Hindu text bookगीता गंगा
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गुरु-शिष्य-संवाद

‘प्यास लगी है? जल चाहते हो? तो जाओ। पीछे लौट जाओ! तुम्हारे गाँवमें ही सरोवर भरा है, बड़ा मधुर जल है, अमृत है, उसे पीकर तृप्त होओ! क्या तुम्हें वह सरोवर नहीं दीख पड़ा? तभी तो यहाँ दौड़े आये हो और दौड़ रहे हो। ठहरो! आगे मत बढ़ो। अरे! अब भी नहीं सुनते? कहाँ जाते हो आगे? क्या वहाँ जल धरा है? देखो! गाँवके सरोवरको छोड़कर इधर आनेवाले तुम-जैसे कितने गँवार प्यासोंकी लाशें पड़ी सड़ रही हैं। ढेर लगा है! तुम्हारी भी यही दशा होगी! छटपटाकर मर जाओगे! यहाँ जलका नाम-निशान भी नहीं है। दुपहरके सूर्यकी किरणोंसे तुम्हें इस जगह जलका भ्रम हो रहा है। कितनी दूर आ गये? क्या तुम्हें राहमें कहीं जलकी बूँद भी मिली? जल तो पहलेसे ही दीखता था। यह दीखना बंद भी नहीं होगा। जितना आगे दौड़ोगे, उतना ही आगे दीखेगा, मिलेगा कभी नहीं। मिले कहाँसे? हो तब न! जब थक जाओगे, दौड़ते-दौड़ते दम भर जायगा तब गिर पड़ोगे। एक तो भयानक प्यास, दूसरे धूपकी गरमी और तीसरे थकावट! बेहोश हो जाओगे, मर जाओगे! इससे भाई! लौट जाओ। चलो, तुम्हें जल्दी ही तुम्हारे गाँव पहुँचा देता हूँ। देखो, इस राहसे जाओ, तुम जिस राहसे आये थे, वह बड़ी लंबी है। मैं बताता हूँ। इस राहसे जाओगे तो अभी तुरंत पहुँच जाओगे। अपने अमृत-सरोवरमें सुधा पानकर तृप्त हो जाओगे। प्यास बुझ जायगी—सदाके लिये बुझ जायगी! फिरो—वापस फिरो।’

एक महात्मा किसी पथभ्रान्त श्रान्त पथिकसे ऐसा उपदेश कर रहे थे। दूसरे एक साधुने इस उपदेशको सुनकर अपने शिष्यसे कहा कि देख, जो संसारमें सुख चाहता है वह अनेक योनियोंमें भटकनेपर भी सुखको नहीं प्राप्त होता। इन्द्रका पद मिल जानेपर भी तृप्त नहीं होता। माया-मरीचिकाकी भाँति सुख आगे ही दीखता है। आगे जाता है तब भी उसे उसी अशान्ति और दु:खके दर्शन होते हैं। सुख तो अपने आत्मामें—अपने ही अन्दर भरा पड़ा है। जो उसे पहचानकर उस अमृतका पान करता है, वही सुखी और तृप्त होता है।

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‘अरे पागल कुत्ते! हड्डी क्यों चबाता है? किसी गृहस्थके द्वारपर जा। सूखी रोटी मिल जायगी जिससे पेट भरेगा, तृप्ति होगी, पर तू क्यों मानने लगा? तुझे तो खून चाहिये। अरे मूर्ख! यह तो सोच, तू जिस खूनके स्वादसे सुखी हो रहा है, वह किसका है? कहाँसे आया? क्या इस हड्डीमें खून है? यह तो सूखी है, खून तो तेरे ही मसूड़ोंका है, जो हड्डीकी चोटसे बाहर निकल रहा है और तू भ्रमसे उसमें स्वाद ले रहा है। अरे! यह खून तो तेरे ही अन्दर भरा है। मूर्ख! अपना ही खून निकालकर तू आप क्यों पीता है? हड्डी छोड़ दे। देख, मसूड़ोंमें घाव हो जायगा, बड़ी वेदना होगी। खून तो तेरे अन्दर है ही!’

साधुने यह सुनकर अपने शिष्यसे कहा कि ‘वत्स! विषयके साथ इन्द्रियका संयोग होनेपर जो कुछ सुखकी प्रतीति होती है वह सुख वास्तवमें उस विषयमें नहीं है। विषय तो हड्डीकी भाँति दु:खरूप और आघात ही पहुँचानेवाले हैं, सुख तो अपने आत्मामें है और वह तुमसे कभी भिन्न नहीं! इच्छित वस्तुके प्राप्त होनेपर जब कुछ समयके लिये मन निश्चल होता है, तब उसमें सुखरूप आत्माका प्रतिबिम्ब पड़ता है। वही आत्मसुख, विषयसुखके रूपमें दीखता है, जैसे कुत्तेको अपने मसूड़ोंका खून भ्रमसे हड्डीमें प्रतीत हो रहा है। अतएव विषयोंसे सुखकी प्राप्तिको भ्रम समझकर तू उस आत्मानन्दका अनुभव कर।’

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सेठजीने कहा—हरिकी माँ! तिजूरीमेंसे थोड़ा सोना तो निकाल ला। वह बोली—सोना कहाँ है, क्या लाकर दिया था? तिजोरीमें तो रत्तीभर भी सोना नहीं है।

सेठजी—अरी पगली! नहीं कैसे है? सेरों सोना भरा है, मुझे तो एक अँगूठी बनवानेके लिये थोड़ा-सा ही चाहिये।

हरिकी माँ—अजब बात है! मैं कहती हूँ सोना है ही नहीं, अँगूठी बनवानी है तो बाजारसे ले आइये। घरमें है ही नहीं तब मैं दूँ कहाँसे?

सेठजी—अच्छा! जरा चाभी तो दो, मैं निकालता हूँ। हरिकी माँने झुँझलाकर चाभी दे दी और कौतूहलसे देखने लगी कि देखें ये बिना हुए सोना कहाँसे निकालते हैं। सेठजीने तिजोरी खोली और गहनोंके ढेरमेंसे एक टूटी हुई पुराने ढंगकी अँगूठी निकाल ली। ताला बंद करके चाभी हरिकी माँको दे दी। उसने कहा, निकाल लिया सोना? मैं तो पहले ही कहती थी कि नहीं है। सेठजीने अँगूठी दिखाकर कहा यह सोना नहीं तो क्या है?

हरिकी माँ—यह तो अँगूठी है।

सेठजी—अरी, अँगूठी तो इसका नाम है। गोलाकार बनी हुई है, यह इसका रूप है। है तो सोना ही।

हरिकी माँ—सोना कैसे है? अँगूठी प्रत्यक्ष दीखती है, आप सोना कहते हैं।

सेठजी—अच्छा, जब यह अँगूठी नहीं बनी थी तब यह क्या था?

हरिकी माँ—सोना।

सेठजी—गलानेके बाद क्या होगा?

हरिकी माँ—सोना।

सेठजी—ठीक! जरा विचार करो तो क्या इस समय यह सोना नहीं है?

हरिकी माँ—है तो सोना ही? परन्तु इसे कहते तो अँगूठी हैं न?

सेठजी—गोलाकार रूप हो गया इसीसे अँगूठी कहने लगे। मान लो, इसे कोई गलाकर नाकका गहना बनवा लें तो उसे क्या कहोगी?

हरिकी माँ—नथ!

सेठजी—उस समय क्या यह सोना नहीं रहेगा?

हरिकी माँ—रहेगा क्यों नहीं, नाम-रूप बदल जायगा!

सेठजी—तो बस, नाम-रूपसे ही गहने अलग-अलग माने जाते हैं और अलग-अलग व्यवहारमें आते हैं। है सब सोना ही।

हरिकी माँ—ठीक है, अब आपकी बात समझमें आ गयी।

साधुने पति-पत्नीकी इन बातोंको सुनकर शिष्यसे कहा—‘देख, इसी तरहसे नाम-रूपात्मक जगत् परमात्मामें कल्पित है और परमात्मा सबके एकमात्र अधिष्ठान और सबमें व्यापकरूपसे नित्य स्थित हैं। यही ब्रह्मज्ञान है।’

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