मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव
प्रत्येक साधकके लिये निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है। कारण कि ‘मैं’ और ‘मेरा’ ही माया है, जिससे जीव बँधता है—
मैं अरु मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥
(मानस, अरण्य० १५।२)
मैं-मेरे की जेवरी, गल बँध्यो संसार।
दास कबीरा क्यों बँधे, जाके राम अधार॥
श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग—तीनों ही योगमार्गोंमें निर्मम और निरहंकार होनेकी बात कही है—कर्मयोगमें ‘निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति’ (२।७१), ज्ञानयोगमें ‘अहंकारं......विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते’ (१८।५३) और भक्तियोगमें ‘निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी’ (१२। १३)। इस विषयमें साधकोंके लिये एक विशेष ध्यान देनेकी बात है कि वास्तवमें हमारा स्वरूप अहंता (मैंपन)-से रहित है। अहंता (मैंपन) और ममता (मेरापन)—दोनों अपने स्वरूपमें मानी हुई हैं, वास्तविक नहीं हैं। अगर ये वास्तविक होतीं तो हम कभी निर्मम और निरहंकार नहीं हो सकते और भगवान् भी निर्मम और निरहंकार होनेकी बात नहीं कहते। परन्तु हम निर्मम और निरहंकार हो सकते हैं, तभी भगवान् ऐसा कहते हैं।
‘मैं’ क्या है?
प्रत्येक मनुष्यका यह अनुभव है कि ‘मैं हूँ’। यह ‘मैं हूँ’ ही चिज्जडग्रन्थि है। यद्यपि इसमें ‘मैं’ की मुख्यता प्रतीत होती है और ‘हूँ’ उसका सहायक प्रतीत होता है, तथापि वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो मुख्यता ‘हूँ’ (सत्ता) की ही है, ‘मैं’ की नहीं। कारण कि ‘मैं’ तो बदलता है, पर ‘हूँ’ नहीं बदलता। जैसे, ‘मैं बालक हूँ; मैं जवान हूँ; मैं बूढ़ा हूँ; मैं रोगी हूँ; मैं नीरोग हूँ’—इनमें ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला। ‘हूँ’ निर्विकार रूपसे सदा रहता है। ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ प्रकृतिसे अतीत परमात्माका अंश है। यह ‘हूँ’ सत्ताका वाचक है। ‘मैं’ साथमें होनेसे ही यह ‘हूँ’ है। अगर ‘मैं’ साथमें न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। वह ‘है’ सर्वदेशीय है। ‘मैं’ के कारण ही एकदेशीय ‘हूँ’ का भान होता है।
मैं, तू, यह और वह—इन चारोंमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’ है, शेष तीनोंके साथ ‘है’ है; जैसे—तू है, यह है और वह है। अनादिकालसे चले आये अनन्त प्राणियोंको हम ‘है’ कह सकते हैं कि ‘ये प्राणी हैं’। पृथ्वी, स्वर्ग, नरक, पाताल आदि सभी लोकोंको ‘है’ कह सकते हैं। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग—चारों युगोंको ‘है’ कह सकते हैं। परन्तु ‘मैं’ कहनेवाला एक ही है। आजकलकी भाषामें सब-के-सब वोट ‘है’ के ही हैं, ‘मैं’ का केवल एक ही वोट है।
‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्ता है। ‘मैं’ और ‘हूँ’— दोनोंका एक हो जाना, घुल-मिल जाना तादात्म्य (चिज्जडग्रन्थि) है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि हम नित्य-निरन्तर रहनेवाले आनन्दको भी चाहते हैं और नाशवान् भोग तथा संग्रहको भी चाहते हैं। ये दो विभाग ‘मैं’ और ‘हूँ’ के तादात्म्यके कारण ही हैं।
हम सदा रहना (जीना) चाहते हैं तो यह इच्छा न तो उसमें होती है, जो सदा नहीं रहता और न उसमें ही होती है, जो सदा रहता है। यह इच्छा उसमें होती है, जो सदा रहता है, पर उसमें मृत्युका भय आ गया। मृत्युका भय जडताके संगसे आता है; क्योंकि जडता नाशवान् है, चिन्मय सत्ता अविनाशी है। तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता (‘है’)-में ‘मैं’ मिलानेसे ही जीनेकी इच्छा होती है। अत: जीनेकी इच्छा न ‘मैं’ में है और न ‘हूँ’ में है, प्रत्युत ‘मैं हूँ’—इस तादात्म्यमें है। इस तादात्म्यके कारण ही मनुष्यमें भोगेच्छा और जिज्ञासा (मुमुक्षा) दोनों रहती हैं।
‘मैं हूँ’—इन दोनोंमें हम ‘मैं’ को प्रधानता देंगे तो संसार (भोग एवं संग्रह)-की इच्छा हो जायगी और ‘हूँ’ को प्रधानता देंगे तो परमात्मा (मोक्ष)-की इच्छा हो जायगी। जब ‘मैं’ से माना हुआ सम्बन्ध अर्थात् तादात्म्य मिट जायगा, तब संसारकी इच्छा मिट जायगी और परमात्माकी इच्छा पूरी हो जायगी। कारण कि संसार अपूर्ण है, इसलिये उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती और परमात्मा पूर्ण हैं, इसलिये उनकी इच्छा कभी अपूर्ण नहीं होती अर्थात् पूरी ही होती है। भोगेच्छा हो अथवा मुमुक्षा हो, इच्छामात्र जड़के सम्बन्ध (तादात्म्य)-से ही होती है। तादात्म्य मिटते ही हम जीवन्मुक्त हो जाते हैं। वास्तवमें हम जीवन्मुक्त तो पहलेसे ही हैं, पर ‘मैं’ के साथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लेनेसे जीवन्मुक्तिका अनुभव नहीं होता। इसलिये जो नित्यप्राप्त है, उसीकी प्राप्ति होती है और जो नित्यनिवृत्त है, उसीकी निवृत्ति होती है।
हमारा अनुभव
प्रश्न—‘मैं’ अलग है और ‘हूँ’ अलग है—इसका अनुभव कैसे करें?
उत्तर—यह तो हम सबके अनुभवकी ही बात है। जाग्रत् और स्वप्नमें तो हमारा व्यवहार होता है, पर सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा)-में कोई व्यवहार नहीं होता। कारण कि सुषुप्ति-अवस्थामें मैंपन जाग्रत् नहीं रहता, प्रत्युत अविद्यामें लीन हो जाता है। परन्तु मैंपन लीन होनेपर भी हमारी सत्ता रहती है। इसीलिये सुषुप्तिसे जगनेपर हम कहते हैं कि ‘मैं ऐसे सुखसे सोया कि मेरेको कुछ भी पता नहीं था’ तो ‘कुछ भी पता नहीं था’—इसका पता तो था ही! नहीं तो कैसे कहते कि कुछ भी पता नहीं था? इससे सिद्ध हुआ कि जाग्रत् और स्वप्नमें मैंपन जाग्रत् रहनेपर भी हमारी सत्ता है तथा सुषुप्तिमें मैंपन जाग्रत् न रहनेपर भी हमारी सत्ता है। अत: हम मैंपनके भाव और अभाव दोनोंको जाननेवाले हैं। अगर हम मैंपनसे अलग न होते, अहंकाररूप ही होते तो सुषुप्तिमें मैंपनके लीन होनेपर हम भी नहीं रहते*।
* सुषुप्तिमें मैंपन मिटता नहीं है, प्रत्युत अविद्यामें लीन होता है और निद्राके मिटनेपर (जाग्रत्-अवस्थामें आनेपर) वह पुन: प्रकट हो जाता है। परन्तु तत्त्वज्ञान होनेपर मैंपन मिट जाता है।
अत: मैंपनके बिना भी हमारा होनापना सिद्ध होता है।
हम अहम् (‘मैं’)-के भाव और अभाव—दोनोंको जानते हैं, पर अपने अभावको कभी कोई नहीं जानता; क्योंकि हमारी सत्ताका अभाव कभी होता ही नहीं—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)। असत् वस्तु अहम् के भाव और अभावको प्रकाशित करनेवाली हमारी सत्ता निरन्तर रहती है। जैसे, कल हम जाग्रत् में थे, रात्रिमें स्वप्न अथवा गाढ़ निद्रा आ गयी और आज पुन: जाग्रत् में हैं तो जाग्रत् और स्वप्नमें अहम् के भावका अनुभव होता है, पर गाढ़ निद्रामें अहम् के अभावका अनुभव होता है। जाग्रत् आदि अवस्थाएँ निरन्तर नहीं रहतीं—यह भी हमारा अनुभव है। अत: हमारा स्वरूप अहम् तथा अवस्थाओंके भाव और अभावको प्रकाशित करनेवाला अलुप्त प्रकाश है। इसीलिये हम कहते हैं कि कल जो मैं जागता था, वही आज जागता हूँ और वही स्वप्न तथा सुषुप्तिमें था। तात्पर्य है कि तीनों अवस्थाओंमें हमें अखण्ड-रूपसे अपनी सत्ताका अनुभव होता है। इसी तरह हम किसी भी योनिमें जायँ, हमारी अहंता तो बदलती है, पर हम नहीं बदलते। जैसे पहले हम कहते थे कि ‘मैं बालक हूँ’, फिर हम कहने लगे कि ‘मैं जवान हूँ’ और अब हम कहते हैं कि ‘मैं वृद्ध हूँ’ तो बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था तो अलग-अलग हुए, पर उनमें हमारी सत्ता एक ही रही अर्थात् अवस्थाओंके बदलनेपर भी हमारी सत्ता नहीं बदली। ऐसे ही जीव मनुष्यशरीरमें आनेपर ‘मैं मनुष्य हूँ’ ऐसा मानता है, देवता बननेपर ‘मैं देवता हूँ’ ऐसा मानता है, पशु बननेपर ‘मैं पशु हूँ’ ऐसा मानता है, भूत-प्रेत बननेपर ‘मैं भूत-प्रेत हूँ’ ऐसा मानता है, आदि-आदि। इससे यह सिद्ध होता है कि देहान्तरकी प्राप्ति होनेपर अहंता तो बदल जाती है, पर हमारी सत्ता नहीं बदलती।
इस प्रकार सुषुप्तिमें अहंकारके अभावका और अवस्थाओं तथा देहान्तरकी प्राप्तिमें अहंकारके परिवर्तनका अनुभव तो सबको होता है, पर अपनी सत्ताके अभाव और परिवर्तनका अनुभव कभी किसीको हुआ नहीं, हो सकता नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि अहंकार (मैंपन) हमारा स्वरूप नहीं है। हमारेसे गलती यह होती है कि हम अपने इस अनुभवका आदर नहीं करते, इसको महत्त्व नहीं देते। अगर हम इस अनुभवको महत्त्व दें तो अनादिकालसे अहंकारके साथ अपनेपनके जो संस्कार भीतर पड़े हैं, वे संस्कार अपने-आप कम होते-होते मिट जायँगे।
हमारा स्वरूप
हमारा स्वरूप सत्तामात्र है। उस सत्तामें मैं-तू-यह-वहका भेद नहीं है। मैं, तू, यह और वह—ये चारों प्राकृत हैं और स्वरूप प्रकृतिसे अतीत है। ये चार हैं और सत्ता एक है। ये चारों अनित्य हैं और सत्ता नित्य है। ये चारों सापेक्ष हैं और सत्ता निरपेक्ष है। ये चारों प्रकाश्य हैं और सत्ता प्रकाशक है। ये चारों आधेय हैं और सत्ता आधार है। ये चारों जाननेमें आनेवाले हैं और सत्ता जाननेवाली है। इन चारोंका परिवर्तन तथा अभाव होता है और सत्ताका कभी परिवर्तन तथा अभाव नहीं होता। इसलिये इन चारोंके बदलनेका, आने-जानेका, भाव-अभावका, उत्पन्न-नष्ट होनेका तो अनुभव होता है, पर अपने बदलनेका, आने-जानेका, भाव-अभावका, उत्पन्न-नष्ट होनेका अनुभव कभी किसीको नहीं होता।
मैं, तू, यह और वह—ये चारों तो असत्, जड़ और दु:खरूप हैं, पर चिन्मय सत्ता सत्, चित् और आनन्दरूप है। इस चिन्मय सत्तामें सबकी स्वत: निरन्तर स्थिति है। सांसारिक स्थूल व्यवहार करते हुए भी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। उसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई विकार, हलचल, अशान्ति, उद्वेग नहीं होता। कारण कि सत्तामें न अहंता (मैंपन) है, न ममता (मेरापन) है। वह सत्ता ज्ञप्तिमात्र, ज्ञानमात्र है। इस ज्ञानका ज्ञाता कोई नहीं है अर्थात् ज्ञान है, पर ज्ञानी नहीं है। जबतक ज्ञानी है, तबतक एकदेशीयता, व्यक्तित्व है। एकदेशीयता मिटनेपर एकमात्र निर्विकार, निरहंकार, सर्वदेशीय सत्ता शेष रहती है, जो सबको स्वत:प्राप्त है*।
* वास्तवमें सत्ताका वर्णन शब्दोंसे नहीं कर सकते। उसको असत् की अपेक्षासे सत्, विकारकी अपेक्षासे निर्विकार, अहंकारकी अपेक्षासे निरहंकार, एकदेशीयकी अपेक्षासे सर्वदेशीय कह देते हैं, पर वास्तवमें उस सत्तामें सत्, निर्विकार आदि शब्द लागू होते ही नहीं। कारण कि सभी शब्दोंका प्रयोग सापेक्षतासे और प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है, जबकि सत्ता निरपेक्ष और प्रकृतिसे अतीत है। इसलिये गीतामें आया है कि उस तत्त्वको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है—‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३। १२)।
स्वरूपमें जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों ही अवस्थाएँ नहीं हैं। ये पाँचों अवस्थाएँ अनित्य हैं और स्वरूप नित्य है। अवस्थाएँ प्रकाश्य हैं और स्वरूप प्रकाशक है। अवस्थाएँ अलग-अलग (पाँच) हैं, पर उनको जाननेवाले हम स्वयं एक ही हैं। इन पाँचों अवस्थाओंके परिवर्तन, अभाव तथा आदि-अन्तका अनुभव तो हमें होता है, पर अपने (स्वरूपके) परिवर्तन, अभाव तथा आदि-अन्तका अनुभव हमें नहीं होता; क्योंकि स्वरूपमें ये हैं ही नहीं। जैसे स्वप्नावस्थामें देखे गये पदार्थ मिथ्या (अभावरूप) हैं, ऐसे ही उन पदार्थोंका अनुभव करनेवाला (स्वप्नको देखनेवाला) अहंकार भी मिथ्या है। स्वप्नावस्थामें तो जाग्रत्-अवस्था दबती है, मिटती नहीं, पर जाग्रत्-अवस्थामें स्वप्नावस्था मिट जाती है। अत: स्वप्नावस्थाके साथ-साथ उसका अहंकार भी मिट जाता है। इसी तरह जाग्रत्-अवस्थामें जो अहंकार दीखता है, वह भी शरीर छूटनेपर मिट जाता है; परन्तु तादात्म्यके कारण दूसरे देहकी प्राप्ति होनेपर पुन: अहंकार जाग्रत् हो जाता है। यद्यपि जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओंका अहंकार भी अलग-अलग होता है, तथापि उनमें अपनी सत्ता एक रहनेके कारण अहंकार भी एक दीखता है।
एक तुरीयावस्था (चतुर्थ अवस्था) होती है, जिसको जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिके बादकी अवस्था कहते हैं। परन्तु वास्तवमें तुरीयावस्था कोई अवस्था नहीं है, प्रत्युत तीन अवस्थाओंकी अपेक्षासे उसको तुरीयावस्था अर्थात् चतुर्थ अवस्था कह देते हैं। इसको बद्धावस्थाकी अपेक्षासे मुक्तावस्था भी कह देते हैं। निर्वाण पद भी इसीका नाम है—
पद निरवाण लखे कोई विरला,
तीन लोकमें काल समाना,
चौथे लोकमें नाम निसाण,
लखे कोई विरला।
तुरीयावस्था, मुक्तावस्था अथवा निर्वाण पद कोई अवस्था या पद नहीं है, प्रत्युत हमारा स्वरूप है।
मैंपनको मिटानेका उपाय
‘मैंपन कैसे मिटे?’ यह प्रश्न यदि हरदम जाग्रत् रहे तो अहंकार मिट जायगा। वास्तवमें अहंकार मिटा हुआ ही है। परन्तु सच्ची और उत्कट लगन न होनेके कारण इसका अनुभव नहीं हो रहा है। एक सन्तके चरित्रमें आया है कि गरमीका समय था, जोरसे प्यास लग रही थी और कमण्डलुमें ठण्डा जल भी पासमें रखा था; परन्तु लगन लगी थी कि जबतक अनुभव नहीं होगा, तबतक पानी नहीं पीऊँगा! ऐसी लगन लगते ही चट अनुभव हो गया! ऐसा अनुभव एक बार हो जायगा तो फिर वह सदाके लिये, युग-युगान्तरतकके लिये हो जायगा—‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता ४। ३५)।
अहंकारको मिटानेके तीन उपाय बताये गये हैं—कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। कर्मयोगमें निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करें, दूसरोंको सुख पहुँचाएँ तो अपने भोग और संग्रहकी इच्छा मिट जायगी। भोगेच्छा सर्वथा मिटनेपर अहंकार नष्ट हो जायगा; क्योंकि भोगेच्छापर ही अहंकार टिका हुआ है। ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा यह समझें कि असत् के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है, प्रत्युत हमारा सम्बन्ध सर्वव्यापक सत्-स्वरूपके साथ है। ऐसा समझकर सत्-स्वरूपका अनुभव कर लें तो अहंकार नष्ट हो जायगा। भक्तियोगमें ‘भगवान् ही मेरे हैं, संसार मेरा नहीं है’—ऐसा मानकर संसारसे विमुख और भगवान् के सम्मुख हो जायँ तो अहंकार नष्ट हो जायगा। कर्मयोगमें अहंकार शुद्ध होता है, ज्ञानयोगमें अहंकार मिटता है और भक्तियोगमें अहंकार बदलता है। शुद्ध होना, मिटना और बदलना—तीनोंका परिणाम एक (अभाव) ही है।
अहंकार अनित्य और परिवर्तनशील है—यह सबका अनुभव है। एक दिनमें कई बार अहंकार बदलता है। बापके सामने हम कहते हैं कि मैं बेटा हूँ और बेटेके सामने कहते हैं कि मैं बाप हूँ। अगर कोई हमसे पूछे कि आप एक बात बताओ कि आप बाप हो या बेटा हो तो हम क्या बतायेंगे? एक बात सच्ची हो तो बतायें! इस बनावटीपनको छोड़कर जब हम वास्तविकताको देखेंगे तभी सच्ची बात मिलेगी। हम माँके सामने बेटे बन जाते हैं, बहनके सामने भाई बन जाते हैं, स्त्रीके सामने पति बन जाते हैं—यह जो हमारा बहुरूपियापना है अर्थात् बदलनेवालेको सत्य मानना है, यही अहंकारके मिटनेमें बाधक है। वास्तवमें हम न बाप हैं, न बेटे हैं, न भाई हैं, न पति हैं, प्रत्युत इन सबमें रहनेवाली एक सत्ता है। वह सत्ता ही हमारा स्वरूप है। अगर अपना स्वरूप बाप होता तो वह कभी बेटा नहीं बनता और बेटा होता तो कभी बाप नहीं बनता। परन्तु बेटेके सामने वह कहता है कि मैं बाप हूँ और बापके सामने कहता है कि मैं बेटा हूँ तो यह सापेक्ष अहंवृत्ति है, जो केवल व्यवहारके लिये है। अहंवृत्ति कर्ता नहीं है, प्रत्युत करण है। कर्ता अहंकार है। खाता हूँ, पीता हूँ, बोलता हूँ आदि सामान्य क्रियाएँ ‘अहंवृत्ति’ से होती हैं, पर अहंकार सब क्रियाओंमें निरन्तर रहता है। उन क्रियाओंको लेकर जब हम अपनेमें कोई विशेषता देखते हैं, तब अभिमान हो जाता है; जैसे—मैं धनवान् हूँ, मैं विद्वान् हूँ, मैं व्याख्यानदाता हूँ आदि।
गीतामें आया है—
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।
(३।२७)
‘अहंकारसे मोहित अन्त:करणवाला अर्थात् अहंकारसे तादात्म्य करनेवाला मनुष्य अपनेको कर्ता मान लेता है।’ वास्तवमें स्वरूप (स्वयं) कर्ता नहीं है। अत: साधकको चाहिये कि वह ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ इसपर दृढ़ रहे—‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (गीता ५। ८)। जब अपनेमें कर्तापन और लिप्तता नहीं रहती, तब साधकको पूर्णता प्राप्त हो जाती है, वह सिद्ध हो जाता है—‘यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते’ (गीता १८। १७)।
पदार्थ, रुपये, कुटुम्ब, शरीर आदिमें जो प्रियता (राग) है, वह बुद्धिकी लिप्तता है। कर्तापन और लिप्तता—दोनों ही स्वरूपमें नहीं हैं, प्रत्युत मानी हुई हैं—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता१३। ३१)। जैसे हम किसी प्रकाशमें बैठे हैं तो वह प्रकाश किसीसे भी लिप्त नहीं होता और उसमें ‘मैं प्रकाश हूँ; मेरा प्रकाश है’—ऐसी अहंता-ममता भी नहीं होती, ऐसे ही सम्पूर्ण क्रियाओंको प्रकाशित करनेपर भी स्वरूप (स्वयं) निर्लिप्त रहता है। वह क्रियाओंको प्रकाशित करता नहीं है, प्रत्युत क्रियाएँ उससे प्रकाशित होती हैं अर्थात् स्वरूपसे उन क्रियाओंको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है।
तादात्म्यसे राग-द्वेष, हर्ष-शोक, चिन्ता-भय, उद्वेग-हलचल आदि विकार उत्पन्न होते हैं। अगर ये विकार न होते हों, प्रत्युत अपनेमें केवल एकदेशीयपना दीखता हो तो यह भी साधकको असह्य होना चाहिये। कारण कि अहंता तो एकदेशीय है, पर सत्ता एकदेशीय नहीं है। जब सत्ता ही अपना स्वरूप है तो फिर अपनेमें एकदेशीयपना क्यों दीखता है—ऐसा विचार करके साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये। इसलिये पूर्वसंस्कारसे अपनेमें एकदेशीयपना (अहंता) दीखे तो साधकको ऐसा मानना चाहिये कि वास्तवमें अहंता आ नहीं रही है, प्रत्युत जा रही है। दरवाजेपर आदमी आता हुआ भी दीखता है और जाता हुआ भी दीखता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अहंताके टुकड़े होते हैं। अहंताके टुकड़े नहीं होते, प्रत्युत अनादिकालसे अहंताके जो संस्कार पड़े हुए हैं, उनका अचानक भान हो जाता है। अत: उसको महत्त्व न देकर उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये और दृढ़तासे यह अनुभव करना चाहिये कि अपनेमें अहंता नहीं है।
जब प्रकृतिका कोई भी कार्य स्थिर नहीं है तो फिर अहंता कैसे स्थिर रहेगी? अहंता हरदम बदलती है, कभी स्थिर और एकरूप नहीं रहती और न रह सकती है। परन्तु जो प्रकृतिसे अतीत तत्त्व (अपनी सत्ता) है, वह कभी बदलता नहीं, सदा स्थिर और एकरूप रहता है। अत: बदलनेवाली वस्तुके साथ हमारा (न बदलनेवालेका) सम्बन्ध है ही नहीं—ऐसा दृढ़तासे अनुभव कर लेना चाहिये; क्योंकि यह वास्तविकता है।
मैंपनकी खोज
अब यह खोज करनी है कि मैंपन किसमें है? यदि सत् में मैंपन मानें तो फिर मैंपन कभी मिटेगा ही नहीं और मनुष्य कभी निर्मम-निरहंकार हो ही नहीं सकेगा। मैंपन प्रकृतिका कार्य है और सत्-तत्त्व प्रकृतिसे अतीत है। मैंपन प्रकृतिमें भी नहीं है, फिर प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें कैसे होगा? सत्-तत्त्व इतना ठोस है कि उसमें मिटनेवाले मैंपनकी कल्पना ही नहीं हो सकती। यदि असत् में मैंपन मानें तो असत् निरन्तर परिवर्तनशील है, फिर उसमें मैंपन कैसे टिकेगा? जिसकी खुदकी ही सत्ता नहीं है, उसमें दूसरी वस्तुकी कल्पना कैसे बैठेगी? अत: मैंपन न तो सत् में है और न असत् में है। सत् और असत् के सम्बन्धमें भी मैंपन नहीं मान सकते। कारण कि जैसे प्रकाश और अंधकारका संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही सत् और असत् का भी संयोग नहीं हो सकता। मैंपनको अन्त:करणमें भी नहीं मान सकते; क्योंकि अन्त:करण एक वृत्ति है, जो कर्ताके अधीन है। अत: जो कर्ता है, उसीमें मैंपन है।
अब प्रश्न होता है कि कर्ता कौन है? शरीर कर्ता नहीं है; क्योंकि शरीर प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है। मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार—ये चार करण हैं, जिनको ‘अन्त:करण’ कहते हैं। यह अन्त:करण भी कर्ता नहीं है; क्योंकि करण कर्ताके अधीन होता है। परन्तु कर्ता स्वतन्त्र होता है—‘स्वतन्त्र: कर्ता’ (पाणि० अ० १। ४। ५४)। करण तो क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त सहायक होता है—‘साधकतमं करणम्’ (पाणि० अ० १। ४। ४२), इसलिये करणके बिना किसी क्रियाकी सिद्धि होती ही नहीं। जैसे, कलम स्वतन्त्रतासे नहीं लिखती, प्रत्युत वह तो लिखनेका एक साधन (करण) है, जो लेखक (कर्ता)-के अधीन होता है। अत: करण कर्ता नहीं होता और कर्ता करण नहीं होता। यदि अन्त:करण ‘करण’ है तो फिर वह कर्ता कैसे? दूसरी बात, यदि करणमें कर्तापन है तो फिर खुद सुखी-दु:खी क्यों होता है? यदि करण, सुखी-दु:खी होता है तो हमें क्या नुकसान है? सत्-स्वरूप भी कर्ता नहीं है; क्योंकि मैंपन तो प्रकृतिका कार्य है, वह प्रकृतिसे अतीतमें कैसे सम्भव है? यदि स्वरूपमें कर्तापन होता तो वह कभी मिटता नहीं; क्योंकि स्वरूप अविनाशी है। इसलिये गीतामें आया है—
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य:।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति:॥
(१८।१६)
‘जो कर्मोंके विषयमें शुद्ध आत्माको कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है।’
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥
(गीता १३।३१)
‘यह आत्मा शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।’
वास्तवमें जो भोक्ता (सुखी-दु:खी) होता है, वही कर्ता होता है। अब प्रश्न होता है कि भोक्ता कौन है? भोक्ता न सत् है, न असत् है। सत् भोक्ता नहीं हो सकता; क्योंकि सत् का कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सत:’, जबकि भोक्तापनका अभाव होता है—‘न लिप्यते’ (गीता १३।३१)। असत् भी भोक्ता नहीं हो सकता; क्योंकि असत् की सत्ता ही नहीं है—‘नासतो विद्यते भाव:’। अत: उसमें भोक्तापनकी कल्पना ही नहीं हो सकती। तात्पर्य यह हुआ कि कर्तापन और भोक्तापन न तो सत् में है और न असत् में ही है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह मैंपनको सत् से भी हटा ले और असत् से भी हटा ले। इन दोनोंसे मैंपन हटाते ही मैंपन नहीं रहेगा, कर्ता-भोक्ता नहीं रहेगा, प्रत्युत चिन्मय सत्ता रह जायगी।
जब कोई कर्ता-भोक्ता नहीं रहता, तब ‘योग’ रहता है। योग होनेपर भोग नहीं रहता अर्थात् ‘योग’ तो रहता है, पर योगी नहीं रहता, ‘ज्ञान’ तो रहता है, पर ज्ञानी नहीं रहता, ‘प्रेम’ तो रहता है, पर प्रेमी नहीं रहता। जबतक योगी रहता है, तबतक योगका भोग होता है। जबतक ज्ञानी रहता है, तबतक ज्ञानका भोग होता है। जबतक प्रेमी रहता है, तबतक प्रेमका भोग होता है। अत: जो योगी है, वह योगका भोगी है। जो ज्ञानी है, वह ज्ञानका भोगी है। जो प्रेमी है, वह प्रेमका भोगी है। जो योगका भोगी है, वह कभी विषयोंका भोगी भी हो सकता है। जो ज्ञानका भोगी है, वह कभी अज्ञानका भोगी भी हो सकता है। जो प्रेमका भोगी है, वह कभी काम (राग)-का भोगी भी हो सकता है।
जब भोगी नहीं रहता, तब केवल योग रहता है। योग रहनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। परन्तु मुक्त होनेपर भी महापुरुषने जिस साधनसे मुक्ति प्राप्त की है, उस साधनका एक संस्कार रह जाता है, जो दूसरे दार्शनिकोंके साथ एकता नहीं होने देता। इस संस्कारके कारण ही दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है। अपने मतका संस्कार दूसरे दार्शनिकोंके मतोंका समान आदर नहीं करने देता। परन्तु प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति होनेपर अपने मतका संस्कार भी नहीं रहता और सबके साथ एकता हो जाती है। इसलिये रामायणमें आया है—
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।
अभि अंतर मल कबहुँ न जाई॥
(मानस, उत्तर० ४९।३)
अत: कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं, पर भक्तियोग साध्य है। प्रेममें अपने मतके संस्कारका भी सर्वथा अभाव हो जानेसे सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और ‘वासुदेव: सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही हैं—इसका अनुभव हो जाता है। वास्तवमें ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव करनेवाला, इसको जाननेवाला, कहनेवाला भी नहीं रहता, प्रत्युत एक वासुदेव ही रहता है, जो अनादिकालसे ज्यों-का-त्यों है। सबमें परमात्माको देखनेसे सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव हो जाता है; क्योंकि अपने इष्ट परमात्मासे विरोध सम्भव ही नहीं है—‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’ (मानस, उत्तर० ११२ ख)। इसलिये गीतामें ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव करनेवाले महात्माको अत्यन्त दुर्लभ बताया है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(७। १९)
‘बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात् मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ वासुदेव ही है’—ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’