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सूक्तियाँ

  1. विशिष्टया विशिष्टेन संगमो गुणवान् भवेत्। (महा० वन० ५३। ३१)

‘यदि किसी विशिष्ट नारीका विशिष्ट पुरुषके साथ संयोग हो तो वह विशेष गुणकारी होता है।’

  1. नास्ति भार्यासमं मित्रं नरस्यार्तस्य भेषजम्॥ (६१। ३०)

‘दु:खी मनुष्यके लिये पत्नीके समान दूसरा कोई मित्र या औषध नहीं है।’

  1. नाकाले विहितो मृत्युर्मर्त्यानाम्।’ (६३। ७)

‘मनुष्योंकी मृत्यु असमयमें नहीं होती।’

  1. चत्वार एकतो वेदा: साङ्गोपाङ्गा: सविस्तरा:। स्वधीता मनुजव्याघ्र सत्यमेकं किलैकत:॥

    (६४। १७)

‘एक ओर अंग और उपांगोंसहित विस्तारपूर्वक चारों वेदोंका स्वाध्याय हो और दूसरी ओर केवल सत्यभाषण हो तो वह निश्चय ही उससे बढ़कर है।’

  1. ‘नाप्राप्तकालो म्रियते।’

    (६५। ३९)

‘जिसकी मृत्युका समय नहीं आया है, वह इच्छा होते हुए भी मर नहीं सकता।’

  1. न ह्यदैवकृतं किंचिन्नराणामिह विद्यते।

    (६५। ४०)

‘मनुष्योंको इस जगत् में कोई भी सुख या दु:ख ऐसा नहीं मिलता, जो विधाताका दिया हुआ न हो।’

  1. भर्ता नाम परं नार्या भूषणं भूषणैर्विना।

    (६८। १९)

‘वास्तवमें पति ही नारीका सबसे श्रेष्ठ आभूषण है। उसके होनेसे वह बिना आभूषणोंके सुशोभित होती है।’

  1. सर्व: सर्वं न जानाति सर्वज्ञो नास्ति कश्चन। नैकत्र परिनिष्ठास्ति ज्ञानस्य पुरुषे क्वचित्॥

    (७२। ८)

‘सब लोग सभी बातें नहीं जानते। संसारमें कोई भी सर्वज्ञ नहीं है तथा एक ही पुरुषमें सम्पूर्ण ज्ञानकी प्रतिष्ठा नहीं है।’

  1. वैषम्यमपि सम्प्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रिय:। आत्मानमात्मना सत्यो जित: स्वर्गो न संशय:॥

    (७०। ८; ७४। २५)

‘उत्तम कुलकी स्त्रियाँ बड़े भारी संकटमें पड़कर भी स्वयं अपनी रक्षा करती हैं। ऐसा करके वे स्वर्ग और सत्य दोनोंपर विजय पा लेती हैं, इसमें संशय नहीं है।’

  1. रहिता भर्तृभिश्चापि न क्रुध्यन्ति कदाचन। प्राणांश्चारित्रकवचान् धारयन्ति वरस्त्रिय:॥

    (७०। ९; ७४। २६)

‘श्रेष्ठ नारियाँ अपने पतिसे परित्यक्त होनेपर भी कभी क्रोध नहीं करतीं। वे सदा सदाचाररूपी कवचसे आवृत प्राणोंको धारण करती हैं।’

  1. अस्थिरत्वं च संचिन्त्य पुरुषार्थस्य नित्यदा। तस्योदये व्यये चापि न चिन्तयितुमर्हसि॥

    (७९। १२)

‘पुरुषको प्राप्त होनेवाले सभी विषय सदा अस्थिर एवं विनाशशील हैं। यह सोचकर उनके मिलने या नष्ट होनेपर तुम्हें तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।’

१२. विषमावस्थिते दैवे पौरुषेऽफलतां गते।
विषादयन्ति नात्मानं सत्त्वोपाश्रयिणो नरा:॥
(७९। १४)

‘जब दैव (प्रारब्ध) प्रतिकूल हो और पुरुषार्थ निष्फल हो जाय, उस समय भी सत्त्वगुणका आश्रय लेनेवाले मनुष्य अपने मनमें विषाद नहीं लाते।’

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