परम सेवा
प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ शुक्ल १, मंगलवार, संवत् २००१, दिनांक २३-५-१९४४, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
एक सेवा है और दूसरी परम सेवा। दूसरेके हितके लिये भोजन-वस्त्र देना, शरीरको आराम पहुँचाना, सांसारिक सुखके लिये तन-मन-धन अर्पण करना सेवा है। परम सेवा यह है कि अपना तन-मन-धन अर्पण करके दूसरेका कल्याण कर दे। किसीको आजीविका देना लौकिक सेवा है। जो परमात्माकी प्राप्तिमें लगे हुए हैं उन्हें परमात्माके निकट पहुँचनेमें मदद देना पारमार्थिक सेवा है। कोई मरनेवाला है और उसकी इच्छा है कि मुझे कोई गीताजी सुनावे। आप उसके पास पहुँच गये और उसको गीताजी सुनायी तो यह परम सेवा हुई। परम सेवा वह है जिसके बाद उसको सेवाकी आवश्यकता न रहे। आपने लाख आदमियोंकी सेवा की, रुपया-औषध दिया, भोजन आदि दिया, दूसरी ओर आपने एककी भी परम सेवा की तो यह उनसे बढ़कर है। उसके अनेक जन्मोंका अन्त करा दिया। अनन्त जन्म होनेसे उसकी रक्षा की। मृत्युका सागर सामने है। गीतामें भगवान् ने बताया है—
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता ९। २)
यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयोंका राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।
इस प्रकार भगवान् प्रतिज्ञा करके कहते हैं। अर्जुनको शंका हुई कि जब ऐसी सुगम और प्रत्यक्ष फलवाली धर्ममय बात है तो सब इसका पालन क्यों नहीं करते? तब भगवान् ने कहा—
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥
(गीता ९। ३)
हे परन्तप! इस उपर्युक्त धर्ममें श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्रमें भ्रमण करते रहते हैं।
जैसे जलका सागर है, वैसे मृत्युका सागर है। जैसे समुद्रमें जलके अनन्त कण हैं उसी प्रकार जबतक मोक्ष नहीं होगा तबतक भविष्यमें होनेवाली मृत्युकी संख्या नहीं है। आपके द्वारा एकका कल्याण हो गया तो वह परम-सेवा है। इसके मुकाबलेमें करोड़ोंकी आजीवन सेवा भी नहीं है। जब आपको परम-सेवाका मौका मिले—मरनेवाला चाहता है कि हमारा भविष्य नहीं बिगड़े तो ऐसी सेवा अवश्य करनी चाहिये। शिवका भक्त हो तो उसके गलेमें रुद्राक्षकी माला धारण करायें एवं भगवान् शिवका नाम और गुणोंका कीर्तन सुनायें और विष्णुका भक्त हो तो भगवान् नारायणका नाम और गुणोंका कीर्तन सुनायें, तुलसी तथा गंगाजल देवें। अन्तकालमें भगवन्नाम स्मरण करायें। उसके सामने भगवान् का चित्र रखें। नेत्रोंके सामने भगवान् का स्वरूप रहे और नामका कीर्तन होता रहे तो भीतर भगवान् की स्मृति होगी।
परम-सेवा करनेकी चेष्टा करें। भगवान् से प्रार्थना करें। यदि इस कामके लिये नरकमें भी जाना पड़े तो स्वीकार करें। वह नरक भी आपके लिये वैकुण्ठसे बढ़कर होगा। एक कथा आती है—कोई भक्त यमलोकके पाससे होकर जा रहा था, कुछ लोग रोते-चिल्लाते सुनायी पड़े। उसने भगवान् के पार्षदोंसे पूछा कि यह क्या है? पार्षद बोले—‘महाराज यह यमलोक है, यहाँ जीव यम-यातना भोग रहे हैं।’ अच्छा, विमान रोको और कुछ निकट ले चलो। पहुँचे तो लोगोंने कहा कि आपके दर्शनसे और आपके स्पर्श की हुई वायुसे हमें प्रसन्नता और शान्ति हो रही है। यमके सब शस्त्र भोथरे हो रहे हैं, यम-यातना कम हो गयी है, इसलिये आपसे यह प्रार्थना है कि आप जितनी देर अधिक ठहर सकें उतने अधिक ठहर जायँ। वे वहीं ठहर गये। पार्षदोंने कहा—महाराज! चलिये। उसने उत्तर दिया—हम तो यहीं ठहरेंगे। पार्षदोंने कहा—आपको तो वैकुण्ठलोकमें चलना है। उसने कहा कि भगवान् को यह संदेश दे देना कि इन लोगोंकी भी वहाँ गुंजाइश होती हो तो वहाँ चलें, अन्यथा हम यहीं रहेंगे। तुम पूछ आओ। पार्षद उधर गये और इधर इन्होंने भगवान् का कीर्तन कराना शुरू किया तो भगवान् प्रकट हो गये। सबका उद्धार कर दिया। किसीकी परम-सेवा करनेका मौका मिले तो परम सौभाग्य मानना चाहिये।
गीता, भागवत, रामायणकी पुस्तकें नि:शुल्क या कम कीमतमें दें। गीता, भागवत, रामायणकी कथा कहें—सुनावें या सुनें। किसी प्रकार प्रचार करें। पैसा, समय, शक्ति इस काममें लगायें, जो अपने जन हों उन्हें भी इस काममें लगायें। तन-मन-धन-जन सबको भगवान् के काममें लगायें। जो दूसरोंमें भगवान् का प्रचार करता है, वह भगवान् का परमभक्त है। भगवान् कहते हैं—‘हे अर्जुन! तुम्हारे और मेरे संवादका जो कोई संसारमें प्रचार करेगा, उससे बढ़कर मेरा प्यारा काम करनेवाला संसारमें न है और न होगा।’
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(गीता १८। ६९)
कबीर भक्त थे और उनका लड़का भी भक्त था। कबीर अपने लड़केको कहा करते थे कि बड़ी स्त्री माताके समान है, छोटी बहनके समान और भी छोटी हो तो वह पुत्रीके समान है। एक दिन कबीरने कहा—बेटा अब तुम्हारी आयु अठारह वर्षकी हो गयी है, तुम्हारा विवाह करेंगे। कमालने कहा—आप मेरा विवाह माता, बहिन या लड़की किसके साथ करेंगे? कहा भी गया है—‘आधा भक्त कबीर था, पूरा भक्त कमाल।’
रैदास भगवान् के भक्त थे, जातिके हरिजन थे। उनकी लड़की भी भक्त थी। कोई भगवान् के दर्शनके लिये रैदासके घर आया। रैदासने अपनी लड़कीसे कहा—बेटी, इसको गंगाजल पिला दो, इसे भगवान् के दर्शन हो जायँगे। जिस पानीमें चमड़ा रँगा जाता था उसमेंसे लोटा भरकर ले गयी। चमड़ा रँगनेवाला होनेसे उसने वह पानी नहीं पीया, किन्तु एक दूसरा भक्त जिसकी श्रद्धा थी उसने पी लिया तो उसे भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन हो गये, वह नाचने-गाने लगा। उसके कपड़ेपर कुछ पानी गिर गया था। वह कपड़ा पानीमें निचोड़-निचोड़कर लोग पानी पीने लगे, जिसने पीया उसको दर्शन हो गये। बादमें उस भक्तको अपनी भूल समझमें आयी तो वह रैदासजीके पास पुन: गया। रैदासजीने कहा—‘वह पानी मुलतान गया अब फेर नहीं आवना।’ वह लड़की तो ससुराल गयी। उसका ससुराल मुलतान था।
यह मनुष्य-शरीर, भारतभूमि, आर्यावर्त-उसमें भी उत्तराखण्ड, भगवती गंगाका किनारा, उसकी रेणुकाका आसन, गंगाका जल पीने और स्नानके लिये मिलता है। इससे बढ़कर पवित्र और एकान्त स्थान नहीं। ऐसा मौका अपने घरपर नहीं मिलता। वटकी छायाके मुकाबले और छाया नहीं जो शीतकालमें गरम और गर्मीमें शीतल रहती है। सनातन धर्म सबसे प्राचीन है। उत्तम देश, काल और जाति मिली है, ऐसा मौका पाकर फिर भी अपना कल्याण नहीं हो तो तुलसीदासजी कहते हैं—
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ४४)
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ४३)
एक विज्ञानानन्दघन ब्रह्मके सिवाय कोई नहीं है। शरीर और संसारका अत्यन्ताभाव कर दे, मानो है ही नहीं और उस विज्ञानानन्दघन ब्रह्ममें तन्मय कर दे, फिर आनन्द-ही-आनन्द है। पूर्णानन्द, अपार आनन्द.....इस प्रकारका ध्यान निर्गुण-निराकार ब्रह्मका ध्यान है। जो स्वरूप प्राप्त होता है वह ध्यानवाले स्वरूपसे अत्यन्त विलक्षण है।
जिसके प्राण जा रहे हैं, उसको भगवद्विषयक बात सुनायी जाय तो वह सबसे बढ़कर है। निष्काम-कर्मका थोड़ा-सा पालन महान् भयसे उद्धार कर देता है।
यह लेख ‘मेरा अनुभव’ पुस्तकसे लिया गया है।
॥ हरि: ॐ तत्सत्॥