भगवान् आज ही मिल सकते हैं
परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम है। इतना सुगम दूसरा कोई काम नहीं है। परन्तु केवल परमात्माकी ही चाहना रहे, साथमें दूसरी कोई भी चाहना न रहे। कारण कि परमात्माके समान दूसरा कोई है ही नहीं*।
* न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥
(गीता ११।४३)
‘हे अनन्त प्रभावशाली भगवन्! इस त्रिलोकीमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर आपसे अधिक तो हो ही कैसे सकता है!’
जैसे परमात्मा अनन्य हैं, ऐसे ही उनकी चाहना भी अनन्य होनी चाहिये। सांसारिक भोगोंके प्राप्त होनेमें तीन बातें होनी जरूरी हैं—इच्छा, उद्योग और प्रारब्ध। पहले तो सांसारिक वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छा होनी चाहिये, फिर उसकी प्राप्तिके लिये कर्म करना चाहिये। कर्म करनेपर भी उसकी प्राप्ति तब होगी, जब उसके मिलनेका प्रारब्ध होगा। अगर प्रारब्ध नहीं होगा तो इच्छा रखते हुए और उद्योग करते हुए भी वस्तु नहीं मिलेगी। इसलिये उद्योग तो करते हैं नफेके लिये, पर लग जाता है घाटा! परन्तु परमात्माकी प्राप्ति इच्छामात्रसे होती है। उसमें उद्योग और प्रारब्धकी जरूरत नहीं है। परमात्माके मार्गमें घाटा कभी होता ही नहीं, नफा-ही-नफा होता है।
एक परमात्माके सिवाय कोई भी चीज इच्छामात्रसे नहीं मिलती। कारण यह है कि मनुष्यशरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है। अपनी प्राप्तिका उद्देश्य रखकर ही भगवान् ने हमारेको मनुष्यशरीर दिया है। दूसरी बात, परमात्मा सब जगह हैं। सुईकी तीखी नोक टिक जाय, इतनी जगह भी भगवान् से खाली नहीं है। अत: उनकी प्राप्तिमें उद्योग और प्रारब्धका काम ही नहीं है। कर्मोंसे वह चीज मिलती है, जो नाशवान् होती है। अविनाशी परमात्मा कर्मोंसे नहीं मिलते। उनकी प्राप्ति उत्कट इच्छामात्रसे होती है।
पुरुष हो या स्त्री हो, साधु हो या गृहस्थ हो, पढ़ा-लिखा हो या अपढ़ हो, बालक हो या जवान हो, कैसा ही क्यों न हो, वह इच्छामात्रसे परमात्माको प्राप्त कर सकता है। परमात्माके सिवाय न जीनेकी चाहना हो, न मरनेकी चाहना हो, न भोगोंकी चाहना हो, न संग्रहकी चाहना हो। वस्तुओंकी चाहना न होनेसे वस्तुओंका अभाव नहीं हो जायगा। जो हमारे प्रारब्धमें लिखा है, वह हमारेको मिलेगा ही। जो चीज हमारे भाग्यमें लिखी है, उसको दूसरा नहीं ले सकता—‘यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्’। हमारेको आनेवाला बुखार दूसरेको कैसे आयेगा? ऐसे ही हमारे प्रारब्धमें धन लिखा है तो जरूर आयेगा। परन्तु परमात्माकी प्राप्तिमें प्रारब्ध नहीं है।
परमात्मा किसी मूल्यके बदले नहीं मिलते। मूल्यसे वही वस्तु मिलती है, जो मूल्यसे छोटी होती है। बाजारमें किसी वस्तुके जितने रुपये लगते हैं, वह वस्तु उतने रुपयोंकी नहीं होती। हमारे पास ऐसी कोई वस्तु (क्रिया और पदार्थ) है ही नहीं, जिससे परमात्माको प्राप्त किया जा सके। वह परमात्मा अद्वितीय है, सदैव है, समर्थ है, सब समयमें है और सब जगह है। वह हमारा है और हमारेमें है—‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:’ (गीता १५। १५), ‘ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८।६१)। वह हमारेसे दूर नहीं है। हम चौरासी लाख योनियोंमें चले जायँ तो भी भगवान् हमारे हृदयमें रहेंगे। स्वर्ग या नरकमें चले जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे। पशु-पक्षी या वृक्ष आदि बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे। देवता बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे। तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे। दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापी, अन्यायी-से-अन्यायी बन जायँ तो भी वे भगवान् हमारे हृदयमें रहेंगे। ऐसे सबके हृदयमें रहनेवाले भगवान् की प्राप्ति क्या कठिन होगी? पर जीनेकी इच्छा, मानकी इच्छा, बड़ाईकी इच्छा, सुखकी इच्छा, भोगकी इच्छा आदि दूसरी इच्छाएँ साथमें रहते हुए भगवान् नहीं मिलते। कारण कि भगवान् के समान तो भगवान् ही हैं। उनके समान दूसरा कोई था ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं, फिर वे कैसे मिलेंगे? केवल भगवान् की चाहना होनेसे ही वे मिलेंगे। अविनाशी भगवान् के सामने नाशवान् की क्या कीमत है? क्या नाशवान् क्रिया और पदार्थके द्वारा वे मिल सकते हैं? नहीं मिल सकते। जब साधक भगवान् से मिले बिना नहीं रह सकता, तब भगवान् भी उससे मिले बिना नहीं रहते; क्योंकि भगवान् का स्वभाव है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४। ११) ‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ।’
मान लें कि कोई मच्छर गरुड़जीसे मिलना चाहे और गरुड़जी भी उससे मिलना चाहें तो पहले मच्छर गरुड़जीके पास पहुँचेगा या गरुड़जी मच्छरके पास पहुँचेंगे? गरुड़जीसे मिलनेमें मच्छरकी ताकत काम नहीं करेगी। इसमें तो गरुड़जीकी ताकत ही काम करेगी। इसी तरह परमात्मप्राप्तिकी इच्छा हो तो परमात्माकी ताकत ही काम करेगी। इसमें हमारी ताकत, हमारे कर्म, हमारा प्रारब्ध काम नहीं करेगा, प्रत्युत हमारी चाहना ही काम करेगी। हमारी चाहनाके सिवाय और किसी चीजकी आवश्यकता नहीं है।
हम तो भगवान् के पास नहीं पहुँच सकते तो क्या भगवान् भी हमारे पास नहीं पहुँच सकते? हम कितना ही जोर लगायें, पर भगवान् के पास नहीं पहुँच सकते। परन्तु भगवान् तो हमारे हृदयमें ही विराजमान हैं! हम भगवान् को दूर मानते हैं, इसलिये भगवान् हमसे दूर होते हैं। द्रौपदीने भगवान् को ‘गोविन्द द्वारकावासिन्’ कहकर पुकारा तो भगवान् को द्वारका जाकर आना पड़ा। वह यहाँ कहती तो वे चट यहीं प्रकट हो जाते! अगर हम ऐसा मानते हैं कि भगवान् अभी नहीं मिलेंगे तो वे नहीं मिलेंगे; क्योंकि हमने आड़ लगा दी।
गोरखपुरकी एक घटना है। संवत् २००० से पहलेकी बात है। मैं गोरखपुरमें व्याख्यान देता था। वहाँ सेवारामजी नामके एक सज्जन थे, जो बैंकमें काम करते थे। एक दिन मैंने व्याख्यानमें कह दिया कि अगर आपका दृढ़ विचार हो जाय कि भगवान् आज मिलेंगे तो वे आज ही मिल जायँगे! उन सज्जनको यह बात लग गयी। उन्होंने विचार कर लिया कि हमें तो आज ही भगवान् से मिलना है। वे पुष्पमाला, चन्दन आदि ले आये कि भगवान् आयेंगे तो उनको माला पहनाऊँगा, चन्दन चढ़ाऊँगा! वे कमरा बन्द करके भगवान् के आनेकी प्रतीक्षामें बैठ गये। समयपर भगवान् के आनेकी सम्भावना भी हो गयी और सुगन्ध भी आने लगी, पर भगवान् प्रकट नहीं हुए। दूसरे दिन उन्होंने मेरेसे कहा कि आज आप मेरे घरसे भिक्षा लें। मैं कई घरोंसे भिक्षा लेकर पाता था। उस दिन उनके घर गया तो उन्होंने मेरेसे पूछा कि भगवान् मिलनेवाले थे, सुगन्ध भी आ गयी थी, फिर बाधा क्या लगी कि वे मिले नहीं? मैंने कहा कि भाई! मेरेको इसका क्या पता? परन्तु मैं तुम्हारेसे पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे मनमें यह बात आती थी कि इतनी जल्दी भगवान् कैसे मिलेंगे? वे बोले कि यह बात तो आती थी! मैंने कहा कि इसी बातने अटकाया! अगर मनमें यह बात होती कि भगवान् मेरेको अवश्य मिलेंगे, उनको मिलना ही पड़ेगा तो वे जरूर मिलते। भगवान् ऐसे कैसे जल्दी मिलेंगे—ऐसा भाव करके तुमने ही बाधा लगायी है।
अगर आप विचार कर लें कि भगवान् आज मिलेंगे तो वे आज ही मिल जायँगे! परन्तु मनमें यह छाया नहीं आनी चाहिये कि इतनी जल्दी कैसे मिलेंगे? भगवान् आपके कर्मोंसे अटकते नहीं। अगर आपके दुष्कर्मसे, पापकर्मसे भगवान् अटक जायँ तो वे मिलकर भी क्या निहाल करेंगे? परन्तु भगवान् किसी कर्मसे अटकते नहीं। ऐसी कोई शक्ति है ही नहीं, जो भगवान् को मिलनेसे रोक दे। वे न तो पापकर्मोंसे अटकते हैं, न पुण्यकर्मोंसे अटकते हैं। वे सबके लिये सुलभ हैं। अगर भगवान् हमारे पापोंसे अटक जायँ तो हमारे पाप भगवान् से भी प्रबल हुए! अगर पाप प्रबल (बलवान्) हैं तो भगवान् मिलकर भी क्या निहाल करेंगे? जो पापोंसे ही अटक जाय, उसके मिलनेसे क्या लाभ? परन्तु भगवान् इतने निर्बल नहीं हैं, जो पापोंसे अटक जायँ। उनके समान बलवान् कोई है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता ही नहीं। आपकी जोरदार इच्छा हो जाय तो आप कैसे ही हों, भगवान् तो मिलेंगे, मिलेंगे, मिलेंगे! उनको मिलना पड़ेगा, इसमें सन्देह नहीं है। परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही तो मानवजन्म मिला है, नहीं तो पशुमें और मनुष्यमें क्या फर्क हुआ?
खादते मोदते नित्यं शुनक: शूकर: खर:।
तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी॥
सूकर कूकर ऊँट खर, बड़ पशुअन में चार।
तुलसी हरि की भगति बिनु, ऐसे ही नर नार॥
देवता भोगयोनि है। वे भी चाहते हैं कि भगवान् हमारेको मिलें—‘देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिण:’ (गीता ११। ५२)। वे भगवान् को चाहते तो हैं, पर भोगोंकी इच्छाको नहीं छोड़ते। यही दशा मनुष्योंकी है। अगर आप हृदयसे भगवान् को चाहो तो उनको मिलना ही पड़ेगा, इसमें सन्देह नहीं है। पर आप ही बाधा लगा दो कि भगवान् नहीं मिलेंगे, तो फिर वे नहीं मिलेंगे! गीतामें साफ लिखा है—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(९।३०-३१)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।’
‘वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन! मेरे भक्तका पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।’
तात्पर्य है कि दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी यदि ‘अनन्यभाक्’ हो जाय अर्थात् भगवान् के सिवाय कोई चाहना न रखे तो उसको भी साधु मान लेना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय पक्का कर लिया है कि भगवान् जरूर मिलेंगे।
आप केवल भगवान् की ही इच्छा करो और कोई इच्छा मत करो। न जीनेकी इच्छा करो, न मरनेकी इच्छा करो। न मानकी इच्छा करो, न बड़ाईकी इच्छा करो। न भोगोंकी इच्छा करो, न रुपयोंकी इच्छा करो। केवल एक भगवान् की इच्छा करो तो वे मिल जायँगे। कम-से-कम मेरी बातकी परीक्षा तो करके देखो! भगवान् आपको मिलते नहीं; क्योंकि आप उनको चाहते नहीं। आपके भीतर रुपयोंकी चाहना हो तो भगवान् बीचमें कूदकर क्यों पड़ेंगे? संसारमें सबसे रद्दी वस्तु रुपया है। रुपयोंसे रद्दी चीज दूसरी कोई है ही नहीं। ऐसी रद्दी चीजमें आपका मन अटका हुआ हो तो भगवान् कैसे मिलेंगे? रुपये देकर आप भोजन, वस्त्र, सवारी आदि खरीद सकते हो, पर रुपया खुद न तो खानेके काम आता है, न पहननेके काम आता है, न सवारीके काम आता है। तात्पर्य है कि रुपये काम नहीं आते, प्रत्युत उनका खर्च काम आता है।
परमात्मा इच्छामात्रसे मिलते हैं। उनको रोकनेकी ताकत किसीमें भी नहीं है। छोटा बालक रोता है तो माँ आ ही जाती है। बालक घरका कुछ भी काम नहीं करता, उलटे काम करनेमें आपको बाधा लगाता है, पर जब वह रोने लगता है, तब सब घरवाले उसके पक्षमें हो जाते हैं। सास-ससुर, देवर-जेठ सभी कहते हैं कि बहू! बालक रो रहा है, उसको उठा ले। माँको सब काम छोड़कर बालकको उठाना पड़ता है। बालकका एकमात्र बल रोना ही है—‘बालानां रोदनं बलम्’। रोनेमें बड़ी ताकत है। आप सच्चे हृदयसे व्याकुल होकर भगवान् के लिये रोने लग जाओ तो जितने भगवान् के भक्त हुए हैं, सन्त-महात्मा हुए हैं, वे सब-के-सब आपके पक्षमें हो जायँगे और भगवान् को उलाहना देंगे कि आप मिलते क्यों नहीं? वे ही भगवान् के सास-ससुर आदि हैं!
वास्तवमें भगवान् मिले हुए ही हैं। आपकी सांसारिक इच्छा ही उनको रोक रही है। आप रुपयोंकी इच्छा करते हो, भोगोंकी इच्छा करते हो तो भगवान् उनको जबर्दस्ती नहीं छुड़ाते। अगर आप सांसारिक इच्छाएँ छोड़कर केवल भगवान् को ही चाहो तो आपको कौन रोक सकता है? आपको बाधा देनेकी किसीकी ताकत नहीं है। अगर आप भगवान् के लिये व्याकुल हो जाओ तो भगवान् भी व्याकुल हो जायँगे। आप संसारके लिये व्याकुल हो जाओ तो संसार व्याकुल नहीं होगा। आप संसारके लिये रोओ तो संसार राजी नहीं होगा। पर भगवान् के लिये रोओ तो वे भी रो पड़ेंगे।
बालक सच्चा रोता है या झूठा, यह माँ ही समझती है। बालकके आँसू तो आये नहीं, केवल ऊँ-ऊँ करता है तो माँ समझ लेती है कि यह ठगाई करता है! अगर बालक सचाईसे रो पड़े, उसके साँस ऊँचे चढ़ जायँ तो माँ सब काम भूल जायगी और चट उसको उठा लेगी। अगर माँ उस बालकके पास न जाय तो उस माँको मर जाना चाहिये! उसके जीनेका क्या लाभ! ऐसे ही सच्चे हृदयसे चाहनेवालेको भगवान् न मिलें तो भगवान् को मर जाना चाहिये!
एक साधु थे। उनके पास एक आदमी आया और उसने पूछा कि भगवान् जल्दी कैसे मिलें? साधुने कहा कि भगवान् उत्कट चाहना होनेसे मिलेंगे। उसने पूछा कि उत्कट चाहना कैसी होती है? साधुने कहा कि भगवान् के बिना रहा न जाय। वह आदमी ठीक समझा नहीं और बार-बार पूछता रहा कि उत्कट चाहना कैसी होती है? एक दिन साधुने उस आदमीसे कहा कि आज तुम मेरे साथ नदीमें स्नान करने चलो। दोनों नदीमें गये और स्नान करने लगे। उस आदमीने जैसे ही नदीमें डुबकी लगायी, साधुने उसका गला पकड़कर नीचे दबा दिया। वह आदमी थोड़ी देर नदीके भीतर छटपटाया, फिर साधुने उसको छोड़ दिया। पानीसे ऊपर आनेपर वह बोला कि तुम साधु होकर ऐसा काम करते हो! मैं तो आज मर जाता! साधुने पूछा कि बता, तेरेको क्या याद आया? माँ याद आयी, बाप याद आया, धन याद आया या स्त्री-पुत्र याद आये? वह बोला कि महाराज, मेरे तो प्राण निकले जा रहे थे, याद किसकी आती? साधु बोले कि तुम पूछते थे कि उत्कट अभिलाषा कैसी होती है, उसीका नमूना मैंने तेरेको बताया है। जब एक भगवान् के सिवाय कोई भी याद नहीं आयेगा और उनकी प्राप्तिके बिना रह नहीं सकोगे, तब भगवान् मिल जायँगे। भगवान् की ताकत नहीं है कि मिले बिना रह जायँ।
भगवान् कर्मोंसे नहीं मिलते। कर्मोंसे मिलनेवाली चीज नाशवान् होती है। कर्मोंसे धन, मान, आदर, सत्कार मिलता है। परमात्मा अविनाशी हैं। वे कर्मोंका फल नहीं हैं, प्रत्युत आपकी चाहनाका फल है। परन्तु आपको परमात्माके मिलनेकी परवाह ही नहीं है, फिर वे कैसे मिलेंगे? भगवान् मानो कहते हैं कि मेरे बिना तेरा काम चलता है तो मेरा भी तेरे बिना काम चलता है। मेरे बिना तेरा काम अटकता है तो मेरा काम भी तेरे बिना अटकता है। तू मेरे बिना नहीं रह सकता तो मैं भी तेरे बिना नहीं रह सकता।
आपमें परमात्मप्राप्तिकी जोरदार इच्छा है ही नहीं। आप सत्संग करते हो तो लाभ जरूर होगा। जितना सत्संग करोगे, विचार करोगे, उतना लाभ होगा—इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु परमात्माकी प्राप्ति जल्दी नहीं होगी। कई जन्म लग जायँगे, तब उनकी प्राप्ति होगी। अगर उनकी प्राप्तिकी जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान् को आना ही पड़ेगा। वे तो हरदम मिलनेके लिये तैयार हैं! जो उनको चाहता है, उसको वे नहीं मिलेंगे तो फिर किसको मिलेंगे? इसलिये ‘हे नाथ! हे मेरे नाथ!’ कहते हुए सच्चे हृदयसे उनको पुकारो।
सच्चे हृदयसे प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है।
तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है॥
भक्त सच्चे हृदयसे प्रार्थना करता है तो भगवान् को आना ही पड़ता है। किसीकी ताकत नहीं जो भगवान् को रोक दे। जिसके भीतर एक भगवान् के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है, न जीनेकी इच्छा है, न मरनेकी इच्छा है, न मानकी इच्छा है, न सत्कारकी इच्छा है, न आदरकी इच्छा है, न रुपयोंकी इच्छा है, न कुटुम्बकी इच्छा है, उसको भगवान् नहीं मिलेंगे तो क्या मिलेगा? आप पापी हैं या पुण्यात्मा हैं, पढ़े-लिखे हैं या अपढ़ हैं, इस बातको भगवान् नहीं देखते। वे तो केवल आपके हृदयका भाव देखते हैं—
रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करत सुरति सय बार हिए की॥
(मानस, बाल० २९।३)
वे हृदयकी बातको याद रखते हैं, पहले किये पापोंको याद रखते ही नहीं! भगवान् का अन्त:करण ऐसा है, जिसमें आपके पाप छपते ही नहीं! केवल आपकी अनन्य लालसा छपती है। भगवान् कैसे मिलें? कैसे मिलें? ऐसी अनन्य लालसा हो जायगी तो भगवान् जरूर मिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। आप और कोई इच्छा न करके, केवल भगवान् की इच्छा करके देखो कि वे मिलते हैं कि नहीं मिलते हैं! आप करके देखो तो मेरी भी परीक्षा हो जायगी कि मैं ठीक कहता हूँ कि नहीं! मैं तो गीताके बलपर कहता हूँ। गीतामें भगवान् ने कहा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (४। ११) ‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ।’ हमें भगवान् के बिना चैन नहीं पड़ेगा तो भगवान् को भी हमारे बिना चैन नहीं पड़ेगा। हम भगवान् के बिना रोते हैं तो भगवान् भी हमारे बिना रोने लग जायँगे! भगवान् के समान सुलभ कोई है ही नहीं! भगवान् कहते हैं—
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८।१४)
‘हे पृथानन्दन! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ।’
भगवान् ने अपनेको तो सुलभ कहा है, पर महात्माको दुर्लभ कहा है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७।१९)
‘बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्ममें अर्थात् मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’—इस प्रकार जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’
हरि दुरलभ नहिं जगत में, हरिजन दुरलभ होय।
हरि हेरॺाँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय॥
भगवान् के भक्त तो सब जगह नहीं मिलते, पर भगवान् सब जगह मिलते हैं। भक्त जहाँ भी निश्चय कर लेता है, भगवान् वहीं प्रकट हो जाते हैं—
आदि अन्त जन अनँत के, सारे कारज सोय।
जेहि जिव उर नहचो धरै, तेहि ढिग परगट होय॥
प्रह्लादजीके लिये भगवान् खम्भेमेंसे प्रकट हो गये—
प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े॥
(कवितावली ७।१२७)
भगवान् सबके परम सुहृद् हैं। वे पापी, दुराचारीको जल्दी मिलते हैं। माँ कमजोर बालकको जल्दी मिलती है। एक माँके दो बेटे हैं। एक बेटा तो समयपर भोजन कर लेता है, फिर कुछ नहीं लेता और दूसरा बेटा दिनभर खाता रहता है। दोनों बेटे भोजनके लिये बैठ जायँ तो माँ पहले उसको रोटी देगी जो समयपर भोजन करता है; क्योंकि वह भूखा उठ जायगा तो शामतक खायेगा नहीं। दूसरे बेटेको माँ कहती है कि तू ठहर जा; क्योंकि वह तो बकरीकी तरह दिनभर चरता रहता है। दोनों एक ही माँके बेटे हैं, फिर भी माँ पक्षपात करती है। इसी तरह जो एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं चाहता, उसको भगवान् सबसे पहले मिलते हैं; क्योंकि वह भगवान् को अधिक प्रिय है। वह एक भगवान् के सिवाय अन्य किसीको अपना नहीं मानता। वह भगवान् के लिये दु:खी होता है तो भगवान् से उसका दु:ख सहा नहीं जाता।
कोई चार-पाँच वर्षका बालक हो और उसका माँसे झगड़ा हो जाय तो माँ उसके सामने ढीली पड़ जाती है। संसारकी लड़ाईमें तो जिसमें अधिक बल होता है, वह जीत जाता है, पर प्रेमकी लड़ाईमें जिसमें प्रेम अधिक होता है, वह हार जाता है। बेटा माँसे कहता है कि मैं तेरी गोदीमें नहीं आऊँगा, पर माँ उसकी गरज करती है कि आ जा, आ जा बेटा! माँमें यह स्नेह भगवान् से ही तो आया है। भगवान् भी भक्तकी गरज करते हैं। भगवान् को जितनी गरज है, उतनी गरज दुनियाको नहीं है। माँको जितनी गरज होती है, उतनी बालकको नहीं होती। बालक तो माँका दूध पीते समय दाँतोंसे काट लेता है, पर माँ क्रोध नहीं करती। अगर वह क्रोध करे तो बालक जी सकता है क्या? माँ तो बालकपर कृपा ही करती है। ऐसे ही भगवान् हमारी अनन्त जन्मोंकी माता है। वे भक्तकी उपेक्षा नहीं कर सकते। भक्तको वे अपना मुकुटमणि मानते हैं—‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’। भक्तोंका काम करनेके लिये भगवान् हरदम तैयार रहते हैं। जैसे बच्चा माँके बिना नहीं रह सकता और माँ बच्चेके बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भक्त भगवान् के बिना नहीं रह सकता और भगवान् भक्तके बिना नहीं रह सकते।