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हम भगवान् के हैं

श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् कहते हैं—

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
(१५।७)

‘इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा (स्वयं) मेरा ही सनातन अंश है। परन्तु वह प्रकृतिमें स्थित मन और पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षित करता है अर्थात् उनको अपना मान लेता है।’

जैसे किसी पिताका कोई पुत्र होता है, उससे भी विलक्षण हम भगवान् के पुत्र हैं। परन्तु हमने भगवान् को अपना न मानकर प्रकृतिमें स्थित शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना मान लिया—यही बन्धन है। इसके सिवाय और कोई बन्धन नहीं है। जैसे शरीरमें माता-पिता दोनोंका अंश है, ऐसे हमारेमें भगवान् और प्रकृति—दोनोंका अंश नहीं है। हम केवल भगवान् के अंश हैं—‘मम एव अंश:।’ भगवान् का अंश होनेसे हम भगवान् में ही स्थित हैं, पर हमने प्रकृतिमें स्थित शरीरको अपना मान लिया—यही हमारी गलती है। प्रकृतिका अंश तो प्रकृतिमें ही स्थित रहा, हम ही अपने अंशी भगवान् से विमुख हो गये! जड़ तो सपूत ही रहा, हम ही कपूत हो गये!

अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त वस्तुएँ हैं, पर कोई भी वस्तु हमारी नहीं है, हमें निहाल करनेवाली नहीं है। अनन्त ब्रह्माण्डोंका राज्य भी मिल जाय, तो भी उससे हमें कोई लाभ होनेवाला नहीं है। जो वस्तु हमारी है ही नहीं, वह हमें निहाल कैसे कर सकती है? कर ही नहीं सकती। हम जिसके अंश हैं, जो वास्तवमें हमारा है, वही हमें निहाल कर सकता है।

हम परमात्माके अंश हैं और चेतन, मलरहित (निर्मल) तथा सहज सुखराशि हैं—

ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी॥
(मानस, उत्तर० ११७।१)

हम किसी भी योनिमें चले जायँ तो भी वैसे-के-वैसे ही ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ रहेंगे। ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण गुणोंका संग है—‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३। २१)। सत्त्वगुणके संगसे ऊर्ध्वगति होती है, रजोगुणके संगसे मध्यगति होती है और तमोगुणके संगसे अधोगति होती है*।

* ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:।
*जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:॥
(गीता १४।१८)

तात्पर्य हुआ कि गुणोंके साथ सम्बन्ध होनेसे अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके साथ सम्बन्ध माननेसे ही जन्म-मरण होता है। इसलिये साधकको आज ही, इसी समय यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि हमारा सम्बन्ध तो केवल परमात्माके साथ ही है। हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं और परमात्मामें ही रहते हैं। फिर मुक्त होनेमें कोई सन्देह नहीं है; क्योंकि हमने असली बात पकड़ ली। हमारे पास जो वस्तु है, जो योग्यता है, जो बल है, वह सब संसारका है और संसारके लिये ही है। हम परमात्माके हैं और परमात्माके लिये हैं।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्—ये सब ‘अपरा प्रकृति’ हैं और जीवरूपसे बने हुए हम ‘परा प्रकृति’ हैं। हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ है, शरीरके साथ नहीं। शरीर अपरा प्रकृति है। मैं (अहम्) और मेरा—दोनोंका सम्बन्ध संसारके साथ है। इस प्रकार निर्मम और निरहंकार होते ही तत्काल शान्ति मिल जायगी—‘निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २। ७१)। हमारा कुछ नहीं है। ममता भी हमारी नहीं है और अहंकार भी हमारा नहीं है। कामना भी हमारी नहीं है और स्पृहा भी हमारी नहीं है। इसको गीताने ब्राह्मी स्थिति कहा है—‘एषा ब्राह्मी स्थिति:’ (गीता २। ७२)। इसलिये केवल यह स्वीकार कर लें कि हम परमात्माके हैं, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है तो अभी-अभी मुक्त हो जायँगे! इसमें पाप-पुण्यका कायदा नहीं है। यह भावना ही उठा दें कि हम पापी हैं। हमारेमें पाप-ताप कुछ नहीं हैं। हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं। पाप आगन्तुक हैं और किये हुए हैं, स्वाभाविक नहीं हैं। परन्तु हम स्वाभाविक ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ हैं—इतना ही हमें जानना है। पाप पैदा और नष्ट होनेवाली वस्तु है। हम पैदा और नष्ट होनेवाली वस्तु नहीं हैं।

हम सदा परमात्माके साथ हैं और परमात्मा सदा हमारे साथ हैं। हम पापी हैं तो परमात्माके साथ हैं, पुण्यात्मा हैं तो परमात्माके साथ हैं। हम अच्छे हैं तो परमात्माके साथ हैं, मन्दे हैं तो परमात्माके साथ हैं। हमारेमें न पाप है, न पुण्य। न अच्छा है, न मन्दा। अभी हमें अनुभव न हो तो भी हम परमात्माके साथ ही हैं। कितना ही बड़ा पापी हो, रोजाना जानवरोंको काटनेवाला कसाई हो, तो भी है वह परमात्माका अंश ही! हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं, पाप-पुण्य हमें छूते ही नहीं, हमतक पहुँचते ही नहीं। इस बातको हम ठीक समझ लें तो इतनेसे मुक्ति हो जायगी।

शरीर तो संसारका है और जन्मता-मरता रहता है, पर हम वही रहते हैं—‘भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८। १९)। संसारके साथ शरीरकी एकता है, हमारी बिलकुल नहीं। समस्त पाप-ताप शरीरके साथ हैं, हमारे साथ नहीं। हम सम्पूर्ण पाप-पुण्योंसे, शुभ-अशुभ कर्मोंसे अलहदा हैं। बस, इतनी बात मान लें। हम केवल परमात्माके हैं—यह एकदम सच्ची बात है। इसको माननेमात्रसे मुक्ति हो जायगी; क्योंकि मान्यतासे ही बन्धन होता है और मान्यतासे ही मुक्ति होती है।

हम भगवान् के हैं—इस बातको अगर हम भूल जायँ तो भी यह बात वैसी-की-वैसी ही रहेगी। कारण कि भूलना अथवा न भूलना हमारी बुद्धिमें है, हमारेमें नहीं। हमारा सम्बन्ध न भूलके साथ है, न यादके साथ है। हम तो वैसे-के-वैसे ही ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ हैं। हमारेमें क्या भूलना और क्या याद करना? हम चेतन हैं और सत्त्व-रज-तम तीनों गुण जड़ हैं। हम इन गुणोंके साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं, तभी ये गुण हमें बाँधते हैं। अगर हम गुणोंको न पकड़ें तो ये कुछ नहीं करेंगे। हम स्वयं चेतन तथा असंग होते हुए भी जड़को पकड़ लेते हैं, तभी फँसते हैं। हम न पकड़ें तो गुण प्रकृतिमें ही रहेंगे—‘प्रकृतिस्थानि’, हमारे पास नहीं आयेंगे। इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है। अगर हम गुणोंका साथ न दें तो ये हमारा बाल बाँका नहीं कर सकते। इनमें ताकत ही नहीं है। हमारे लाखों जन्मोंके कैसे ही कर्म हों, सब प्रभुको अपना मानते ही नष्ट हो जाते हैं—

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
(मानस, सुन्दर० ४४।१)

पुराने पाप नष्ट हो जायँगे और नया पाप होगा ही नहीं। कारण कि पाप-कर्म तभी होता है, जब हम संसारको अपना मानकर उससे कुछ चाहते हैं। अगर संसारको अपना न मानकर, उससे कुछ न चाहकर भगवान् को अपना मान लें तो इसी क्षण अनन्त जन्मोंके पाप छूट जायँगे। भगवान् अपने हैं—यह बार-बार कहनेकी जरूरत नहीं है। जैसे, माँको हम अपना मान लेते हैं तो इसको बार-बार नहीं कहना पड़ता। माँ तो अपनी बनी हुई है, पर भगवान् अपने बने हुए नहीं हैं। माँके पेटमें आये हैं, उसका दूध पिया है, तब माँ बनी है। परन्तु भगवान् पहलेसे (सदासे) ही अपने हैं और सदा अपने रहेंगे। संसारका कोई भी सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है। अभी मर जायँ तो सभी सम्बन्ध मिट जायँगे। मिटता वही है, जो नहीं होता और टिकता वही है, जो होता है। टिकनेवाली बातको हम पकड़ लें, उधर दृष्टि कर लें—इतना ही हमारा काम है।

हम भगवान् के हैं, भगवान् हमारे हैं। शरीर संसारका है, संसार शरीरका है। हमारी और परमात्माकी एकता है। शरीर और संसारकी एकता है। इसको सन्तोंने ‘सत्संग’ कहा है। सत् का संग करना, सत् को स्वीकार करना ‘सत्संग’ है। सत्संग करें तो कोई बन्धन है ही नहीं। हमारा सम्बन्ध शरीर-संसारके साथ है ही नहीं—यह बात मान लें तो इससे बड़ा कोई काम है ही नहीं। हजारों-लाखों आदमियोंको भोजन करायें तो वह भी इसके बराबर नहीं हो सकता। हम सदासे ही शरीरसे अलग हैं। इसमें सन्देहकी कोई बात ही नहीं है। हमने अपनेको शरीर-संसारके साथ मान रखा है—इस गलत धारणाको छोड़ना है। इसको छोड़ दें तो अभी इसी क्षण मुक्ति है।

हमारेसे भूल यह होती है कि संसारके जो सम्बन्ध रहनेवाले नहीं हैं, उनको तो हम मान लेते हैं और जो सम्बन्ध सदा रहनेवाला है, उसको मानते ही नहीं! जिससे बन्धन होता है, उसको तो मान लेते हैं और जिससे मुक्ति होती है, उसको मानते ही नहीं! संसारका कोई भी सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है। कितना ही जोर लगा लें, संसारका सम्बन्ध रख सकते ही नहीं। इसी तरह कितना ही जोर लगा लें, भगवान् का सम्बन्ध तोड़ सकते ही नहीं। भगवान् में भी ताकत नहीं कि वे हमारा सम्बन्ध तोड़ दें। वे सर्वसमर्थ होते हुए भी हमें छोड़नेमें असमर्थ हैं।

मैं भगवान् का हूँ—इसका चिन्तन करनेकी जरूरत नहीं है। यह बात चिन्तनके अधीन नहीं है, प्रत्युत माननेके अधीन है। जैसे, यह खम्भा है तो अब इसमें चिन्तन क्या करें? दो और दो चार ही होते हैं, इसमें चिन्तन क्या करें? हम भगवान् के हैं—यह सच्ची बात है। सच्ची बातको मान लें तो निहाल हो जायँगे। अगर शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध होता तो शरीरके बदलनेपर हम भी बदल जाते। पर शरीर बदलता है, हम वही रहते हैं। शरीर बालक, जवान और बूढ़ा होता है, हम बालक, जवान और बूढ़े नहीं होते। हम शरीर भी नहीं हैं और शरीरी (शरीरवाले) भी नहीं हैं। हम शरीरसे अलग हैं और शरीर हमारेसे अलग है। शरीरसे अलग होनेसे ही हम एक शरीरको छोड़ते हैं और दूसरे शरीरको धारण करते हैं। हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं—यह एकदम सच्ची, पक्की और सिद्धान्तकी बात है। इसलिये हमें आज ही सुनना, पढ़ना, सीखना आदि बन्द करके जानना और मानना आरम्भ कर देना चाहिये। अनन्त ब्रह्माण्डोंमें एक भी वस्तु अपनी नहीं है, यहाँतक कि ये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि भी अपने नहीं हैं—यह जानना है, और केवल भगवान् ही अपने हैं—यह मानना है। सुनने, पढ़ने, सीखने आदिसे हम विद्वान् बन सकते हैं, वक्ता बन सकते हैं, लेखक बन सकते हैं, पर हमारा बन्धन ज्यों-का-त्यों रहेगा। परन्तु ‘हमारा कोई नहीं है’—ऐसा जान लें तो हम मुक्त हो जायँगे और ‘केवल प्रभु ही हमारे हैं’—ऐसा मान लें तो हम भक्त हो जायँगे।

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