अनन्यभक्तिका स्वरूप और रहस्य
समय बहुत ही अमूल्य है, अत: एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहिये। रात्रिमें सोनेके समय भगवान्के नामका जप और ध्यान करते-करते ही सोना चाहिये। इस प्रकार सोनेसे रातका शयनकाल भी साधनकाल बन जाता है।
दिनमें चलते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते जैसे गोपियाँ अपना समय बिताया करती थीं, उसी तरह समय बिताना चाहिये।
श्रीमद्भागवतमें कहा गया है—
या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप-
प्रेङ्खेङ्खनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो
धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयाना:॥
(१०। ४४। १५)
‘जो गौओंका दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकोंको पालनेमें झुलाते समय, रोते हुए बच्चोंको लोरी देते समय, घरोंमें जल छिड़कते समय और झाड़ू देने आदि कार्योंको करते समय प्रेमपूर्ण चित्तसे आँखोंमें आँसू भरकर गद्गद वाणीसे श्रीकृष्णका गान किया करती हैं, इस प्रकार सदा श्रीकृष्णमें ही चित्त लगाये रखनेवाली वे व्रजकी गोपियाँ धन्य हैं।’
इसी प्रकार हमलोगोंको भी हर समय वाणीसे भगवान्के नाम और गुणोंका कीर्तन तथा मनसे भगवान्का ध्यान करना चाहिये; इसमें जरा भी कमी नहीं रहनी चाहिये।
प्रात: और सायंकाल—दोनों कालोंमें साधनके लिये नियमित-रूपसे भी हमें समय लगाना चाहिये। नियमितरूपसे हम जो समय लगावें, उसे भी बहुत ही मूल्यवान् बना लेना चाहिये। भगवान्के नाम-जपके साथ निम्नलिखित छ: बातोंका विशेषरूपसे ध्यान रखा जाय तो नाम-जप बहुत मूल्यवान् बन सकता है—
(१) नाम-जप हो सके तो मनसे, नहीं तो श्वासके द्वारा करे; वह भी न हो सके तो जिह्वाके द्वारा ही किया जाय।
(२) नाम-जपके समय, जिसका नाम है, उस नामी-(भगवान्) को याद रखना चाहिये।
(३) नाम-जप गुप्तरूपसे करे। किसीको यह नहीं कहना चाहिये कि मैं इतना जप करता हूँ।
(४) नाम-जप श्रद्धा-विश्वासपूर्वक करना चाहिये।
(५) नाम-जप प्रेममें विह्वल होकर करना चाहिये।
(६) नाम-जप निष्कामभावसे करना चाहिये।
इनमें एक-एक भाव मूल्यवान् है। श्रद्धा, प्रेम और निष्काम-भाव—इनमेंसे तो एक भी साथ रहे तो उससे हमारा संसार-सागरसे उद्धार हो सकता है।
भगवान्का ध्यान करनेके समय ये छ: बातें साथमें होनी चाहिये—
(१) भगवान्के नामका जप।
(२) संसारसे वैराग्य।
(३) भगवान्के गुण, प्रभाव और लीलाकी स्मृति।
(४) इन सबमें भगवान्के तत्त्व-रहस्यको समझना।
(५) निरन्तरता।
(६) निष्कामभाव।
इस प्रकार यदि ध्यान किया जाय और वह ध्यान यदि एक क्षण भी हो जाय तो उसके समान न तप है, न तीर्थ है, न व्रत है, न दान है, न यज्ञ है—कुछ भी नहीं है।
इस प्रकार अपने समयको मूल्यवान् बनाना चाहिये।
गीताका पाठ इस प्रकार करना चाहिये—एक मनुष्य अठारहों अध्यायोंके मूल श्लोकोंका पाठ करता है और दूसरा मनुष्य केवल एक अध्यायका ही अर्थ और भाव समझकर पाठ करता है तो पहलेकी अपेक्षा वह एक अध्यायका पाठ करनेवाला श्रेष्ठ है। अर्थ और भावको समझकर हृदयमें धारण करे और फिर उसे कार्यान्वित करे यानी कार्यरूपमें परिणत करे तो वह सबसे उत्तम है। यही बात रामायण आदिके पाठके विषयमें भी समझनी चाहिये।
पूजा हमें मानसिक करनी चाहिये, मानो प्रत्यक्ष ही कर रहे हैं। भगवान्का ध्यान करके पूजा करे, भोग लगाये, आरती करे, फिर स्तुति-प्रार्थना करे। ये सब भी भावसे मन्त्रोंका अर्थ समझते हुए, श्रद्धा-भक्तिपूर्वक, निष्कामभावसे और प्रेममें विह्वल होकर करे। चित्रपट आदिके सहारे यदि ध्यान किया जाय तो उस-उस चित्रपट या मूर्तिका नहीं, साक्षात् भगवान्का ही ध्यान करे—यह ध्यान और पूजा भी मूल्यवान् है; इस पूजामें दूसरी जगह मन जानेकी गुंजाइश नहीं; क्योंकि मानसिक पूजामें भगवान्का स्वरूप भी मानसिक ही होता है। जिस शरीरसे भगवान्की हम पूजा करते हैं, वह भी मानसिक होता है। उसकी सामग्री भी मानसिक होती है और जो क्रिया की जाती है, वह भी मानसिक ही होती है। इस प्रकारकी पूजामें मनके इधर-उधर जानेकी सम्भावना ही नहीं रहती।
भगवान्की स्तुति-प्रार्थना भी भावसहित, श्रद्धा, प्रेम और निष्कामभावपूर्वक करे। भगवान्के सम्बन्धमें ऐसा विश्वास होना चाहिये कि भगवान् हैं, बहुतोंको मिले हैं, मिलते हैं और मुझे भी मिलेंगे। इस प्रकार भगवान्के अस्तित्व एवं सुलभताके विषयमें विश्वास रखना चाहिये।
विवेकपूर्वक वैराग्य हो और वैराग्यपूर्वक उपरति हो तो शीघ्र संसारसे वृत्तियाँ हटकर परमात्मामें अपने-आप ही लग जाती हैं। चित्तकी प्रीति और चित्तकी वृत्ति—दोनों एक ही जगह रहती हैं। जहाँ हमारी प्रीति होगी, वहाँ हमारे चित्तकी वृत्ति अपने-आप ही लग जायगी, अत: भगवान्में प्रेम बढ़ाना चाहिये। प्रेममें प्रधान हेतु श्रद्धा है और श्रद्धामें प्रधान हेतु अन्त:करणकी शुद्धि है।
श्रीभगवान्ने गीतामें कहा है—
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स:॥
(१७। ३)
‘हे भारत! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अन्त:करणके अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है; इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है।’
श्रद्धा भी साधारण नहीं, अतिशय—परम श्रद्धा होनी चाहिये। परम श्रद्धा उसे कहते हैं, जो प्रत्यक्षसे भी बढ़कर हो। कोई बात प्रत्यक्षमें तो नहीं दीखती, किंतु श्रद्धास्पदके वचनोंमें ऐसा विश्वास होना चाहिये कि वह वस्तु प्रत्यक्षसे भी बढ़कर स्पष्ट दीखने लगे। राजा द्रुपद और उनकी पत्नीकी श्रीशिवजीके वचनोंमें ऐसी ही श्रद्धा थी। शिखण्डीके विषयमें श्रीशिवजीने उनसे कह रखा था कि वह प्रथम लड़कीके रूपमें उत्पन्न होकर फिर लड़का बन जायगा। फलत: राजा द्रुपदको लड़की हुई, किंतु उन्होंने उसे लड़का ही समझा और दशार्ण देशके राजा हिरण्यवर्माकी लड़कीके साथ उसका विवाह भी कर दिया। प्रत्यक्ष लड़की रहते हुए भी उसे लड़का मान लिया। ऐसा ही विश्वास भगवान्के वचनोंमें तथा गीतामें वचनोंमें होना चाहिये।
ज्ञान, वैराग्य, एकान्तवास, निष्कामभाव, नाम-जप, श्रद्धा और प्रेम—ये सभी बहुत मूल्यवान् हैं। इनके संयोगसे भगवान्का ध्यान अपने-आप होने लगता है; क्योंकि ये सब ध्यानमें सहायक हैं।
अन्त:करणकी शुद्धि होती है निष्कामकर्मसे तथा भगवान्के नामके जप और ध्यानसे। अन्त:करणकी शुद्धि होनेपर भगवान्में श्रद्धा-भक्ति होती है और श्रद्धा होनेसे प्रेम होता है—‘बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।’—प्रेमके बढ़नेपर मनुष्य भगवान्के गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यको यथार्थरूपसे समझ जाता है। भगवान्के गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य—सभी मूल्यवान् हैं। भगवान्के नाम, रूप, लीला, धाम—इन सबमें गुण, प्रभाव,तत्त्व, रहस्यका दर्शन किया जाय और गुण-प्रभावका भी तत्त्व-रहस्य समझमें आ जाय तो हृदयका भाव अपने-आप उच्चकोटिका हो जाता है तथा साधकका जीवन ही पलट जाता है, उसकी अवस्थामें विलक्षण परिवर्तन हो जाता है।
ये सब बातें सुन-सुनकर चित्तमें हर्ष हो, प्रसन्नता हो, शान्ति मिले, आनन्दकी अनुभूति हो, भगवान्के मिलनेकी आशा हो जाय तो इससे भी साधककी अवस्था बहुत शीघ्र बदल सकती है और मिनटोंमें भगवान् मिल सकते हैं।
जब चित्तकी अवस्था बदल जाती है, उस समय हृदय प्रफुल्लित हो जाता है, वाणी गद्गद हो जाती है, कण्ठ रुक जाता है, शरीरमें रोमांच होने लगता है, नेत्रोंसे अश्रुपात होने लगता है, नासिकासे भी जल बहने लगता है, उसके मन, बुद्धि और इन्द्रिय—सबमें आनन्दकी बाढ़-सी आ जाती है।
ऐसी अवस्था न हो तो भगवान्के वियोगमें दु:ख होना चाहिये और दु:खमें ऐसा अनुभव होना चाहिये कि भगवान्के बिना जीवन व्यर्थ है। विरहकी व्याकुलतामें उसकी वैसी ही दशा हो जानी चाहिये, जैसी भरतजी महाराजकी श्रीरामके विरहमें हुई थी। भरतजीकी दशाका चित्रण करते हुए श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥
(रा० च० मा० उत्तर०, १ क)
इसके लिये हमलोगोंको सद्गुण, सदाचार, ईश्वरकी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य—इन सबको अमृतके समान समझकर हर समय इनका सेवन करना चाहिये और इनके विपरीत दुुर्गुण, दुराचार, दुर्व्यसन, आलस्य, प्रमाद, निद्रा और भोग—इन सबको साधनमें महान् विघ्न समझकर इनका स्वरूपसे सर्वथा त्याग कर देना चाहिये; इन्हें क्षणभरके लिये भी आश्रय नहीं देना चाहिये।
भगवान्के मिलनेमें जो एक-एक क्षणका विलम्ब हो रहा है, वह युगके समान प्रतीत होना चाहिये। भरतजी जब भगवान्से मिलनेके लिये चित्रकूट जा रहे थे, उस समय वहाँ पहुँचनेमें जो विलम्ब हो रहा था, वह उन्हें असह्य हो रहा था। वैसे ही हमलोगोंको भगवान्के मिलनेमें जो विलम्ब हो रहा है, वह असह्य होना चाहिये। जलके वियोगमें मछलीकी जैसी दशा होती है, जैसी तड़पन होती है, वैसी तड़पन भगवान्के विरहमें होने लगे तो फिर भगवान् मिलनेमें विलम्ब नहीं करते।
साथ ही हमलोगोंको एकनिष्ठ होना चाहिये। जैसे पपीहा एकनिष्ठ होता है, वह आकाशसे गिरी हुई बूँदको ही ग्रहण करता है, भूमिपर पड़ा जल नहीं पीता, चाहे वह गंगाजल ही क्यों न हो, उसी प्रकार एक परमात्माके सिवा और कोई भी चीज हमारे कामकी नहीं होनी चाहिये।
ध्यानमें हमारी चकोर पक्षीकी तरह एकाग्रता होनी चाहिये। जब पूर्णिमाका चन्द्रमा उदय होता है तब चकोर पक्षी उदय होनेसे लेकर अस्त होनेतक उसकी ओर देखता ही रहता है, चाहे प्राण ही क्यों न चले जायँ। वह उसे एकटक देखता ही रहता है, उसके अमृतमय स्वरूपका रसपान करता ही रहता है। इसी प्रकार भगवान्का ध्यान करते समय उनकी रूप-माधुरीका रसपान करते रहना चाहिये।
रुक्मिणीकी तरह भगवान्के विरहमें हमारी व्याकुलता होनी चाहिये। हमें ऐसा निश्चय करना चाहिये कि भगवान् नहीं आयेंगे तो मेरे प्राण नहीं रहेंगे। ऐसी परिस्थितिमें भगवान्को बाध्य होकर उस प्रेमीके पास पहुँचना पड़ता है। अत: ऐसी निष्ठा होनी चाहिये कि भगवान् नहीं आयेंगे तो जीकर ही क्या करना है। इसका यह मतलब कदापि नहीं कि हमें आत्महत्या कर लेनी चाहिये; अपितु भगवान्के विरहकी व्याकुलतामें हमारी ऐसी दशा हो जानी चाहिये कि उनके दर्शनके बिना हमारे प्राण निकलनेके लिए छटपटाने लगें।
श्रीभरतजी कहते हैं—
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना।
अधम कवन जग मोहि समाना॥
(रा० च० मा०, उत्तर०, १। ४)
‘अवधि बीत जानेपर भी भगवान् नहीं पहुँचें और फिर भी मैं जीता रहूँ तो संसारमें मेरे समान पापी कौन होगा?’
ऐसी स्थिति प्राप्त करनेके लिये हमें चाहिये कि जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँसे मनको हटाकर भगवान्में लगाते रहें। भगवान्ने कहा है—
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
(गीता ६। २६)
‘यह स्थिर न रहनेवाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसारमें विचरता है, उस-उस विषयसे रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मामें ही निरुद्ध करे अर्थात् जहाँ मन जाय वहाँसे वशमें करके परमात्मामें नियुक्त करे।’
अथवा जहाँ मन जाय, वहीं परमात्माको देखे—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’
क्योंकि भगवान्ने कहा है—
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
(गीता ९। २९)
‘मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परंतु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।’
भक्त चार प्रकारके होते हैं—अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी। इनमें निष्कामी ज्ञानी श्रेष्ठ है। भगवान् कहते हैं—
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥
(गीता ७। १७)
‘उनमें नित्य मुझमें एकीभावसे स्थित अनन्य प्रेम-भक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है; क्योंकि मुझको तत्त्वसे जाननेवाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।’
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥
(गीता ७। १८)
‘ये सभी उदार (श्रेष्ठ) हैं, परंतु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है—ऐसा मेरा मत है; क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है।’
इस प्रकार उक्त चारों भक्तोंमें ज्ञानीकी भगवान्ने विशेष प्रशंसा की है, एकनिष्ठ ज्ञानीको श्रेष्ठ और अपना अतिशय प्यारा कहा है; क्योंकि भगवान्का यह विरद है—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(गीता ४। ११ का पूर्वार्ध)
‘जो भक्त मुझको जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ।’
अत: तन्मय होकर भगवान्को भजना चाहिये।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
(गीता ६। ३१)
‘जो पुरुष एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।’ क्योंकि उसकी दृष्टिमें मेरे सिवा दूसरी वस्तु है ही नहीं। लोगोंकी दृष्टिमें तो वह संसारमें रहता हुआ सब काम करता है; पर वास्तवमें वह संसारमें स्थित नहीं है, मुझमें ही स्थित है।
इन सब बातोंको समझकर अपनी स्थिति ज्ञानी महात्माओंकी-जैसी बनानी चाहिये। उच्चकोटिके जो साधक ज्ञानी भक्त हैं, वे निरन्तर भगवान्को भजते हैं; अत: उनके लिये भगवान् सुलभ हैं। भगवान्ने कहा है—
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)
‘अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’
इसलिये भगवान् कहते हैं—
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता:॥
(गीता १०। ८)
‘मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्तिका कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत् चेष्टा करता है—इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्तिसे युक्त बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वरको ही निरन्तर भजते हैं।’
किस प्रकारसे भजते हैं, इसका उत्तर भगवान्के ही शब्दोंमें सुनिये—
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
(गीता १०। ९)
‘निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं।’
इस प्रकार वे भक्त मुझे नित्य-निरन्तर प्रेमसे भजते हुए मेरी कृपासे मुझे प्राप्त कर लेते हैं—
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०। १०)
‘उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(गीता १२। ७)
‘अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ यानी केवट बनकर इस संसार-सागरसे उनको पार कर देता हूँ; इसमें विलम्बका काम नहीं।’
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)
‘जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।’ अप्राप्तकी प्राप्तिका नाम ‘योग’ है और प्राप्तकी रक्षाका नाम ‘क्षेम’ है। अर्थात् जहाँतक वे साधन कर चुके हैं, उसकी तो रक्षा करता हूँ और जो उनमें कमी है, उसकी पूर्ति करता हूँ। दूसरे शब्दोंमें आजतक जिस वस्तुकी—परम पदकी उन्हें प्राप्ति नहीं हुई, (उसके लिये भगवान् वादा करते हैं कि) उसे मैं प्राप्त करा देता हूँ।
भगवान्की इस घोषणापर ध्यान देकर हमलोगोंको ऐसा ही बनना चाहिये। इस प्रकारकी अनन्यभक्तिसे मनुष्य जो चाहता है वही उसे मिल जाता है। भगवान् कहते हैं—
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: सङ्गवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव॥
(गीता ११। ५४-५५)
‘परंतप अर्जुन! अनन्यभक्तिके द्वारा तो इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ। अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको करनेवाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंमें वैरभावसे रहित है, वह अनन्य भक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है’
इसीका नाम एकनिष्ठ भक्ति, अव्यभिचारिणी भक्ति, अनन्य शरण, अनन्य प्रेम और अनन्य भक्ति है।
ये सब बातें जो भगवान्ने कही हैं, इनके अनुसार मनुष्यको अपना जीवन बनाना चाहिये। इस प्रकारका जीवन बनाकर ही संसारमें जीना धन्य है। संसारके सभी पदार्थ लोगोंकी दृष्टिमें संसारी हैं, अपनी दृष्टिमें नहीं। अपनी दृष्टिमें तो जो कुछ भी पदार्थ हैं, वे सब भगवान्के हैं तथा मैं भगवान्का और भगवान् मेरे हैं, मेरी सारी चेष्टा भगवान्के लिये ही है—इस प्रकार समझे।
अथवा सबको भगवान्का ही स्वरूप समझे। गीतामें भगवान्ने कहा है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(७। १९)
‘बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष ‘सब कुछ वासुदेव ही है’—इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’
अतएव या तो सबमें भगवान्को देखे या सबको भगवान् समझता रहे और आनन्दमें मुग्ध होता रहे। इससे स्थिति नीची हो ही क्यों?
संसारसे अपना प्रयोजन ही क्या है? चाहे कुछ भी हो, अपने तो यही समझे कि सब भगवान्का है, मैं भगवान्का हूँ, सब भगवान्में है, मेरी सारी चेष्टा भगवान्की प्रेरणासे—उनकी आज्ञासे ही हो रही है या मैं उनके लिये ही सब कुछ कर रहा हूँ, भगवान् जो करवा रहे हैं, वही कर रहा हूँ। ये सब भाव भगवान्के दर्शनमें सहायक हैं। अत: इस प्रकार समझकर हर समय सर्वत्र भगवान्का अनुभव करे, उनको कभी न भूले।