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अक्रियतासे परमात्मप्राप्ति

परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण संसारमें समान रीतिसे परिपूर्ण है—‘मया ततमिदं सर्वम्’ (गीता९।४), ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’ (गीता ९। २९)। अगर कोई उसकी प्राप्ति करना चाहे तो वह कुछ भी चिन्तन न करे। जो सर्वव्यापक है, उसका चिन्तन हो ही नहीं सकता। कुछ भी चिन्तन न करनेसे हमारी स्थिति स्वत: परमात्मामें ही होती है। इसलिये परमात्मप्राप्तिका खास साधन है—कुछ भी चिन्तन न करना; न परमात्माका, न संसारका, न और किसीका। साधक जहाँ है, वहीं स्थिर हो जाय; क्योंकि वहीं परमात्मा हैं। क्रिया तो उसके लिये होती है, जो देश, काल, वस्तु आदिकी दृष्टिसे दूर हो। परन्तु जो सब जगह है, सब समय है, सब वस्तुओंमें है, सब व्यक्तियोंमें है, सब अवस्थाओंमें है, सब परिस्थितियोंमें है, सब घटनाओं आदिमें है, उसकी प्राप्तिके लिये क्रियाकी क्या जरूरत?

चुप होना, शान्त होना, कुछ न करना एक बहुत बड़ा साधन है, जिसका पता बहुतोंको नहीं है। कुछ करनेसे संसारकी प्राप्ति होती है और कुछ न करनेसे परमात्माकी प्राप्ति होती है। संसारका स्वरूप है—क्रिया (श्रम) और परमात्माका स्वरूप है—अक्रिय (विश्राम)। प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है, पर अक्रिय-तत्त्व ज्यों-का-त्यों रहता है। इतना ही नहीं, उस अक्रिय-तत्त्वसे ही सम्पूर्ण क्रियाएँ उत्पन्न होती हैं और उसीमें लीन होती हैं। क्रियासे शक्तिका ह्रास होता है और अक्रिय होनेसे शक्तिका संचय होता है। इसलिये साधक प्रत्येक क्रियासे पहले और क्रियाके अन्तमें शान्त (चिन्तनरहित) हो जाय। पहले शान्त होकर सुनेगा तो सुनी हुई बात विशेष समझमें आयेगी, पढ़ेगा तो पढ़ी हुई बात विशेष समझमें आयेगी। अन्तमें शान्त होनेसे सुनी हुई या पढ़ी हुई बातको धारण करनेकी शक्ति आयेगी। क्रिया करनेसे विषमता आती है और अक्रिय होनेसे समता आती है। इसलिये क्रिया करनेमें दो आदमी भी बराबर नहीं होते, पर कुछ न करनेमें लाखों-करोड़ों आदमी भी एक हो जाते हैं। कोई विद्वान् हो या मूर्ख हो, धनी हो या निर्धन हो, रोगी हो या नीरोग हो, निर्बल हो या बलवान् हो, योग्य हो या अयोग्य हो, कुछ न करनेमें सब एक हो जाते हैं, सबकी स्थिति परमात्मामें हो जाती है। तात्पर्य है कि अगर कुछ भी चिन्तन करेंगे तो संसारमें स्थिति होगी और कुछ भी चिन्तन नहीं करेंगे तो परमात्मामें स्थिति होगी। वास्तवमें हमारी स्थिति स्वत: परमात्मामें ही है, पर चिन्तन करनेसे इसका भान नहीं होता। इसलिये गीतामें भगवान् कहते हैं—

शनै: शनैरुपरमेद्‍बुद्‍ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥
(६।२५)

‘धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा संसारसे धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि)-को परमात्मस्वरूपमें सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।’

तात्पर्य है कि सात्त्विक बुद्धि और सात्त्विक धृतिके द्वारा क्रिया और पदार्थरूप संसारसे धीरे-धीरे उपराम हो जाय। जल्दबाजी न करे; क्योंकि जल्दबाजी करनेसे साधन बढ़िया नहीं होता। एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके सिवाय कुछ भी नहीं है—ऐसा निश्चय करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे। परमात्मा स्वत:-स्वाभाविक सद्घन, चिद्घन और आनन्दघन हैं। ‘घन’ का अर्थ होता है—ठोस। जैसे, पत्थर या काँच ठोस होता है,इसलिये उसमें सुई नहीं चुभती। परन्तु परमात्मा पत्थर या काँचसे भी ज्यादा ठोस हैं। कारण कि पत्थर या काँचमें तो अग्नि प्रविष्ट हो जाती है, पर परमात्मामें कोई भी वस्तु प्रविष्ट नहीं हो सकती। ऐसे सर्वथा ठोस परमात्माका साधक चिन्तन करता है तो उलटे उनसे दूर होता है! इसलिये वह जहाँ है, वहीं (निद्रा-आलस्य छोड़कर) बाहर-भीतरसे चुप, शान्त रहनेका स्वभाव बना ले। यह बहुत सुगम और बहुत बढ़िया साधन है। इससे बहुत शान्ति मिलेगी और सब पाप-ताप नष्ट हो जायँगे।

उपराम होनेका तात्पर्य है कि राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्व न हों। जैसे रास्तेमें चल रहे हैं तो कहीं पत्थर पड़ा है, कहीं लकड़ी पड़ी है, कहीं कागज पड़ा है, पर अपना उससे कोई मतलब नहीं होता, ऐसे ही किसी भी क्रिया और पदार्थसे अपना कोई मतलब नहीं रहे—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३। १८)। उनसे तटस्थ रहे। तटस्थ रहना भी एक विद्या है। साधक तटस्थ रहते हुए सब काम करे तो वह संसारसे असंग हो जाता है। संसारमें लाभ हो, हानि हो, आदर हो, निरादर हो, सुख हो, दु:ख हो, प्रशंसा हो, निन्दा हो, उसमें तटस्थ रहे तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। अगर वह उसमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दु:ख कर लेगा तो भोग होगा, योग नहीं। भोगीका कल्याण नहीं होता। इसलिये तुलसीदासजी महाराजने कहा है—

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार॥
(दोहावली ९४)

गीतामें आया है—

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥
(६। ३)

‘जो योग (समता)-में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।’

शम (शान्ति)-का अर्थ है—कुछ न करना। जबतक ‘करने’ के साथ सम्बन्ध है, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है और जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक अशान्ति है, दु:ख है, जन्म-मरण है। प्रकृतिके साथ सम्बन्ध ‘न करने’ से मिटेगा। कारण कि क्रिया और पदार्थ दोनों प्रकृतिके हैं। चेतन-तत्त्वमें न क्रिया है, न पदार्थ। क्रिया अनित्य है, अक्रियपना नित्य है। क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है, पर अक्रियपना नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये परमात्मप्राप्तिके लिये ‘शम’ अर्थात् कुछ न करना ही कारण है। हाँ, अगर इस शान्तिका उपभोग किया जायगा तो परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी। ‘मैं शान्त हूँ’—इस प्रकार शान्तिमें अहंकार लगानेसे और ‘बड़ी शान्ति है’—इस प्रकार शान्तिमें राजी होनेसे शान्तिका उपभोग हो जाता है। इसलिये शान्तिमें व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझे कि शान्ति स्वत: है। शान्तिका उपभोग करनेसे शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता आ जायगी अथवा नींद आ जायगी। उपभोग नहीं करनेसे शान्ति स्वत: रहेगी। बिना क्रिया और बिना अभिमानके जो स्वत: शान्ति होती है, वह ‘योग’ है। कारण कि उस शान्तिका कोई कर्ता या भोक्ता नहीं है। जहाँ कर्ता या भोक्ता होता है, वहाँ भोग होता है। भोग होनेपर संसारमें स्थिति होती है।

सम्पूर्ण क्रियाएँ और पदार्थ संसारके और संसारके लिये ही हैं। इसलिये कर्मयोगी इनको अपने और अपने लिये न मानकर संसारकी ही सेवामें लगा देता है। सेवामें लगानेसे उसका क्रिया और पदार्थरूप संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। प्रकृति श्रमरूप है और परमात्मतत्त्व विश्रामरूप है। इसलिये ज्ञानयोगी क्रिया और पदार्थसे असंग होकर विश्रामको स्वीकार करता है। विश्रामको स्वीकार करनेका तात्पर्य है—अपना जो चिन्मय सत्तामात्र स्वरूप है, उसमें स्वत:सिद्ध स्थितिका अनुभव करना। परन्तु भक्तियोगी भगवदाश्रयको स्वीकार करता है अर्थात् अपना चिन्मय सत्तामात्र स्वरूप भी जिसका अंश है, उस भगवान् के आश्रयको स्वीकार करता है। सेवा और विश्रामसे मुक्ति होती है तथा भगवदाश्रयसे प्रेमकी प्राप्ति होती है।

यह एक सिद्धान्त है कि जो सर्वव्यापक तत्त्व होता है, उसकी प्राप्ति किसी क्रियासे नहीं होती। क्रिया करते ही हम उससे अलग होते हैं। अगर हम कुछ भी क्रिया नहीं करेंगे तो उस परमात्मतत्त्वमें ही स्थिति होगी। इसलिये साधक चलते-फिरते, उठते-बैठते हरदम शान्त रहनेका स्वभाव बना ले।

हरदम शान्त रहनेमें साधकके सामने मुख्य बाधा आती है—व्यर्थ चिन्तन। जब साधक कोई भी कार्य पूरा करके थोड़ी देर शान्त बैठना चाहता है, तब उसके मनमें उन देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिका चिन्तन होने लगता है, जिनका सम्बन्ध भूतकालसे अथवा भविष्यकालसे है। भूतकाल अथवा भविष्यकालमें होनेवाली वस्तु अभी (वर्तमानमें) नहीं है; अत: व्यर्थ चिन्तनका अर्थ हुआ—‘नहीं’ का चिन्तन। जिसकी प्राप्ति कर्म-सापेक्ष है,उसका चिन्तन भी व्यर्थ चिन्तन है। जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, उसका चिन्तन भी व्यर्थ चिन्तन है।

एक चिन्तन किया जाता है और एक चिन्तन स्वत: होता है। जब किसीको प्यास लगती है, तब वह जलका चिन्तन नहीं करता, प्रत्युत जलका चिन्तन स्वत: होता है। इसी तरह साधकको भी परमात्माका चिन्तन स्वत: होना चाहिये, जो कि उसकी वास्तविक आवश्यकता है। परन्तु साधककी दशा यह होती है कि उसको परमात्माका चिन्तन तो करना पड़ता है, पर संसारका चिन्तन स्वत: होता है। वह संसारके व्यर्थ चिन्तनको मिटानेके लिये सार्थक चिन्तन (भगवान् के नाम-रूप-लीला आदिका चिन्तन, आत्मचिन्तन आदि) करनेका प्रयत्न करता है। इसका फल यह होता है कि बलपूर्वक किये हुए चिन्तनका प्रभाव भी अन्त:करणमें अंकित हो जाता है और व्यर्थ चिन्तन भी होता रहता है। यह सिद्धान्त है कि सार्थक चिन्तन करनेसे व्यर्थ चिन्तन नहीं मिटता, उलटे साधकमें इस बातका अभिमान पैदा हो जाता है कि मैंने इतनी देर बैठकर साधन किया, इतने वर्षोंतक साधन किया! परन्तु जब वह ईमानदारीसे अपनी स्थितिकी ओर देखता है, तब वह निराश हो जाता है कि इतना साधन करनेपर भी वास्तविक शान्ति नहीं मिली! व्यर्थ चिन्तनके रहते हुए साधकको न तो शान्ति मिलती है, न स्वाधीनता मिलती है और न प्रियता ही मिलती है। इतना ही नहीं, साधक निराश होकर अपनेमें असमर्थताका अनुभव करने लगता है। इस असमर्थताके कारण वह जो कार्य नहीं करना चाहिये, वह कर बैठता है और जो कार्य करना चाहिये, उसको कर नहीं पाता। इस असमर्थताके कारण ही उसको अपने कर्तव्यकी, अपने स्वरूपकी तथा अपने अंशी परमात्माकी विस्मृति हो जाती है। इस असमर्थताको मिटानेके लिये विश्राम (शान्ति)-की आवश्यकता है और विश्रामको प्राप्त करनेके लिये व्यर्थ चिन्तनको मिटानेकी आवश्यकता है।

अब इस विषयपर विचार करें कि व्यर्थ चिन्तन किन कारणोंसे होता है और उनका निराकरण कैसे हो सकता है—

(१) आवश्यक कार्य न करना—आवश्यक कार्य न करनेसे व्यर्थ चिन्तन होने लगता है। अत: साधकको चाहिये कि जिस कार्यको करना चाहिये, जिसको वह कर सकता है और जिसको वर्तमानमें करना जरूरी है, उस आवश्यक कार्यको कर दे।

(२) अनावश्यक कार्य करना—अनावश्यक कार्य करनेसे अथवा उसको करनेका विचार करनेसे व्यर्थ चिन्तन होने लगता है। जिसको नहीं करना चाहिये, जिसको कर नहीं सकते और जिसका वर्तमानसे सम्बन्ध नहीं है, वह अनावश्यक कार्य कहलाता है। अत: साधकको चाहिये कि वह अनावश्यक कार्य कभी न करे और न करनेका विचार ही करे।

(३) ममता करना—साधककी जिस वस्तु या व्यक्तिमें ममता रहती है अर्थात् जिसको वह अपना और अपने लिये मानता है, उसका चिन्तन स्वत: होता है। अत: साधकको विचार करना चाहिये कि जो मिला है और बिछुड़ जायगा, वह अपना कैसे हो सकता है?

(४) कामना करना—साधकके मनमें जिसकी कामना रहती है, उसका चिन्तन स्वत: होता है। कामनाको मिटानेके लिये साधकको यह विचार करना चाहिये कि चाहनेमात्रसे कोई वस्तु नहीं मिलती। वस्तुका मिलना प्रारब्धके अधीन है, कामनाके अधीन नहीं। अगर वस्तु मिल भी जाती है तो वह टिकती नहीं। कारण कि जो मिलता है, वह बिछुड़ जाता है, यह नियम है। संयोगका वियोग अवश्यम्भावी है। मिली हुई वस्तुसे मनुष्यकी कभी तृप्ति नहीं होती। एक कामनाकी पूर्ति होती है तो दूसरी नयी कामना पैदा हो जाती है। इस प्रकार कामनाओंका अन्त कभी नहीं आता।

(५) तादात्म्य करना—शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये माननेसे साधक व्यर्थ चिन्तनसे बच नहीं सकता। ‘यह’ को ‘मैं’ कहना विवेक-विरुद्ध है। कारण कि ‘यह’ (शरीर) कभी ‘मैं’ (स्वयं) नहीं हो सकता। शरीरका विभाग अलग है और स्वयंका विभाग अलग है।

(६) भुक्त-अभुक्तका प्रभाव—साधकने इन्द्रियोंसे जिन विषयोंका उपभोग किया है अथवा उपभोग करना चाहता है, उन भुक्त अथवा अभुक्त विषयोंका प्रभाव उसके अन्त:करणमें पड़ जाता है, जो व्यर्थ चिन्तनके रूपमें प्रकट होता है। इस प्रभावको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह व्यर्थ चिन्तनका न तो समर्थन करे और न विरोध ही करे। उसको वह न तो अपनेमें माने और न सत्य ही माने। व्यर्थ चिन्तनमें राग-द्वेष करनेसे अथवा उसको अपनेमें माननेसे उसको सत्ता मिलती है। अत: साधकको चाहिये कि वह उस व्यर्थ चिन्तनकी उपेक्षा कर दे। उपेक्षा करनेसे वह स्वत: मिट जायगा। कारण कि व्यर्थ चिन्तन स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत अस्वाभाविक है, भूलजनित है। व्यर्थ चिन्तन मिटनेपर शान्ति अर्थात् विश्राम स्वत: प्राप्त होता है। कारण कि विश्राम स्वत:सिद्ध है, कृतिसाध्य नहीं। विश्रामसे साधकको कर्तव्य-पालनकी, स्वयंको जाननेकी तथा परमात्माको माननेकी सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है, जिसके प्राप्त होनेपर मानवजीवन सफल हो जाता है।

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