कल्याणके तीन सुगम मार्ग
श्रीभगवान् कहते हैं—
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्॥
(श्रीमद्भा० ११।२०। ६)
‘अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योग बताये हैं—ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है।’
प्रत्येक मनुष्य वास्तवमें साधक है। कारण कि चौरासी लाख योनियोंमें भटकते हुए जीवको यह मनुष्यशरीर केवल अपना कल्याण करनेके लिये ही मिला है। किसी आकृतिविशेषका नाम मनुष्य नहीं है, प्रत्युत मनुष्य वह है, जिसमें सत् और असत् तथा कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक हो। यह विवेक अनादि और भगवत्प्रदत्त है। इस विवेकको महत्त्व देकर मनुष्य ज्ञानयोगी, कर्मयोगी अथवा भक्तियोगी बन सकता है और सुगमतापूर्वक अपना कल्याण कर सकता है। मिले हुए और बिछुड़नेवाले शरीरका नाम मनुष्य नहीं है। शरीर तो केवल कर्म-सामग्री है, जिसका उपयोग केवल दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है। परन्तु जब मनुष्य मिले हुए और बिछुड़नेवाले शरीर, वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदिको अपना और अपने लिये मान लेता है, तब वह कोई-सा भी योगी नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है। भोगी व्यक्ति स्वयं भी दु:ख पाता है और दूसरोंको भी दु:ख देता है; क्योंकि दु:खी व्यक्ति ही दूसरोंको दु:ख देता है—यह सिद्धान्त है।
मनुष्यशरीर अपना कल्याण करनेके लिये ही मिला है, इसलिये किसी भी मनुष्यको अपने कल्याणसे निराश नहीं होना चाहिये। मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका जन्मसिद्ध अधिकार है। साधक होनेके नाते मनुष्यमात्र अपने साध्यको प्राप्त करनेमें स्वतन्त्र एवं समर्थ है। सबसे पहले इस बातकी आवश्यकता है कि मनुष्य अपने उद्देश्यको पहचानकर यह स्वीकार करे कि मैं संसारी नहीं हूँ, प्रत्युत साधक हूँ। मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं अन्त्यज हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं वानप्रस्थ हूँ, मैं संन्यासी हूँ आदि मान्यताएँ सांसारिक व्यवहार (मर्यादा)-के लिये तो ठीक हैं, पर परमात्मप्राप्तिमें ये बाधक हैं। ये मान्यताएँ शरीरको लेकर हैं। परमात्मप्राप्ति शरीरको नहीं होती, प्रत्युत साधकको होती है। साधक अशरीरी होता है। जब मनुष्य अपनेको साधक स्वीकार कर लेता है, तब उसके द्वारा असाधनका त्याग स्वत: होने लगता है। मिले हुए और बिछुड़नेवाले शरीर, वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदिको अपना और अपने लिये मानना ही असाधन है। इस असाधनको मिटाना प्रत्येक साधकके लिये आवश्यक है।
जगत्, जीव और परमात्मा—इन तीनोंके सिवाय अन्य कोई नहीं है। गीतामें इन तीनोंका विभिन्न नामोंसे वर्णन हुआ है; जैसे—परा, अपरा और भगवान्; क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम आदि। इन तीनोंमें जगत् और जीव—ये दोनों विचारके विषय होनेसे ‘लौकिक’ हैं*।
* द्वाविमौपुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षरएवच।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥
(गीता १५। १६)
परन्तु परमात्मा विचारका विषय न होनेसे ‘अलौकिक’ हैं १।
१.उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत:।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्ययईश्वर:॥
(गीता १५।१७)
इन तीनोंमें जीवको लेकर ज्ञानयोग, जगत् को लेकर कर्मयोग और परमात्माको लेकर भक्तियोग चलता है। इसलिये ज्ञानयोग तथा कर्मयोग—ये दोनों ‘लौकिक साधन’ हैं २ और भक्तियोग ‘अलौकिक साधन’ है।
२.लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥
(गीता ३।३)
लौकिक साधनसे मुक्ति होती है और अलौकिक साधनसे परमप्रेमकी प्राप्ति होती है।
मनुष्यमात्रके भीतर बीजरूपसे एक तो मुक्ति (अखण्ड आनन्द)-की माँग रहती है, दूसरी दु:खनिवृत्तिकी माँग रहती है और तीसरी परमप्रेमकी माँग रहती है। मुक्तिकी माँग (स्वयंकी भूख) ज्ञानयोगसे, दु:खनिवृत्तिकी माँग कर्मयोगसे और परमप्रेमकी माँग भक्तियोगसे पूरी होती है। अगर साधकमें अपने साधनका आग्रह, पक्षपात न हो तो एक माँगकी पूर्तिसे तीनों माँगें पूर्ण हो जाती हैं।
ज्ञानयोगका मार्ग
मनुष्यमात्रको ‘मैं हूँ’—इस रूपमें अपनी एक सत्ताका अनुभव होता है। इस सत्तामें अहम् (‘मैं’) मिला हुआ होनेसे ही ‘हूँ’ के रूपमें अपनी एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है। यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूपमें सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी। वह सर्वदेशीय सत्ता ही मनुष्यका वास्तविक स्वरूप है। उस सत्तामें अहम् (जड़ता) नहीं है। जब मनुष्य अहम् को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’)-को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है।
संसारका स्वरूप है—क्रिया और पदार्थ। क्रिया और पदार्थ—दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं। प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक पदार्थकी उत्पत्ति और विनाश होता है। मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है। जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसारकी सेवामें ही हो सकता है। अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है। कारण कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु अपनी नहीं होती—यह सिद्धान्त है। जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह अपने लिये भी नहीं होती। अपनी वस्तु वह होती है, जिसपर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पानेके बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे। परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओंपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता। हम अपनी इच्छाके अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको रख नहीं सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते। उनकी प्राप्तिके बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात् अभाव बना रहता है। इस अभावकी कभी पूर्ति नहीं होती। इसलिये साधकको चाहिये कि वह इस सत्यको स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है।
मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है। निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली हुई वस्तुओंका सदुपयोग सुगमतासे होने लगता है। कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओंका सदुपयोग नहीं हो सकता। ममतावाले मनुष्यके द्वारा प्राप्त वस्तुओंका दुरुपयोग ही होता है। भोग और संग्रह करना ही प्राप्त वस्तुओंका दुरुपयोग है और उनको दूसरोंकी सेवामें लगाना ही उनका सदुपयोग है। प्राप्त वस्तुओंके दुरुपयोगसे समाजमें संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोगसे समाजमें शान्तिकी स्थापना होती है।
मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुओंको अपना और अपने लिये मानना मनुष्यकी भूल है। जब स्वयं चेतन तथा अविनाशी है तो फिर जड़ तथा नाशवान् वस्तु अपनी और अपने लिये कैसे हुई? यह भूल स्वत:-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके द्वारा उत्पन्न की हुई (कृत्रिम) है। अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे यह भूल उत्पन्न होती है। इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं। इसलिये इस मूल भूलको मिटाना अत्यन्त आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है। इसको मिटानेके लिये भगवान् ने मनुष्यको विवेक दिया है। जब मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम हो जाता है।
निर्मम होना प्रत्येक साधकके लिये बहुत आवश्यक है; क्योंकि ममताको मिटाये बिना साधककी उन्नति नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, जिसमें ममता की जाती है, वह वस्तु भी अशुद्ध हो जाती है और उसकी उन्नतिमें भी बाधा लग जाती है। ममतासे मनुष्यमें अनेक दोषोंकी उत्पत्ति होती है।
कुछ लोगोंको यह शंका होती है कि ममताके बिना हमारा शरीर कैसे चलेगा? हम परिवार अथवा समाजकी सेवा कैसे करेंगे? परन्तु वास्तवमें ममताके कारण शरीर, समाज, परिवार आदिकी सेवामें बाधा ही लगती है। निर्मम मनुष्यका शरीर-निर्वाह बहुत बढ़िया रीतिसे होता है। निर्मम मनुष्यके द्वारा ही परिवार, समाज आदिकी वास्तविक सेवा होती है। जिसकी अपने शरीरमें ममता है, वह परिवारकी सेवा नहीं कर सकता। जिसकी अपने परिवारमें ममता है, वह समाजकी सेवा नहीं कर सकता। जिसकी अपने समाजमें ममता है, वह देशकी सेवा नहीं कर सकता। जिसकी अपने देशमें ममता है, वह दुनियाकी सेवा नहीं कर सकता। तात्पर्य है कि ममताके कारण मनुष्यका भाव संकुचित, एकदेशीय हो जाता है। वह सेवासे विमुख होकर स्वार्थमें बँध जाता है। इसलिये साधकमात्रके लिये ममताका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। जब साधकमें ममताका त्याग करनेकी तीव्र अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है, तब ममताका त्याग करना बड़ा सुगम हो जाता है। कारण कि जब साधक सच्चे हृदयसे संसारसे विमुख होकर परमात्माकी ओर चलना चाहता है, तब सम्पूर्ण संसार तथा स्वयं परमात्मा भी उसकी सहायता करनेके लिये तत्पर हो जाते हैं। इसलिये साधकको कभी भी अपने उद्देश्यकी पूर्तिसे निराश नहीं होना चाहिये। वह कम-से-कम आयुमें तथा कम-से-कम सामर्थ्यमें भी अपने उद्देश्यकी पूर्ति कर सकता है। कारण कि अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिये ही भगवान् ने अपनी अहैतुकी कृपासे उसको मानवशरीर दिया है—
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
(मानस, उत्तर० ४४।३)
ममताके कारण ही कामनाओंकी उत्पत्ति होती है। जैसे, शरीरमें ममता होगी तो शरीरकी आवश्यकता हमारी आवश्यकता हो जायगी अर्थात् अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदिकी अनेक कामनाएँ उत्पन्न हो जायँगी। ममताका त्याग होते ही साधकमें कामना-त्यागकी सामर्थ्य आ जाती है। कारण कि शरीर और संसार एक ही धातुसे बने हुए हैं। शरीरको संसारसे अलग नहीं कर सकते। अत: शरीरकी ममताका नाश होते ही सांसारिक कामनाओंका भी नाश हो जाता है।
मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुओंमें ‘मैं’-पन और ‘मेरा’-पन होनेसे ही कामनाओंकी उत्पत्ति होती है। सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति आजतक किसीकी नहीं हुई, न होगी और न हो ही सकती है। जिन कामनाओंकी पूर्ति होती है, वे भी परिणाममें दु:ख ही देती हैं। कारण कि एक कामनाकी पूर्ति होनेपर दूसरी अनेक कामनाएँ पैदा हो जाती हैं, जिससे कामना-अपूर्तिका दु:ख ज्यों-का-त्यों बना रहता है। मनुष्य समझता है कि कामनाकी पूर्ति होनेपर मैं स्वतन्त्र हो गया, पर वास्तवमें वह काम्य पदार्थके पराधीन हो जाता है। परन्तु प्रमादके कारण वह पराधीनतामें भी सुखका अनुभव करता है। मनुष्यको इस पराधीनतासे छुड़ानेके लिये भगवान् के मंगलमय विधानसे दु:ख आता है। परन्तु मनुष्य दु:खसे दु:खी होकर भगवान् के मंगलमय विधानकी भी अवहेलना कर देता है। अगर वह दु:खसे दु:खी न होकर दु:खके कारणकी खोज करे और सम्पूर्ण दु:खोंके कारण ‘कामना’ को मिटा दे तो वह सदाके लिये सुखी हो जायगा।
प्रत्येक साधकके लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है; क्योंकि निष्काम हुए बिना साधक अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, कामनाके कारण वह साध्यरूप भगवान् को भी कामनापूर्तिका साधन बना लेता है। तात्पर्य है कि वह कोई भी कामना रखकर भगवान् का भजन करता है तो उसका साध्य तो वह काम्य पदार्थ होता है और भगवान् उसकी प्राप्तिके साधन होते हैं। जबतक कामना रहती है, तबतक मनुष्य पराधीन रहता है। पराधीन मनुष्य न तो त्याग कर सकता है, न सेवा कर सकता है और न प्रेम ही कर सकता है। वह न तो ज्ञानयोगी बन सकता है, न कर्मयोगी बन सकता है और न भक्तियोगी ही बन सकता है। अत: पराधीनताको मिटानेके लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है।
कामनाकी पूर्तिमें तो सब मनुष्य पराधीन हैं, पर कामनाका त्याग करनेमें सब-के-सब मनुष्य स्वाधीन और समर्थ हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वाधीनतापूर्वक स्वाधीनता (मुक्ति)-की प्राप्ति कर सकता है। परन्तु जबतक मनुष्यके भीतर कामना रहती है, तबतक वह स्वाधीन नहीं हो सकता। पराधीनताका सर्वथा नाश निष्काम होनेपर ही सम्भव है। निष्काम होनेपर साधक संसारपर विजय प्राप्त कर लेता है। कारण कि कामनावाले मनुष्यको कइयोंके अधीन होना पड़ता है, पर जिसको कुछ नहीं चाहिये, उसको किसीके भी अधीन नहीं होना पड़ता। उसका मूल्य संसारसे अधिक हो जाता है। वह तीनों योगोंका अधिकारी बन जाता है। इतना ही नहीं, वह भगवत्प्रेमका भी पात्र बन जाता है; क्योंकि कामनावाला मनुष्य किसीसे प्रेम नहीं कर सकता।
जब कर्ता निष्काम होता है, तब उसके द्वारा स्वत: कर्तव्य-कर्मका पालन होने लगता है। कर्ता निष्काम हुए बिना कर्तव्य-कर्मका पालन नहीं होता और कर्तव्य-कर्मका पालन हुए बिना प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग नहीं होता। सकाम मनुष्य प्राप्त परिस्थितिके अधीन हो जाता है तथा अप्राप्त परिस्थितिका चिन्तन करता रहता है। परन्तु निष्काम होते ही मनुष्य प्राप्त परिस्थितिकी पराधीनता तथा अप्राप्त परिस्थितिके चिन्तनसे छूटकर परिस्थितिसे अतीत तत्त्वको प्राप्त कर लेता है।
जप, तप, व्रत, तीर्थ, स्वाध्याय आदि क्रियासाध्य साधनोंसे कामनाका नाश नहीं होता। कारण कि कोई भी क्रिया (अभ्यास) करनेके लिये शरीरकी सहायता लेनी पड़ती है और शरीरके सम्बन्धसे ही कामनाओंकी उत्पत्ति होती है। अत: कामनाका नाश किसी क्रियासे नहीं होता, प्रत्युत सर्वथा क्रियारहित होनेसे तथा विवेकको महत्त्व देनेसे होता है। क्रियारहित होते ही शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वरूपमें स्थिति स्वत: होती है। स्वरूपमें निर्ममता और निष्कामता स्वत:सिद्ध हैं। अत: शरीर-संसारके सम्बन्धसे होनेवाले ममता, कामना आदि दोषोंका नाश करनेके लिये क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है।
जब साधक निर्मम और निष्काम हो जाता है, तब उसकी अहंता मिट जाती है। अहंता मिटनेपर फिर उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता—‘निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २। ७१)। जबतक साधक अपने लिये कुछ भी करता है, तबतक उसका सम्बन्ध क्रिया और पदार्थसे बना रहता है। जबतक क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध है, तबतक पराधीनता है। क्रिया और पदार्थ संसारकी सेवाके लिये तो उपयोगी हैं, पर अपने लिये इनका त्याग ही उपयोगी है। सेवा और त्याग कृत्रिम नहीं हैं, प्रत्युत स्वत:-स्वाभाविक हैं। इसलिये मैं सेवा करता हूँ अथवा मैं त्याग करता हूँ—ऐसा अभिमान करना भूल है। जब संसारमें मेरी कोई वस्तु है ही नहीं तो त्याग क्या हुआ? और जिसकी वस्तु थी, वह उसको दे दी तो सेवा क्या हुई? यह सिद्धान्त है कि जो कभी भी अलग होगा, वह अभी भी अलग है और जो कभी भी मिलेगा, वह अभी भी मिला हुआ है। इसलिये नित्यनिवृत्तकी ही निवृत्ति होती है और नित्यप्राप्तकी ही प्राप्ति होती है—इस सत्यको स्वीकार करना साधकके लिये आवश्यक है।
जबतक साधकमें अपने लिये कुछ भी करनेका भाव रहता है, तबतक उसका सम्बन्ध कर्म-सामग्रीके साथ अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके साथ बना रहता है। जबतक शरीरके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक मनुष्यमें न तो नि:स्वार्थभाव आता है और न स्वाधीनता आती है अर्थात् वह न तो कर्मयोगका अधिकारी होता है, न ज्ञानयोगका। जो मनुष्य स्वार्थभाव और पराधीनतासे रहित नहीं हो सका, वह भगवान् का प्रेमी भी कैसे हो सकता है? इसलिये ‘क्रिया’ के आश्रयका त्याग करके विश्राम (कुछ न करने)-को अपनाना और ‘पदार्थ’ के आश्रयका त्याग करके स्वाश्रय अथवा भगवदाश्रयको अपनाना प्रत्येक साधकके लिये बहुत आवश्यक है।
विवेककी जागृति किसी क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत क्रियारहित होनेसे होती है। विवेकको महत्त्व देनेसे विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान किसी क्रिया या पदार्थके द्वारा नहीं होता, प्रत्युत अपने ही द्वारा होता है। जिसकी प्राप्ति अपने द्वारा होती है, उसके लिये किसी अभ्यासकी आवश्यकता नहीं होती। अभ्याससे तो उलटे वह दूर होता है! मनुष्य जिन करणों (मन-बुद्धि-इन्द्रियों)-से संसारको देखता है, उनसे अपने-आपको (करणरहित सत्तामात्र स्वरूपको) नहीं देख सकता। अपने-आपको तो वह अपने-आपसे ही देख सकता है—‘यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति’ (गीता ६।२०)। तात्पर्य है कि अपने-आपको किसी करणके द्वारा नहीं देखा जा सकता, प्रत्युत करणोंके त्यागसे ही देखा जा सकता है।
कर्मयोगका मार्ग
जब साधक अपने जीवनमेंसे बुराईका त्याग कर देता है, तब कर्मयोगकी सिद्धि हो जाती है। बुराईका त्याग तीन बातोंसे होता है—(१) किसीका भी बुरा न करना, (२) किसीको भी बुरा न समझना और (३) किसीका भी बुरा न चाहना। बुराईका त्याग किये बिना मनुष्य कर्तव्यपरायण नहीं हो सकता।
मनुष्य किसीका भी बुरा तब करता है, जब वह स्वार्थवश खुद बुरा बनता है। खुदको बुरा बनाये बिना मनुष्य किसीका भी बुरा नहीं कर सकता। कारण कि जैसा कर्ता होता है, वैसे ही कर्म होते हैं—यह सिद्धान्त है। कर्म कर्ताके अधीन होते हैं। इसलिये सबसे पहले मनुष्यको चाहिये कि वह अपनेको साधक स्वीकार करे। जब कर्ता साधक होगा तो फिर उसके द्वारा साधकके विपरीत कर्म कैसे होंगे? साधकके द्वारा किसीका बुरा नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपने प्रति बुराई करनेवालेका भी बुरा नहीं करता, प्रत्युत उसपर दया करता है। बुराईके बदले बुराई करनेसे तो बुराईकी वृद्धि ही होगी, बुराईकी निवृत्ति कैसे होगी? बुराईके बदले बुराई न करनेसे तथा भलाई करनेसे ही बुराईकी निवृत्ति हो सकती है।
कोई भी मनुष्य सर्वथा बुरा नहीं होता और सभीके लिये बुरा नहीं होता। मनुष्य सर्वथा भला तो हो सकता है, पर सर्वथा बुरा नहीं हो सकता। कारण कि बुराई कृत्रिम, आगन्तुक, अस्वाभाविक है। बुराईकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये बुराईको न दुहरानेसे बुराई सर्वथा मिट जाती है। बुराईको न दुहराना साधकका खास काम है। बुराईको न दुहरानेसे मनुष्य बुरा नहीं रहता, प्रत्युत भला हो जाता है।
मनुष्यको किसीको भी बुरा समझनेका अधिकार नहीं है। दूसरेमें जो बुराई दीखती है, वह उसके स्वरूपमें नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है। मनुष्यके स्वभावमें यह दोष रहता है कि वह अपनी बुराईको तो क्षमा कर देता है, पर दूसरेकी बुराईको देखकर उसके प्रति न्याय करता है। साधकका कर्तव्य है कि वह अपने प्रति न्याय करे और दूसरेके प्रति क्षमा करे। भगवान् का अंश होनेके नाते मनुष्यमात्र स्वरूपसे निर्दोष है—
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी॥
(मानस, उत्तर० ११७।२)
इसलिये किसी भी मनुष्यमें बुराईकी स्थापना नहीं करनी चाहिये। आगन्तुक बुराईके आधारपर किसीको बुरा समझना अनुचित है। दूसरा चाहे बुरा हो या न हो, पर उसको बुरा समझनेसे अपनेमें बुराई आ ही जायगी। दूसरेको बुरा समझेंगे तो अपने भीतर बुरे संकल्प पैदा होंगे, क्रोध पैदा होगा, वैर-भाव पैदा होगा, विषमता पैदा होगी, पक्षपात पैदा होगा। इनके पैदा होनेसे कर्म भी अशुद्ध होने लगेंगे। अत: बुराईकी स्थापना न तो अपनेमें करनी चाहिये और न दूसरोंमें ही करनी चाहिये। बुराईकी स्थापना करनेसे न अपना हित होता है, न दूसरेका। किसीको बुरा समझना अथवा किसीका बुरा चाहना बुराई करनेसे भी बड़ा दोष है।
मनुष्य किसीका बुरा चाहता है तो उसका बुरा तो होता नहीं, पर अपना बुरा अवश्य हो जाता है। दूसरेका बुरा चाहनेवालेकी हानि ज्यादा होती है; क्योंकि बुरा चाहनेसे उसके भावमें बुराई आ जाती है। कर्मकी अपेक्षा भाव सूक्ष्म और व्यापक होता है। अत: दूसरेका बुरा चाहनेमें अपना ही बुरा निहित है। यह नियम है कि हम दूसरेके प्रति जो करेंगे, वही परिणाममें अपने प्रति हो जायगा। इसलिये साधकको किसीका भी बुरा चाहनेका, बुरा समझनेका अथवा बुरा करनेका अधिकार नहीं है। उसको समानरूपसे सबके हितका भाव रखते हुए सबकी सेवा करनेका ही अधिकार है। सेवा करनेसे ही वह कर्मयोगका अधिकारी होता है। दूसरेका बुरा करनेवाला, बुरा समझनेवाला अथवा बुरा चाहनेवाला दूसरेपर शासन तो कर सकता है, पर सेवा नहीं कर सकता। शासक सेवक नहीं हो सकता और सेवक शासक नहीं हो सकता। समाजकी उन्नति सेवकके द्वारा होती है, शासकके द्वारा नहीं।
भलाई करना तो परिश्रम-साध्य है, पर बुराई न करनेमें कोई परिश्रम नहीं होता तथा कोई खर्चा भी नहीं होता। इसलिये बुराईका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र तथा समर्थ हैं। यहाँ एक शंका होती है कि जब दूसरा व्यक्ति हमारे साथ बुराई कर रहा है तो फिर हम कैसे उसको बुरा न समझें, उसका बुरा न चाहें? इसका समाधान यह है कि दूसरा हमारा बुरा करता है तो यह बुराई उसमें आयी हुई है, स्वाभाविक नहीं है। स्वरूपसे तो वह सर्वथा बुराईरहित है। दूसरी बात, हमारा बुरा होनेसे हमारे पुराने पाप कटते हैं और हम शुद्ध होते हैं। तीसरी बात, गहरा विचार करनेसे पता लगता है कि दूसरा हमारे साथ बुराई तभी करता है, जब हम निर्बल होते हैं। हम निर्बल तब होते हैं, जब प्राणोंमें मोह होनेके कारण हम मृत्युसे डरते हैं और इस कारण अपने प्रति होनेवाली बुराईको हम सहते हैं। अगर हमारेमें प्राणोंका मोह न रहे, जीनेकी इच्छा और मरनेका भय न रहे तो कोई बलवान् व्यक्ति हमारेपर अत्याचार नहीं कर सकेगा। यह सिद्धान्त है कि भौतिक बल कभी भी आध्यात्मिक बलपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। नाशवान् वस्तु अविनाशीपर विजय कैसे कर सकती है? अन्धकार प्रकाशपर विजय कैसे कर सकता है? जिसका मिलने और बिछुड़नेवाले शरीरमें ‘मैं’-पन और ‘मेरा’-पन नहीं है, उसको कोई अपने अधीन नहीं कर सकता। उसपर कोई विजय नहीं कर सकता। विचार करना चाहिये कि जब शरीरका नाश होनेपर भी हमारी सत्ताका नाश नहीं होता*, तो फिर शरीरको रखनेकी इच्छा और मृत्युका भय करनेसे क्या लाभ? इसलिये साधकको अपना कर्तव्य जितना प्रिय होता है, उतने अपने प्राण भी प्रिय नहीं होते।
* न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
(गीता २।२०)
अपने कर्तव्यकी रक्षाके लिये वह प्राणोंका भी त्याग कर देता है। ऐसे साधकको कोई बलवान्-से-बलवान् व्यक्ति भी अपने अधीन करके कर्तव्यच्युत नहीं कर सकता।
कर्मयोगी अपने कर्तव्यका पालन करते हुए दूसरेके अधिकारकी रक्षा करता है। जो दूसरेका अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता है। जैसे, माता-पिताकी सेवा करना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है। अपना अधिकार चाहनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर सकता। इसलिये कर्मयोगका साधक अपने अधिकारका त्याग करता है। अपने अधिकारका त्याग करनेसे नया राग पैदा नहीं होता और दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनेसे पुराना राग मिट जाता है और साधक सुगमतापूर्वक रागरहित हो जाता है।
मनुष्य अपने अधिकारका त्याग तथा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनेमें तो स्वतन्त्र है, पर अधिकार प्राप्त करनेमें स्वतन्त्र नहीं है। अधिकार पानेकी लालसा मनुष्यको कर्तव्यच्युत करके उसको काम, क्रोध, लोभ आदि दोषोंसे युक्त कर देती है, जिससे उसका पतन हो जाता है। इसलिये कर्मयोगका साधक दूसरेके अधिकारकी रक्षा करता है।
जब अपने कहलानेवाले शरीरपर ही हमारा अधिकार नहीं चलता, तो फिर शरीर जिसका अंश है, उस संसारपर हमारा अधिकार कैसे चल सकता है? परन्तु हमारेपर शरीर और संसारका अधिकार अवश्य है। शरीरका अधिकार यह है कि हम उसको आलसी, अकर्मण्य, प्रमादी, असंयमी न बनने दें और संसारका अधिकार यह है कि हम शरीरके द्वारा संसारकी सेवा करें, किसीका भी अहित न करें, सबको सुख पहुँचायें।
समाजमें ज्यों-ज्यों अधिकार पानेकी लालसा बढ़ती जाती है, त्यों-ही-त्यों लोग अपने कर्तव्यसे हटते जाते हैं, जिससे समाजमें संघर्ष पैदा हो जाता है। अधिकार पानेकी इच्छासे गुलामी आ जाती है। अत: अपने अधिकारका त्याग करना प्रत्येक साधकके लिये आवश्यक है। अपने अधिकारका त्याग करनेसे उदारता और असंगता—दोनों आ जाती हैं। उदारता आनेसे कर्मयोगकी तथा असंगता आनेसे ज्ञानयोगकी सिद्धि हो जाती है।
वास्तवमें अधिकार देनेकी वस्तु है, लेनेकी वस्तु नहीं। कोई जबर्दस्ती अधिकार लेना भी चाहे तो नहीं ले सकता। बलवान्-से-बलवान् व्यक्ति भी दूसरोंका विनाश तो कर सकता है, पर दूसरोंका अपने प्रति आदर, प्रेम, श्रद्धा, विश्वास उत्पन्न नहीं करा सकता। यद्यपि मनुष्यका मूल्य संसारसे अधिक है, तथापि अधिकार पानेकी लालसासे वह अपना मूल्य गिरा देता है। अधिकार पानेकी लालसाके मूलमें नाशवान् सुखकी लालसा है। जब साधक सुखकी आसक्तिको मिटा देता है, तब अधिकार पानेकी लालसा भी मिट जाती है और साधकका कर्मयोग सिद्ध हो जाता है।
भक्तियोगका मार्ग
यह नियम है कि प्रत्येक रचनाके मूलमें कोई-न-कोई रचयिता रहता है। प्रत्येक उत्पत्तिके मूलमें कोई-न-कोई अनुत्पन्न तत्त्व रहता है। अगर मनुष्य संसारको तो मानता है, पर संसारके रचयिताको नहीं मानता तो यह उसकी बहुत बड़ी भूल है। जो परा (जीव) और अपरा (जगत्)—दोनोंका आश्रय तथा प्रकाशक है, उस परमात्मापर दृढ़ विश्वास करके उसके साथ आत्मीयता करना अथवा उसके शरणागत हो जाना साधकके लिये बहुत आवश्यक है। वह परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं है—यह जानना साधकके लिये आवश्यक नहीं है। साधकके लिये केवल इतना ही मानना आवश्यक है कि परमात्मा है और वह मेरा है। उसको इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जाना नहीं जा सकता, प्रत्युत केवल माना जा सकता है। रचना अपने रचयिताको कैसे जान सकती है? अंश अपने अंशीको कैसे जान सकता है?
परमात्मा विचारका विषय नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासका विषय है। उसको मानने अथवा न माननेमें मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र है। विचारका विषय तो जीव और जगत् हैं। जिसके विषयमें हम कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते, उसपर विचार किया जा सकता है। परन्तु जिसके विषयमें हम कुछ नहीं जानते, जिसको हमने देखा नहीं है, उसपर श्रद्धा-विश्वास ही किया जा सकता है। अपने द्वारा किये हुए श्रद्धा-विश्वासको दूसरा कोई मिटा नहीं सकता।
ईश्वरको हम जान सकते ही नहीं और माने बिना रह सकते ही नहीं। जैसे, माता-पिताको हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही सकते हैं; क्योंकि उस समय हमारी (शरीरकी) सत्ता ही नहीं थी। अगर हम अपने शरीरकी सत्ता मानते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी। हम हैं तो माता-पिता भी हैं। कार्य है तो उसका कारण भी है। ऐसे ही हम स्वयं हैं तो ईश्वर भी है। हमारी सत्ता ईश्वरके होनेमें प्रत्यक्ष प्रमाण है। हम नहीं हैं—इस तरह अपने होनेपनका निषेध कोई कर सकता ही नहीं। जब अपने होनेपनका निषेध नहीं हो सकता, तो फिर ईश्वरका भी निषेध नहीं हो सकता।
माताकी अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि मातासे जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चुका था, पर पिताके समय तो हमारे शरीरकी सत्ता ही नहीं थी! भगवान् सम्पूर्ण संसारके पिता हैं—‘अहं बीजप्रद: पिता’ (गीता १४। ४), ‘पिताहमस्य जगत:’ (गीता ९। १७), ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता ११। ४३)। इसलिये भगवान् को जानना तो सर्वथा असम्भव है। उनको तो माना ही जा सकता है। माने बिना दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। मानना जाननेसे कमजोर नहीं होता। भगवान् को दृढ़तापूर्वक माननेसे उनमें आत्मीयता हो जाती है और आत्मीयता होनेसे उनमें प्रेम हो जाता है।
जो पहले नहीं था, बादमें भी नहीं रहेगा तथा वर्तमानमें भी प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहा है, वह शरीर तथा संसार विश्वासके योग्य हैं ही नहीं। जो एक क्षण भी हमारे साथ न रहे, प्रतिक्षण बदलता रहे, उसपर विश्वास कैसे किया जा सकता है? उसकी सेवा की जा सकती है, पर विश्वास नहीं किया जा सकता। विश्वास तो उसीपर किया जा सकता है, जो सदा हमारे साथ रहे, कभी हमसे बिछुड़े नहीं। भगवान् सदा हमारे साथ रहते हैं—‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:’ (गीता १५। १५)। हम पशु-पक्षी आदि किसी भी योनिमें चले जायँ, स्वर्ग-नरकादि किसी भी लोकमें चले जायँ तो भी भगवान् हमारा साथ कभी नहीं छोड़ते।
जब मनुष्य अपनी आवश्यकताकी पूर्ति न तो खुद कर सकता है और न उसकी पूर्ति संसार ही कर सकता है, तब वह स्वत: भगवान् की ओर खिंचता है, जिसको उसने देखा नहीं है, प्रत्युत सुना है। जब मनुष्यपर कोई संकट आता है और उससे बचनेका कोई उपाय नहीं दीखता तथा उससे बचनेके लिये किये गये सब प्रयत्न व्यर्थ चले जाते हैं, तब उसको भगवान् पर विश्वास करके उनको पुकारना ही पड़ता है।
जो मनुष्य भगवान् पर विश्वास न करके शरीर-संसारपर विश्वास करता है, वह जन्म-मरणके चक्रमें फँसकर तरह-तरहके दु:ख पाता है। शरीर आदिपर विश्वास करनेसे अहंता, ममता, कामना, आसक्ति, लोभ आदि अनेक विकारोंकी उत्पत्ति होती है। परिणाम यह होता है कि शरीर आदि तो रहते नहीं, पर उसका सम्बन्ध रह जाता है, जो अनेक योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बनता है—‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३। २१)।
जो न तो भगवान् पर विश्वास करता है और न शरीर-संसारपर ही विश्वास करता है, प्रत्युत अपने-आपपर विश्वास करता है, वह ज्ञानयोगका साधक हो जाता है। ऐसा साधक ‘मैं कौन हूँ’—इसकी खोज करता है। ‘मैं’ की खोज करते-करते ‘मैं’ मिट जाता है और ‘है’ रह जाता है। साधक ‘है’ (परमात्मतत्त्व)-को स्वीकार करे अथवा न करे, पर अन्तमें प्राप्ति ‘है’ की ही होती है। जैसे, कोई कितना ही कूदे-फाँदे या नाचे, पर अन्तमें वह जमीनपर ही टिकेगा।
एक सत्तामात्र है—इस प्रकार दृढ़तापूर्वक परमात्मतत्त्वपर विश्वास होनेसे शरीर तथा संसारका विश्वास निर्जीव, फीका हो जाता है। कारण कि परस्परविरुद्ध दो विश्वास एक साथ नहीं रह सकते। जब साधक यह स्वीकार करता है कि परमात्मा अद्वितीय है, सदा है, सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है, सर्वसुहृद् है, परम दयालु है, सभीका है और सब जगह है, तब उसकी परमात्मापर स्वत: श्रद्धा जाग्रत् हो जाती है। परमात्मामें श्रद्धा-विश्वास होनेपर साधक एक परमात्माके सिवाय दूसरे किसीकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता ही नहीं। ऐसी स्थितिमें जैसे नींदसे जागते ही स्वप्नकी विस्मृति तथा जाग्रत् की स्मृति हो जाती है, ऐसे ही साधकके भीतर स्वत: परमात्मा (‘है’)-के नित्य-सम्बन्धकी स्मृति जाग्रत् हो जाती है और संसार (‘नहीं’)-की सर्वथा विस्मृति हो जाती है—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)। परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्धकी स्मृति जाग्रत् होते ही साधककी परमात्मासे अभिन्नता अथवा आत्मीयता हो जाती है। परमात्मासे अभिन्नता होते ही साधकको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है, जो मानवजीवनका चरम लक्ष्य है।
एक शंका होती है कि जब परमात्मा सब समयमें तथा सब जगह विद्यमान है, तो फिर साधकको उससे दूरी क्यों प्रतीत होती है? इसपर गहरा विचार करनेसे पता लगता है कि जब साधक मिले हुए तथा बिछुड़नेवाले शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहता है, तब उसको परमात्मासे दूरी प्रतीत होती है। कारण कि परमात्माकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत क्रिया और पदार्थके त्यागसे अपने ही द्वारा होती है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको संसारकी सेवामें समर्पित कर दे और अपने-आपको (सत्तामात्र स्वरूपको) भगवान् के समर्पित कर दे। जब साधक स्वयं सब ओरसे विमुख होकर एकमात्र भगवान् के ही शरणागत हो जाता है, तब भगवान् कृपापूर्वक उसको अपना लेते हैं, अपनेसे अभिन्न कर लेते हैं।
विचारपूर्वक देखें तो जो सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, अवस्था, परिस्थिति आदिमें परिपूर्ण है, उससे दूरी कैसे सम्भव है? यह सिद्धान्त है कि जिससे दूरी नहीं होती, उसकी प्राप्ति क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत चाहनामात्रसे होती है। अगर साधक मिले हुए और बिछुड़नेवाले प्राणी-पदार्थोंको अपना और अपने लिये न माने और भगवान् के साथ आत्मीयता (अपनापन) कर ले तो फिर भगवान् से दूरी नहीं रहेगी; क्योंकि वास्तवमें वह भगवान् का ही अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७)। मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदिको तो अपना मान लेता है, पर जिसने उनको दिया है, उसको (भगवान् को) अपना नहीं मानता। वास्तवमें वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत उसको देनेवाला अपना है। जिस क्षण साधक भगवान् को अपना मानकर उनके शरणागत हो जाता है, उसी क्षण भगवान् उसको अपना लेते हैं। कारण कि भगवान् साधकका भूतकाल न देखकर उसके वर्तमानको देखते हैं, उसके आचरणोंको न देखकर उसके भावोंको देखते हैं—
रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करत सुरति सय बार हिए की॥
(मानस, बाल० २९।३)
वे अपने शरणागत भक्तको निर्भय, नि:शोक, निश्चिन्त और नि:शंक कर देते हैं। परन्तु साथमें अन्यका आश्रय नहीं रहना चाहिये। अन्यका आश्रय, अन्यका विश्वास और अन्यका सम्बन्ध रहनेसे भगवान् का आश्रय दृढ़ नहीं होता। जिस मनुष्यको एक भगवान् के सिवाय और कोई अपना नहीं दीखता तथा जिसको अपनेमें कोई विशेषता नहीं दीखती, वह सुगमतापूर्वक भगवान् के आश्रित हो जाता है। भगवान् के आश्रित होनेपर उसको अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता। उसके द्वारा होनेवाली प्रत्येक प्रवृत्ति भगवान् की पूजा होती है।
भगवान् के साथ सम्बन्ध केवल प्रेमकी प्राप्तिके लिये ही होना चाहिये। प्रेम प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है—भगवान् में अपनापन। एकमात्र भगवान् को अपना माननेसे प्रेमकी जागृति होती है। प्रेमकी जागृति होनेपर अहम् का सर्वथा नाश हो जाता है। अहम् का सर्वथा नाश होनेपर भगवान् से दूरी, भेद और भिन्नता—तीनों सर्वथा मिट जाते हैं।
प्रेमकी जागृतिके बिना अहम् का सर्वथा नाश नहीं होता—
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥
(मानस, उत्तर० ४९।३)
मुक्त महापुरुषमें भी प्रेमकी एक माँग (भूख) रहती है। इसलिये जो मुक्तिमें भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसको भगवान् अपना प्रेम प्रदान करते हैं। इस दृष्टिसे मुक्ति भी साधन है और प्रेम साध्य है। प्रेमकी प्राप्तिके बिना साधनकी पूर्णता नहीं होती। भगवान् ज्ञानस्वरूप होते हुए भी प्रेमके भूखे हैं। ज्ञानयोग तथा कर्मयोगके मार्गसे मोक्षकी प्राप्ति होनेपर भी एक सूक्ष्म अहम् रहता है, जिसके कारण भगवान् से दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर उनसे अभिन्नता नहीं होती। यह सूक्ष्म अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाला होता है। इस सूक्ष्म अहम् के कारण ही मुक्त महापुरुषोंमें तथा उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तोंमें परस्पर मतभेद रहता है। परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर जब वह सूक्ष्म अहम् सर्वथा मिट जाता है, तब सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और भगवान् से अभिन्नता हो जाती है। अभिन्नता होनेपर एक भगवान् के सिवाय अन्य किसीकी भी सत्ता नहीं रहती—‘वासुदेव: सर्वम्’ (गीता ७। १९)।
उपसंहार
उपनिषद्में आता है कि अकेलेमें भगवान् का मन नहीं लगा—‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक० १।४।३)। अत: खेल (प्रेम-लीला)-के लिये भगवान् एकसे अनेकरूप हो गये—‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय० २। ६)। उन अनेक रूपोंमें श्रीजी तो भगवान् के ही सम्मुख रहीं, पर जीव खेलके खिलौनों (शरीर-संसार)-में ही लग गये! श्रीजी खिलौनोंमें नहीं लगीं तो उनको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति हो गयी और जीव खिलौनोंमें लग गये तो उनको जन्म-मरणरूप संसारकी प्राप्ति हो गयी। ये खिलौने अपने और अपने लिये हैं ही नहीं। ये तो केवल दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये ही हैं। इनको अपना और अपने लिये मानना बहुत बड़ी भूल है, जिसका त्याग करना मनुष्यका कर्तव्य है। यह एक ही भूल स्थानभेदसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, पाखण्ड आदि अनेक विकारोंके रूपमें हो जाती है। फिर भूलें बढ़ती ही रहती हैं। उनका कोई अन्त नहीं आता।
अपने-आपको भूलनेसे देहाभिमान उत्पन्न हो जाता है। कर्तव्यको भूलनेसे अकर्तव्य होने लगता है। भगवान् को भूलनेसे नाशवान् के साथ सम्बन्ध हो जाता है। इस भूलको मिटानेके लिये तीन योग हैं—ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। विवेक-विचारपूर्वक संसारसे मिली हुई वस्तुओंसे अलग हो जाय—यह ज्ञानयोग है। उन वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा दे—यह कर्मयोग है। मनुष्य स्वयं जिसका अंश है, उस भगवान् में लग जाय—यह भक्तियोग है। परन्तु जो ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोगमें न लगकर संसारमें अर्थात् भोग और संग्रहमें लग जाता है, वह जन्म-मरणमें पड़ जाता है। वह जन्म गया तो मरना बाकी रहता है और मर गया तो जन्मना बाकी रहता है। इस प्रकार वह जन्म-मरणके चक्रमें घूमता रहता है—‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्’।
मनुष्यको तीन ही शक्तियाँ प्राप्त हैं—जाननेकी शक्ति, करनेकी शक्ति और माननेकी शक्ति। जाननेकी शक्ति ज्ञानयोगके लिये, करनेकी शक्ति कर्मयोगके लिये और माननेकी शक्ति भक्तियोगके लिये है। जाननेकी शक्तिका सदुपयोग है—अपने-आपको जानना, करनेकी शक्तिका सदुपयोग है—सेवा करना और माननेकी शक्तिका सदुपयोग है—भगवान् को मानना।
वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य—ये चारों ही चीजें जड़-विभागमें हैं। चेतन-विभाग (स्वरूप)-तक ये चीजें पहुँचती ही नहीं। इसलिये वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य संसारके हैं और संसारके ही काम आते हैं, अपने काम किंचिन्मात्र भी नहीं आते। जड़-विभाग अर्थात् शरीर-संसारके द्वारा हमें कुछ भी नहीं मिलता, हमारी किंचिन्मात्र भी पुष्टि नहीं होती, हित नहीं होता। शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद ही हमारे काम आता है, हमारे लिये हितकारी होता है। इसलिये शरीर-संसारकी सहायतासे कोई भी मनुष्य बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता। शरीरके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ शरीर-संसारके ही काम आती हैं। उसका सम्बन्ध-विच्छेद ही स्वयंके काम आता है।
कुछ करनेसे हमारेको लाभ होगा—ऐसा सोचना भूल है। कारण कि मात्र क्रियाएँ जड़ तथा नाशवान् हैं और स्वयं चेतन तथा अविनाशी है। जड़ वस्तुके द्वारा चेतनको क्या मिलेगा? नाशवान् वस्तुसे अविनाशीको क्या लाभ होगा? जड़ और नाशवान् क्रियासे हमारा भला होनेवाला नहीं है। इसलिये हमारा न तो कर्म करनेसे कोई मतलब होना चाहिये और न कर्म नहीं करनेसे ही कोई मतलब होना चाहिये—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३।१८)। ‘करना’ और ‘न करना’— दोनों प्रकृति (जड़-विभाग)-में हैं और अभावरूप हैं। स्वयं (चेतन-विभाग)-में ‘करना’ और ‘न करना’ दोनों ही नहीं हैं, प्रत्युत वह इन दोनोंको प्रकाशित करनेवाला भावरूप निरपेक्ष तत्त्व है। जैसे ‘करने’ से शरीरको परिश्रम होता है, ऐसे ही ‘न करने’ से अर्थात् सुषुप्तिसे शरीरको ही विश्राम मिलता है, स्वयंको नहीं। स्वयंको विश्राम तो स्थूल, सूक्ष्म और कारण—तीनों शरीरोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे ही मिलेगा।
साधकको गहरे उतरकर समझना चाहिये कि मैं स्थूलशरीर नहीं हूँ, सूक्ष्मशरीर भी नहीं हूँ और कारणशरीर भी नहीं हूँ। वस्तु, योग्यता, बल आदि कुछ भी मेरा नहीं है। ये सब परिवर्तनशील हैं। मेरा स्वरूप अपरिवर्तनशील सत्तामात्र है। उसमें आना-जाना नहीं होता। उसमें उत्पत्ति-विनाश नहीं होता। वह ज्यों-का-त्यों रहता है। ऐसा समझकर साधक अपने सत्तामात्र स्वरूप (होनेपन)-में स्थित होकर चुप हो जाय।
सत्तामें अर्थात् हमारे होनेपनमें मैंपन नहीं है। मैंपनका सम्बन्ध भूलसे माना हुआ है। ‘मैं हूँ’—इसमें ‘मैं’ नहीं है, पर ‘हूँ’ है। हमारा अस्तित्व ‘मैं’ के बिना है। ‘है’-रूपसे एक परमात्मा ही सब जगह परिपूर्ण है। उस ‘है’ का अंश ही ‘हूँ’ है। मैं हूँ, तू है, यह है और वह है—इन चारोंमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’ है। अगर ‘मैं’ न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ ही रहेगा। तात्पर्य है कि ‘हूँ’ भी वास्तवमें ‘है’ ही है। यह बात अगर साधककी समझमें आ जाय तो बहुत लाभकी बात है!
जगत् की सत्ता ‘मैं’ के कारण ही है। जगत् ‘मैं’ से ही पैदा होता है। जीवमें जो अहंभाव है, उसीसे यह जगत् प्रतीत होता है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७। ५)। इसलिये जगत् न तो परमात्माकी दृष्टिमें है, न जीवन्मुक्त महात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी दृष्टिमें है। हमारा जो होनापन है, उसमें मैंपन नहीं है। मैंपन जड़-विभागमें है। जबतक हमारा सम्बन्ध जड़ताके साथ है, तबतक जन्म-मरण है। जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद करके सत्तामात्रमें रहना मुक्ति है।
यह मनुष्य है, यह पशु है, यह पक्षी है; यह जलचर है, यह थलचर है, यह नभचर है; यह ईंट है, यह चूना है, यह पत्थर है—सबमें ‘है’-पन रहता है। परन्तु साथमें ‘मैं’-पन होनेसे बन्धन हो जाता है। तत्त्वज्ञ पुरुषोंकी स्थिति ‘है’ में होती है। यद्यपि सबकी स्थिति ‘है’ में ही है, पर जड़ताके साथ सम्बन्ध माननेसे ‘मैं हूँ’ हो गया। जड़ताका सम्बन्ध न रहे तो ‘मैं हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘मैं है’ रहेगा। इस स्थितिका नाम जीवन्मुक्ति है।
पशु, पक्षी, देवता, राक्षस आदि सभीमें समान रीतिसे जो एक सत्ता परिपूर्ण है, वह सत्ता परमात्माका स्वरूप है। उस सत्ताको ‘मैं’ के साथ मिलानेसे जीव हो जाता है, ‘मैं’ से अलग करनेसे मुक्त हो जाता है और भगवान् के साथ मिला देनेसे भक्त हो जाता है।
मनुष्यका खास काम है—जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद करना; क्योंकि जड़ताको अपना और अपने लिये माननेसे ही सब अनर्थ हुए हैं। जड़ताको अपना और अपने लिये मानेंगे तो फिर जड़ता ही रहेगी, चिन्मयता नहीं आयेगी। इसलिये शरीरको संसारकी सेवामें लगाना है। केवल मनुष्ययोनि ही सेवा करनेके योग्य है। दूसरा कोई सेवा करनेके लिये है ही नहीं। दूसरी योनियोंसे सेवा ले सकते हैं, पर वे सेवा कर नहीं सकतीं। पेड़-पौधोंको हम अपने काममें ले सकते हैं, पर वे खुद हमारा काम नहीं कर सकते। जो सेवा नहीं करता, वह मनुष्यतासे गिर जाता है और पशुतामें चला जाता है। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह संसारसे मिली हुई वस्तुको संसारकी ही सेवामें लगा दे और बदलेमें कुछ चाहे नहीं। संसारकी चीज संसारको दे दी तो चाहना किस बातकी? संसारकी चीज संसारकी सेवामें लगा दे—यह कर्मयोग हो गया। स्वयं संसारसे अलग होकर चिन्मयतामें स्थित हो जाय—यह ज्ञानयोग हो गया। स्वयं भगवान् में लग जाय—यह भक्तियोग हो गया।
शरणागतिमें न तो सांसारिक दीनता है और न पराधीनता ही है। कारण कि भगवान् ‘पर’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘स्वकीय’ हैं। प्रकृति तथा उसका कार्य ‘पर’ है। अत: प्रकृति तथा उसके कार्य (क्रिया और पदार्थ)-की अधीनतामें ही पराधीनता है। भगवान् की अधीनतामें तो परम स्वाधीनता है। जैसे, माता-पिताके भक्त पुत्रमें माता-पिताकी पराधीनता नहीं होती, प्रत्युत कर्तव्यका पालन होता है; क्योंकि माता-पिता ‘पर’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘निज’ (अपने) हैं। सांसारिक दीनतामें तो कुछ लेनेका भाव रहता है, पर शरणागतिमें कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत अपने-आपको देना है। भगवान् का अंश होनेके कारण जीव सदासे ही भगवान् का है। भगवान् के साथ इस नित्य सम्बन्धकी स्मृति ही शरणागति है।
भगवान् ने अपनेको भक्तोंके पराधीन कहा है—‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज’ (श्रीमद्भा० ९। ४। ६३)। यह प्रेमकी विलक्षणता है। भगवान् प्रेमके भूखे हैं। वास्तवमें भगवान् पराधीन नहीं हैं, प्रत्युत पराधीनकी तरह (इव) हैं। पराधीनता वहाँ होती है, जहाँ भेद हो। भक्तिमें भेद मिटकर भगवान् तथा भक्तमें अभिन्नता हो जाती है, फिर पराधीनताका प्रश्न ही पैदा नहीं होता। जब ‘पर’ (क्रिया और पदार्थ)-का सम्बन्ध सर्वथा मिट जाता है, तब भगवान् में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है। प्रेममें न तो कोई दूसरा है, न कोई पराया है। अत: प्रेममें पराधीनताकी गन्ध भी नहीं है।
भक्तियोग साध्य है। ज्ञानयोग तथा कर्मयोग साधन हैं। संसारके बन्धन (जन्म-मरण)-से छूटनेका नाम मुक्ति है। ज्ञानयोग तथा कर्मयोगसे मुक्ति होती है*। भक्तियोगमें मुक्तिके साथ-साथ प्रेमकी भी प्राप्ति होती है। इसलिये भक्तियोग विशेष है।
* भगवान् ने ज्ञानयोग और कर्मयोगको समकक्ष कहा है—
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥
यत्साङ्ख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥
(गीता ५।४-५)
‘बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले कहते हैं, न कि पण्डितजन; क्योंकि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त कर लेता है।’
‘सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंके द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अत: जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है, वही ठीक देखता है।’