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प्रार्थना

१-आपके रहते यदि मेरी दुर्गति भी हो जाय तो कोई आपत्ति नहीं। आपका चिन्तन होते रहना चाहिये। फिर चाहे जितने शारीरिक क्लेश क्यों न हों! आपके चिन्तनको छोड़कर मैं कोई सुख नहीं चाहता। मुझे आपका चिन्तन प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय कब लगेगा? प्रभो! जिन लोगोंको आपका चिन्तन प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैवे ही धन्य हैं! जो ऐसे नहीं हैं उनका तो मनुष्य देह धारण सर्वथा व्यर्थ ही है।

२-ईश्वरसे प्रार्थना करनेसे भगवान् स्वयं ही सद‍्गुरुकी प्राप्ति करा सकते हैं। यही विश्वास करके प्रार्थना करते रहना चाहिये।

३-प्रभुसे क्या माँगना चाहिये? प्रभुका प्रेमसहित अनन्य चिन्तन।

४-भगवान‍्से माँगना ही चाहें तो उनके दर्शन माँगने चाहिये अथवा ऐसी वस्तु माँगनी चाहिये कि जिसके मिल जानेपर फिर कभी कुछ भी माँगना न पड़े।

५-शरीर, स्त्री, पुत्र और रुपयोंके लिये इतने बड़े मालिकसे अर्ज नहीं करनी चाहिये।

६-महात्मालोग कहते हैं ‘मर भले ही जायँ पर अपने लिये भगवान‍्से कभी कुछ भी माँगें नहीं!’

७-भगवान‍्से इस तुच्छ शरीरके लिये प्रार्थना नहीं करनी चाहिये।

८-बड़े रहस्यकी बात—(क) स्वर्गाश्रमके गंगातटपरके वटवृक्षके दृश्यको याद करे और परमात्मासे प्रार्थना करे कि हे प्रभो! हे दीनबन्धो! आपकी प्रेम-भक्तिमें ऐसा समय बीतनेका समय फिर कब आयेगा।

(ख) जो बातें यहाँ हुई हैं उनको बार-बार याद करे। परमात्माके प्रेमप्रभावके विषयकी चर्चाको बार-बार याद करे, मनन करे और एकान्तमें बैठकर विचार कर-करके अपना कर्तव्य निश्चित करे और तदनुकूल आचरण करे।

९-भगवान् सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी होनेसे सबके हृदयमें सदा प्रत्यक्ष विद्यमान हैं। मनुष्य यदि स्वार्थ छोड़कर सरल जिज्ञासुभावसे हृदयस्थित ईश्वरसे पूछे तो उसे साधारण तथा यथार्थ उत्तर मिल जाता है।

१०-एकान्तमें बैठकर करुणभाव और गद‍्गद वाणीसे भगवान‍्से प्रार्थना करनी चाहिये कि ‘हे परमेश्वर! मैं हृदयसे आपकी स्मृति चाहता हूँ। आपसे आपकी स्मृति बनी रहनेकी भीख माँगता हूँ।’ इस प्रकार नित्य अपने भावोंके अनुसार भगवान‍्से कातर प्रार्थना करे। एक मिनटकी सच्ची प्रार्थनासे भी बड़ा लाभ होता है।

११-परमात्मा छोटे-बड़ेका कोई खयाल नहीं करते। एक छोटे-से-छोटा व्यक्ति परमात्माको जिस भावसे भजता है, उनके साथ जैसा बर्ताव करता है, वे भी उसको वैसे ही भजते और वैसा ही बर्ताव करते हैं। यदि कोई उनके लिये रोकर व्याकुल होता है तो वे भी उससे मिलनेके लिये उसी प्रकार अकुला उठते हैं। यह उनकी कितनी दयाकी बात है?

१२-जब साधक अपने पुरुषार्थसे निराश हो जाता है तब निरुपाय होकर भगवान‍्के शरण जाता है और आर्त होकर पुकार उठता है— ‘नाथ! मुझे इस घोर संकटसे बचाइये। मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। मैं जो अपने बलसे अपना उद्धार मानता था, वह मेरी भारी भूल थी। राग-द्वेष और काम-क्रोधादि शत्रुओंके दबानेसे अब मुझे इस बातका पूरा पता लग गया कि आपकी कृपाके बिना मेरे लिये इनसे छुटकारा पाना कठिन ही नहीं, वरं असम्भव-सा है।’ जब अहंकारको छोड़कर इस तरह सरलभावसे और सच्चे हृदयसे मनुष्य भगवान‍्के शरण हो जाता है तब भगवान् उसे अपना लेते हैं और आश्वासन देते हैं, क्योंकि भगवान‍्की यह घोषणा है—

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद‍्व्रतं मम॥
(वा० रा० ६। १८। ३३)

१३-दयासिन्धु भगवान‍्की शरण होकर उनके गुण, प्रभाव और रहस्यको तत्त्वसे जानने एवं उन्हें प्राप्त करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये—

‘हे नाथ! आप दयासागर, सर्वान्तर्यामी, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हैं, आपकी किंचित् दयासे ही सम्पूर्ण संसारका एक क्षणमें उद्धार हो सकता है, फिर हम-जैसे तुच्छ जीवोंकी तो बात ही क्या है? इसलिये हम आपको साष्टांग प्रणाम करके सविनय प्रार्थना करते हैं कि हे दयासिन्धो! हमपर दयाकी दृष्टि कीजिये जिससे हमलोग आपको यथार्थरूपसे जान सकें। यद्यपि आपकी सबपर अपार दया है किन्तु उसका रहस्य न जाननेके कारण हम सब उस दयासे वंचित हो रहे हैं, अतएव ऐसी कृपा कीजिये जिससे हमलोग आपकी दयाके रहस्यको समझ सकें। यदि आप केवल दयासागर ही होते और अन्तर्यामी न होते तो हमारी आन्तरिक पीड़ाको नहीं पहचानते, किन्तु आप तो सबके हृदयमें विराजमान सर्वान्तर्यामी भी हैं, इसलिये आपके वियोगमें हमारी जो दुर्दशा हो रही है उसे भी आप जानते हैं। आप दयासागर और सर्वान्तर्यामी होकर भी यदि सर्वेश्वर और सर्वसामर्थ्यवान् नहीं होते तो हम आपसे अपने कल्याणके लिये प्रार्थना नहीं करते। परन्तु आप तो सर्वलोकमहेश्वर और सर्वशक्तिमान् हैं, इसलिये हमारे-जैसे तुच्छ जीवोंका इस मृत्युरूप संसार-सागरसे उद्धार करना आपके लिये अत्यन्त साधारण बात है।

१४-‘हम तो आपसे यही चाहते हैं कि आपमें ही हमारा अनन्यप्रेम हो, हमारे हृदयमें निरन्तर आपका ही चिन्तन बना रहे और आपसे कभी वियोग न हो। आप ऐसे सुहृद् हैं कि केवल भक्तोंका ही नहीं, परन्तु पतित और मूर्खोंका भी उद्धार करते हैं। आपके पतितपावन, पातकीतारण आदि नाम प्रसिद्ध ही हैं, इसलिये ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और सदाचारसे हीन हम-जैसे मूढ़ और पतितोंका उद्धार करना आपका परम कर्तव्य है।’

१५-एकान्तमें बैठकर इस प्रकार सच्चे हृदयसे करुणाभावसे गद‍्गद होकर उपर्युक्त भावोंके अनुसार किसी भी भाषामें प्रभुसे प्रार्थना करनेपर भगवत्कृपासे गुण, प्रभाव और तत्त्वसहित भगवान‍्को जानकर मनुष्य परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

१६-जो व्यक्ति आपके दुर्लभ दर्शन पाकर आपसे सांसारिक सुख माँगता है वह भृत्य नहीं, व्यापारी है। हे भगवन्! कामसे बहुत ही अनिष्ट होते हैं, कामना उत्पन्न होनेसे इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धीरज, बुद्धि, लज्जा, सम्पत्ति, तेज, स्मृति एवं सत्यका विनाश होता है। इसलिये हे ईश! हे वर देनेवालोंमें श्रेष्ठ! आप यदि मुझको मनचाहा वर देते ही हैं तो यही वर दें कि मेरे हृदयमें अभिलाषाओंका अंकुर ही न जमे। मैं आपसे यही वर माँगता हूँ।

१७-‘माँ’ बच्चोंको भुलानेके लिये उनके सामने नाना प्रकारके खिलौने डाल देती है, कुछ खानेके पदार्थ उनके हाथमें दे देती है, जो बच्चे उन पदार्थोंमें रमकर ‘माँ’ के लिये रोना छोड़ देते हैं, माँ भी उन्हें छोड़कर अपना दूसरा काम करने लगती है। परन्तु जो बच्चा किसी भी भुलावेमें न भूलकर केवल ‘माँ-माँ’ पुकारा करता है। उसे ‘माँ’ अवश्य ही अपनी गोदमें लेनेको बाध्य होती है, ऐसे जिद्दी बच्चेके पास घरके सारे आवश्यक कामोंको छोड़कर भी माँको तुरन्त आना और उसे अपने हृदयसे लगाकर दुलराना पड़ता है; क्योंकि माता इस बातको जानती है कि यह बच्चा मेरे सिवा और किसी विषयमें भी नहीं भूलता है।

१८-भगवान् भी भक्तकी परीक्षाके लिये उसके इच्छानुसार उसे अनेक प्रकारके विषयोंका प्रलोभन देकर भुलाना चाहते हैं, जो उनमें भूल जाता है वह तो इस परीक्षामें अनुत्तीर्ण होता है, परन्तु जो भक्त भाग्यवश संसारके समस्त पदार्थोंको तुच्छ, क्षणिक और नाशवान् समझकर उन्हें लात मार देता है और प्रेममें मग्न होकर सच्चे मनसे उस सच्चिदानन्दमयी मातासे मिलनेके लिये लगातार रोया करता है, ऐसे भक्तके लिये सम्पूर्ण कामोंको छोड़कर भगवान‍्को स्वयं तुरन्त ही आना पड़ता है।

१९-मुक्तिकी इच्छाको कलंक समझकर और अपनी दुर्बलता तथा नीचाशयताका अनुभव कर भगवान‍्पर अपना अविश्वास जानकर भक्त परमात्माके सामने एकान्तमें रोकर पुकार उठता है कि—

‘हे प्रभो! जबतक मेरे हृदयमें मुक्तिकी इच्छा बनी हुई है तबतक मैं आपका दास कहाँ? मैं तो मुक्तिका ही गुलाम हूँ। आपको छोड़कर अन्यकी आशा करता हूँ। मुक्तिके लिये आपकी भक्ति करता हूँ और इतनेपर भी अपनेको निष्काम प्रेमी शरणागत भक्त समझता हूँ। नाथ! यह मेरा दम्भाचरण है। स्वामिन्! दयाकर इस दम्भका नाश कीजिये। मेरे हृदयसे मुक्तिरूपी स्वार्थकी कामनाका भी मूलोच्छेद कर अपने अनन्यप्रेमकी भिक्षा दीजिये। आप-सरीखे अनुपमेय दयामयसे कुछ माँगना अवश्य ही लड़कपन है परन्तु आतुर क्या नहीं करता?’

२०-कभी ऐसा जान पड़े कि हमारे हृदयमें कोई कुविचार प्रवेश करना चाहता है तो हमें कातर स्वरसे ‘हे नाथ! हे नाथ!’ पुकारना चाहिये। प्रभुका आश्रय लेनेसे चिन्ता, भय, शोक एवं सब प्रकारके दुर्गुण-दुराचार मूलसहित नष्ट हो जाते हैं तथा सद‍्गुण, सदाचार एवं शान्ति आदिका स्वत: ही विकास होता है।

२१-ईश्वरको छोड़कर किसी दूसरेसे कामना न करे।

२२-सर्वोत्तम बात तो यह है कि किसीसे याचना करे ही नहीं।

२३-यदि किसीको भी भगवान‍्से मिलनेकी सच्ची इच्छा हो तो उसे चाहिये कि वह रुक्मिणी, सीता और व्रजबालाओंकी तरह सच्चे प्रेमपूरित हृदयसे भगवान‍्से मिलनेके लिये विलाप करे।

२४-एक पलको प्रलयके समान बितानेवाली रुक्मिणीके सदृश श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये हार्दिक विलाप करनेसे भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं।

२५-कुसंस्कारोंके नाशके लिये ईश्वरसे प्रार्थना करनी चाहिये।

२६-परमेश्वरके सम्मुख दीनभावसे प्रार्थना करनेवाला तो नीच भी परमपदको प्राप्त हो जाता है।

२७-जो सच्चे हृदयसे अपनेको सबसे लघु, दीन समझता है, उसीका प्रभु उद्धार करते हैं।

२८-भगवान‍्के लिये सच्चे दिलसे रोना न आनेमें दो कारण है—श्रद्धाकी कमी और पूर्वसंचित पाप। इसीसे यह बात निश्चयरूपसे मनमें नहीं जँचती कि वे सब जगह सदा-सर्वदा मौजूद हैं और हमारी करुण पुकार तत्काल सुनते और उसपर दयार्द्रहृदयसे ध्यान देते हैं।

२९-प्रभुसे सच्चे हृदयसे ऐसी कातर प्रार्थना करनी चाहिये कि हे नाथ! मैं अति नीच हूँ, किसी प्रकार भी पात्र नहीं हूँ। गोपियोंकी भाँति जिसमें प्रेमका बल है, उसके हाथ तो आप स्वयं ही बिक जाते हैं। हे प्रभो! मेरे पास प्रेमका बल होता तो फिर रोने और प्रार्थना करनेकी क्या जरूरत थी! मैं जब अपने पापों और अवगुणोंकी तथा बलकी ओर देखता हूँ तो मनमें कायरता और निराशा छा जाती है, परन्तु हे नाथ! आपकी दया तो अपार है, आप दयासिन्धु हैं, पतितपावन हैं, मुझे वह बल दीजिये जिससे मैं आपके रहस्यको जान जाऊँ।

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