मनका स्वरूप
मन क्या पदार्थ है? यह आत्म और अनात्मपदार्थके बीचमें रहनेवाली एक विलक्षण वस्तु है, यह स्वयं अनात्म और जड है, किंतु बन्ध और मोक्ष इसीके अधीन हैं—
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:।
‘बस, मन ही जगत् है, मन नहीं तो जगत् नहीं! मन विकारी है, इसका कार्य संकल्प-विकल्प करना है। यह जिस पदार्थको भलीभाँति ग्रहण करता है, स्वयं भी तदाकार बन जाता है। यह रागके साथ ही चलता है, सारे अनर्थोंकी उत्पत्ति रागसे होती है, राग न हो तो मन प्रपंचोंकी ओर न जाय। किसी भी विषयमें गुण और सौन्दर्य देखकर उसमें राग होता है, इसीसे मन उस विषयमें प्रवृत्त होता है, परंतु जिस विषयमें इसे दु:ख और दोष दीख पड़ते हैं उससे इसका द्वेष हो जाता है, फिर यह उसमें प्रवृत्त नहीं होता; यदि कभी भूलकर प्रवृत्त हो भी जाता है तो उसमें अवगुण देखकर द्वेषसे तत्काल लौट आता है, वास्तवमें द्वेषवाले विषयमें भी इसकी प्रवृत्ति रागसे ही होती है। साधारणतया यही मनका स्वरूप और स्वभाव है। अब सोचना यह है कि यह वशमें क्योंकर हो? इसके लिये उपाय भगवान् ने बतला ही दिया है—अभ्यास और वैराग्य। यही उपाय योगदर्शनमें महर्षि पतंजलिने बतलाया है—
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:।
(समाधिपाद १२)
अभ्यास और वैराग्यसे ही चित्तका निरोध होता है, अतएव अब इसी अभ्यास और वैराग्यपर विचार करना चाहिये।