दीख रही है सो असम्भव तो माननी ही नहीं चाहिये। यह तो भूल है। इसलिये इस मान्यताको तो बिलकुल हटा देना चाहिये। रही कामकी बात सो हम तो तुम्हारे काममें कमी मानते ही नहीं हैं, बल्कि तुम्हारे कामसे तो हमें पूरा संतोष है। खर्चके विषयमें तुमने लिखा सो तुम्हारा व्यक्तिगत खर्च तो है नहीं, कुटुम्बमें लगता है, कुटुम्ब भगवान् का है। भगवान् के काममें लगता है और गीताप्रेसके सभापतिके नाते तुम्हारे काममें कमी और खर्चमें वृद्धि मुझे तो नहीं मालूम देती और न हम मानते हैं। इसलिये तुमको बिलकुल विचार नहीं करना चाहिये।
धनके महत्त्वको हृदयसे निकाल देना चाहिये। जब शरीर शान्त हो जायगा तो यह धन कोई काम नहीं आयगा, यहींपर रह जायगा। भगवत्प्राप्तिके लिये किया हुआ साधन ही परम धन है, वही काम आयेगा। इसलिये जो कुछ भी हो इस धनको आदर नहीं देकर जो भक्तिरूप साधन है वही असली परम धन है, इसीको महत्त्व देकर इसके लिये कटिबद्ध होकर चेष्टा करनी चाहिये। व्यवहारमें जो इसकी खास आवश्यकता मालूम पड़ती है यह इस धनको महत्त्व देनेवालोंके लिये है। नहीं तो भगवान् को छोड़कर उसकी दृष्टिमें दूसरी कोई वस्तु महत्त्वकी रहती ही नहीं है।
तुमने लिखा कि सत्य बोलनेमें भी कठिनता प्रतीत होती है। अपने यहाँ सत्य बोलनेमें तो कठिनता ही नहीं है, कठिनता है, झूठ बोलनेमें, क्योंकि अपने यहाँ झूठका कोई काम भी नहीं पड़ता। यदि कोई झूठा व्यवहार करे और हमें मालूम हो जाय तो हम उसे उलाहना देते हैं। नहीं माने तो उसको रख नहीं सकते। अपने यहाँ तो न्यायपूर्वक, सत्यतापूर्वक, ईमानदारीसे काम करनेके लिये सबको कहा जाता है। यहाँसे सबको यही प्रेरणा मिलती है। हमारी नीति भी यही है और हम भीतरसे यही चाहते हैं, इसलिये तुम्हारे क्या कठिनता आती है हम समझे नहीं। कभी प्रत्यक्ष मिलनेपर समझानी चाहिये।
तुमने लिखा पिताजी कभी-कभी कहते हैं कि मैं कबतक कमाऊँगा, मेरी आयु ७१-७२ वर्षकी हो गयी, मुझे सुख नहीं मिला सो मालूम किया। तुम्हारे पिताजीके पास धनकी कमी तो है नहीं, परन्तु तुमको गीताप्रेससे छुड़ाकर व्यापारमें लगानेके लिये सब कहते हैं। यह बात नहीं सुननी चाहिये। माता-पिताकी सेवाकी बात यथाशक्ति माननी चाहिये और जो बुलानेकी बात है वह नहीं माननी चाहिये। अन्य भाइयोंकी अपेक्षा सेवाकी बात तुम मानते ही हो और यथाशक्ति करते ही हो। समय-समयपर जाते ही हो। तुमने अपने पिताजीसे धनमें तो हिस्सा लिया ही नहीं है। इसलिये सेवा करनेका कर्तव्य तो तुम्हारे दूसरे भाइयोंका है उनको करना चाहिये, परन्तु वे लोग दिलचस्पी लेते ही नहीं हैं और तुम्हारा बिना हिस्सा लिये ही सेवाका भाव रहता है और समय-समयपर जाकर करते ही हो सो ठीक है।
तुम्हारा ४,००० रु० बिहारीलालजीके पास जमा है। उन्होंने हमारे कहनेसे ही सोनेका काम तुम्हारे नामसे किया था। उसमें यदि घाटा होता तो अपना लग जाता और नफा हुआ तो अपनेको मिल गया। यह रुपया तुम्हारे नहीं लेनेसे उनको असन्तोष है। इसलिये लोभसे लेना तो ठीक नहीं है, परन्तु उनके सन्तोषके लिये स्वीकार करनेमें कोई दोषकी बात नहीं है।
तुम्हारे बड़े लड़केके विषयमें मालूम हुआ। उसको गीताप्रेसमें कामपर लगा देना चाहिये। पढ़ाईके समयमें पढ़ाई कर ले, बाकी समय कामपर लगा देना चाहिये।
हमारे बाद रहना हो सकेगा या नहीं, इसमें सन्देह है सो इस सन्देहको उठा देना चाहिये। मेरे बाद भी दस ट्रस्टी हैं उन सबको तुम्हारे अनुकूल करनेकी चेष्टा है इसलिये हमारे रहते या बादमें भी कोई जूता मारे या धक्का देवे तो भी नहीं जाना चाहिये। जो कई प्रकारकी समस्याएँ आती हैं वह भगवान् की कृपासे सब सुलझ सकती हैं। मनमें विचार ही नहीं करना चाहिये।
हमारे रहते भगवत्प्राप्तिकी आशा कर रखी थी किन्तु रास्ता कितना कटा अथवा उलटा चल पड़ा या वहींपर है पता नहीं सो उलटा तो चल नहीं सकता। साधनकी कमी होनेसे रुक सकता है अथवा मन्द गतिसे चल सकता है। इसलिये आशा रखनी चाहिये और इस आशाको उत्तरोत्तर बढ़ाना चाहिये। निराश तो कभी होना ही नहीं चाहिये।
प्रेसमें बिना भाव रखे ही प्राप्ति हो जाय तो बात दूसरी है किन्तु भगवद्भाव रहता नहीं है। भगवद्भाव तो रहना ही चाहिये, इसमें जो कमी आयी है उसकी पूर्ति करनी चाहिये। दु:ख-सुख, जय-पराजय, लाभ-हानि इसमें मनुष्य परतन्त्र है, किन्तु भावमें स्वतन्त्र है, इसलिये भाव तो रहना ही चाहिये। यदि भाव न भी हो और तुम्हारे यह श्रद्धा-विश्वास हो कि बिना भाव बने ही भगवत्प्राप्ति हो जायगी तो प्राप्ति हो सकती है। जीवनमें जो निराशा आ रही है उसको ठुकरा देना चाहिये। भगवत्कृपाका आश्रय ले लेनेके बाद जीवनमें निराशाको स्थान ही नहीं है। वह तो हर समय प्रभुकी दयाको देख-देखकर मुग्ध एवं प्रसन्न रहता है।
मेरेसे तो नि:संकोच बात करनी चाहिये। संकोच मनमें बिलकुल नहीं करना चाहिये।
गीताप्रेसके कार्यकर्ताओंके प्रति जो श्रद्धा पहले थी वह भी नहीं दीखती लिखा सो वह तो दोषदर्शन होनेके कारण कम हो गयी। अत: अब दोषदर्शन नहीं करके अब उनमें गुणबुद्धि रखनेसे फिर ठीक हो सकती है।
जीवन निराशाकी ओर जा रहा दीखता है, दम्भ पहलेकी अपेक्षा बढ़ रहा है सो तुमको ऐसी गलत धारणा नहीं बनानी चाहिये, इस गलत धारणाको ठुकरा देना चाहिये।
तुमने अपनी दशा गीता ६। ३८ की तरह लिखी सो तुमको ऐसी नहीं जाननी चाहिये। अर्जुनने भी अपनी दशा ६। ३८ की बतलायी परन्तु उनका मानना भी भगवान् ने भूल ही बतलाया था। भगवान् ने ६। ४० में कहा उसको देखना चाहिये। ६। ३९ भी बहुत ठीक है, परन्तु ६। ३८ की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहिये।
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पत्र मिला समाचार जाने।
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तुम्हारे बुखार हो गया था, कल बुखार नहीं रहा सो अच्छी बात है। हिम्मत होनेपर आज कामपर जानेका विचार लिखा सो ठीक है। हिम्मत पूरी न हो तबतक काम कम करना चाहिये तथा पथ्य दवा, सेवाका पूरा प्रबन्ध रखना चाहिये।
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मेरा स्वास्थ्य अभी पूरा ठीक नहीं है। बुखार नहीं है। लीवरमें दर्द मामूली है, दस्त अब ठीक लगता है। कमजोरी अभी है। स्वास्थ्य कुछ और ठीक होनेपर गोरखपुर जानेका विचार है।
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तुमने लिखा बाँकुड़ामें तीन दिन रह पाया, मन तो और रहनेका था, बात भी पूरी नहीं कर पाया, पर आपसे कहा नहीं सो मालूम किया, परन्तु तुम संकोच नहीं करके कह देते, दो दिन और ठहरकर बात कर लेते यह अच्छा था, तुमने नहीं कहा यह गलती की। अब कोई बात पत्रद्वारा पूछ सकते हो।
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तुमने लिखा मेरे जीवनसे मुझे संतोष नहीं है। प्रगति हो नहीं रही है सो अब करनी चाहिये। साधनमें उन्नति न होना यह तो स्वभावका दोष है। साधनमें उन्नति होना इसमें भगवान् की कृपा माननी चाहिये। साधनमें संतोष नहीं होना तो अच्छा है, क्योंकि साधनमें संतोष करनेपर उसका साधन वहींपर रुक जाता है और आगे नहीं बढ़ता। इसलिये साधनमें संतोष नहीं करके उत्तरोत्तर तेजीसे बढ़ना चाहिये।
दूकानोंके तलपटकी तरह मेरे जीवनके तलपटको कोई देखनेवाला हो तो ठीक है सो भगवान् हैं, वे सबका तलपट देखते हैं। एक-एक दिन करके मृत्यु निकट आ रही है, समझमें नहीं आ रहा है कोई जबरदस्ती साधनमें लगाये तो काम चले। सो भगवान् लगा सकते हैं। उनकी शरण होकर उनके सामने करुणभावसे रोकर स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये। उनकी कृपासे सब कुछ हो सकता है।
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कलकत्तासे १३ वर्ष पहले आया तब धन-संग्रहकी दृष्टिसे नहीं आया, प्रेसमें कम-से-कम रुपये लेकर काम खूब करूँगा, अब वैसी बात नहीं है। खर्च ज्यादा लगता है, कुछ प्रत्यक्ष कुछ सामने नहीं आता लिखा सो हम तो तुम्हारा खर्च ज्यादा नहीं मानते हैं कारण तुम्हारे-जैसा आदमी हमें ५०० रु० मासिकमें भी नहीं मिल सकता। सो तुम्हारा खर्च जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षमें लगता है उसको हम उचित ही मानते हैं। तुमको इसका कोई विचार नहीं करना चाहिये, कारण तुम्हारा खर्च हम तो ज्यादा मानते नहीं हैं, दूसरा कोई माने इसका कोई मूल्य नहीं है।
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तुमने लिखा साथमें धन-संग्रहका भी मन होता है। सब जगह इसका महत्त्व दीख रहा है। अपने प्रेसमें तथा बगीचेमें भी इसके बिना काम चलता नहीं दीखता है। मेरी परिस्थितिमें तो फर्क नहीं पड़ा पर मनमें फर्क पड़ गया। १३ वर्ष पहले धनकी परवाह नहीं थी, आज कर रहा है, सो सब मालूम किया। परन्तु प्रेसमें धनसंग्रह न्याययुक्त सच्चाईके साथ लोकोपकार और संसारके हितके लिये है इसमें दोषकी बात नहीं है। वह धन भगवान् का है, भगवान् के काममें लगता है। परन्तु धनका संग्रह व्यक्तिगत कुटुम्ब और स्वार्थबुद्धिसे करना ठीक नहीं है।
इसलिये इसको महत्त्व नहीं देना चाहिये। बगीचेवाले भाइयोंमें तथा प्रेसवाले किसी भाईमें धनसंग्रहकी वृत्तिसे उसका अनुकरण नहीं करना चाहिये। गुण किसीमें हो तो वह लेना चाहिये; परन्तु अवगुण किसीमें हो, वह बिलकुल नहीं लेना चाहिये।
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तुमने लिखा कभी-कभी मनमें विचार आ जाता है कि तुमने गीताप्रेसमें आकर गलती की। साधन भी नहीं मिला, धन भी नहीं मिला, बल्कि साधन च्युत होनेका अनुमान लग रहा है, सो सब मालूम किया। परन्तु तुम्हारी यह धारणा गलत है। साधन जो तुम्हारेसे होता है, वह भगवान् जानते हैं। कुछ हम भी अनुमान करते हैं। किन्तु कुसंगके कारण तुम्हारी गलत धारणा हो गयी है, इसको सर्वथा मिटा देनी चाहिये। धनके लिये तुम आये ही नहीं तो धन कहाँसे मिलता, इसलिये इस धनको महत्त्व नहीं देना चाहिये न पश्चात्ताप ही करना चाहिये।
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तुमने लिखा कि मेरी श्रद्धा भी पहले-जितनी नहीं रही, आपके व्यवहारमें मन दोषकी कल्पना कर लेता है। जिससे दूसरे समयमें विचार करनेपर जीवनका घोर पतन मालूम देता है सो ऐसा तुमको नहीं मानना चाहिये, यह तुम्हारी गलत धारणा है। गीताप्रेसमें जितने भी आदमी हैं हम सबसे ज्यादा श्रद्धा तुम्हारी मानते हैं। इसलिये हमारी मान्यताका आदर करना चाहिये। फिर भी ईश्वर, महात्मा और शास्त्रमें श्रद्धा बढ़ाते रहना चाहिये।
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तुमने लिखा मन कहता है कि पूज्य श्रीसेठजीसे व्यावहारिक सम्बन्ध जोड़नेसे नुकसान होता है, सो यह तुम्हारी गलत धारणा है। हमारेसे किसी भी प्रकारका सम्बन्ध जोड़नेसे नुकसान नहीं है। किसी भी अच्छे पुरुषसे किसी प्रकारका सम्बन्ध जोड़नेमें नुकसान नहीं है। उनसे तो सब प्रकारसे लाभ-ही-लाभ है। उनसे नुकसानकी धारणा बिलकुल नहीं रखनी चाहिये।
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तुमने लिखा कभी तो मन कहता है प्रेसको छोड़कर दूसरा काम करना चाहिये जिससे पूज्य श्रीसेठजीसे व्यावहारिक सम्बन्ध नहीं हो। कभी कहता है प्रेससे कुछ न लेकर व्यवसाय-सम्बन्धी कामोंसे छुट्टी लेकर थोड़े समय प्रेसका काम करना चाहिये। बाकी समय सत्संगके लिये निकालना चाहिये। व्यवस्था-सम्बन्धी कामोंमें शिकायत, निन्दा होती है, राग-द्वेष बढ़ता है, सो सब मालूम किया, परन्तु यह सब मनका धोखा है। किसीके हितके लिये कोई बात कही जाय उसमें उसकी निन्दा नहीं है, न कोई दोष ही है। प्रेससे काम करके रुपये लेनेमें कोई दोष नहीं है, भगवान् का प्रसाद समझकर लेना ही चाहिये। गीताप्रेसका काम भगवान् का काम समझकर उनको निरन्तर याद रखते हुए निष्कामभावसे काम करना भजनसे कम नहीं है। फिर तो उसके द्वारा जो कुछ होता है वह भजन ही है।
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बीकानेर राज्यके तीनों राजाओंके विषयमें एक बूढ़े नागरिककी हालतके बारेमें* लिखकर तुमने अपनी स्थिति वही लिखी सो तुम्हारी यह धारणा गलत है। यदि तुम १५ वर्ष कलकत्ता और रह जाते तो तुम्हारा पतन हो जाता। वर्तमान स्थितिमें तुम्हारे भाइयोंकी तथा कलकत्ताके और लोगोंकी जो दशा चल रही है, वह सबके सामने है। सब प्रकारसे इनकमटैक्स-सेलटैक्सकी चोरी, ब्लैक मार्केट, झूठ-कपट और नाना प्रकारके दोष घटना, झूठा बहीखाता लिखना इन सब प्रकारकी चोरियों, बेइमानीसे तुम किस प्रकार अलग रह सकते। इसलिये भगवान् ने तुम्हारी की हुई प्रार्थनासे कृपा करके गीताप्रेसमें भेज दिया, यह भगवान् की विशेष कृपा समझनी चाहिये तथा भगवान् की इस कृपाको देख-देखकर हर समय मुग्ध और प्रसन्न रहना चाहिये।
* इस विषयमें एक कहानी है। एक युवावस्थाके राजा थे। उन्होंने अपने राज्यके बड़े, बूढ़े और समझदार आदमियोंको बुलाया और उनसे पूछा कि आप सच्ची बात बताओ कि मेरे दादाजीका राज्य ठीक हुआ या मेरे पिताजीका राज्य ठीक हुआ अथवा मेरा राज्य ठीक हुआ? आपने तीनोंके राज्य देखे हैं तो किसका राज्य श्रेष्ठ हुआ? यह सुनकर सब चुप हो गये। तब उनमेंसे एक बूढ़ा आदमी बोला कि महाराज! हम आपकी प्रजा हैं, आप हमारे मालिक हैं। आपकी बातका निर्णय हम कैसे करें? हम आपकी परीक्षा नहीं कर सकते, पर मेरी बात पूछें तो मैं अपनी बात बता सकता हूँ। राजाने कहा—अच्छा, तुम अपनी बात बताओ। वह बूढ़ा आदमी बोला कि जब आपके दादाजी राज्य करते थे, उस समय मैं बीस-पचीस वर्षका जवान था। हाथमें लाठी रखता था। कुश्ती लड़ना, लाठी चलाना आदि सब मेरेको आता था। एक दिन मैं कहीं जा रहा था, जंगलमें मैंने किसीके रोनेकी आवाज सुनी। आवाजसे पता चला कि कोई स्त्री रो रही है। क्योंकि स्त्रीका पंचम स्वर होता है, षड्ज स्वर नहीं होता। मैं उधर गया तो देखा कि अच्छे वस्त्रों एवं गहनोंसे सजी एक स्त्री बैठी रो रही है। मैंने पूछा कि तू रो क्यों रही है? वह मेरेको देखकर एकदम डर गयी। मैंने उसको आश्वासन दिया कि बेटी, तुम डरो मत, अपनी बात बताओ। उसने बताया कि मैं अपने सम्बन्धियोंके साथ पीहरसे ससुराल जा रही थी। बीचमें सहसा डाकू आ गये और उनके साथ हमारे साथियोंके बीच लड़ाई छिड़ गयी। मैं डरकर जंगलमें भाग गयी। अब मेरेको पता नहीं कि पीछे क्या हुआ? अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? मेरेको पता नहीं कि पीहर किधर है और ससुराल किधर है? मैंने उससे ससुरालका गाँव पूछा तो उसने गाँवका नाम बताया। मैंने कहा कि तेरे ससुरालका गाँव नजदीक ही है, मैं तेरेको पहुँचा दूँगा, डर मत। मैंने उसके ससुरका नाम पूछा तो उसने जमीनपर लिखकर बता दिया। मैंने कहा कि मैं तेरे ससुरको जानता हूँ। मैं पहुँचा दूँगा।
रात्रिका समय था। मैं उस स्त्रीको लेकर उसके ससुरके घर पहुँचा। वहाँ सब चिन्ता कर रहे थे कि हम तो डाकुओंके साथ लड़ाईमें लग गये, उन्होंने हमारी बहूको मार डाला होगा! उसका हजारों रुपयोंका गहना था, उसको लूट लिया होगा! अब उसका पता कैसे मिले? आदि-आदि। अपनी बहूको देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उस स्त्रीने भी घरकी स्त्रियोंसे कहा कि ये पिताकी तरह बड़े स्नेहपूर्वक, आदरपूर्वक मेरेको यहाँ लाये हैं। उन्होंने मेरेसे चार-पाँच सौ रुपये लेनेके लिये आग्रह किया तो मैंने कहा कि रुपयोंके लिये मैंने काम नहीं किया है, कोई मजदूरी नहीं की है, मैंने तो अपना कर्तव्य समझकर काम किया है। उनके बहुत आग्रह करनेपर भी मैंने कुछ लिया नहीं और चला गया। मेरे चित्तमें बड़ी प्रसन्नता रही कि आज मेरेसे एक अबलाकी सेवा बन गयी! यह उस समयकी बात है, जब आपके दादाजी राज्य करते थे।
बहुत समय बीतनेपर मेरे व्यापारमें घाटा लग गया और पैसोंकी बड़ी तंगी हो गयी। तब मेरे मनमें विचार आया कि मैंने बहुत गलती की कि उस स्त्रीको छोड़ दिया! अगर मैं उसको एक थप्पड़ लगाता तो दस-पन्द्रह हजारका गहना मिल जाता। फिर आज यह तंगी नहीं भोगनी पड़ती। उसके ससुरने रुपये दिये, पर वे भी मैंने नहीं लिये। पर अब क्या हो; बात हाथसे निकल गयी! यह उस समयकी बात है, जब आपके पिताजीका राज्य था। अब तो महाराज! आपके सामने कहनेमें मेरेको शर्म आती है; क्योंकि आप मेरे पोतेकी तरह हो। पर आप पूछते हो तो कहता हूँ। अब मेरे मनमें आती है कि उस स्त्रीको डरा-धमकाकर अथवा फुसलाकर अपनी स्त्री बना लेता तो स्त्री भी आ जाती और गहना भी आ जाता! आज इस अवस्थामें दोनों मेरे काम आते। मैंने अपनी बात कह दी। आपका राज्य कैसा है—यह मैं कैसे कहूँ? राजा समझ गया कि यह बूढ़ा बहुत बुद्धिमान् है। अपनी दशा कहकर बता दिया कि जैसा राजा होता है, वैसी प्रजा होती है—‘यथा राजा तथा प्रजा’। -
तुमने लिखा आपके कहनेपर भी कोई भी ट्रस्टी काम सँभालने यहाँ नहीं आता है। पूज्य श्रीभाईजी यहाँ रहते हुए भी व्यवस्थामें पड़ना नहीं चाहते। ये सब बातें ध्यानमें आनेपर मन और दु:खित हो जाता है सो मालूम किया। परन्तु पूज्य श्रीभाईजी व्यवस्थामें नहीं पड़ना चाहते इसका तुम क्यों खयाल करते हो। वे नहीं पड़ें तो आपको और हमें तो पड़ना है। काम नहीं करनेकी अपेक्षा करना बहुत अच्छा है। तुम्हें किसी प्रकारका दु:ख नहीं करना चाहिये।
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तुमने लिखा पहले तो कोई विचार आनेपर आपके सामने रखकर निश्चिन्त हो जाते किन्तु आजकल श्रद्धा नहीं होनेसे आपके उत्तरसे सदा सन्तोष नहीं होता है। सो मालूम किया। श्रद्धा नहीं है यह बात मानो ही क्यों? न यह बात मैं मानता हूँ। जब मैं आपकी श्रद्धा मानता हूँ, आपकी मान्यताका कोई मूल्य नहीं है।
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तुमने लिखा किसके सामने क्या कहूँ? सो कोई बात हो, हमसे कहनी चाहिये। घरवालोंके सामने तो बिलकुल नहीं कहनी चाहिये। तुमने लिखा मेरी आपसे प्रार्थना है मेरी आपमें श्रद्धा नहीं भी है तो भी आप मेरे ये सब विचार साफ करके मुझे यथार्थ मार्गपर नहीं लगावेंगे? सो निगह किया। भगवान् और भगवान् की दया हमलोगोंको यथार्थ मार्गपर लगा रही है। आप मानते नहीं हैं, उनकी जितनी दया समझी जाती है, उससे भी बहुत ज्यादा है। यदि पहले भगवान् के विधान और दयाको पग-पगपर मानते तो ये सब संकल्प-विकल्प होते ही नहीं। अब भविष्यमें भगवान् के विधान एवं दयाको पग-पगपर मानते रहो तो संकल्प-विकल्प पास ही नहीं आ सकते। भगवान् की दया तो है ही। केवल माननेसे वह प्रत्यक्ष दीखने लग जाती है। फिर तो उसके आनन्द और प्रसन्नताका कोई ठिकाना नहीं रहता। संकल्प-विकल्प उसके पास आ ही कैसे सकते हैं।
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तुमने लिखा पूरी बात लिख नहीं पाया हूँ कुछ याद नहीं रहता, लिखी भी नहीं जाती तथा कहनेमें संकोच होता है सो मालूम किया। किन्तु अब तुमको बिलकुल संकोच छोड़कर सब बात लिख देनी चाहिये। यदि नहीं लिखी जाय तो तुम हमारेसे आकर मिल सकते हो। गोरखपुरमें तुम्हारे जिम्मेका काम श्रीकिशोरीलालजी या राधावल्लभको सिल्लीसे बुलाकर उनके जिम्मे लगाकर हमारेसे मिलनेके लिये आ सकते हो।
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हम तो तुम्हारी गिरी हुई अवस्था मानते ही नहीं हैं यदि तुम्हें प्रतीत हो तो भगवान् के शरण होकर उनके सामने करुणाभावसे रोकर स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये। उनकी कृपासे तुम्हारी गलत धारणा दूर हो सकती है।