Hindu text bookगीता गंगा
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सती-महिमा

यथा गंगावगाहेन शरीरं पावनं भवेत्।
तथा पतिव्रतादृष्ट्या शुभया पावनं भवेत्॥
(का०ख०अ०३।७०)

एक बार देवताओंने काशीनिवासी अगस्त्य मुनिके पास जानेका निश्चय किया और तदनुसार खास-खास देवताओंका एक दल देवगुरु बृहस्पतिकी अध्यक्षतामें चला। देवताओंने ऋषि अगस्त्यकी पर्णकुटीके पास पहुँचकर देखा कि हवनके धूएँकी मीठी सुगन्धसे सब दिशाएँ भर रही हैं। वेदाध्यायी विद्यार्थी बैठे वेदके सस्वर गानसे वन-प्रदेशको मुखरित कर रहे हैं, छोटे-छोटे हरिणोंके बच्चे ऋषि-कन्याओंके साथ निडर होकर खेल रहे हैं। देवताओंने अगस्त्यजीकी कुटियाके आगे पतिव्रताशिरोमणि अगस्त्यपत्नी सती लोपामुद्राके चरण चिह्न देखकर उनको प्रणाम किया। फिर तपोमूर्ति अगस्त्यको देखकर सबने जय-जयकारकी ध्वनि की। अगस्त्यने उठकर यथोचित आदर-सत्कार कर सबको यथायोग्य आसन दिये और उनसे आनेका कारण पूछा। देवताओंकी ओरसे बृहस्पतिजी कहने लगे—

हे महाभाग अगस्त्य! देवताओंके आनेका कारण मैं सुनाता हूँ। मुनिवर! आप धन्य हैं, आप कृतकृत्य हैं। आप तपकी श्री और ब्रह्मके तेजसे सम्पन्न हैं, आप उदार और मनस्वी हैं और सबसे अधिक महत्त्वकी बात यह है कि आपके घरमें कल्याणी पतिव्रता लोपामुद्रा-सरीखी सती देवी हैं। यह लोपामुद्रा अरुन्धती, सावित्री, अनसूया, शाण्डिल्या, सती, लक्ष्मी, शतरूपा, मेनका, सुनीति, संज्ञा और स्वाहा आदि पतिव्रताओंमें सबसे श्रेष्ठ समझी जाती हैं। यह आपके भोजन करनेके बाद भोजन करती हैं, आपके सोनेपर सोती हैं और आपसे पहले उठती हैं। आप जब किसी कामसे बाहर जाते हैं तब लोपामुद्रा कोई भी गहना नहीं पहनतीं। किसी पर-पुरुषका तो वह नाम भी नहीं लेतीं। आप कभी दो बात कह देते हैं तो भी वह सामने नहीं बोलतीं, आपके तकलीफ देनेपर भी उनकी प्रसन्नतामें कोई बाधा नहीं आ सकती, आप किसी कामके लिये उनसे कहनेमें चाहे देर कर दें, पर वह उसे करनेमें तनिक भी देर नहीं करतीं, आपके पुकारते ही सारे कामोंको छोड़कर दौड़ी आती हैं और पूछती हैं—‘नाथ! क्या आज्ञा है? सुनाकर कृतार्थ कीजिये।’ लोपामुद्रा दरवाजेपर बहुत देरतक खड़ी नहीं रहतीं। न दरवाजेमें वह बैठती हैं, आपकी आज्ञा बिना किसीको कुछ भी नहीं देतीं। आपके बिना कहे ही पूजाकी सारी सामग्री इकट्ठी कर देती हैं।

जल, कुश, पत्र, पुष्प और चावल आदि जब जिस चीजकी आपको आवश्यकता होती है, वह बड़ी प्रसन्नताके साथ पहलेसे उसे तैयार रखती हैं। आपके जूठे अन्न-फलोंका सेवन करती हैं। आपकी दी हुई चीजको महाप्रसाद समझकर ग्रहण करती हैं। देवता, पितर, अतिथि, सेवक, गौ और भिखारियोंको दिये बिना वह भोजन नहीं करतीं। घरके सारे सामानको अच्छी तरह साफ-सुथरा और सजाकर रखती हैं। काम-काजमें बड़ी चतुर और बहुत कम खर्च लगानेवाली हैं। आपकी आज्ञा बिना कभी व्रत-उपवासादि नहीं करतीं। सभा और उत्सवोंसे दूर रहती हैं। न आपके बिना तीर्थ-यात्रा करती हैं और न किसीकी विवाह-शादी देखने जाती हैं। जब आप सुखसे सोते या अपनी मौजमें बैठे होते हैं अथवा अपने मनोऽनुकूल काममें लगे रहते हैं, उस समय वह अपने जरूरी कामकी बात भी आपके सामने नहीं छेड़तीं। रजस्वला होनेपर तीन दिनतक वह आपसे इतनी अलग रहती हैं कि न तो आप उनका चेहरा देख पाते हैं और न उनके मुँहका कोई शब्द ही सुन सकते हैं। तीन दिनोंके बाद स्नान करके वह और किसीका मुँह न देखकर पहले आपका मुख दर्शन करती हैं। यदि कभी आप घरमें नहीं होते तो वह मन-ही-मन आपका ध्यान करती हुई सूर्यभगवान‍्का दर्शन कर लेती हैं। पतिव्रता लोपामुद्रा पतिकी दीर्घायुके लिये हल्दी, रोली, काजल, पान, सुपारी, मांगलिक गहने, केशोंका कबरी-बन्धन और हाथ-कानके गहने यानी चूड़ी और कर्णफूलका त्याग नहीं करतीं। लोपामुद्रा धोबिन, बकवाद करनेवाली, संन्यासिनी और बुरे लक्षणवाली स्त्रियोंको कभी धर्मबहिन नहीं बनातीं। पतिसे द्वेष रखनेवाली स्त्रियोंसे तो कभी बाततक नहीं करतीं। अकेली नहीं रहतीं और नंगी होकर कभी नहातीं नहीं। ऊखल, मूसल, झाड़ू चक्‍की और देहलीपर कभी बैठतीं नहीं। जिन-जिन भले कामोंमें आपकी रुचि होती है वह भी उन्हींको सदा अच्छा समझती हैं।

पतिके वचनोंको न टालना ही स्त्रियोंका व्रत, परमधर्म और देवपूजा है। कैसे भी पतिकी प्रतिकूलता स्त्रीको नहीं करनी चाहिये। स्त्रीको स्वामीकी प्रसन्नतामें प्रसन्न और उदासीमें उदास होना चाहिये। सती स्त्री सम्पद्-विपद् दोनोंमें स्वामीका बराबर साथ देती है। पतिव्रता स्त्रीको चाहिये कि वह घी, तेल, नमक आदि चुक जानेपर भी पतिसे उनके लिये तकाजा नहीं करे और विशेष परिश्रमके काममें पतिको नहीं लगावे। तीर्थ नहानेकी इच्छा होनेपर पतिका चरणोदक पी ले। पतिको शिव और विष्णुकी अपेक्षा भी ऊँचा मानना चाहिये। जो स्त्री पतिकी आज्ञा बिना व्रत-उपवासादि करती है वह पतिकी आयु घटाती है और मरनेपर नरकमें जाती है। जो स्त्री क्रोधमें आकर पतिको बदलेमें जवाब देती है वह दूसरे जन्ममें गाँवकी कुतिया और वनकी सियारी होती है। स्त्रीको दृढ़ संकल्पके साथ सदा पतिके चरणोंकी सेवा करके भोजन करना चाहिये। ऊँचे आसनपर बैठना और बिना मतलब पराये घरोंमें जाना नहीं चाहिये। शरमके शब्द कभी नहीं बोलने चाहिये। किसीकी निन्दा या भूलकर भी किसीसे कलह नहीं करना चाहिये। बड़ोंके सामने ऊँची आवाजसे बोलना और हँसना उचित नहीं। जो दुष्ट बुद्धिवाली स्त्री स्वामीको त्यागकर पशुवृत्ति अवलम्बन करती है वह दूसरे जन्ममें वृक्षोंमें रहनेवाली उलूकी होती है। जो स्त्री स्वामीको बदलेमें कष्ट देना चाहती है वह दूसरे जन्ममें बाघिनी या बिल्ली होती है। जो स्त्री पर-पुरुषको बुरी नजरसे देखती है वह चील होती है और जो चटोरपनके कारण स्वामीसे छिपाकर स्वयं मिष्टान्न खाती है वह शूकरी या बागल होती है। जो स्त्री वचनोंसे पतिका तिरस्कार करती है वह गूँगी होती है और जो सौतोंसे डाह करती है वह बार-बार अभागिनी होती है। जो पतिसे नजर छिपाकर पर-पुरुषको देखती है वह जन्मान्तरमें कानी, कुरूपा और कुमुखी होती है। (यही व्यवस्था पुरुषोंको स्त्रियोंके साथ दुर्व्यवहार करनेपर अपने लिये समझनी चाहिये।) जो स्त्री पतिको बाहरसे आया हुआ देखकर शीघ्र ही जल, आसनादि देती है और गर्मीसे व्याकुल पतिको हवा करके मीठी वाणी और चरण-सेवासे उसे प्रसन्न करती है वह तीनों लोकोंको प्रिय होती है। पिता, भाई, पुत्र आदि परिमित सुख देनेवाले हैं; परन्तु स्वामी तो अपार सुखका दाता है। स्त्रीको चाहिये कि वह सदा पतिकी पूजा किया करे। स्त्रियोंके लिये केवल पति ही देवता, गुरु, धर्म, तीर्थ और व्रत है। सती स्त्रीकी बड़ी महिमा है। यमदूत सतीको देखते ही उसके पापी पतिको भी छोड़कर भाग जाते हैं। यमदूत कहते हैं कि ‘हम पतिव्रताको आते देखकर जितने डरते हैं उतने अग्नि और बिजलीसे भी नहीं डरते।’ पतिव्रताके तेजसे सूर्य भी तपने लगता है, अग्नि भी जलने लगता है, उसके तेजके सामने सब काँपने लगते हैं। मनुष्यके शरीरमें जितने रोम हैं, उतने दस हजार करोड़ वर्षतक पतिव्रता स्त्री अपने पतिके साथ देवलोकमें सुख भोगती है।

धन्या सा जननी लोके धन्योऽसौ जनक: पुन:।
धन्य: स च पति: श्रीमान् येषां गेहे पतिव्रता॥
पितृवंश्या मातृवंश्या: पतिवंश्यास्त्रयस्त्रय:।
पतिव्रताया: पुण्येन स्वर्गसौख्यानि भुंजते॥

‘वे माता-पिता धन्य हैं जिनके घरमें पतिव्रता कन्या उत्पन्न हुई है और वह श्रीमान् पति भी धन्य है जिसके घरमें पतिव्रता पत्नी है। पतिव्रताके पुण्यसे उसके नैहर (पीहर), ननिहाल और अपने पतिके वंशकी तीन-तीन पीढ़ियाँ स्वर्गसुखको भोगती हैं।’

इसके विपरीत दुराचारिणी स्त्री अपने चरित्रदोषसे पितृकुल, मातृकुल और पतिकुल तीनोंको नीचे गिरा देती है और स्वयं भी इस लोक और परलोकमें दु:ख भोगती है। जिस-जिस जगह पतिव्रताका चरण टिकता है वहींकी भूमि यह समझती है कि ‘आज मैं परम पवित्र हो गयी। मुझे अब कोई भय नहीं रहा।’ सूर्य, चन्द्रमा और वायु डरते-डरते केवल अपनेको पवित्र करनेके लिये पतिव्रताका स्पर्श करते हैं। जल तो सदा ही पतिव्रताका स्पर्श करना चाहता है। जल समझता है कि ‘पतिव्रताके स्पर्शसे आज मेरी जडता दूर हो गयी, आज मैं दूसरोंको पवित्र करनेमें समर्थ हो गया।’ सुन्दरताका घमंड रखनेवाली स्त्रियाँ घर-घरमें मिल सकती हैं; परन्तु पतिव्रता स्त्री तो भगवान‍्की भक्तिसे ही मिलती है। गृहस्थ, सुख, धर्म और वंशवृद्धिका मूल भार्या ही है। भार्याकी सहायतासे ही लोक-परलोक सुधरता है। भार्याहीन पुरुष देव और पितृकार्य तथा अतिथि-सत्कारका भी अधिकारी नहीं होता। जिसके घरमें पतिव्रता स्त्री विद्यमान है वही यथार्थ गृहस्थ है। अपतिव्रता तो राक्षसी जराकी तरह पल-पलमें पतिको जीर्ण करती है। जैसे गंगास्नानसे शरीर पवित्र हो जाता है वैसे ही पतिव्रता स्त्रीकी शुभदृष्टिसे भी होता है।

जो स्त्री किसी कारणसे पतिके मरनेपर उसके साथ अपने प्राण त्याग न कर सके, उसे पवित्र भावसे अपने शीलकी रक्षा करनी चाहिये। आचरणभ्रष्ट होनेसे उसकी तो नीची गति होती ही है; परन्तु उसके पापसे स्वर्गमें रहनेवाले उसके माता-पिता और भाइयोंको भी नीचे गिरना पड़ता है। जो स्त्री पतिके मरनेपर विधवाव्रतका पालन करती है वह परलोकमें पुन: अपने स्वामीको पाकर सुख भोगती है। विधवाको बाल नहीं बाँधने चाहिये। बाल बाँधनेसे पतिका परलोकमें बन्धन होता है। विधवाको सिर मुँडवा लेना चाहिये, सादा भोजन करना चाहिये, पलंगपर कभी न सोकर जमीनपर सोना चाहिये, पलंगपर सोनेवाली स्त्री पतिको नीचे गिराती है। शरीरपर कभी उबटन या तैल, अतर-फुलेल नहीं लगाना चाहिये। प्रतिदिन पति, ससुर और दादाससुरके नाम-गोत्रका उच्चारणकर कुश और तिलोंके साथ जलसे तर्पण करना चाहिये, विधवा स्त्रीको पति समझकर विष्णुभगवान‍्का नित्य पूजन करना चाहिये और विष्णुरूप पतिका ही सदा ध्यान करना चाहिये। अपने और अपने पतिके मन भानेवाली चीजें भगवान‍्के नामसे दान करनी चाहिये। घरमें हो तो दान देना चाहिये। बैलकी सवारीपर कभी चढ़ना नहीं चाहिये। आँगी, चोली या रंगीन कपड़ा नहीं पहनना चाहिये, आँगी, चोलीके बदलेमें ऐसा कपड़ा पहनना चाहिये जिससे सारा बदन ढका रहे। ऐसे आचरणवाली विधवा स्त्री सदा ही मंगलमयी है। इस प्रकार धर्ममें तत्पर विधवाओंको कभी दु:ख भोगना नहीं पड़ता और अन्तमें वे पतिलोकको जाती हैं। पतिव्रता स्त्री गंगाके समान है, वह साक्षात् हरगौरीके तुल्य है। पण्डितोंको चाहिये कि वे सदा ऐसी स्त्रियोंकी पूजा किया करें।

इतना कहकर महामति बृहस्पतिजी लोपामुद्राके प्रति प्रणाम करके बोले—‘हे पति-चरणकमलोंमें नेत्र रखनेवाली महाभागे! तुम्हारे दर्शन पाकर हम कृतार्थ हुए, आज हमें गंगास्नानका फल मिला।’ इस प्रकार पतिव्रता राजकन्या महाभाग्यवती लोपामुद्राको प्रणाम करके वेदके ज्ञाता देवगुरु बृहस्पति अगस्त्य मुनिसे बोले—‘हे मुने! आप प्रणव हैं तो लोपामुद्रा श्रुति हैं, ये क्षमा हैं तो आप साक्षात् तप हैं। ये सत् क्रिया हैं तो आप उसके फल हैं, ये साक्षात् पतिव्रत-तेज हैं तो आप ब्रह्मतेज हैं।’

(स्कन्दपुराणसे)

उपर्युक्त वर्णनमें देवगुरु बृहस्पतिजीने स्त्री-धर्मका जो महान् उपदेश किया है, उसीके अनुसार हिंदू-स्त्रीको अपना जीवन बनाना चाहिये।

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