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प्रकीर्ण

प्रश्न—एक तरफ कहा जाता है कि आशा मत रखो—‘आशा हि परमं दु:खम्’ और दूसरी तरफ कहा जाता है कि आशावादी बनो। क्या करना चाहिये?

उत्तर—दोनों बातें ठीक हैं। आशा न रखनेका तात्पर्य है—संसारकी आशा मत रखो और आशावादी बननेका तात्पर्य है—अपनी उन्नतिसे अथवा भगवत्प्राप्तिसे निराश मत होओ। सत्यकी आशा रखो, असत् की आशा मत रखो॥ ४१९॥

प्रश्न—अविद्या और विपर्ययमें क्या फर्क है?

उत्तर—अनित्य, अशुचि, अनात्मा और दु:खमें विपरीत (नित्य, शुचि, आत्मा और सुख) बुद्धि होनेका नाम ‘अविद्या’ (अज्ञान)है। रस्सीमें साँप दीखना, सज्जनको दुर्जन समझना आदि वृत्ति ‘विपर्यय’ है। अविद्या खुदमें रहती है और विपर्यय-वृत्ति अन्त:करणमें रहती है। जीवन्मुक्त महापुरुषमें अविद्या-दोष तो नहीं रहता, पर विपर्यय-दोष रह सकता है। इसलिये उनमें व्यवहारकी भूल तो हो सकती है, पर स्वयंकी भूल नहीं होती॥ ४२०॥

प्रश्न—आत्मदृष्टि और परमात्मदृष्टिमें क्या अन्तर है?

उत्तर—आत्मदृष्टिसे ब्रह्मज्ञान होता है और परमात्मदृष्टिसे प्रेम होता है। आत्मदृष्टिसे ‘सत्’ तथा ‘चित्’ का अनुभव होता है और परमात्मदृष्टिसे ‘आनन्द’ का अनुभव होता है। यद्यपि परमात्मदृष्टिसे भी ‘सत्’ तथा ‘चित्’ का अनुभव होता है, पर मुख्यता आनन्दकी रहती है। ऐसे ही आत्मदृष्टिसे भी ‘आनन्द’ का अनुभव होता है, पर मुख्यता सत् तथा चित् की रहती है॥ ४२१॥

प्रश्न—आस्तिक और नास्तिक किसे कहते हैं?

उत्तर—जो बिना देखे-सुने भी परमात्माकी सत्ता मानते हैं, वे ‘आस्तिक’ हैं। जो परमात्माकी सत्ता न मानकर जगत् और जीव (आत्मा)-की सत्ता मानते हैं, वे ‘नास्तिक’ हैं॥ ४२२॥

प्रश्न—चेतन और चिन्मयमें क्या अन्तर है?

उत्तर—‘चेतन’ सापेक्ष है अर्थात् जड़की अपेक्षा चेतन है, पर ‘चिन्मय’ निरपेक्ष है। चिन्मयका अर्थ है—केवल (शुद्ध) चेतन॥ ४२३॥

प्रश्न—स्मार्त और वैष्णवमें क्या अन्तर है?

उत्तर—जो वेदोंको, स्मृतियोंको, पुराणोंको, शास्त्रोंको मानते हैं कि जो वे कहेंगे, वही ठीक है, वे ‘स्मार्त’ कहलाते हैं। परन्तु जो केवल भगवान‍्को ही मानते हैं, वे ‘वैष्णव’ कहलाते हैं। स्मार्तमें कर्मकाण्डकी मुख्यता रहती है और वैष्णवमें भगवान‍्की मुख्यता रहती है। स्मार्त लौकिक हैं और वैष्णव अलौकिक हैं*॥ ४२४॥

* जगत् (क्षर) तथा जीव (अक्षर)—दोनों लौकिक हैं—‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’ और भगवान् इन दोनोंसे विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं—‘उत्तम: पुरुषस्त्वन्य:’ (गीता १५। १७)। कर्मयोग और ज्ञानयोग भी लौकिक हैं—‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा’ (गीता ३। ३)। क्षरको लेकर कर्मयोग और अक्षरको लेकर ज्ञानयोग चलता है, पर भक्तियोग अलौकिक है, जो भगवान‍्को लेकर चलता है।

प्रश्न—दरिद्र और धनीकी पहचान क्या है?

उत्तर—जिसको प्राप्त वस्तु आदिमें सन्तोष नहीं है और अप्राप्तकी इच्छा होती है, वह ‘दरिद्र है। उसके पास धन न हो तो भी दरिद्र है, धन हो तो भी दरिद्र है। जिसको प्राप्तमें सन्तोष है और अप्राप्तकी इच्छा नहीं है, वह ‘धनी’ है। उसके पास धन न हो तो भी धनी है, धन हो तो भी धनी है॥ ४२५॥

प्रश्न—भगवान‍्ने कहा है—‘मोहि कपट छल छिद्र न भावा’ (मानस, सुन्दर० ४४। ३) तो कपट और छलमें क्या अन्तर है?

उत्तर—‘कपट’ तो अपने भीतर होता है, पर ‘छल’ में दूसरेको ठगता है। दूसरोंमें दोष देखना ‘छिद्र’ है॥ ४२६॥

प्रश्न—गुरु, शासक और नेता—तीनोंमें क्या अन्तर है?

उत्तर—गुरु ज्ञानरूपी प्रकाश देकर मनुष्यको सही मार्गपर लाता है। शासक दण्ड देकर सही मार्गपर लाता है। नेता समझाकर सही मार्गपर लाता है। गुरु सौम्य (दयालु) शासक है, राजा क्रूर शासक है और नेता सामान्य (न सौम्य, न क्रूर) शासक है॥ ४२७॥

प्रश्न—दु:ख और करुणामें क्या अन्तर है?

उत्तर—अपने दु:खसे दु:खी होना ‘दु:ख’ है और दूसरेके दु:खसे दु:खी होना ‘करुणा’ है। दु:खी होना भोग है और करुणित होना त्याग है। दु:खमें अपनी तरफ दृष्टि रहती है और करुणामें दूसरेकी तरफ॥ ४२८॥

प्रश्न—देहात्मा, गौणात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा—इनमें क्या भेद है?

उत्तर—शरीरको ‘देहात्मा’ कहते हैं। पुत्रको ‘गौणात्मा’ कहते हैं। जिसका देहके साथ सम्बन्ध है, उस अन्तर्यामीको ‘अन्तरात्मा’ कहते हैं—‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:’ (गीता १५। १५), ‘ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८। ६१)। जिसका देहके साथ सम्बन्ध नहीं है, उसको ‘परमात्मा’ कहते हैं॥ ४२९॥

प्रश्न—निर्विकल्प स्थिति और निर्विकल्प बोधमें क्या अन्तर है?

उत्तर—निर्विकल्प स्थिति कारणशरीरमें होती है और निर्विकल्प बोध स्वयंमें होता है। निर्विकल्प स्थिति सविकल्पमें बदल जाती है, पर निर्विकल्प बोध सविकल्पमें नहीं बदलता। स्थिति बदलती है, बोध नहीं बदलता—‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ (गीता १४। २)। निर्विकल्प बोध अखण्ड, नित्य, स्वत:-स्वाभाविक और निरपेक्ष होता है॥ ४३०॥

प्रश्न—सफाई और शुद्धिमें क्या अन्तर है?

उत्तर—सफाई और शुद्धि (पवित्रता)-में बहुत अन्तर है। हड्डीको साफ कर सकते हैं, पर शुद्ध नहीं कर सकते। कौन-सी वस्तु शुद्ध है—इसको शास्त्र-प्रमाणसे ही जान सकते हैं। जैसे, अन्य जलोंकी अपेक्षा गंगाजल पवित्र है। गायके गोबर-गोमूत्र भी पवित्र हैं॥ ४३१॥

प्रश्न—कारणशरीरकी स्थिरता और स्वरूपकी स्थिरतामें क्या अन्तर है?

उत्तर—कारणशरीरकी स्थिरता सापेक्ष है अर्थात् चंचलताकी अपेक्षा स्थिरता है। परन्तु स्वयंकी स्थिरता निरपेक्ष है। स्वयं कारणशरीरकी स्थिरताका भी प्रकाशक, साक्षी है॥ ४३२॥

प्रश्न—रामायणमें आया है—‘सठ सुधरहिं सतसंगति पाई’ (बाल० ३। ५) और ‘मूरुख हृदयँ च चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम’ (लंका० १६ ख) तो ‘शठ’ और ‘मूर्ख’ में क्या अन्तर है?

उत्तर—प्रत्येक कवि या लेखकके शब्दोंमें उनका अपना एक विशेष अर्थ होता है। यहाँ ‘शठ’ वह है, जो जानता नहीं और ‘मूर्ख’ वह है जो जानता तो है, पर मानता नहीं॥ ४३३॥

प्रश्न—मुक्त और प्रेमी—दोनोंके व्यवहारमें क्या फर्क होता है?

उत्तर—मुक्तका व्यवहार समताका, उदासीनताका होता है, पर प्रेमीका व्यवहार प्रेमपूर्ण होता है; क्योंकि भगवान् प्यारे लगते हैं तो उनकी हर चीज प्यारी लगती है॥ ४३४॥

प्रश्न—सीखा हुआ और जाना हुआ—दोनोंमें क्या फर्क है?

उत्तर—सीखा हुआ बुद्धिका विषय होता है और जाना हुआ बुद्धिका प्रकाशक होता है। बुद्धिके अन्तर्गत सीखा हुआ है और जाने हुएके अन्तर्गत बुद्धि है। सीखा हुआ तो दृढ़-अदृढ़ दोनों होता है, पर जाना हुआ अदृढ़ होता ही नहीं॥ ४३५॥

प्रश्न—सीखना, समझना और अनुभव करना—तीनोंमें क्या अन्तर है?

उत्तर—इसको इस उदाहरणसे समझना चाहिये—छोटी बच्ची ‘सीख’ लेती है कि यह मेरी माँ है। वह माँ क्यों हैं, कैसे है—यह वह नहीं जानती। जब वह कुछ बड़ी होती है, तब वह ‘समझती’ है कि उसने मेरेको जन्म दिया है, इसलिये वह मेरी माँ है। विवाहके बाद जब वह खुद माँ बनती है, बालकको जन्म देती है, तब उसको ‘अनुभव’ होता है कि इस तरह माँने मेरेको जन्म दिया था॥ ४३६॥

प्रश्न—सिद्धान्त और नियममें क्या अन्तर है?

उत्तर—सिद्धान्त माननेका और नियम पालन करनेका होता है॥ ४३७॥

प्रश्न—स्वाभिमान और अभिमानमें क्या अन्तर है?

उत्तर—स्वाभिमान सात्त्विक होता है और अभिमान तामसी। मैं साधक हूँ तो साधनसे विरुद्ध कार्य कैसे कर सकता हूँ? मैं चोरी कैसे कर सकता हूँ—यह ‘स्वाभिमान’ है। मैं साधक हूँ, दूसरे असाधक हैं—इस प्रकार दूसरेकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता देखना ‘अभिमान’ है। अभिमान होनेसे मनुष्य साधन-विरुद्ध कार्य कर बैठेगा और स्वाभिमान होनेसे उसको साधन-विरुद्ध कार्य करनेमें लज्जा होगी॥ ४३८॥

प्रश्न—मुमुक्षा और जिज्ञासामें क्या अन्तर है?

उत्तर—मुमुक्षामें साधक अपनी मुक्ति चाहता है, इसलिये उसमें व्यक्तित्व रहता है। मुमुक्षासे भी तत्त्वकी जिज्ञासा अच्छी है और उससे भी प्रेमकी पिपासा अच्छी है॥ ४३९॥

प्रश्न—जिज्ञासा स्वयंमें होती है अथवा बुद्धि या अहम‍्में?

उत्तर—जिज्ञासा स्वयंमें होती है। भावरूप स्वयंमें ही अभावका अनुभव होता है, तभी जिज्ञासा होती है। यदि ऐसा मानें कि जिज्ञासा अहम‍्में होती है तो अहम‍्का मालिक कौन है? अहम‍्के साथ किसने सम्बन्ध जोड़ा है? मैं वही हूँ—यह प्रत्यभिज्ञा किसमें होती है? मानना पड़ेगा कि स्वयं (चेतन) ही अहम‍्का मालिक है, वही अहम‍्के साथ सम्बन्ध जोड़ता है और उसीमें प्रत्यभिज्ञा होती है। स्वयंने जितने अंशमें अहम‍्से सम्बन्ध माना है, अहम‍्को स्वीकार किया है, उतने अंशमें अज्ञान है। जगत‍्की सत्ता स्वयंने ही मानी है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७। ५)। अत: स्वयंमें ही जिज्ञासा होती है और स्वयंको ही बोध होता है। बोध होनेपर स्वयं फर्क पड़ता है। स्वयं फर्क पड़नेपर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंमें भी फर्क पड़ता है॥ ४४०॥

प्रश्न—सावधान रहना बढ़िया है या उदासीन रहना?

उत्तर—कर्तव्यका पालन करनेमें सावधान रहे, पर भीतरसे उदासीन रहे। उदासीन रहनेका अर्थ है—राग-द्वेष न रखे, पक्षपात न करे, तटस्थ रहे॥ ४४१॥

प्रश्न—पहले लोग अन्यायको नहीं सहते थे, पर आजकल अन्यायको सहते हैं। क्या अन्यायको सहना उचित है?

उत्तर—अन्यायको सहना उचित नहीं है। अन्यायी आदमी ही अन्यायको सहता है—‘चोर चोर मौसेरे भाई’?॥ ४४२॥

प्रश्न—जब आवश्यक वस्तु स्वत: प्राप्त होती है तो फिर अनेक लोग शरीर-निर्वाहकी वस्तुओंका अभाव क्यों भोगते हैं?

उत्तर—उन्होंने पूर्वजन्ममें अन्न, जल आदि शरीर-निर्वाहकी वस्तुओंका दुरुपयोग किया था, तभी उनकी तंगी भोगनी पड़ती है। इसलिये अब तंगी भोगना ही उनके लिये आवश्यक है। तात्पर्य है कि जैसे शरीर-निर्वाहकी वस्तुओंकी आवश्यकता है, ऐसे ही पहले किये गये कर्मोंका फल भोगनेकी भी आवश्यकता है। अत: मनुष्यको शरीर-निर्वाहकी वस्तुओंका दुरुपयोग नहीं करना चाहिये, उनको निरर्थक नष्ट नहीं करना चाहिये॥ ४४३॥

प्रश्न—अखण्ड स्मृति क्या है?

उत्तर—‘मैं हूँ’—इस प्रकार अपने होनेपनका हम निरन्तर अनुभव करते हैं—यही अखण्ड स्मृति है। ‘मैं हूँ’—यह ज्ञानकी अखण्ड स्मृति है और ‘मैं भगवान‍्का हूँ’—यह भक्तिकी अखण्ड स्मृति है। ज्ञान होनेपर ‘मैं’ नहीं रहता और ‘हूँ’ ‘है’ में बदल जाता है॥ ४४४॥

प्रश्न—दूसरोंको अपना मानें या उनकी उपेक्षा करें, दोनोंमें कौन-सा बढ़िया है?

उत्तर—अपने शरीरकी उपेक्षा होनी चाहिये और दूसरोंके शरीरमें अपनापन होना चाहिये अर्थात् जैसे अपने शरीरका दु:ख दूर करनेकी चेष्टा होती है, ऐसे ही दूसरेके शरीरका दु:ख दूर करनेकी चेष्टा होनी चाहिये। तात्पर्य है कि जैसे अपने शरीरमें अपनापन है, ऐसे दूसरे शरीरोंमें अपनापन होना चाहिये और जैसे संसारकी उपेक्षा है, ऐसे अपने शरीरकी उपेक्षा होनी चाहिये। दूसरोंके हितकी दृष्टिसे व्यवहार चाहे जैसा (यथायोग्य) करें, पर अपनेपनमें फर्क नहीं आना चाहिये।

ज्ञानमार्गमें उदासीनता बढ़िया होती है और कर्मयोग तथा भक्तियोगमें दयालुता बढ़िया होती है॥ ४४५॥

प्रश्न—रामायण, महाभारत आदिकी कथाओंका रूपक बनाना, उन्हें ज्ञानमें घटाना (जैसे—रावण नाम अहंकारका है आदि) क्या उचित है?

उत्तर—इतिहासकी कथाओंका रूपक बनाना ठीक नहीं है। शास्त्रोंमें ज्ञानकी बातोंकी कमी तो है नहीं, फिर रूपक क्यों बनायें? रूपक बनानेसे इतिहासका नाश होता है, भगवान‍्के चरित्रपर आघात होता है॥ ४४६॥

प्रश्न—कीर्तनमें जो सुख मिलता है, वह कौन-सा है?

उत्तर—कीर्तनमें मिलनेवाला सुख सात्त्विक है, जो भगवान‍्की तरफ ले जानेवाला होता है॥ ४४७॥

प्रश्न—एक बात तो यह आती है कि प्रकृति कर्ता है और एक बात यह आती है कि न पुरुष कर्ता है, न प्रकृति कर्ता है, कर्ता कोई नहीं है, केवल मान्यता है—दोनोंमें कौन-सी बात ठीक है?

उत्तर—वास्तवमें कर्ता कोई नहीं है, न पुरुष, न प्रकृति। पर यदि कोई कर्ता मानना ही चाहे तो यही कहेंगे कि कर्तापन प्रकृति (जड़)-में है, पुरुष (चेतन)-में नहीं। तात्पर्य हुआ कि अगर कर्ता माना जाय तो वह प्रकृतिमें है, अन्यथा कोई कर्ता नहीं है॥ ४४८॥

प्रश्न—क्रियाका वेग किसमें है?

उत्तर—क्रियाका वेग प्रकृतिमें है, पर माना है अपनेमें। शरीरमें मैं-पन करनेके कारण क्रियाका वेग अपनेमें दीखता है॥ ४४९॥

प्रश्न—गंगाजीका पूजन करनेसे क्या लाभ?

उत्तर—पूजन करनेसे अन्त:करण शुद्ध, निर्मल होता है। दूसरी बात, जिसका हृदयमें आदर होता है, उसका पूजन अपने-आप होता है॥ ४५०॥

प्रश्न—जीव अनन्त हैं, फिर चौरासी लाखकी ही गणना क्यों?

उत्तर—ऋषियोंने चौरासी लाख जीवोंकी जातियोंकी गणना कर ली थी, इसलिये उन्होंने चौरासी लाख जीव बता दिये। चौरासी लाख जातियोंमें एक-एक जातिमें लाखों-करोड़ों जीव हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, देवता, पितर, गन्धर्व आदि जातियोंको गणनामें नहीं लिया; क्योंकि ये सब देवयोनियाँ हैं, जो सामान्य रूपसे सबको नहीं दीखतीं॥ ४५१॥

प्रश्न—सृष्टिके आरम्भसे ही देव और असुर—ये दो विभाग कैसे हो गये?

उत्तर—प्रकृति और पुरुष-दोनों अनादि हैं—‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धॺनादी उभावपि’ (गीता १३। १९)। प्रकृतिकी प्रधानतासे असुर हो गये और पुरुषकी प्रधानतासे देव हो गये।

वास्तवमें सत्ता एक ही है। परन्तु अपने राग-द्वेषके कारण दो सत्ता दीखती है। अपने राग-द्वेषके कारण ही असुर और देवताका विभाग दीखता है। अपना राग-द्वेष न हो तो असुर और देवतामें क्या फर्क है—‘अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९। १९)। राग-द्वेष न हो तो केवल भगवान‍्की लीला है, खेल है!॥ ४५२॥

प्रश्न—पर भगवान‍्की यह परस्पर विरोधी बातोंवाली लीला समझमें नहीं आयी!

उत्तर—लीलाको समझ नहीं सकते, मान सकते हैं। अगर लीला हमारी समझमें आ जाय तो समझ बड़ी हो जायगी और भगवान् छोटे हो जायँगे!॥ ४५३॥

प्रश्न—आजकल प्राय: यह सुननेमें आता है कि अमुक स्त्री या पुरुषके भीतर अमुक देवी या देवता आता है और बातें बताता है, क्या यह सत्य है?

उत्तर—आजकल पाखण्ड बहुत है। यदि देवी-देवताका शरीरमें प्रवेश हो जाय तो शरीर उनका तेज सह ही नहीं सकेगा। मनुष्यशरीरमें भूत-प्रेतका प्रवेश हो सकता है। भूत-प्रेतोंमें ऊँच-नीच अनेक जातियाँ होती हैं। भूत-प्रेत भी देवयोनिमें आते हैं। अमरकोषमें आया है—

विद्याधरोऽप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नरा:।
पिशाचो गुहृाक: सिद्धो भूतोऽमी देवयोनय:॥
(१। १। ११)

प्रश्न—धार्मिक सिनेमा देखना चाहिये कि नहीं?

उत्तर—नहीं देखना चाहिये। धार्मिक सिनेमा देखनेमें भी हानि है; क्योंकि फिल्म-निर्माताकी दृष्टि पैसोंकी तरफ तथा साधारण लोगोंकी रुचिकी तरफ रहती है, सत्यकी तरफ नहीं। वे शास्त्रमें लिखी बातोंको तत्त्वसे नहीं समझते। शास्त्रमें जो आया है और सिनेमामें जो दिखाते हैं—दोनोंमें फर्क होनेके कारण धार्मिक सिनेमा देखनेसे नास्तिकता आती है॥ ४५५॥

प्रश्न—कभी-कभी ऐसी परिस्थिति आती है, जब निर्णय लेना कठिन हो जाता है, हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, उस समय क्या करना चाहिये?

उत्तर—चुप, शान्त होकर भगवान‍्को याद करना चाहिये। समाधान मिल जायगा। अपने स्वार्थका त्याग और दूसरेका हित हो—ऐसा काम करना चाहिये॥ ४५६॥

प्रश्न—पितृलोक क्या है?

उत्तर—स्वर्गकी तरह यह भी एक लोक है, जहाँ पितर रहते हैं। जो उस लोकके अधिकारी होते हैं, वे वहाँ जाते हैं—‘पितॄन्यान्ति पितृव्रता:’ (गीता ९। २५)।

हमारे पितर (पिता, दादा आदि) जिस लोकमें अथवा जिस योनिमें हैं, वह भी पितृलोक है। पितर यदि पशुयोनिमें हैं तो वही पितृलोक है। जिनकी घरमें, परिवारमें ज्यादा आसक्ति होती है, वे पितर बनकर घरमें रहते हैं। उनका कमाया धन हमने लिया है; अत: उनकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है॥ ४५७॥

प्रश्न—एकनाथ आदि सन्तोंने श्राद्ध-भोजनके लिये पितरोंका आवाहन किया तो पितर स्वयं कैसे आ गये?

उत्तर—पितर जिस योनिमें हैं, आवाहन करनेपर उनको वहॉँ मूर्च्छा आ जाती है और (परकायाप्रवेशकी तरह) वे वहाँ आ जाते हैं। परन्तु यह कोई सामान्य बात नहीं है॥ ४५८॥

प्रश्न—प्रेत किसीको दु:ख देता है तो उसको कोई दोष (पाप) लगता है कि नहीं?

उत्तर—उसको कोई दोष नहीं लगता; क्योंकि वह भोगयोनि है और मनुष्यके प्रारब्धके अनुसार ही उसको दु:ख देता है। जो सात्त्विक प्रेत होते हैं, वे दु:ख नहीं देते। राजस-तामस प्रेत ही दु:ख देते हैं। यह नियम है कि दु:खी व्यक्ति ही दूसरोंको दु:ख देता है। अत: जो प्रेत खुद दु:खी होते हैं, वे ही दूसरोंको दु:ख देते हैं॥ ४५९॥

प्रश्न—हमने कोई गलत कार्य नहीं किया, फिर भी दुष्ट व्यक्तिसे भय क्यों लगता है?

उत्तर—अपनी निर्दोषतापर दृढ़ विश्वास न होनेसे ही भय लगता है। भय तीन कारणोंसे लगता है—अपना आचरण ठीक न होनेसे, अपनी निर्दोषतापर विश्वास न करनेसे और किसी भी वस्तु (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि)-को अपना माननेसे॥ ४६०॥

प्रश्न—मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये और मुझे कुछ नहीं करना है—इन तीनोंके मूलमें क्या है?

उत्तर—मूलमें है—मैं कुछ नहीं हूॅँ और परमात्मा है॥ ४६१॥

प्रश्न—वेद अनादि हैं और याज्ञवल्क्य आदि ऋषि बादमें हुए हैं, फिर वेदोंमें उन ऋषियोंका वर्णन कैसे आया?

उत्तर—वेद सर्वज्ञ हैं। भगवान‍्ने भी कहा है—‘वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन’ (गीता ७। २६)। अत: उन ऋषियोंकी महत्ता प्रकट करनेके लिये, ब्रह्मविद्याकी महिमा बतानेके लिये वेदोंने पहलेसे ही उनका वर्णन कर दिया। महर्षि वाल्मीकिजीने भी भगवान् रामका अवतार होनेसे पहले ही रामायणकी रचना कर दी थी! वाल्मीकिजीने कहा है—

भविष्यज्ञानयोगाच्च कृतं रामायणं शुभम्॥
(पद्मपुराण, पाताल० ६६। १७)

‘भविष्यज्ञानकी शक्ति होनेके कारण इस रामायणको मैंने पहलेसे बना रखा था’॥ ४६२॥

प्रश्न—विद्याको केवल सीखे नहीं, प्रत्युत उसका अनुभव करे—इस कथनका तात्पर्य क्या है?

उत्तर—विद्याको अपने और दूसरोंके काममें लाना चाहिये। जिसके पास उस विद्याका अभाव है, उसको वह विद्या देनी चाहिये। केवल जानकारीके लिये विद्याका संग्रह करनेसे अभिमान आता है॥ ४६३॥

प्रश्न—स्त्रीके लिये व्रतका निषेध आया है, पर वह पतिके लिये व्रत रख सकती है क्या?

उत्तर—वह पतिके लिये व्रत रख सकती है और पतिकी आज्ञासे भी व्रत रख सकती है। सती सावित्रीने भी पतिके जीवनके लिये व्रत रखा था॥ ४६४॥

प्रश्न—आजकल सैकड़ों वक्ता हो गये हैं और लाखों लोग उनकी बात सुनते हैं, फिर भी लोगोंके आचरणोंमें सुधार क्यों नहीं हो रहा है?

उत्तर—कारण यह है कि वक्ता खुद वैसा आचरण नहीं करते। खुद वैसा आचरण करनेसे ही वचनोंका असर पड़ता है। श्रोतामें जिज्ञासा नहीं है। जिज्ञासासे लाभ होता है, केवल सुननेसे नहीं।॥ ४६५॥

प्रश्न—शास्त्रमें भगवत्कथाके वक्ता और श्रोता—दोनोंको ही दुर्लभ बताया है, पर आजकल दोनों ही बड़े सुलभ दीख रहे हैं, इसका कारण?

उत्तर—कारण कि दोनों ही नकली हैं!॥ ४६६॥

प्रश्न—शुकदेवजी बारह वर्षतक गर्भमें कैसे रहे?

उत्तर—गर्भमें जितना आकार होता है, उतने ही आकारका उनका शरीर रहा, पर बुद्धि(अन्त:करण) विकसित हो गयी। जन्मके बाद फिर उनका शरीर धीरे-धीरे अपने स्वाभाविक आकारमें आ गया॥ ४६७॥

प्रश्न—श्रद्धा अन्धी होती है, पर उसमें धोखा हो जाय तो?

उत्तर—सच्ची श्रद्धावालेके साथ धोखा नहीं हो सकता। उसको दु:ख हो सकता है, पर उसकी हानि नहीं हो सकती। सीताजीने साधुरूपधारी रावणपर और हनुमान‍्जीने कालनेमिपर श्रद्धा की तो उनकी क्या हानि हुई? हानि तो रावण और कालनेमिकी ही हुई॥ ४६८॥

प्रश्न—श्राद्धका अन्न ग्रहण करना चाहिये या नहीं?

उत्तर—घरके लोग श्राद्धका अन्न खायें तो कोई दोष नहीं है; क्योंकि मरनेवाला अपना ही स्वजन है। परन्तु दूसरोंको कभी नहीं खाना चाहिये। अन्न बच जाय तो ब्राह्मणोंसे पूछकर जैसा वे कहें, वैसा उसका उपयोग कर दे। मृत्युके बाद तीसरे और बारहवें दिनका अन्न बहुत अशुद्ध होता है; अत: बचे हुए अन्नको पृथ्वीमें गाड़ देना चाहिये। वार्षिक पितृपक्षमें होनेवाले श्राद्धका अन्न भी दूसरेको नहीं खाना चाहिये। श्राद्धका भोजन ब्राह्मणको ही खिलानेका विधान है, गरीबों आदिको नहीं॥ ४६९॥

प्रश्न—प्राप्त वस्तुका सदुपयोग क्या है?

उत्तर—वस्तुको अपनी न मानना और जहाँ आवश्यकता दीखे, वहाँ उस वस्तुको दूसरोंकी सेवामें लगाना॥ ४७०॥

प्रश्न—किसीमें बचपनसे खराब स्वभाव पड़ा हुआ हो तो वह कैसे मिट सकता है?

उत्तर—पहले ऐसा मान ले कि स्वभाव असत् है और मिटनेवाला है। फिर सद्विचार करे, सच्छास्त्र पढ़े और सत्संग करे। सद्विचार, सच्छास्त्र और सत्संगसे स्वभाव मिट सकता है, शुद्ध हो सकता है॥ ४७१॥

प्रश्न—माता सीताने मृगचर्मके लिये स्वर्णमृगको मारनेके लिये क्यों कहा?

उत्तर—मृगको मारनेके लिये माता सीताने नहीं कहा, प्रत्युत छाया सीताने कहा! सीता भी छायाकी थी और मृग भी छायाका था। छाया सीताने स्वर्णका लोभ किया तो भगवान‍्ने उसको स्वर्णकी नगरी लंकामें ले जाकर बैठा दिया। माता सीतामें तो सतीत्वका इतना तेज था कि बुरी नीयतसे स्पर्श करनेमात्रसे रावण भस्म हो जाता!॥ ४७२॥

प्रश्न—कोई बात तो बचपनकी भी याद रहती है और कोई बात दो दिन पहलेकी भी याद नहीं रहती, इसका क्या कारण है?

उत्तर—काम, क्रोध, भय, स्नेह, हर्ष, शोक, दया आदि भावोंसे चित्त पिघल जाता है*। उस पिघले हुए चित्तमें बैठी बात नहीं भूलती। जिस बातमें चित्त नहीं पिघलता, वह बात भूल जाती है॥ ४७३॥

*कामक्रोधभयस्न्नेहहर्षशोकदयाऽऽदय:।
तापकाश्चित्तजतुनस्तच्छान्तौ कठिनं तु तत्॥
(भक्तिरसायन १। ५)

प्रश्न—वर्तमानमें हिन्दूलोग मुसलमानों तथा ईसाइयोंकी अपेक्षा पिछड़े हुए क्यों दीख रहे हैं?

उत्तर—अपने घरकी पोल तो हम जानते हैं, पर मुसलमानों-ईसाइयोंके घरकी पोल नहीं जानते, इसलिये ऐसा दीखता है। वास्तवमें नैतिक पतन सब धर्मवालोंका हुआ है। उन धर्मवालोंके बड़े-बूढ़ोंसे पूछकर देखो कि उनकी नयी पीढ़ीके युवक कैसे हैं? दूसरी बात, हिन्दूधर्म कलियुगके विपरीत पड़ता है, जबकि उनका धर्म कलियुगके कुछ अनुकूल पड़ता है। अत: उनको कलियुगसे सहायता मिल रही है। इन बातोंके सिवाय सरकारी कानून भी हमारे धर्मकी उन्नतिमें बाधक है।

कलियुगमें धर्म सामूहिक न होकर व्यक्तिगत होता है। जैसे, सभी ब्राह्मण अपने धर्मका पालन करें—ऐसा नहीं होता। पर कोई भी ब्राह्मण अपने धर्मका पालन नहीं करे—ऐसा भी नहीं होता। इसलिये सन्तोंने कहा है—

तेरे भावै जो करौ, भलो बुरो संसार।
‘नारायन’ तू बैठ के, अपनो भवन बुहार॥

प्रश्न—विष्णुका ध्यान करते हुए यदि शंकर ध्यानमें आ जायँ तो क्या करना चाहिये?

उत्तर—विष्णु ही अपनी मरजीसे शङ्कररूपसे आये हैं—ऐसा मानकर प्रसन्न हो जाय। इतना ही नहीं, यदि कोई सांसारिक वस्तु या व्यक्ति भी ध्यानमें आ जाय तो ऐसा माने कि भगवान् ही इस रूपमें आये हैं। तात्पर्य है कि ध्यानमें चाहे जो भी आये, उसको अपने इष्टका ही रूप मानना चाहिये—‘वासुदेव: सर्वम्॥ ४७५॥

प्रश्न—भक्त भी भगवान‍्का ध्यान करता है और ध्यानयोगी भी, फिर ध्यानयोगी ‘चलितमना’ (योगभ्रष्ट) कैसे होता है?

उत्तर—ध्यानयोगीके साध्य तो भगवान् हैं, पर उसका साधन वृत्ति लगाना है, जबकि भक्तका साधन भी भगवान् हैं और साध्य भी भगवान् हैं॥ ४७६॥

प्रश्न—जब प्रकृतिकी सत्ता ही नहीं है, तो फिर शास्त्रोंमें प्रकृतिको अनादि क्यों कहा गया है?

उत्तर—हम प्रकृतिकी सत्ता मानते हैं, इसलिये शास्त्र हमारी भाषामें ही कहते हैं। दृष्टिभेदसे दर्शन अनेक हैं, तत्त्व एक है। जहाँ द्रष्टा, दृष्टि और दृश्य नहीं हैं, वहाँ भेद नहीं है। द्रष्टा, ज्ञाता,दार्शनिक, दर्शन जबतक हैं, तबतक भेद है। इनसे आगे तत्त्वमें भेद नहीं है॥ ४७७॥

प्रश्न—परमात्मा भी अनन्त हैं और प्रकृति भी अनन्त है—ये दो बातें कैसे? प्रकृति तो परमात्माके एक अंशमें है!

उत्तर—दोनोंकी अनन्ततामें फर्क है। परमात्मा अपार-असीम हैं, इसलिये अनन्त हैं। प्रकृति नष्ट नहीं होती, इसलिये अनन्त है—‘कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्’ (योगदर्शन २। २२)॥ ४७८॥

प्रश्न—मनका निवास कहाँ है?

उत्तर—मनका निवास जाग्रत्-अवस्थामें नेत्रोंमें, स्वप्न-अवस्थामें ‘हिता’ नाड़ीमें और सुषुप्ति-अवस्थामें ‘पुरीतती’ नाड़ीमें होता है। जाग्रत्-अवस्थामें सब वस्तुओंका ज्ञान नेत्रोंसे ही होता है और नेत्रोंसे ही मनकी बात प्रकट होती है। अन्धे व्यक्तिकी नेत्रशक्ति कानोंमें चली जाती है॥ ४७९॥

प्रश्न—क्या मन ही मनुष्यके बन्धनका कारण है?

उत्तर—मनुष्यके बन्धन या मुक्तिका कारण मन नहीं है। खुदमें ही बन्धन है और खुदकी ही मुक्ति होती है। मनमें दोष कभी था नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं। कारण कि मन तो एक करण है। करण कभी स्वतन्त्र नहीं होता, प्रत्युत कर्ताके अधीन होता है। दोष कर्तामें होता है, करणका क्या दोष? लेखकमें दोष होता है, कलमका क्या दोष? कर्ताका दोष ही करणमें आता है। कर्तामें दोष न हो तो करणमें दोष आ सकता ही नहीं। अत: अपना दोष ही मनमें दीखता है। मन तो दर्पण है। असत् की मान्यता खुदमें ही है॥ ४८०॥

प्रश्न—धूम्रपान आदि व्यसनोंमें लगे हुए कई व्यक्तियोंको रोग तुरन्त पकड़ लेता है और कई व्यक्तियोंको रोग नहीं पकड़ता, इसमें क्या कारण है?

उत्तर—शरीरकी प्रकृति अलग-अलग होनेसे किसीको रोग जल्दी पकड़ता है, किसीको नहीं पकड़ता। परन्तु कैसा ही व्यसन हो, उसमें पराधीनता तो है ही! पराधीनतासे कोई बच नहीं सकता॥ ४८१॥

प्रश्न—चिकित्सासे केवल रोग नष्ट होता है या आयु भी बढ़ती है?

उत्तर—चिकित्सासे केवल रोग नष्ट होता है, आयु नहीं बढ़ती। मनुष्य आयु पूरी होनेपर ही मरता है, पहले नहीं। बड़े-से-बड़ा रोग आनेपर भी यदि प्रारब्धमें आयु शेष होगी तो कोई-न-कोई उपाय मिल जायगा, जिससे रोग मिट जायगा अथवा रोग रहते हुए भी वह जीता रहेगा। चिकित्सासे कुपथ्यजन्य रोग मिटते हैं, प्रारब्धजन्य रोग नहीं मिटते॥ ४८२॥

प्रश्न—न चाहते हुए भी अनुकूलता-प्रतिकूलताका असर पड़ जाय तो क्या करें?

उत्तर—उसकी परवाह मत करो। यह देखो कि वह असर सदा और एक समान रहता है क्या? वास्तवमें असर मन-बुद्धिपर पड़ता है, पर मन-बुद्धिको अपना माननेके कारण अविवेककी प्रधानतासे हम उस असरको अपनेमें मान लेते हैं॥ ४८३॥

प्रश्न—हमारी संस्कृतिपर विदेशी प्रभाव अधिक क्यों पड़ता है?

उत्तर—हिन्दू संस्कृति सफेद कपड़ेकी तरह स्वच्छ है, इसलिये इसपर दूसरा रंग बहुत जल्दी चढ़ता है अर्थात् दूसरेकी बातोंको यह बहुत जल्दी ग्रहण कर लेती है॥ ४८४॥

प्रश्न—क्या पशु-पक्षीको अपनी जूठन दे सकते हैं?

उत्तर—हाँ, दे सकते हैं। पर गायको जूठन नहीं देनी चाहिये॥ ४८५॥

प्रश्न—पानीकी टोंटीमें सब जगह चमड़ेका वाशर लगाया जाता है; अत: पानी कैसे काममें लें?

उत्तर—जहाँ परवशता हो, बचनेका कोई उपाय न हो, वहाँ निर्वाहमात्रका दोष नहीं लगता—‘शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्’ (गीता ४। २१)॥ ४८६॥

प्रश्न—शिवनिर्माल्यको त्याज्य माना गया है। शिवनिर्माल्य क्या है?

उत्तर—शिवलिंगपर चढ़ा हुआ पदार्थ शिवनिर्माल्य है। जो पदार्थ शिवलिंगपर नहीं चढ़ा, वह शिवनिर्माल्य नहीं है। द्वादश ज्योतिर्लिंगोंमें शिवलिंगपर चढ़ा पदार्थ भी शिवनिर्माल्य नहीं माना जाता॥ ४८७॥

प्रश्न—अन्न कैसे शुद्ध होता है?

उत्तर—भोजनके पदार्थ सात्त्विक हों, शुद्ध कमाईके हों, पवित्रतापूर्वक बनाये जायँ और भगवान‍्के अर्पण करके खाया जाय॥ ४८८॥

प्रश्न—क्या भूत-प्रेतोंको निकालनेका काम करनेवालेकी दुर्गति होती है?

उत्तर—दुर्गति तब होती है, जब भूत-प्रेतोंको कष्ट दिया जाय; जैसे—उनको कीलित करना, बोतलमें बन्द करना आदि। अत: गयाश्राद्ध आदि करवाकर उनकी सद्‍गति करानी चाहिये, जिससे उनका भी हित हो और उस व्यक्तिका भी हित हो, जिसे प्रेतने पकड़ा है। इस प्रकार उनके हितकी दृष्टि होनेसे दुर्गति नहीं होती॥ ४८९॥

प्रश्न—सत्यनारायणकी कथा क्या है?

उत्तर—केवल कहानीको ही कथा नहीं कहते, प्रत्युत शास्त्रार्थ, वाक्य-प्रबन्ध आदिको भी कथा कहते हैं। सत्यनारायणभगवान‍्का व्रत, पूजन एवं उसके विधि-विधानका वर्णन ‘कथा’ कहलाता है। आरम्भमें जिसने सत्यनारायणका व्रत-पूजन किया, उसके चरित्रको आगेके व्यक्ति भी कहने लग गये॥ ४९०॥

प्रश्न—क्या घरमें महाभारत और गरुड़पुराण रख सकते हैं?

उत्तर—जरूर रख सकते हैं। घरमें महाभारत और गरुड़पुराण रखनेमें तथा पढ़नेमें कोई दोष नहीं है॥ ४९१॥

प्रश्न—शाप-वरदानसे होनेवाला काम ही होता है अथवा नया काम भी होता है?

उत्तर—शाप-वरदानमें विशेष शक्ति (तपोबल) होती है। उससे वह भी हो सकता है, जो नहीं होनेवाला है। ऐसा शाप-वरदान ऋषि-मुनियोंका ही नहीं, साधारण मनुष्योंका भी लग सकता है; क्योंकि उनके शाप-वरदानके पीछे विशेष दु:ख या विशेष प्रसन्नता होती है। परन्तु अमुक घटना शाप-वरदानसे घटी अथवा वैसा ही होनेवाला था—इसका पूरा पता लगता नहीं।

शाप-वरदान देनेसे स्वभाव बिगड़ता है और पारमार्थिक पुण्यकी हानि होती है। अत: दूसरेको शाप या वरदान नहीं देना चाहिये॥ ४९२॥

प्रश्न—शान्ति कैसे मिलती है?

उत्तर—शान्ति कामनाके त्यागसे मिलती है। अत: जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय और जिसको चाहूँ, वह मिल जाय—इस कामनाका त्याग करना चाहिये॥ ४९३॥

प्रश्न—त्याग करनेसे शान्ति मिलती है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२। १२), क्या त्यागसे पहले भी शान्ति मिल सकती है?

उत्तर—हॉँ, उद्देश्य बननेमात्रसे शान्ति मिलती है। हमें केवल भजन करना है, और कुछ करना है ही नहीं—ऐसा निश्चय होनेमात्रसे दुविधा मिट जाती है और शान्ति मिल जाती है॥ ४९४॥

प्रश्न—प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग कैसे करें?

उत्तर—अनुकूल परिस्थितिमें दूसरोंकी सेवा करना और प्रतिकूल परिस्थितिमें सुखकी इच्छाका त्याग करना परिस्थितिका सदुपयोग है। खास बात है कि प्राप्त परिस्थितिको भगवान‍्की मरजी माने। वह परिस्थिति अगर अपने कर्मोंका फल है तो भी भगवान‍्की मरजी है। अगर संसारसे मिली है तो भी भगवान‍्की मरजी है। अगर भगवान‍्का विधान है तो भी भगवान‍्की मरजी है॥ ४९५॥

प्रश्न—हम भजन-ध्यान कर रहे हैं और पासमें हल्ला होने लगे तो इस परिस्थितिका सदुपयोग कैसे करें?

उत्तर—इसको भगवान‍्की मरजी माननी चाहिये और उसे सुनकर राजी होना चाहिये। अगर ऐसी परिस्थितिमें भजन-ध्यान न कर सकें तो उसकी हमपर जिम्मेवारी ही नहीं। जिम्मेवारी उतनी ही होती है, जितना कर सकें॥ ४९६॥

प्रश्न—सर्वश्रेष्ठ मनुष्य कौन है?

उत्तर—जिसका अहम‍् सर्वथा मिट गया है अर्थात् जिसको ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव हो गया है॥ ४९७॥

प्रश्न—सर्वोत्कृष्ट अनुभव क्या है?

उत्तर—केवल भगवान् ही मेरे हैं; सिवाय भगवान‍्के मेरा कोई नहीं है—यह अनुभव॥ ४९८॥

प्रश्न—वास्तवमें अपनी वस्तु क्या है?

उत्तर—अपनी वस्तु वह है, जो सदा साथ रहे, कभी बिछुड़े नहीं। जो वस्तु मिली है और बिछुड़नेवाली है, वह कभी अपनी तथा अपने लिये नहीं हो सकती। शरीर, वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य हमें मिले हैं तथा बिछुड़नेवाले हैं, इसलिये ये अपने और अपने लिये नहीं हैं। भगवान् सदा साथ रहते हैं तथा कभी बिछुड़ते नहीं, इसलिये वे अपने तथा अपने लिये हैं॥ ४९९॥

प्रश्न—अन्तिम बात क्या है?

उत्तर—एक चिन्मय सत्ताके सिवाय कुछ नहीं है॥ ५००॥

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