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पहिले अपनी ओर देखो!

‘जो राग-द्वेषरहित होता है, उसे गुण-दोष दोनों दीखते हैं, यदि ऐसा पुरुष किसीके दोषोंकी आलोचना करे और उसको दोषमुक्त करनेके लिये आवश्यकतानुसार कर्तव्यवश कड़े-से-कड़ा व्यवहार करे तो भी कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि अन्त:करण शुद्ध होनेके कारण उसका ज्ञान घृणा, द्वेष, क्रोध या हिंसासे ढक नहीं जाता, वह यदि एक दोषकी बहुत कड़ी समालोचना करता है तो दूसरे गुणकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा भी करता है। केवल दूसरेके दोषोंको ही देखनेवाले द्वेषी लोग ऐसा नहीं कर सकते।’

‘किसीके भी पापकी आलोचना करनेके साथ अपने हृदयको बड़ी सावधानीके साथ देखते रहो। उसमें कहीं द्वेष, क्रोध या हिंसाको तो स्थान नहीं मिल गया है, कहीं दूसरेको पापमुक्त करने जाकर स्वयं तो पापोंको आश्रय न दे चुके हो। यदि इस प्रकार पद-पदपर आत्म-निरीक्षण करते हुए दूसरेके पापोंकी आलोचना कर उसे पापोंसे छुड़ाना चाहो तो अवश्य तुम वैसा कर सकते हो।’

‘किसीके साथ घृणा, द्वेष, क्रोध या हिंसा न करके तुम उसपर कोई एहसान नहीं कर रहे हो। इसमें तुम केवल अपना ही भला करते हो। यदि ये दोष तुम्हारे हृदयमें आ जाते तो न मालूम उसका तो बिगाड़ होता या नहीं, पर तुम्हारा बिगाड़ तो अवश्य ही हो जाता।’

पाप आसक्तिसे होते हैं, आसक्ति विषयोंकी रमणीयताके ज्ञानसे होती है, यह ज्ञान ही अज्ञान है, इसीके द्वारा बुद्धि ढकी रहनेसे मनमें बुरे संस्कारोंको स्थान मिलता है। यह अज्ञान कुछ थोड़े-से महापुरुषोंको छोड़कर प्राय: सबमें रहता है। किसीमें अधिक तो किसीमें थोड़ा, इसलिये किसीसे भी घृणा न करो। अपनी ओर देखो कि तुम भी उसीके समान अज्ञानसे कभी पाप करते हो या नहीं।

जहाँतक हो सके, पापीको प्रेमके साथ अच्छी राहपर लाओ। पापीसे मनमें घृणा न करो, वह बेचारा भूला हुआ है। भूला हुआ सदा दयाका पात्र होता है। अतएव उसपर दया करो और सच्चे मनसे आर्त होकर परमात्मासे प्रार्थना करो कि वह पतितपावन उसकी पापबुद्धिका सर्वथा नाश कर दें।

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