भगवान्के दर्शन प्रत्यक्ष हो सकते हैं
बहुत-से सज्जन मनमें शंका उत्पन्न कर इस प्रकारके प्रश्न किया करते हैं कि दो प्यारे मित्र जैसे आपसमें मिलते हैं, क्या इसी प्रकार इस कलिकालमें भी भगवान्के प्रत्यक्ष दर्शन मिल सकते हैं? यदि सम्भव है तो ऐसा कौन-सा उपाय है कि जिससे हम उस मनमोहिनी मूर्तिका शीघ्र ही दर्शन कर सकें? साथ ही यह भी जानना चाहते हैं, क्या वर्तमान कालमें ऐसा कोई पुरुष संसारमें है जिसको उपर्युक्त प्रकारसे भगवान् मिले हों?
वास्तवमें तो इन तीनों प्रश्नोंका उत्तर वे ही महान् पुरुष दे सकते हैं, जिनको भगवान्की उस मनमोहिनी मूर्तिका साक्षात् दर्शन हुआ हो।
यद्यपि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ तथापि परमात्माकी और महान् पुरुषोंकी दयासे केवल अपने मनोविनोदार्थ तीनों प्रश्नोंके सम्बन्धमें क्रमश: कुछ लिखनेका साहस कर रहा हूँ।
(१) जिस तरह सत्ययुगादिमें ध्रुव, प्रह्लादादिको साक्षात् दर्शन होनेके प्रमाण मिलते हैं, उसी तरह कलियुगमें भी सूरदास, तुलसीदासादि बहुत-से भक्तोंको प्रत्यक्ष दर्शन होनेका इतिहास मिलता है; बल्कि विष्णुपुराणादिमें तो सत्ययुगादिकी अपेक्षा कलियुगमें भगवत्-दर्शन होना बड़ा ही सुगम बताया गया है। श्रीमद्भागवतमें भी कहा गया है—
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
(१२। ३। ५२)
‘सत्ययुगमें निरन्तर विष्णुका ध्यान करनेसे, त्रेतामें यज्ञद्वारा यजन करनेसे और द्वापरमें पूजा (उपासना) करनेसे जिस परमगतिकी प्राप्ति होती है वही कलियुगमें केवल नाम-कीर्तनसे मिल जाती है।’
जैसे अरणीकी लकड़ियोंको मथनेसे अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार सच्चे हृदयकी प्रेमपूरित पुकारकी रगड़से अर्थात् उस भगवान्के प्रेममय नामोच्चारणकी गम्भीर ध्वनिके प्रभावसे भगवान् भी प्रकट हो जाते हैं। महर्षि पतंजलिने भी अपने योगदर्शनमें कहा है—
स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग:।
(२। ४४)
‘नामोच्चारसे इष्टदेव परमेश्वरके साक्षात् दर्शन होते हैं।’
जिस तरह सत्य-संकल्पवाला योगी जिस वस्तुके लिये संकल्प करता है वही वस्तु प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है, उसी तरह शुद्ध अन्त:करणवाला भगवान्का सच्चा अनन्य प्रेमी भक्त जिस समय भगवान्के प्रेममें मग्न होकर भगवान्की जिस प्रेममयी मूर्तिके दर्शन करनेकी इच्छा करता है, उस रूपमें ही भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं। गीता अध्याय ११ श्लोक ५४ में भगवान्ने कहा है—
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन! अनन्य भक्तिके द्वारा तो इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये और तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।’
एक प्रेमी मनुष्यकी यदि अपने दूसरे प्रेमीसे मिलनेकी उत्कट इच्छा हो जाती है और यह खबर दूसरे प्रेमीको मालूम हो जाती है तो वह स्वयं बिना मिले नहीं रह सकता, फिर भला यह कैसे सम्भव है कि जिसके समान प्रेमके रहस्यको कोई भी नहीं जानता, वह प्रेममूर्ति परमेश्वर अपने प्रेमी भक्तसे बिना मिले रह सके?
अतएव सिद्ध होता है कि वह प्रेममूर्ति परमेश्वर सब काल तथा सब देशमें सब मनुष्योंको भक्तिवश होकर अवश्य ही प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं।
(२) भगवान्के मिलनेके बहुत-से उपायोंमेंसे सर्वोत्तम उपाय है ‘सच्चा प्रेम’। उसीको शास्त्रकारोंने अव्यभिचारिणी भक्ति, भगवान्में अनुरक्ति, प्रेमाभक्ति और विशुद्ध भक्ति आदि नामोंसे कहा है।
जब सत्संग, भजन, चिन्तन, निर्मलता, वैराग्य, उपरति, उत्कट इच्छा और परमेश्वरविषयक व्याकुलता क्रमसे होती है तब भगवान्में सच्चा विशुद्ध प्रेम होता है।
शोक तो इस बातका है कि बहुत-से भाइयोंको तो भगवान्के अस्तित्वमें ही विश्वास नहीं है। कितने भाइयोंको यदि विश्वास है भी, तो वे क्षणभंगुर, नाशवान् विषयोंके मिथ्या सुखमें लिप्त रहनेके कारण उस प्राणप्यारेके मिलनेके प्रभावको और महत्त्वको ही नहीं जानते। यदि कोई कुछ सुन-सुनाकर तथा कुछ विश्वास करके उसके प्रभावको कुछ जान भी लेते हैं तो अल्प चेष्टासे ही सन्तुष्ट होकर बैठ जाते हैं या थोड़े-से साधनोंमें ही निराश-से हो जाया करते हैं। द्रव्य-उपार्जनके बराबर भी परिश्रम नहीं करते।
बहुत-से भाई कहा करते हैं कि हमने बहुत चेष्टा की परन्तु प्राणप्यारे परमेश्वरके दर्शन नहीं हुए। उनसे यदि पूछा जाय कि क्या तुमने फाँसीके मामलेसे छूटनेकी तरह भी कभी संसारकी जन्म-मरणरूपी फॉँसीसे छूटनेकी चेष्टा की? घृणास्पद, निन्दनीय स्त्रीके प्रेमके वशीभूत होकर उसके मिलनेकी चेष्टाके समान भी कभी भगवान्से मिलनेकी चेष्टा की? यदि नहीं, तो फिर यह कहना कि भगवान् नहीं मिलते, सर्वथा व्यर्थ है।
जो मनुष्य शरशय्यापर शयन करते हुए पितामह भीष्मके सदृश भगवान्के ध्यानमें मस्त होते हैं, भगवान् भी उनके ध्यानमें उसी तरह मग्न हो जाते हैं। गीता अध्याय ४ श्लोक ११ में भी भगवान्ने कहा है—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
‘हे अर्जुन! जो मुझको जैसे भजते हैं मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।’
भगवान्के निरन्तर नामोच्चारणके प्रभावसे जब क्षण-क्षणमें रोमांच होने लगते हैं, तब उसके सम्पूर्ण पापोंका नाश होकर उसको भगवान्के सिवा और कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती। विरह-वेदनासे अत्यन्त व्याकुल होनेके कारण नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लग जाती है तथा जब वह त्रैलोक्यके ऐश्वर्यको लात मारकर गोपियोंकी तरह पागल हुआ विचरता है और जलसे बाहर निकाली हुई मछलीके समान भगवान्के लिये तड़पने लगता है, उसी समय आनन्दकन्द प्यारे श्यामसुन्दरकी मोहिनी मूर्तिका दर्शन होता है। यही है उस भगवान्से मिलनेका सच्चा उपाय।
यदि किसीको भी भगवान्से मिलनेकी सच्ची इच्छा हो तो उसे चाहिये कि वह रुक्मिणी, सीता और व्रजबालाओंकी तरह सच्चे प्रेमपूरित हृदयसे भगवान्से मिलनेके लिये विलाप करे।
(३)यद्यपि प्रकटमें तो ऐसे पुरुष कलिकालमें नहीं दिखायी देते जिनको उपर्युक्त प्रकारसे भगवान्के साक्षात् दर्शन हुए हों, तथापि सर्वथा न हों यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि प्रह्लाद आदिकी तरह हजारोंमेंसे किसी कारणविशेषसे ही किसी एककी लोकप्रसिद्धि हो जाया करती है, नहीं तो ऐसे लोग इस बातको विख्यात करनेके लिये अपना कोई प्रयोजन ही नहीं समझते।
यदि यह कहा जाय कि संसार-हितके लिये सबको यह जताना उचित है, सो ठीक है, परन्तु ऐसे श्रद्धालु श्रोता भी मिलने कठिन हैं तथा बिना पात्रके विश्वास होना भी कठिन है। यदि बिना पात्रके कहना आरम्भ कर दिया जाय तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं रहता और न कोई विश्वास ही करता है।
अत: हमें विश्वास करना चाहिये कि ऐसे पुरुष संसारमें अवश्य हैं, जिनको उपर्युक्त प्रकारसे दर्शन हुए हैं। परन्तु उनके न मिलनेमें हमारी अश्रद्धा ही हेतु है और न विश्वास करनेकी अपेक्षा विश्वास करना ही सबके लिये लाभदायक है; क्योंकि भगवान्से सच्चा प्रेम होनेमें तथा दो मित्रोंकी तरह भगवान्की मनमोहिनी मूर्तिके प्रत्यक्ष दर्शन मिलनेमें विश्वास ही मूल कारण है।