तू-ही-तू
(१)
उपनिषद्में आता है कि आरम्भमें एकमात्र अद्वितीय सत् ही विद्यमान था—‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य० ६।२।१)। वह एक ही सत्स्वरूप परमात्मतत्त्व एकसे अनेकरूप हो गया—
(१) सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति।
(छान्दोग्य० ६। २। ३)
(२) सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति।
(तैत्तिरीय० २। ६)
(३) एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति।
(कठ० २।२।१२)
एकसे अनेक होनेपर भी वह एक ही रहा, उसमें नानात्व नहीं आया—
(१) ‘नेह नानास्ति किञ्चन’
(बृहदारण्यक० ४। ४। १९, कठ० २।१।११)
(२) ‘एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति’
(गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्)
(३) ‘यत्साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म’
(बृहदारण्यक० ३। ४। १)
(४) ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’
(छान्दोग्य० ३। १४। १)
(५) ‘ब्रह्मैवेदं विश्वमिदम्’
(मुण्डक० २। २। ११)
इसलिये श्रीमद्भागवतमें भगवान् ने ब्रह्माजीसे कहा है—
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥
(२।९।३२)
‘सृष्टिके पहले भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था। सृष्टिके उत्पन्न होनेके बाद जो कुछ भी यह दृश्यवर्ग है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ। सृष्टिके बाद भी मैं ही हूँ और इन सबका नाश हो जानेपर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ।’
गीतामें भी भगवान् ने कहा है—
(१) अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥
(१०। २०)
‘सम्पूर्ण प्राणियोंके आदिमें भी मैं ही हूँ, मध्यमें भी मैं ही हूँ और अन्तमें भी मैं ही हूँ।’
(२) सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
(१०। ३२)
‘सम्पूर्ण सृष्टियोंके आदिमें भी मैं ही हूँ, मध्यमें भी मैं ही हूँ और अन्तमें भी मैं ही हूँ।’
(३) ‘मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’
(७। ७)
‘मेरे सिवाय इस जगत् का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है।’
(४) ‘वासुदेव: सर्वम्’
(७।१९)
‘सब कुछ परमात्मा ही हैं।’
(५) ‘सदसच्चाहमर्जुन’
(९। १९)
‘सत् और असत् भी मैं ही हूँ।’
(६) न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥
(१०। ३९)
‘वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना हो अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।’
सन्तोंने भी अपना अनुभव बताते हुए कहा है—
(१) तू तू करता तू भया, मुझमें रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू॥
(२) सब जग ईश्वर-रूप है, भलो बुरो नहिं कोय।
जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय॥
(३) सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
(मानस, किष्कंधा० ३)
(४) निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥
(मानस, उत्तर० ११२ ख)
(५) जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
(मानस, बाल० ७ ग)
(२)
गीतामें भगवान् ने कहा है कि मेरी दो प्रकृतियाँ हैं—अपरा और परा। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार—यह आठ प्रकारके भेदोंवाली भगवान् की ‘अपरा प्रकृति’ है और जीवरूप बनी हुई आत्मा ‘परा प्रकृति’ है*।
* भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
(गीता ७।४-५)
अपरा और परा—ये दोनों भगवान् की प्रकृतियाँ अर्थात् शक्तियाँ हैं। शक्तिमान् के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। इसलिये भगवान् की शक्ति होनेसे ये दोनों (अपरा और परा) भगवान् से अभिन्न हैं। जैसे मनुष्य अपनी शक्ति (ताकत)-को अपनेसे अलग करके नहीं दिखा सकता, ऐसे ही अपरा और पराको भगवान् से अलग करके नहीं देखा जा सकता। तात्पर्य यह निकला कि अपरा और परा—दोनों प्रकृतियाँ भगवान् से अभिन्न होनेके कारण भगवान् का स्वरूप ही हैं।
अनन्त ब्रह्माण्डोंमें तीन लोक, चौदह भुवन, जड़-चेतन, स्थावर-जंगम, थलचर-जलचर-नभचर, जरायुज-अण्डज-स्वेदज-उद्भिज्ज, सात्त्विक-राजस-तामस, मनुष्य, देवता, पितर, गन्धर्व, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, भूत-प्रेत-पिशाच, ब्रह्मराक्षस आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, पढ़ने, चिन्तन करने तथा कल्पना करनेमें आता है, उसमें ‘अपरा’ और ‘परा’—इन दो प्रकृतियोंके सिवाय कुछ भी नहीं है। जो देखने, सुनने, पढ़ने, चिन्तन करने तथा कल्पना करनेमें आता है और जिन शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् के द्वारा देखा, सुना, पढ़ा, चिन्तन किया तथा कल्पना किया जाता है, वह सब-का-सब ‘अपरा’ है। परन्तु जो देखता, सुनता, पढ़ता, चिन्तन करता तथा कल्पना करता है, वह ‘परा’ है। जितने भी शरीर हैं, वे सब-के-सब ‘अपरा’ के अन्तर्गत हैं और जितने भी जीव हैं, वे सब-के-सब ‘परा’ के अन्तर्गत हैं। अत: अनन्त ब्रह्माण्डोंके भीतर तथा बाहर और अनन्त ब्रह्माण्डोंके रूपमें आठ अपरा, एक परा और एक भगवान्—इन दसके सिवाय कुछ नहीं है अर्थात् एक भगवान् के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं है।
अपरा प्रकृतिको मैं, मेरा और मेरे लिये माननेसे ही जीवको अपरा (जगत् ), परा (जीव) और परमात्मा—तीनों अलग-अलग दिखायी देते हैं। वास्तवमें परमात्मा ही हैं, प्रकृति है ही नहीं। प्रकृतिकी तरफ दृष्टि होनेसे ही प्रकृति है। दृष्टि न हो तो प्रकृति है ही नहीं। द्रष्टा भी दृश्यके सम्बन्धसे है। साक्षी भी साक्ष्यके सम्बन्धसे है। जब हम अपनेको शरीर मानते हैं, तब भगवान् हमारे लिये संसार बन जाते हैं अर्थात् हमें संसार-रूपसे दीखने लगते हैं। जब अपरा और परा—दोनों प्रकृतियाँ भगवान् की हैं तो फिर उसमें मैं-तूका भेद कैसे हो सकता है?
अगर हम अपनेको देखें तो अपरा और पराके सिवाय हम कुछ नहीं हैं। हमारे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्—ये सब अपरा हैं और हम स्वयं जीवरूपसे परा हैं। परा-अपरा दोनों भगवान् की प्रकृतियाँ हैं; अत: केवल भगवान् ही रहे! हमारी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही! ‘मैं’ नामसे कुछ नहीं रहा!
प्रकृति और प्रकृतिवाला (शक्ति और शक्तिमान्) एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक हैं। एक ही अनेक रूपसे दीखता है और अनेक रूपसे दीखते हुए भी वह एक है। भगवान् कहते हैं—
मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियै:।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा॥
(श्रीमद्भा० ११।१३।२४)
‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि) ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ। अत: मेरे सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है—यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार कर लें।’
आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभु:।
त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वर:॥
(श्रीमद्भा० ११।२८।६)
‘जो कुछ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष वस्तु है, वह सर्वशक्तिमान् परमात्मा ही हैं। वे परमात्मा ही विश्व बनाते हैं और वे ही विश्व बनते हैं। वे ही विश्वके रक्षक हैं और वे ही रक्षित हैं। वे ही सर्वात्मा भगवान् विश्वका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वह विश्व भी वे ही हैं।’
तैत्तिरीयोपनिषद्में आया है—
अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्।
अहमन्नादोऽहमन्नादोऽहमन्नाद:।
(३। १०। ६)
‘अन्न भी मैं ही हूँ और अन्नको खानेवाला भी मैं ही हूँ।’
संसारको सत्ता देकर उसको अपना मानने और उसकी आवश्यकताका अनुभव करनेसे मनुष्यको परमात्मासे दूरी, भेद और भिन्नता दीखती है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह भगवान् को अपना माने और उनकी आवश्यकताका अनुभव करे। इन दो बातोंका पालन करनेसे ही साधकका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और परमात्मासे समीपता, अभेद तथा अभिन्नताका अनुभव हो जायगा। तात्पर्य यह हुआ कि साधक जबतक परमात्माके सिवाय अन्य कुछ भी सत्ता मानता है, तबतक उसकी परमात्मासे दूरी, भेद तथा भिन्नता बनी रहती है। एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है—इस वास्तविकताका अनुभव होनेपर दूरी, भेद तथा भिन्नता मिट जाती है और साधक साध्यमें लीन हो जाता है।
(३)
सब कुछ भगवान् ही हैं—यह गीताका सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त है और इसका अनुभव करनेवालेको भगवान् ने अत्यन्त दुर्लभ महात्मा कहा है—
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७।१९)
श्रीमद्भागवतमें भगवान् ने कहा है—
अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम।
मद्भाव: सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभि:॥
(११।२९।१९)
‘मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें मन, वाणी तथा शरीरके बर्तावमें मेरी ही भावना की जाय।’
उपनिषदोंमें इस बातको समझनेके लिये तीन दृष्टान्त दिये गये हैं—सोनेका, लोहेका और मिट्टीका। जैसे सोनेके अनेक गहने होते हैं। उन गहनोंकी आकृति, नाम, रूप, तौल, उपयोग, मूल्य आदि अलग-अलग होनेपर भी उनमें सोना एक ही होता है। लोहेके अनेक अस्त्र-शस्त्र होते हैं, पर उनमें लोहा एक ही होता है। मिट्टीके अनेक बर्तन होते हैं, पर उनमें मिट्टी एक ही होती है। ऐसे ही भगवान् से उत्पन्न हुई सृष्टिमें अनेक प्राणी, पदार्थ आदि होनेपर भी उनमें भगवान् एक ही हैं।
सोनेसे बने हुए गहनोंमें सोना प्रत्यक्ष दीखता है, लोहेसे बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा प्रत्यक्ष दीखता है और मिट्टीसे बने हुए बर्तनोंमें मिट्टी प्रत्यक्ष दीखती है; परन्तु परमात्मासे बने हुए संसारमें परमात्मा प्रत्यक्ष नहीं दीखते। इसलिये सब कुछ परमात्मा ही हैं—इस बातको समझनेके लिये गेहूँके खेतका दृष्टान्त दिया जाता है।
किसानलोग गेहूँकी हरी-भरी खेतीको भी गेहूँ ही कहते हैं। खेतीको गाय खा जाती है तो वे कहते हैं कि तुम्हारी गाय हमारा गेहूँ खा गयी, जबकि गायने गेहूँका एक दाना भी नहीं खाया! खेतमें भले ही गेहूँका एक दाना भी दिखायी न दे, पर यह गेहूँ है—इसमें किसानको किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं होता। कोई शहरमें रहनेवाला व्यापारी हो तो वह उसको गेहूँ नहीं मानेगा, प्रत्युत कहेगा कि यह तो घास है, गेहूँ कैसे हुआ? मैंने बोरे-के-बोरे गेहूँ खरीदे और बेचे हैं, मैं जानता हूँ कि गेहूँ कैसा होता है। परन्तु किसान यही कहेगा कि यह वह घास नहीं है, जिसको पशु खाया करते हैं। यह तो गेहूँ है। कारण कि आरम्भमें बीजके रूपमें गेहूँ ही था और अन्तमें भी इसमेंसे गेहूँ ही निकलेगा। अत: बीचमें खेतीरूपसे यह गेहूँ ही है। जो आरम्भ और अन्तमें होता है, वह बीचमें भी होता है—यह सिद्धान्त है—‘यस्तु यस्यादिरन्तश्च स वै मध्यं च तस्य सन्।’ (श्रीमद्भा० ११।२४।१७)
भगवान् सम्पूर्ण सृष्टिके आदि बीज हैं—
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥
(गीता १०।३९)
‘हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज (मूल कारण) है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना हो अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।’
सांसारिक बीज तो वृक्षसे पैदा होता है और फिर वृक्षको पैदा करके स्वयं नष्ट हो जाता है, पर भगवान् पैदा नहीं होते और अनन्त सृष्टियोंको पैदा करके भी स्वयं ज्यों-के-त्यों रहते हैं। इसलिये भगवान् ने अपनेको ‘सनातन’ और ‘अव्यय’ बीज कहा है—
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।.
(गीता ७।१०)
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥
(गीता ९।१८)
आमके बगीचेमें आमका एक फल भी न हो तो भी वह बगीचा आमका ही कहलाता है। कारण कि पहले भी आमके बीज थे, फिर उनसे वृक्ष उत्पन्न हुए और अन्तमें उनमें आम ही निकलेंगे, इसलिये बीचमें भी वह आमका ही बगीचा कहलाता है। लौकिक बीजसे तो एक ही प्रकारकी खेती होती है; जैसे—गेहूँके बीजसे गेहूँ ही पैदा होता है, बाजरेसे बाजरा ही पैदा होता है, ज्वारसे ज्वार ही पैदा होता है, मक्केसे मक्का ही पैदा होता है, आमसे आम ही पैदा होता है, आदि-आदि। सबके बीज अलग-अलग होते हैं। परन्तु भगवान् रूपी बीज इतना विलक्षण है कि उस एक ही बीजसे अनन्त भेदोंवाली सृष्टि पैदा हो जाती है—
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता॥
(गीता १४।४)
‘हे कुन्तीनन्दन! सम्पूर्ण योनियोंमें प्राणियोंके जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ।’
सृष्टिसे पहले भी परमात्मा थे—‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य० ६। २। १) और अन्तमें भी परमात्मा ही रहेंगे—‘शिष्यते शेषसंज्ञ:’ (श्रीमद्भा० १०।३।२५), फिर बीचमें दूसरा कहाँसे आया? सोनेके गहनोंमें सोना दीखता है और गेहूँकी खेतीमें गेहूँ नहीं दीखता—इसका तात्पर्य दीखने या न दीखनेमें नहीं है, प्रत्युत तत्त्वको एक बतानेमें है। सभी दृष्टान्तोंका तात्पर्य है कि तत्त्व एक ही है, चाहे दीखे या न दीखे। भगवान् कहते हैं—
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥
(गीता ९।१९)
अमृत भी भगवान् का स्वरूप है, मृत्यु भी भगवान् का स्वरूप है। सत् भी भगवान् का स्वरूप है, असत् भी भगवान् का स्वरूप है। सुन्दर पुष्प खिले हों, सुगन्ध आ रही हो तो वह भी भगवान् का स्वरूप है और मांस, हड्डियाँ, मैला पड़ा हो, दुर्गन्ध आ रही हो तो वह भी भगवान् का स्वरूप है। भगवान् ने राम, कृष्ण आदि रूप भी धारण किये और मत्स्य, कच्छप, वराह आदि रूप भी धारण किये। वे कोई भी रूप धारण करें, हैं तो भगवान् ही! वे चाहे किसी भी रूपमें आयें, उनकी मरजी है। वे जैसा रूप धारण करते हैं, वैसी ही लीला करते हैं। वराह (सूअर)-का रूप धारण करके वे वराहकी तरह लीला करते हैं, मनुष्यका रूप धारण करके वे मनुष्यकी तरह लीला करते हैं। नरसिंहरूपसे वे प्रह्लादजीको चाटते हैं!
भगवान् उत्तंक ऋषिसे कहते हैं—
धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च॥
तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव।
(महाभारत, आश्व० ५४।१३-१४)
‘मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ।’
भगवान् सत्ययुगमें सत्ययुगकी लीला करते हैं, कलियुगमें कलियुगकी लीला करते हैं। कोई पाप, अन्याय करता हुआ दीखे तो समझना चाहिये कि भगवान् कलियुगकी लीला कर रहे हैं। वे कोई भी रूप धारण करके कैसी ही लीला करें, हमारी दृष्टि उनको छोड़कर कहीं जानी ही नहीं चाहिये। भगवान् कहते हैं—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६।३०)
‘जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’
जैसे सब जगह बर्फ-ही-बर्फ पड़ी हो तो बर्फ कैसे छिपेगी? बर्फके पीछे बर्फ रखनेपर भी बर्फ ही दीखेगी! ऐसे ही जब सब रूपोंमें भगवान् ही हों तो भगवान् कैसे छिपेंगे? कहाँ छिपेंगे? किसके पीछे छिपेंगे? तात्पर्य है कि एक परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण हैं। उस परमात्मामें न मैं है, न तू है, न यह है, न वह है। न भूत है, न भविष्य है, न वर्तमान है। न सर्ग-महासर्ग है, न प्रलय-महाप्रलय है। न देवता है, न मनुष्य है, न राक्षस है। न पशु है, न पक्षी है। न प्रेत है, न पिशाच है। न जड़ है, न चेतन है। न स्थावर है, न जंगम है। एक परमात्माके सिवाय कुछ भी नहीं है। वे एक ही अनेक रूपोंमें बने हुए हैं। वे एक ही अनन्त रूपोंमें भासित हो रहे हैं।
(४)
सब कुछ भगवान् ही हैं—यह बात हमें दीखे चाहे न दीखे, हमारे जाननेमें आये चाहे न आये, हमारे अनुभवमें आये चाहे न आये, पर हम दृढ़तासे इस बातको स्वीकार कर लें कि वास्तवमें बात यही सच्ची है। कमी है तो हमारे माननेमें कमी है, वास्तविकतामें कमी नहीं है। सब कुछ भगवान् ही हैं—ऐसा अनुभव करनेके लिये क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत केवल भावकी आवश्यकता है। हमें केवल अपनी भावना बदलनी है। जब साधककी अन्तर्वृत्ति हो, तब एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है और जब साधककी बाह्यवृत्ति हो, तब जो कुछ दीखे, वह भगवान् की ही लीला है!
भगवान् की अपरा प्रकृतिके सम्मुख होनेसे ही हमारी भगवान् से विमुखता हो गयी है। अगर हम अपरासे विमुख हो जायँ और जिसकी अपरा प्रकृति है, उसके (भगवान् के) सम्मुख हो जायँ तो वास्तविकताका अनुभव हो जायगा—‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥’ (गीता ७।१४)।
भगवान् कहते हैं—
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥
(गीता ७।१२)
‘जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझमें ही रहते हैं—ऐसा समझो। परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं।’
‘न त्वहं तेषु ते मयि’ कहनेका तात्पर्य है कि तुम गुणोंमें उलझो मत। भगवान् तो सबमें ही हैं। वे गुणोंमें भी हैं। पर गुणोंमें उलझनेसे हम उनसे दूर हो जाते हैं। यदि हम भगवान् को सत्ता और महत्ता न देकर गुणोंको सत्ता और महत्ता देंगे तो हम जन्म-मरणमें चले जायँगे—‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥’ (गीता १३। २१)। जैसे, गेहूँके खेतमें गेहूँ ही मुख्य होता है, पत्ती-डंठल नहीं। गेहूँके पौधेमें जड़ तामस है, डंठल राजस है, सिट्टा सात्त्विक है और गेहूँ (दाना) गुणातीत है। किसानका उद्देश्य केवल गेहूँको प्राप्त करनेका ही होता है। गेहूँको प्राप्त करनेके लिये ही वह सारी मेहनत करता है, खेतीमें जल-खाद आदि डालता है। गेहूँ प्राप्त होनेके बाद उसका पत्ती-डंठलसे कोई मतलब नहीं रहता; क्योंकि उसकी दृष्टिमें पत्ती-डंठलका कोई महत्त्व नहीं है। इसी तरह साधकका उद्देश्य भी केवल भगवान् का ही होता है, सात्त्विक-राजस-तामस तीनों गुणोंका नहीं। जैसे, गेहूँसे पैदा होनेपर भी पत्ती-डंठलसे किसानका कोई प्रयोजन नहीं होता, ऐसे ही भगवान् से उत्पन्न होनेपर भी सात्त्विक-राजस-तामस भावोंसे साधकका कोई प्रयोजन नहीं होता।
जैसे, बालक मिट्टीका खिलौना चाहता है तो पिताजी रुपये खर्च करके भी उसके लिये मिट्टीका खिलौना लाकर देते हैं। ऐसे ही हम संसारको चाहते हैं तो भगवान् संसाररूपमें हमारे सामने आ जाते हैं। हम शरीर बनते हैं तो भगवान् विश्व बन जाते हैं। शरीर बननेके बाद फिर विश्वसे भिन्न कुछ भी जाननेमें नहीं आता—यह नियम है।
सब कुछ भगवान् हैं—इसका चिन्तन नहीं करना है, प्रत्युत इसको स्वयंसे स्वीकार करना है। स्वीकार करते ही हमारी दृष्टि बदल जायगी। दृष्टिमें ही सृष्टि है। हमारी दृष्टि बदलेगी तो सारी सृष्टि बदल जायगी! इसलिये अपनी दृष्टि ऐसी बनाओ कि सब रूपोंमें भगवान् ही दीखने लग जायँ। यही सच्ची आस्तिकता है।
भक्तराज ध्रुव कहते हैं—
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम्॥
(विष्णुपुराण १।१२। ५१)
‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति—ये सब जिनके रूप हैं, उन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।’
अगर हमारे भीतर राग-द्वेष होते हैं तो हमने ‘सब कुछ भगवान् हैं’—यह बुद्धिसे सीखा है, स्वयंसे स्वीकार नहीं किया है। बुद्धिसे सीखनेपर कल्याण नहीं होता, प्रत्युत स्वयंसे स्वीकार करनेपर कल्याण होता है। जब सब कुछ भगवान् ही हैं तो फिर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे?
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥
(मानस, उत्तर० ११२ ख)
(५)
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान् ही हैं। मनकी स्फुरणामात्र भगवान् ही हैं। संसारमें अच्छा-बुरा, शुद्ध-अशुद्ध, शत्रु-मित्र, दुष्ट-सज्जन, पापात्मा-पुण्यात्मा आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, कहने, सोचने, समझने आदिमें आता है, वह सब-का-सब केवल भगवान् ही हैं। शरीर-शरीरी, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, अपरा-परा, क्षर-अक्षर आदि सब केवल भगवान् ही हैं। जब सब कुछ भगवान् ही हैं तो फिर उसमें ‘मैं’ कहाँसे आये? ‘मैं’ है ही नहीं, केवल तू-ही-तू है—
तू तू करता तू भया, मुझमें रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू॥
अब भगवान् की प्राप्तिमें देरी किस बातकी है? भगवत्प्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है। मान लो कि हम एक नदीको देख रहे हैं। किसी जानकार व्यक्तिने हमारेसे कहा कि यह नदी गंगाजी हैं। यह सुनते ही हमारी भावना बदल गयी, दृष्टि बदल गयी। इसमें देरी क्या लगी? परिश्रम (अभ्यास) क्या करना पड़ा? किस क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता पड़ी? सब कुछ भगवान् ही हैं—इस वास्तविक बातको स्वीकार करनेके लिये न कोई ग्रन्थ पढ़ना है, न कोई ध्यान करना है, न कोई चिन्तन करना है, न श्रवण-मनन-निदिध्यासन करना है, न आँख मीचनी है, न कान मूँदने हैं, न नाक दबानी है, न जंगलमें जाना है, न गुफामें जाना है, न हिमालयमें जाना है! अपनी सत्ताको भी अलग न रखकर भगवान् में मिला देना है। ‘मैं’ और ‘मेरा’ को छोड़कर ‘तू’ और ‘तेरा’ को स्वीकार करना है। फिर ‘तेरा’ भी न रहे, प्रत्युत तू-ही-तू रह जाय। ‘मैं’ की जगह भी केवल भगवान् ही रह जायँ!
यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु सब समयमें मौजूद होती है, उसकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं होती और जो वस्तु सब जगह मौजूद होती है, उसकी प्राप्ति किसी क्रिया तथा पदार्थसे नहीं होती। कहीं जानेसे जो परमात्मा मिलेंगे, वे ही परमात्मा जहाँ हम हैं, वहाँ पूरे-के-पूरे हैं। कहीं जानेकी, कुछ बदलनेकी जरूरत नहीं है। केवल मन बदलनेकी जरूरत है। उनकी प्राप्तिकी सच्ची चाहना होनी चाहिये। उनकी प्राप्ति केवल इच्छामात्रसे होती है। जो केवल परमात्माकी प्राप्ति चाहता है, उसको तत्काल प्राप्ति होती है। देरी उसको लगती है, जिसको इच्छाकी कमीके कारण देरी सह्य है।
जो वस्तु दूर हो, उसकी प्राप्तिके लिये मार्ग होता है। जो वस्तु सर्वव्यापक हो, सब जगह परिपूर्ण हो, उसकी प्राप्तिके लिये मार्ग नहीं होता। उसकी प्राप्ति केवल चाहनासे होती है। चाहनामात्रसे केवल परमात्मा ही मिलते हैं और कोई वस्तु नहीं मिलती। परमात्मा अद्वितीय हैं तो उनकी चाहना भी अद्वितीय होनी चाहिये। संसारकी प्राप्ति चाहनामात्रसे नहीं होती। संसारकी प्राप्ति ‘करने’ से होती है, परमात्माकी प्राप्ति ‘न करने’ से होती है।
मूलमें साधकके भीतर परमात्माकी लालसा होनी चाहिये। अगर भीतरसे संसार अच्छा लगता है, संसारकी लालसा है तो परमात्मप्राप्ति नहीं हो सकती। जैसे जिसके भीतर प्यास होती है, उसीको जल दीखता है, ऐसे ही जिसके भीतर संसारकी प्यास (लालसा) है, उसको संसार दीखता है और जिसके भीतर परमात्माकी प्यास है, उसको परमात्मा दीखते हैं। प्यास न हो तो वस्तु सामने रहते हुए भी नहीं दीखती। परमात्माकी प्यास हो तो जगत् लुप्त हो जाता है और जगत् की प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं। जिसके भीतर जगत् की प्यास है, वह जगत् का निर्माण कर लेता है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७। ५) और जिसके भीतर परमात्माकी प्यास है, वह परमात्माकी खोज कर लेता है—‘तत: पदं तत्परिमार्गितव्यम्’ (गीता १५। ४)। जगत् की प्यास होनेसे जगत् न होते हुए भी मृगमरीचिकाकी तरह दीखने लग जाता है और परमात्माकी प्यास होनेसे परमात्मा न दीखनेपर भी दीखने लग जाता है। परमात्माकी प्यास जाग्रत् होनेपर साधकको भूतकालका चिन्तन नहीं होता, भविष्यकी आशा नहीं रहती और वर्तमानमें उसको प्राप्त किये बिना चैन नहीं पड़ता।
(६)
अपरा, परा और परमात्मा—इन तीनोंमें अपरा और परा तो जाननेका विषय है, पर परमात्मा जाननेका विषय नहीं हैं, प्रत्युत माननेका विषय हैं। उनको माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता। रचना अपने रचयिताको कैसे जान सकती है? कार्य अपने कारणको कैसे जान सकता है? इसलिये गीतामें भगवान् ने कहा है—
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
(७।२६)
‘हे अर्जुन! जो प्राणी भूतकालमें हो चुके हैं तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे, उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता हूँ, पर मुझे कोई भी नहीं जानता।’
न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:॥
(१०।२)
‘मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न महर्षि; क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ।’
जैसे, अपने माता-पिताको हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही सकते हैं; क्योंकि जन्म लेते समय हमने उनको देखा ही नहीं, देखना सम्भव ही नहीं। ऐसे ही परमात्माको भी हम जान नहीं सकते, प्रत्युत मान ही सकते हैं। माताकी अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि मातासे जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चुका था, पर पितासे जन्म लेते समय हमारी (शरीरकी) सत्ता ही नहीं थी! भगवान् सम्पूर्ण संसारके पिता हैं—‘अहं बीजप्रद: पिता’ (गीता१४।४), ‘पिताहमस्य जगत:’ (गीता९।१७), ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता११।४३), ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५।७)। इसलिये परमात्माको माना ही जा सकता है। उनको जानना सर्वथा असम्भव है। जैसे, माता-पिताको माने बिना हम रह सकते ही नहीं। अगर हम अपनी (शरीरकी) सत्ता मानते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी। ऐसे ही परमात्माको माने बिना हम रह सकते ही नहीं। अगर हम अपनी सत्ता (होनापन) मानते हैं तो परमात्माकी सत्ता माननी ही पड़ेगी। कारणके बिना कार्य कहाँसे आया? परमात्माके बिना हम स्वयं कहाँसे आये? जैसे ‘हम नहीं हैं’—इस तरह अपने होनेपनका कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा नहीं हैं’—इस तरह परमात्माके होनेपनका भी कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता।
सब कुछ भगवान् ही हैं—यह मान ही सकते हैं, जान नहीं सकते; क्योंकि यह समझके अन्तर्गत नहीं आता, प्रत्युत समझ (बुद्धि) इसके अन्तर्गत आती है।
(७)
सब कुछ भगवान् ही हैं—इसका अनुभव करनेके तीन चरण हैं, जो क्रमश: इस प्रकार हैं—
१.सब कुछ भगवान् का ही है।
२.सब कुछ भगवान् ही हैं।
३.भगवान् के सिवाय कभी कुछ हुआ ही नहीं।
देखने-सुननेमें जो कुछ आता है, वह सब मिलने और बिछुड़नेवाला है। जो मिला है, वह बिछुड़ जायगा—इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है। अनन्त ब्रह्माण्डोंमें तिल-जितनी कोई वस्तु भी हमारी नहीं है। जो कुछ देखने-सुननेमें आता है, वह सब अपरा प्रकृति है, जो भगवान् की है। भगवान् ने अपरा प्रकृतिको भी ‘मेरी प्रकृति’ कहा है—‘अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥’ (गीता७।४) और परा प्रकृतिको भी ‘मेरी प्रकृति’ कहा है—‘प्रकृतिं विद्धि मे पराम्’ (गीता ७। ५)। फिर हमारी क्या वस्तु हुई? सब कुछ भगवान् का ही हुआ! अत: जो कुछ दीखता है, वह हमारा नहीं है, प्रत्युत भगवान् का है—यह दृढ़तासे स्वीकार कर लें तो हमारा साधन शुरू हो जायगा। जबतक हम मिले हुएको अपना मानते रहेंगे, तबतक साधन शुरू नहीं होगा। मिले हुएको अपना मानते रहनेसे न तो विवेक दृढ़ होता है और न विश्वास ही दृढ़ होता है। इसलिये सन्तोंने, भक्तोंने कभी संसारको अपना नहीं माना, प्रत्युत केवल भगवान् को ही अपना माना—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’। ‘मैं’ भी हमारा नहीं है, प्रत्युत भगवान् का ही है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब भगवान् के ही हैं।
मेरा कुछ नहीं है, सब कुछ भगवान् का ही है—इस सत्यकी स्वीकृति होते ही ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—यह सत्य प्रकट हो जायगा। कारण कि यह जगत् केवल जीवकी कल्पना है। जगत् न तो महात्माकी दृष्टिमें है और न परमात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवात्माकी दृष्टिमें है। महात्माकी दृष्टिमें सब कुछ भगवान् ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’ (गीता ७।१९)। भगवान् की दृष्टिमें सत्-असत् सब कुछ वे ही हैं—‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९।१९)। परन्तु जीवने अपने राग-द्वेषके कारण जगत् को अपनी बुद्धिमें धारण कर रखा है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता७।५)। वास्तवमें जगत् का नामोनिशान भी नहीं है। सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिमें केवल भगवान्-ही-भगवान् परिपूर्ण हैं। अगर यह बात हमारी समझमें नहीं आती तो हमारी समझमें कमी है, तत्त्वमें कमी नहीं है। भले ही हमारी समझमें न आये, पर सच्ची बात सच्ची ही रहेगी, झूठी कैसे हो जायगी? साधक कुछ भी करे, अन्तमें उसे सच्ची बातको स्वीकार करना ही पड़ेगा।
‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव होनेके बाद फिर ‘सर्वम्’ भी नहीं रहता, प्रत्युत केवल ‘वासुदेव:’ रह जाता है। इसीको श्रीमद्भागवतमें ‘आत्यन्तिक प्रलय’ कहा गया है (१२।४। २३—३४) और इसीको गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने ‘परम विश्राम’ कहा है—‘पायो परम बिश्रामु’ (मानस, उत्तर० १३०। ३)। जैसे, जबतक गेहूँकी खेती रहती है, तबतक पत्ती-डंठल दीखते हैं। अन्तमें पत्ती-डंठल नहीं रहते, केवल गेहूँ रह जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि केवल वासुदेव-ही-वासुदेव विद्यमान है। अन्य कुछ है ही नहीं, कभी हुआ ही नहीं, कभी होगा ही नहीं, कभी हो सकता ही नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि एक परमात्माके सिवाय कोई चीज कभी पैदा हुई ही नहीं! इस स्थितिका वर्णन नहीं हो सकता; क्योंकि वर्णन करनेवाला कोई (व्यक्ति) रहता ही नहीं!
भगवान् कहते हैं—
सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया।
परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशय:॥
(श्रीमद्भा०११।२९।१८)
‘जब सबमें परमात्मबुद्धि की जाती है, तब सब कुछ परमात्मा ही हैं—ऐसा दीखने लगता है। फिर इस परमात्मदृष्टिसे भी उपराम होनेपर सम्पूर्ण संशय स्वत: निवृत्त हो जाते हैं।’
‘उपरमेत्’ पदका तात्पर्य है कि साधक ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—इस वृत्तिसे भी उपराम हो जाता है, इस वृत्तिको भी छोड़ देता है; क्योंकि उसकी दृष्टिमें ‘सब कुछ’ रहता ही नहीं। इसलिये वृत्ति छूटनेपर एक भगवान् ही रह जाते हैं। तात्पर्य है कि भक्त सर्वत्र परिपूर्ण भगवान् के शरणागत होकर अपने-आपको भी भगवान् में ही लीन कर देता है। फिर शरणागत नहीं रहता, केवल शरण्य रह जाते हैं। ‘मैं’ नहीं रहता, केवल भगवान् रह जाते हैं। यही असली शरणागति है। ऐसी शरणागतिके बाद फिर परमप्रेमकी प्राप्ति होती है—‘मद्भक्तं लभते पराम्’ (गीता १८।५४)। भगवान् अपनी इच्छासे प्रेमलीलाके लिये एकसे दो हो जाते हैं—
द्वैतं मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया।
भक्त्यर्थं कल्पितं (स्वीकृतं) द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम्॥
(बोधसार, भक्ति० ४२)
‘तत्त्वबोधसे पहलेका द्वैत तो मोहमें डालता है, पर बोध हो जानेपर भक्तिके लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर होता है।’
भगवान् की इच्छासे होनेवाला यह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है। इसलिये कभी भक्त और भगवान् एक हो जाते हैं और कभी दो हो जाते हैं। प्रेममें यह मिलना और अलग होना (मिलन और विरह) भगवान् की इच्छासे ही होता है, भक्तकी इच्छासे नहीं। इस प्रेमकी माँग मुक्त महापुरुषोंमें भी देखी जाती है। कारण कि योग और बोधकी प्राप्ति होनेपर तो सूक्ष्म अहम् रहता है*, पर प्रेमकी प्राप्ति होनेपर इस सूक्ष्म अहम् का भी सर्वथा अभाव हो जाता है।
* यह सूक्ष्म अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर मतभेद पैदा करनेवाला होता है। इस सूक्ष्म अहम् के कारण ही आचार्योंमें तथा उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है।
तभी कहा है—
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥
(मानस, उत्तर० ४९।३)
उपसंहार
यह जगत् भगवान् का आदि अवतार है—‘आद्योऽवतार: पुरुष: परस्य’ (श्रीमद्भा०२।६।४१)। एक परमात्मा ही अनेक रूप बन जाते हैं और फिर अनेक रूपका त्याग करके एक रूप हो जाते हैं। अनेक रूपसे होनेपर भी वे एक ही रहते हैं। वे एक रहें या अनेक हो जायँ, यह उनकी मरजी है, उनकी लीला है। एक सोनेके सैकड़ों गहने बन जायँ और फिर गहने पुन: सोना हो जायँ अथवा एक खाँड़के सैकड़ों खिलौने बन जायँ और फिर खिलौने पुन: खाँड़ हो जायँ, फर्क क्या पड़ा? ऐसे ही भगवान् कुछ भी बन जायँ, फर्क क्या पड़ा? तत्त्व एक ही है और एक ही रहेगा। उस एक तत्त्वके सिवाय कभी कुछ हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता ही नहीं। एकमात्र भगवान् ही थे, भगवान् ही हैं और भगवान् ही रहेंगे। वे एक ही भगवान् प्रेमी और प्रेमास्पदका रूप धारण करके प्रेमकी लीला करते हैं। उस प्रतिक्षण वर्धमान परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता है।