भक्त बननेका सरल साधन
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
(गीता ६। ४७)
‘सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मासे मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।’
परमात्माकी प्राप्तिके लिये शास्त्रोंमें भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, अष्टांगयोग आदि बहुत-से उपाय बतलाये गये हैं, किंतु भक्तियोग सबसे सुगम होनेके कारण मनुष्योंके लिये सर्वोत्तम है; क्योंकि भक्तियोगमें स्त्री, पुरुष, बालक और सभी वर्ण-आश्रमके मनुष्योंका अधिकार है और सबके लिये यह सहज भी है (गीता ७। १४)। कैसा भी पापी क्यों न हो, भगवान्की भक्तिके प्रभावसे उसका भी शीघ्र उद्धार हो जाता है। श्रीभगवान्ने कहा है—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)
‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है—अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ नहीं है। इसलिये वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।’
इसी प्रकार जातिसे भी नीच-से-नीचका उद्धार हो सकता है। श्रीभगवान् कहते हैं—
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
(गीता ९। ३२)
‘अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि—चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे मेरे शरण होकर परम गतिको ही प्राप्त होते हैं।’
जिसकी मृत्यु निकट आ पहुँची है, भक्तिके प्रतापसे उसे भी तत्क्षण परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। गीतामें कहा है—
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(८। ५)
‘जो पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है—इसमें कुछ भी संशय नहीं है।’
यदि कहें कि बिना ज्ञानके कल्याण नहीं हो सकता, सो ठीक है; किंतु भगवान्की भक्तिके प्रभावसे उनको ज्ञानकी प्राप्ति भी भगवत्कृपासे हो जाती है।
गीतामें स्वयं भगवान्ने कहा है—
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
(१०। १०-११)
‘निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले उन भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं। अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये उनके अन्त:करणमें स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकारको प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ।’
इससे यह बात सिद्ध हुई कि मनुष्योंके लिये भगवान्की प्राप्ति बहुत ही सुगम है, चाहे वे जाति और आचरणोंसे नीच तथा चाहे जैसे भी मूर्ख क्यों न हों। भगवान्में श्रद्धा-प्रेम होना चाहिये, फिर उनका भक्तिके प्रभावसे सुगमतापूर्वक शीघ्र उद्धार हो सकता है।
गीता, रामायण और भागवत आदि ग्रन्थोंमें भगवद्भक्तिकी जितनी महिमा मिलती है, उतनी और किसी भी साधनकी नहीं मिलती। इसलिये सर्वोपयोगी समझकर भक्तिका साधन करनेके लिये भलीभाँति परिश्रम करना चाहिये। यों तो सभी युगोंमें सदा ही भक्तिका साधन सुगम बतलाया गया है, किंतु कलियुगमें तो इसकी और भी विशेष महिमा गायी गयी है। श्रीवेदव्यासजीने कहा है—
कलिं सभाजयन्त्यार्या गुणज्ञा: सारभागिन:।
यत्र संकीर्तनेनैव सर्व: स्वार्थोऽभिलभ्यते॥
(श्रीमद्भा० ११। ५। ३६)
‘कलियुगमें केवल नाम-संकीर्तनसे ही सारे स्वार्थ और परमार्थ प्राप्त हो जाते हैं, इसलिये उस युगका गुण जाननेवाले सारग्राही श्रेष्ठ पुरुष कलियुगका बड़ा आदर करते हैं।’
इन सब बातोंसे यह सिद्ध हुआ कि परमात्माकी प्राप्ति कलियुगमें बहुत ही सुगमतासे शीघ्र हो सकती है।
हमलोगोंपर ईश्वरकी बड़ी कृपा है कि हमलोगोंका उत्तम देश, उत्तम काल, उत्तम जाति, उत्तम धर्ममें जन्म हुआ। और भी हमपर ईश्वरकी यह विशेष कृपा है कि हमें ऐसे कलिकालमें समय-समयपर सत्संग और स्वाध्याय करनेका अवसर भी मिल जाता है। आत्मोद्धारके लिये तीनों लोकोंमें यह पृथ्वी उत्तम है और पृथ्वीमें भी यह भारतभूमि सर्वोत्तम मानी गयी है। पूर्वकालमें समस्त पृथ्वीके लोग इस भारतभूमिमें आकर ही शिक्षा लिया करते थे। इसलिये मनु महाराजने कहा है—
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:॥
(२।२०)
‘इस देश (भारतवर्ष)-में उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंके पाससे अखिल भूमण्डलमें निवास करनेवाले सभी मनुष्य अपने-अपने आचारकी शिक्षा लिया करें।’
हमलोगोंका जन्म और निवास इसी भारतभूमिमें है। अभी काल भी हमलोगोंके लिये बहुत ही उत्तम है। कलियुग समस्त दोषोंकी खान होते हुए भी इसमें यह एक विशेष गुण है कि इसमें भगवान्की भक्तिसे मनुष्यका अनायास ही उद्धार हो जाता है। श्रीस्कन्दपुराणमें बतलाया है—
कलेर्दोषनिधेश्चैव शृणु चैकं महागुणम्।
यदल्पेन तु कालेन सिद्धिं गच्छन्ति मानवा:॥
(स्क०, मा० कुमा० ३५। ११५)
‘कलियुग समस्त दोषोंका खजाना है; साथ ही इसमें एक महान् गुण भी है, उसे सुनो। इसमें थोड़े ही समयतक साधन करनेसे मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं।’
श्रीतुलसीदासजी भी कहते हैं—
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
(रा० च० मा०, उत्तर० १०३ क)
मनुष्यशरीरमें ही परमात्मप्राप्तिका मुख्यतया अधिकार है, इसलिये शास्त्रोंमें जगह-जगह मनुष्यशरीरकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
बड़ें भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ४२। ४)
धर्म भी जितने हैं, उनमें वैदिक सनातनधर्म अनादि और सर्वोत्तम है। यों तो धर्मके नामसे संसारमें बहुत-से मत-मतान्तर प्रचलित हैं; किंतु जिनको करोड़ों मनुष्य मानते हों, ऐसे चार ही धर्मके नामसे इस समय विशेष प्रचलित हैं—हिंदूधर्म, बौद्धधर्म, मुस्लिमधर्म और ईसाईधर्म। इनपर विचार करके देखनेसे जो वैदिक सनातन हिन्दूधर्म है, वही सबसे पहलेका सिद्ध होता है। श्रीगौतमबुद्धका प्रचलित किया हुआ बौद्धधर्म करीब ढाई हजार वर्षसे है; क्योंकि इसके प्रचारक स्वयं बुद्धदेवको हुए करीब इतना ही समय हुआ है। ईसाईधर्म भी दो हजार वर्षके अंदर ही प्रचलित हुआ सिद्ध होता है; क्योंकि इसके प्रचारक जो संत ईसा हैं, उन्हें हुए १९८४ वर्ष ही हुए हैं। इस्लामधर्मका मूलग्रन्थ जो कुरानशरीफ है, उस कुरानके प्रकाशक हजरत मुहम्मदको हुए भी करीब चौदह सौ वर्ष हुए हैं। किंतु वैदिक सनातनधर्मके कालका कोई भी निर्णय नहीं कर सकता कि यह कितने वर्षोंसे है; क्योंकि यह अपौरुषेय और अनादि है। संसारमें जितने भी मत-मतान्तर धर्मके नामसे प्रचलित हैं, उन सभी धर्मवालोंको इस वैदिक धर्मसे ही मदद मिली है। मनुष्योंकी बुद्धियाँ विचित्र होनेके कारण नाना प्रकारके मत-मतान्तर और सम्प्रदायोंकी सृष्टि हो गयी; अत: श्रुति-स्मृति कथित जो सनातनधर्म है, इसे ही सर्वोत्तम कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं है। हमारे इस धर्मके मूल मन्त्र ब्राह्मणात्मक वेद हैं; उनकी अनेक शाखाएँ थीं, जिनमेंसे बहुत-सी विधर्मियोंद्वारा नष्ट कर दी गयीं। फिर भी मूलभूत मन्त्र और ब्राह्मण-भाग आज भी प्राप्त है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद—इन चारों संहिताओंको मन्त्रभाग कहते हैं तथा ऐतरेय, तैत्तिरीय, शतपथ ब्राह्मण आदि एवं और भी अधिकांश उपनिषद् ब्राह्मणभाग हैं। यह वैदिक धर्म अनादिकालसे चला आता है, इसीलिये इसको सनातनधर्म माना गया है। ऐसे सनातनधर्मके माननेवाले मनुष्योंमें हमलोगोंका जन्म हुआ है।
इसके सिवा, हमें जो समय-समयपर सत्पुरुषोंका संग प्राप्त हो जाता है, यह भगवान्की विशेष दया है। श्रीस्कन्दपुराणमें कहा है—
तदैव जीवस्य भवेत्कृपा विभो
दुरन्तशक्तेस्तव विश्वमूर्ते।
समागम: स्यान्महतां हि पुंसां
भवाम्बुधिर्येन हि गोष्पदायते॥
सत्सङ्गमो देव यदैव भूयात्
तर्हीश देवे त्वयि जायते मति:।
(स्क०, वै० वै० मा० १६। १८-१९)
‘प्रभो! विश्वमूर्ते! जीवपर जब आप अनन्तशक्ति परमेश्वरकी कृपा होती है, तभी उसे महापुरुषोंका संग प्राप्त होता है, जिससे निश्चय ही यह संसारसमुद्र गोपदके समान हो जाता है; तथा देव! परमेश्वर! जब सत्संग मिलता है, तभी आप परमदेवमें निश्चयपूर्वक श्रद्धा होती है।’
श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही।
चितवहिं राम कृपा करि जेही॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ६८। ४)
तथा भक्त विभीषणने हनुमान्जीसे कहा है—
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
(रा० च० मा०, सुन्दर० ६। २)
इस प्रकार भगवान्की दयासे सब संयोग मिल जानेपर भी हमलोग भगवान्की प्राप्तिसे वंचित रह जायँ तो यह हमारे लिये बहुत ही दु:ख और लज्जाकी बात है! श्रीगोस्वामीजी कहते हैं—
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ४४)
अतएव हमलोगोंको इस अमूल्य जीवनको पाकर शरीर और संसारसे मोह हटाकर तन-मन-धनसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये, नहीं तो आगे जाकर घोर पश्चात्ताप करना पड़ेगा। श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ४३)
इन सब बातोंको सोचकर मनुष्यको परमात्माकी प्राप्तिके लिये शीघ्रातिशीघ्र साधनमें लग जाना चाहिये; क्योंकि मृत्युका कोई भरोसा नहीं, न मालूम किस समय आकर प्राप्त हो जाय।
हमलोगोंको यह समझना चाहिये कि भगवान् ही हमारे जीवनके आधार हैं, भगवान्के बिना संसारमें हमारे उद्धारका कोई उपाय नहीं है। हम भगवान्के बिना जी नहीं सकते। इस प्रकारकी अत्यन्त आवश्यकता समझनेसे भी भगवान्की प्राप्ति शीघ्र हो सकती है। जो इस प्रकार समझता है, वह भारी-से-भारी संकट पड़नेपर भी भगवान्को भुला नहीं सकता। जैसे राजा उत्तानपादके पुत्र भक्त ध्रुव ध्यानमें मग्न थे, उस समय राक्षसोंके अनेकों विघ्न करनेपर भी वे विचलित नहीं हुए, वरं भगवान्के ध्यानमें ही मस्त रहे। तब भगवान्ने उनको शीघ्र ही दर्शन दे दिये। ध्रुवजीको सत्ययुगमें जप, तप और ध्यानके तीव्र अभ्याससे साढ़े पाँच महीनेमें भगवान् मिले; किंतु इस कलिकालमें तो उस प्रकारका जप, तप और ध्यान करनेपर और भी शीघ्र भगवान् मिल सकते हैं।
श्रीस्कन्दपुराणमें बतलाया है—
दशवर्षैस्तु यत्पुण्यं क्रियते तु कृते युगे।
त्रेतायामेकवर्षेण तत्पुण्यं साध्यते नृभि:॥
द्वापरे तच्च मासेन तद्दिनेन कलौ युगे।*
(स्क०, ब्रा० से० मा० ४३। ३-४)
‘सत्ययुगमें दस वर्षोंतक साधन करनेसे मनुष्य जिस पुण्यका संग्रह करते हैं, त्रेतामें उसी पुण्यको एक वर्षमें सिद्ध कर लेते हैं और द्वापरमें उसीको एक मासमें एवं कलियुगमें उसे एक दिनमें ही सिद्ध कर लेते हैं।’
* इसी आशयका श्रीविष्णुपुराणके छठे अंशके दूसरे अध्यायका १५वाँ श्लोक भी है।
त्रेतायां वार्षिको धर्मो द्वापरे मासिक: स्मृत:।
यथाक्लेशं चरन् प्राज्ञस्तदह्ना प्राप्यते कलौ॥
(स्क०, मा० कुमा० ३५। ११७)
‘त्रेतामें एक वर्षतक तथा द्वापरमें एक मासतक क्लेश-सहनपूर्वक धर्मानुष्ठान करनेवाले बुद्धिमान् पुरुषको जो फल प्राप्त होता है, वह कलियुगमें एक दिनके अनुष्ठानसे मिल जाता है।’
इस प्रकार यदि हिसाब लगाकर देखा जाय तो इस कलियुगमें ध्रुवकी तरह साधन करनेपर करीब तीन घड़ीमें ही भगवान् मिल जाने चाहिये। यदि कहें कि ‘हम उनकी तरह श्वास रोकनेमें असमर्थ हैं’ तो ठीक है; आपको तीन घड़ीके स्थानमें बिना श्वास रोके साधन करनेसे भी तीन दिनमें तो मिल ही जाने चाहिये। यदि कहें कि ‘हम तीन दिनतक एक पैरसे खड़े भी नहीं रह सकते’ तो ठीक है; ऐसी अवस्थामें आपको बैठकर साधन करनेपर तीन दिनकी जगह छ: दिनमें तो मिलने ही चाहिये। यदि आप मल-मूत्रका अवरोध तथा भूख-प्यास और निद्राका सर्वथा त्याग नहीं कर सकते तो इन सबका त्याग न करके भी आठ पहरमें केवल एक बार दूध, फल खाकर ही ध्रुवकी तरह नामका जप, स्वरूपका ध्यान निरन्तर करें तो भी ध्रुवके जितने समयमें तो भगवान् मिलने ही चाहिये; नहीं तो फिर कलियुगकी क्या विशेषता रही। इस कलियुगमें इतनी छूट तो है ही।
श्रीतुलसीदासजीने भी कहा है—
पय अहार फल खाइ जपु राम नाम षट मास।
सकल सुमंगल सिद्धि सब करतल तुलसीदास॥
(दोहावली ५)
‘छ: महीनेतक केवल दूधका आहार करके अथवा फल खाकर रामनामका जप करो। श्रीतुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसा करनेसे सब प्रकारके सुमंगल और सब सिद्धियाँ करतलगत हो जाती हैं अर्थात् अपने-आप ही मिल जाती हैं।’
इसमें प्रधान बात यह है कि और कुछ भी न बन सके तो छ: महीनेतक लगातार भजन-ध्यानका तार तो टूटना ही नहीं चाहिये तथा वह भजन-ध्यान सकाम यानी सांसारिक पदार्थोंके लिये नहीं, केवल भगवान्की प्राप्तिके लिये विश्वासपूर्वक निष्काम प्रेमभावसे होना चाहिये।
यह छ: महीनेकी बात हमारे श्रद्धा-प्रेमकी कमीका ही दिग्दर्शन है, नहीं तो भगवान्में विशुद्ध और अनन्य प्रेम होनेसे तो निद्रा, भूख और प्यासकी परवा ही नहीं होती तथा फिर उसे भगवान्के सिवा किसी दूसरी चीजकी तो बात ही क्या, अपने देहकी भी सुध-बुध नहीं रहती। ऐसी दशा होनेपर तो भगवान् विलम्ब नहीं कर सकते, उसी समय मिल सकते हैं; क्योंकि भगवान्के मिलनेमें कालका नियम नहीं है, केवल मिलनेकी तीव्र लगन और उत्कट इच्छा होनी चाहिये।
लगन लगन सब कोइ कहै लगन कहावै सोइ।
नारायन जिस लगन में तन मन दीजैै खोइ॥
सगरवंशी महाराज विश्वसहके पुत्र राजा खट्वांगकी बात श्रीमद्भागवतमें आती है। जब उन्होंने देवताओंसे पूछा कि ‘मेरी आयु कितनी शेष है’, तब देवताओंने कहा कि ‘तुम्हारी आयु दो घड़ी ही बाकी है।’ यह सुनकर राजा सब कामोंको छोड़कर परमात्माके ध्यानमें तन्मय हो गये और इस प्रकारकी उनकी तीव्र लगनसे दो घड़ीमें ही वे भगवान् श्रीहरिको प्राप्त हो गये।
परमात्माकी प्राप्तिके लिये बहुत समयकी आवश्यकता नहीं है, केवल परमात्माके मिलनकी तीव्र इच्छा होनी चाहिये; तीव्र इच्छा होनेके साथ ही परमात्मा मिल जाते हैं, विलम्ब नहीं करते। उदाहरणके लिये, कोई आदमी पैर फिसल जानेसे नदीके पानीमें डूब जाय और तैरना न जानता हो तो वह बाहर निकलनेके लिये बहुत आतुर हो जाता है, छटपटाने लगता है और उस समय उसे बाहरका ही लक्ष्य लगातार बना रहता है; उसकी यह बाहर निकलनेकी जो छटपटाहट है, इसीका नाम तीव्र इच्छा है। इसी प्रकार जिसकी संसार-सागरसे बाहर निकलनेकी तीव्र इच्छा हो जाती है तथा जिसका परमात्माका ही निरन्तर लक्ष्य होता है, उसका स्वयं भगवान् तुरंत भवसागरसे उद्धार कर देते हैं। श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा है—
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(१२। ७)
‘अर्जुन! मुझमें चित्त लगानेवाले उन प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ।’
उपर्युक्त तीव्र लगन और उत्कट इच्छा श्रद्धापूर्वक अनन्य विशुद्ध प्रेमसे ही होती है। जब साधकका भगवान्में अनन्य विशुद्ध प्रेम हो जाता है, तब उसको तुरंत भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। अनन्य प्रेमका लक्षण यह है कि वह प्रेमास्पदके वियोगको सहन न कर सके, वह भगवान्के विरहमें भरतजीकी भाँति व्याकुल हो जाय और भगवान्के वियोगमें उसके प्राण जानेकी तैयारी हो जाय। श्रीतुलसीदासजीने भरतजीकी दशाका वर्णन करते हुए कहा है—
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥
(रा० च० मा०, उत्तर० १क)
प्रेमास्पदके वियोगमें इस प्रकारकी विरह-व्याकुलता हो जानेपर फिर भगवान्के आनेमें विलम्ब नहीं होता। अत: जैसे मछली जलके वियोगमें जलके लिये तड़फड़ाती है, उसी प्रकारकी तड़पन हमलोगोंमें भगवान्के लिये होनी चाहिये। यदि कहें कि ‘मछली तो जलके वियोगमें तड़पकर मर जाती है, किंतु उसे जल आकर नहीं मिलता’ सो ठीक है। पर जल तो जड है, भगवान् जलकी तरह जड नहीं हैं; वे चेतन तथा परम प्रेमी और दयालु हैं, वे भला कैसे रुक सकते हैं? उनकी तो यह प्रतिज्ञा है कि ‘जो मुझे जैसे भजते हैं, उन्हें मैं वैसे ही भजता हूँ (गीता ४। ११)।’
जैसे चकोर पक्षी पूर्णिमाके चन्द्रमाको, जबतक चन्द्रमा छिपता नहीं, तबतक एकटक देखता ही रहता है, उसी प्रकार भगवान्का नित्य-निरन्तर ध्यान करनेसे भगवान् सहजमें ही मिल जाते हैं। भगवान् कहते हैं—
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)
‘हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’
यदि कहें कि ‘चकोर पक्षीके तो चन्द्रमा प्रत्यक्ष ही सम्मुख है, इसलिये उसे सुगमता है’ सो ठीक है; किंतु श्रद्धा-भक्ति हो तो हमारे लिये भी भगवान् प्रत्यक्ष ही हैं और यदि श्रद्धा-भक्ति नहीं है तो प्रत्यक्ष और निकट होनेपर भी दूर ही हैं। जब भगवान् श्रीकृष्ण मौजूद थे, उस समय जिनकी उनमें श्रद्धा-भक्ति नहीं थी, ऐसे दुर्योधनादिके लिये भगवान् मौजूद और निकट रहते हुए भी दूर ही थे, प्राप्त होते हुए भी अप्राप्त थे; किंतु ध्रुव आदिके लिये अप्राप्त और दूर होते हुए भी भगवान्में परम श्रद्धा और अनन्य प्रेम होनेके कारण निकट ही थे। अत: जिस प्रकार ध्रुवजीने देवर्षि नारदजीके वचनोंको लक्ष्य बनाकर ध्यान किया, उसी प्रकार हमलोगोंको गीता, रामायण और भागवत आदि ग्रन्थों तथा महात्माओंके वचनोंके अनुसार लक्ष्य बनाकर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक ध्यान करना चाहिये एवं भगवान्के ध्यानरूप अपने उस लक्ष्यको भारी-से-भारी कष्ट पड़नेपर भी पपीहेकी भाँति नहीं छोड़ना चाहिये। यद्यपि सभी बादल नहीं बरसते, किंतु पपीहा साधारण बादलको देखकर भी ‘पिउ-पिउ’ करने लगता है और उन बादलोेंमेंसे ही कोई बरस भी जाता है। इसी प्रकार हमलोगोंको भी भगवान्के भक्तोंको देखकर भगवान्के मिलनेकी इच्छा और आशा रखनी चाहिये। जब पपीहेपर ओले पड़ते हैं और उसके पंख टूट जाते हैं, तब भी वह अपनी टेकको नहीं छोड़ता और बूँदकी आशा लगाये रहता है,इसी प्रकार हमलोगोंको भारी कष्ट पड़नेपर भी भगवान्के स्वरूपका लक्ष्य नहीं छोड़ना चाहिये और भगवत्प्राप्तिरूप बूँदकी आशा लगाये रहना चाहिये। पपीहेका यह नियम है कि चाहे उसके प्राण भले ही चले जायँ, वह बादलोंसेे बरसते हुए बूँदको ही ग्रहण करता है, दूसरे जलकी कभी इच्छा ही नहीं करता; इसी प्रकार हमें भगवान्की प्राप्तिके अतिरिक्त संसारके अन्य भोगोंकी कभी इच्छा ही नहीं करनी चाहिये। इस प्रकारकी तीव्र इच्छा और आवश्यकता होते हुए भी पपीहेको तो शायद जल न भी मिले, किंतु भगवान् तो तीव्रतम इच्छावाले साधकको अवश्य ही मिलते हैं; क्योंकि पपीहेको तो जलकी आवश्यकता है, पर जड होनेके कारण जलको तो पपीहेकी आवश्यकता नहीं है, परंतु जिस प्रकार भक्त भगवान्के लिये आतुर हैं, भगवान् भी भक्तके लिये वैसे ही आतुर हैं। भगवान् कहते हैं—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(गीता ४। ११)
इसके सिवा भगवान्ने यह भी कहा है—
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
(गीता ९। २९)
‘मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परंतु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।’
जो ज्ञानी भक्त भगवान्को निष्काम प्रेमभावसे भजता है और भगवान् जिसे अत्यन्त प्यारे हैं, भगवान्को भी वह अत्यन्त प्यारा है; यह भगवान्की घोषणा है—
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥
(गीता ७। १७)
‘उनमें नित्य मुझमें एकीभावसे स्थित अनन्य प्रेमभक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्त्वसे जाननेवाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।’
अतएव हमें भगवान्में अनन्य और विशुद्ध प्रेम होनेके लिये श्रद्धा-भक्तिपूर्वक ध्यानका नित्य-निरन्तर निष्कामभावसे अभ्यास करना चाहिये।
हमें या तो हर समय इस प्रकार भगवान्का ध्यान करना चाहिये कि ‘जैसे वायु, तेज, जल, पृथ्वीके अंदर आकाश व्याप्त है, इसी प्रकार सबमें भगवान् व्यापक हैं और सब कुछ भगवान्के एक अंशमें है।’ गीतामें बतलाया है—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’
भगवान्के बतलाये हुए इस उपर्युक्त साधनको निरन्तर उत्साहके साथ करना चाहिये। अथवा वस्तुमात्रको भगवान्का स्वरूप और चेष्टामात्रको भगवान्की लीला समझ-समझकर हर समय आनन्दमें मुग्ध होना चाहिये; क्योंकि संसारमें जो कुछ भी वस्तु है, स्वयं भगवान् ही उसके रूपमें बने हैं। उपनिषदोंमें बतलाया है कि पहले एक भगवान् ही थे, फिर उनमें यह इच्छा हुई कि ‘मैं बहुत हो जाऊँ’—‘सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति।’ (तैत्तिरीय० २। ६)। तब भगवान् स्वयं ही अनेक रूप हो गये। द्वापरयुगमें जब ब्रह्माजीने ग्वाल-बालों और बछड़ोंको ले जाकर गुफामें छिपा दिया था, उस समय स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही ग्वाल-बाल और बछड़ोंके रूपमें प्रकट हो गये और लीला करने लगे। श्रीमद्भागवतमें कहा है—
यावद्वत्सपवत्सकाल्पकवपु-
र्यावत्कराङ्घ्रॺादिकं
यावद्यष्टिविषाणवेणुदलशिग्
यावद्विभूषाम्बरम्।
यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो
यावद्विहारादिकं
सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदज:
सर्वस्वरूपो बभौ॥
(श्रीमद्भा० १०। १३। १९)
‘जितने बछड़े और ग्वाल-बाल थे; जैसे उनके छोटे-छोटे शरीर थे; जैसे हाथ-पैर आदि अंग थे; जैसी और जितनी उनकी छड़ियाँ, सींग, बाँसुरी, पत्ते और छींके थे; जैसे और जितने उनके वस्त्र, आभूषण थे; जैसे उनके शील, स्वभाव, गुण, नाम, आकृति और अवस्थाएँ थीं और जैसा उनका चलना-फिरना आदि था; ठीक वैसे-के-वैसे ही और उतने ही रूपोंमें सर्वस्वरूप अजन्मा भगवान् सुशोभित हुए। उस समय ‘यह सब जगत् विष्णुमय है’—यह वेद-वाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी।’
इसी प्रकार हमें पदार्थमात्रको भगवान्का स्वरूप और चेष्टामात्रको भगवान्की लीला समझकर क्षण-क्षणमें आनन्दमें मुग्ध होना चाहिये भक्तोंके लिये यह साधन बहुत ही उत्तम और सरल है।
जैसे नेत्रोंपर हरे रंगका चश्मा लगा लेनेपर सारा संसार हरे रंगका दीखने लग जाता है, इसी प्रकार हृदयरूपी नेत्रपर ‘श्रीहरि’ के भावका चश्मा लगानेसे सारा संसार वस्तुत: भगवान् श्रीहरिके रूपमें ही दीखने लग जाता है। हरे रंगके चश्मेकी अपेक्षा इसमें यह विशेषता है कि संसार तो विभिन्न रंगोंवाला है, चश्मेके प्रभावसे हमें हरा रंग प्रतीत होता है; पर यह संसार तो वास्तवमें श्रीहरिका रूप ही है, अज्ञानके कारण हम इस रहस्यको नहीं समझते, इसीलिये हमें श्रीहरि संसारके रूपमें दीख रहे हैं, वास्तवमें सब कुछ भगवान् ही थे और भगवान् ही हैं।
गीतामें भी सबमें परमात्मबुद्धि होनेकी बड़ी महिमा गायी गयी है। भगवान् कहते हैं—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
‘बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष ‘सब कुछ वासुदेव ही है’—इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’
यह साधन बहुत ही उत्तम है। अतएव हमलोगोंको सबमें भगवद्बुद्धि करनी चाहिये, इस अभ्याससे भी भगवान्की प्राप्ति शीघ्र हो सकती है। छान्दोग्य-उपनिषद्की कथा है। महर्षि उद्दालकने अपने पुत्र श्वेतकेतुसे पूछा कि ‘तूने वह विद्या सीखी या नहीं, जिस एकके ज्ञानसे सबका ज्ञान हो जाता है?’ इसपर उसने कहा—‘वह विद्या तो मेरे गुरुदेव भी नहीं जानते थे, यदि जानते तो वे मुझे अवश्य बतलाते; अब कृपया आप ही बतलाइये।’ तब उद्दालकने बतलाया कि ‘जिस प्रकार एक सुवर्णके ज्ञानसे सुवर्णके बने हुए सारे आभूषणोंका ज्ञान हो जाता है, जितने भी भिन्न-भिन्न नाम, रूप और आकृतिवाले नाना प्रकारके आभूषण हैं, वह सब सोना ही है, इसी प्रकार परमात्माका तत्त्व समझ लेनेपर उसके लिये सब कुछ परमात्मा ही प्रतीत होने लगते हैं। जैसे जलके तत्त्वका ज्ञान होनेपर बादल, भाप, कुहरा, बूँद, बर्फ आदि सभीमें एक जल-ही-जल प्रतीत होने लगता है, इसी प्रकार परमात्माके तत्त्वका ज्ञान होनेपर समस्त संसारमें परमात्मा ही प्रतीत होने लग जाते हैं। भेद और अभेद दोनों ही सिद्धान्तोंको माननेवालोंने इस बातको मुक्तकण्ठसे स्वीकार किया है। अन्तर केवल इतना ही है कि अभेद-उपासक तो यों समझते हैं कि ‘जो कुछ है सो ब्रह्म है और मैं भी ब्रह्म ही हूँ।’ तथा भेदोपासकगण यह समझते हैं कि ‘जो कुछ है सो ब्रह्म है औैर मैं उसका सेवक हूँ।’ बस, इस विषयमें उन दोनोंका इतना ही अन्तर है। अधिकारी-भेदके अनुसार दोनों प्रकारकी साधनाएँ ही उत्तम हैं। श्रीरामचरितमानसका वर्णन है; किष्किन्धाकाण्डमें भगवान् श्रीरामने भक्तिकी दृष्टिसे भक्त हनुमान्से कहा है—
समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ॥
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
(रा० च० मा०, किष्किन्धा० २।४; ३)
सर्वसाधारणके लिये यह भक्तिका मार्ग सरल और सुगम होनेसे उत्तम है। भक्तिमार्गके सभी कोई अधिकारी हो सकते हैं, चाहे वे जातिसे हीन, मूर्ख और पापी ही क्यों न हों; केवल भगवान्में विशुद्ध प्रेम चाहिये। भगवान् तो केवल प्रेमको ही देखते हैं। शबरी न तो कुछ विशेष पढ़ी-लिखी थी और जातिसे भी अत्यन्त हीन थी। उसने स्वयं भगवान् श्रीरामचन्द्रजीसे कहा है—
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी॥
अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
—इसपर भगवान्ने यही कहा कि—
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता॥
(रा० च० मा०, अरण्य० ३४। १-२)
भगवान्ने उसके प्रेमभावको देखकर उसकी कुटियापर जाकर उसके हाथसे दिये फल खाये। धन्य है दयामय प्रभुकी इस अहैतुकी दयाको!
जिनके हृदयमें न श्रद्धा-प्रेम है और न विश्वास है, उनसे न तो असली भजन ही हो सकता है और न उन्हें भगवान् ही शीघ्र मिल सकते हैं। अत: हमलोगोंको भगवान्के गुण और स्वभावकी ओर देखकर भगवान्के मिलनेकी पूरी आशा रखकर प्रतिक्षण उनकी प्रतीक्षा करते रहना चाहिये। मनमें यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि भगवान् हैं, बहुतोंको मिले हैं, मिलते हैं और हमें भी निश्चय ही मिलेंगे। वे हमारे अवगुणोंकी ओर नहीं देखेंगे; उनका हृदय बहुत ही कोमल, सरल तथा दया और प्रेमसे भरा हुआ है। वे सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान् परमात्मा सब जगह सदा ही मौजूद हैं, भक्तका श्रद्धा-प्रेम होनेके साथ ही वे प्रकट हो जाते हैं।
श्रीरामचरितमानसमें श्रीशिवजीने कहा है—
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
(रा० च० मा०, बाल० १८४। ३)
इस प्रकारका दृढ़ निश्चय करके शबरीकी भाँति प्रतिक्षण भगवान्की विश्वासपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार प्रतीक्षा करनेसे भगवान् शीघ्र ही मिल सकते हैं। किंतु यदि इसके विपरीत संशययुक्त भावना होती है कि ‘क्या पता, भगवान् हैं या नहीं’, ‘पहले किसीको मिले हैं या नहीं’, ‘अब मिलते हैं या नहीं’ और ‘मुझे मिलेंगे या नहीं’ तो उसे भगवान्का प्राप्त होना कठिन है। क्योंकि ऐसे अश्रद्धालु संशयग्रस्त अज्ञानीके लिये भगवान्की प्राप्ति तो दूर रही, उसके लिये तो न यह लोक है और न परलोक ही। भगवान् कहते हैं—
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:॥
(गीता ४। ४०)
‘विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थसे अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्यके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।’
क्योंकि जिसको भगवान्की प्राप्तिमें संशय है, उससे न तो भगवान्की प्राप्तिके लिये प्रयत्न ही होता है और न आशा-प्रतीक्षा ही; फिर उसका मन भगवान्में लग ही कैसे सकता है? इसलिये हमलोग चाहे जैसे अधम, पापी, अज्ञान, मूर्ख क्यों न हों, हमें भगवान्में अटल श्रद्धा-विश्वास करके उनकी प्राप्तिके लिये प्रयत्नशील हो जाना चाहिये। वे परमप्रेमी और दयालु भगवान् हमलोगोंके अवगुणोंकी ओर नहीं देखते। भरतजीने कहा है—
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ।
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई।
मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥
(रा० च० मा०, उत्तर० प्रारम्भकी चौ०)
इस आधारपर भगवान्के विरदकी ओर ध्यान देकर हमें निश्चय रखना चाहिये, भगवान् हमारी ओर न देखकर अवश्य हमें अपनायेंगे और दर्शन देंगे।
भक्त पद्मनाभ ब्राह्मण इसी भावसे भावित होकर मन-ही-मन ऐसा सोचा करते हैं कि ‘भगवान् मुझे अवश्य ही मिलेंगे, मैं उनके चरणोंपर लोटूँगा, अपने प्रेमाश्रुओंसे उनके चरण भिगो दूँगा और वे मुझे उठाकर अपने हृदयसे लगा लेंगे। तब मैं आनन्दके समुद्रमें डूबता-उतराता रहूँगा। जब वे कहेंगे कि वरदान माँगो, तब मैं कहूँगा कि मुझे कुछ नहीं चाहिये, मैं तो आपकी सेवा करूँगा और आपको देखता रहूँगा।’ इस प्रकार मन-ही-मन वे विचारते रहते और आनन्दमें निमग्न हो जाते। उनके शरीरमें रोमांच हो जाता और आँखोंसे आँसू गिरने लगते। उनकी यह प्रेममुग्ध-अवस्था बहुत समयतक रहा करती थी। उनके ऐसे श्रेष्ठ भाव और उत्कट प्रेमको देखकर भगवान्ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिये। उस समय सारा स्थान भगवान्की दिव्य अंग-ज्योतिसे जगमगा उठा। भक्त पद्मनाभको हजारों सूर्योंके समान दिव्य प्रकाश और उनके भीतर शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णुके दर्शन हुए। भक्त पद्मनाभका हृदय शीतल हो गया। उनकी आँखें निर्निमेष होकर उन अखिलरसामृतसागर भगवान्के रूप-रसका पान करने लगीं। भक्तिका साधन करनेवालोंके लिये यह बहुत ही सरल और रहस्यमय साधन है। इसलिये प्रेमी भक्तोंको भक्त पद्मनाभका अनुकरण करना चाहिये।
भगवान्की उपासनाके लिये जितने भी सेवन करनेयोग्य पदार्थ बताये गये हैं, उनमें चार प्रधान हैं—भगवान्के दिव्य नाम, रूप, लीला और धाम। इन चारोंमें प्रत्येकमें गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको समझना चाहिये। कम-से-कम कान, नेत्र, मन और वाणी—इन चार मुख्य द्वारोंसे तो उपर्युक्त चारोंका सेवन अवश्य ही करना चाहिये। अभिप्राय यह है कि भगवान्के नाम, रूप, लीला, धामके गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यको श्रद्धा-भक्तिपूर्वक कानोंके द्वारा भगवद्भक्तोंसे श्रवण करना, नेत्रोंके द्वारा सत्-शास्त्रोंमें पढ़ना, फिर मनसे इनका मनन करना तथा वाणीके द्वारा इनका कीर्तन करना और भगवद्भक्तोंमें इनका कथन करना चाहिये। इस प्रकार श्रद्धा-प्रेमपूर्वक इन चारोंका सेवन करनेसे परमात्माका साक्षात् दर्शन होकर परम आनन्द और परम शान्ति, असीम समता तथा परमात्माके स्वरूपका ज्ञान हो जाता है। अब संक्षेपमें नाम, रूप, लीला, धामके गुण, प्रभाव तत्त्व, रहस्य बतलाये जाते हैं।*
* इस विषयको विस्तारसे जाननेके लिये पुस्तक ‘भक्ति-भक्त-भगवान्’ में ‘नाम-रूप-लीला-धाम’ शीर्षक लेख देखना चाहिये।
क्षमा, दया, शान्ति, प्रेम, ज्ञान, सरलता आदि जो परमात्माके अनन्त दिव्य गुण हैं, वही सब उनके नामके अन्दर भरे हुए हैं। जैसे वटके बीजको भूमिमें बोकर जलसे सींचनेसे वटका वृक्ष उत्पन्न हो जाता है, इसी प्रकार भगवान्के नामरूपी बीजको हृदयरूपी भूमिमें बोकर सत्संग और स्वाध्यायरूप जलसे सींचनेसे दिव्य भगवद्गुणरूप वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। अभिप्राय यह कि जप, कीर्तन, श्रवण और स्मरण करनेसे उपासकके हृदयमें भगवान्के दिव्य गुण स्वाभाविक ही प्रकट हो जाते हैं। ये नामके गुण बतलाये गये।
नामका जप, कीर्तन, श्रवण और स्मरण करनेसे समस्त पापोंका, अहंता-ममता, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि समस्त दुर्गुणोंका, झूठ, कपट, चोरी, हिंसा, व्यभिचार, मद्यपान, द्यूत आदि दुराचारोंका तथा सम्पूर्ण दु:खोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है एवं उपासकमें स्वाभाविक ही सद्गुण-सदाचार आदिका आविर्भाव होकर भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। यह नामका प्रभाव है।
भगवान्का नाम भगवान्से अभिन्न है; भगवान्का स्वरूप, उनका ज्ञान और उनका नाम—यह सब एक ही है। वस्तुत: भगवान् ही स्वयं नामके रूपमें प्रकट होते हैं। इस प्रकार समझना ही नामके तत्त्वको समझना है।
वाणीके द्वारा नाम जपनेकी अपेक्षा मनसे जपना सौ गुना अधिक फलदायक है और वह मानसिक जप भी श्रद्धा-प्रेमसे किया जाय तो उसका अनन्त फल है तथा वही गुप्त और निष्कामभावसे किया जाय तो शीघ्र ही भगवान्की प्राप्ति करानेवाला है। जो इस रहस्यको समझ लेता है, वह कभी भगवन्नाम-जपकी ओटमें पाप नहीं करता। यह भगवन्नामका रहस्य है।
भगवान्का रंग, रूप, आकृति बहुत ही कोमल, लावण्यमय, रसमय, परम आकर्षक, कान्तिमय, अलौकिक, चमकदार, सुन्दर और अद्भुत है; और उनमें निरतिशय अत्यन्त विलक्षण क्षमा, दया, शान्ति, प्रेम, न्याय, समता, मधुरता, सरलता, उदारता आदि अनन्त दिव्य गुण हैं। ये भगवत्स्वरूपके गुण हैं।
सम्पूर्ण बल, ऐश्वर्य, तेज, शक्ति, महिमा सम्भवको असम्भव और असम्भवको सम्भव करनेकी सामर्थ्य आदि भगवान्का अपरिमित प्रभाव है। भगवान्के स्वरूपके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप और स्मरणमात्रसे सम्पूर्ण पापों, दु:खों और दुर्गुण-दुराचारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है एवं भक्तमें स्वाभाविक ही समस्त सद्गुण-सदाचारोंका आविर्भाव होकर उसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। यह भगवान्का प्रभाव बतलाया गया।
जिस प्रकार परमाणु, भाप, कुहरा, बादल, बूँद, ओला और बर्फ आदि सब तत्त्वसे जल ही हैं, इसी प्रकार सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, जड-चेतन, स्थावर-जंगम, सत्-असत् ,स्थूल-सूक्ष्म, कार्य-कारण आदि जो कुछ भी और जो इससे परे है, वह सब तत्त्वत: एक भगवान् ही है। यह भगवान्के स्वरूपका तत्त्व है।
वे निर्गुण-निराकार परमात्मा ही सगुण-साकाररूपमें प्रकट होते हैं, इस रहस्यको उनकी कृपाके बिना ऋषि और देवतागण भी नहीं जानते; क्योंकि वे अपनी योगमायासे छिपे रहते हैं। उनका स्वरूप अचिन्त्य, असीम और दिव्य है, वे स्वयं आप ही अपने-आपको जानते हैं तथा जिसको वे कृपा करके जनाना चाहते हैं, वही जान सकता है। द्वापरयुगमें जब ब्रह्माजी ग्वाल-बाल और बछड़ोंको चुराकर ले गये, उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ही उन ग्वाल-बाल और बछड़ोंके रूपमें बन गये—इस रहस्यको बलदेवजी भी स्वयं नहीं समझ सके, जब भगवान्ने बलदेवजीको यह रहस्य समझाया, तभी समझे। उस समय ग्वाल-बाल और बछड़ोंके रूपमें भगवान् ही थे, इसे कोई नहीं जानता था; यह भगवान्के स्वरूपका रहस्य है।
जब रावणसे तिरस्कृत होकर विभीषण भगवान् श्रीरामकी शरणमें आया, उस समय भगवान्ने उसके साथ शरणागतवत्सलता, उदारता, दया और प्रेम आदिसे युक्त सुहृदयताका व्यवहार किया, भगवान्के व्यवहारके इस प्रकारके गुणोंको देखना ही भगवान्की लीलामें गुणोंका दिग्दर्शन है।
श्रीरामचरितमानसके बालकाण्डका वर्णन है कि धनुषभंगके अनन्तर श्रीपरशुरामजी पधारे और अन्तमें उन्होंने कहा कि—
राम रमापति कर धनु लेहू।
खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ।
परसुराम मन बिसमय भयऊ॥
(रा० च० मा०, बाल० २८३।४)
इस प्रकार बिना ही परिश्रम भगवान्के केवल छूनेमात्रसे ही धनुषका अपने-आप ही चढ़ जाना, यह भगवान्की लीलाका प्रभाव है। तथा भगवान्की लीलाके गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यको समझते हुए उनकी लीलाका दर्शन, चिन्तन, पठन, श्रवण, कीर्तन और अनुकरण करनेसे मनुष्यका उद्धार हो जाता है, यह भी भगवान्की लीलाका प्रभाव है।
जब ब्रह्माजी ग्वाल-बाल और बछड़ोंको चुराकर ले गये थे, उस समय स्वयं भगवान्ने ही उन ग्वाल-बाल और बछड़ोंका रूप धारण करके सालभरतक क्रीड़ा की। लीलासे ही भगवान् एक क्षणमें अनेक रूप हो गये; अनेक रूप धारण करनेकी इस लीलाको भगवान्का स्वरूप समझना भगवान्की लीलाका तत्त्व समझना है; क्योंकि कर्ता, कर्म, क्रिया—जो भी कुछ है, वह सब तत्त्वत: भगवान् ही है। इसी प्रकार वर्तमान संसारमें स्वाभाविक होनेवाली समस्त चेष्टामात्र भी भगवान्की लीला ही है और वह लीला उनसे अभिन्न होनेके कारण उनका स्वरूप ही है, यह समझना भी भगवान्की लीलाका तत्त्व समझना है।
श्रीरामचरितमानसमें बतलाया है कि भगवान् श्रीराम जब चौदह वर्षकी अवधिके पश्चात् अयोध्यामें पधारे, तब समस्त अयोध्यावासियोंकी शीघ्र ही मिलनेकी अतिशय उत्कण्ठा जानकर वे वहाँ अनन्त रूपोंमें प्रकट हो सबसे मिले—
अमित रूप प्रगटे तेहि काला।
जथा जोग मिले सबहि कृपाला॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना।
उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ५।३-४)
भगवान् क्षणमें सबसे एक साथ मिले। किंतु यह बात एक-दूसरेको मालूम नहीं हुई। हर एक व्यक्ति यही समझता था कि भगवान् मुझसे ही मिल रहे हैं। इस मिलन-लीलामें भगवान्के एक व्यक्तिसे मिलनेका दूसरे व्यक्तिको ज्ञान नहीं है—यह भगवान्की लीलाका रहस्य है।
भगवान्का चिन्मय दिव्यलोक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि, नित्य और सत्य है। वहाँ मन, बुद्धि और वाणीकी पहुँच नहीं है तथा क्षमा, दया, शान्ति, प्रेम, समता, न्याय आदि जो भगवान्के नित्य दिव्य गुण हैं, वे उस धाममें स्वाभाविक ही हैं; क्योंकि स्वयं भगवान् ही धामके रूपमें प्रादुर्भूत हुए हैं। ये भगवद्धामके गुण कहे गये।
जो भक्त भजन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि साधनोंके द्वारा भगवान्के परम धाममें जाते हैं, उनमें उपर्युक्त प्राय: सभी गुण पहलेसे ही स्वाभाविक ही होते हैं; किंतु यदि किसीमें किसी कारण कुछ कमी रहती है तो उसकी पूर्ति उस परम धाममें प्रवेश होनेके साथ ही उसी क्षण हो जाती है और वहाँ जाकर कोई भी वापस नहीं लौटता तथा जो उस दिव्यधाममें रहते हैं, उनके शरीर जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि आदि दोषों तथा समस्त विकारोंसे रहित परम पवित्र होते हैं एवं वे भगवान्की भाँति ही दिव्य, चिन्मय, अलौकिक और समस्त सद्गुणोंसे युक्त होते हैं। उस धाममें जितने भी पदार्थ हैं, सब दिव्य, चिन्मय और अलौकिक हैं। यह सब भगवद्धामके प्रभावका दिग्दर्शन है।
सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा ही परम धामके रूपमें प्रादुर्भूत होते हैं, इसलिये वह परम धाम परमात्माका स्वरूप ही है—यह जानना ही भगवान्के धामका तत्त्व जानना है।
भगवान्के परम धाममें न जानी हुई वस्तु जानी जाती है, न अनुभव की हुई अनुभव की जाती है और न देखी हुई देखी जाती है; क्योंकि वहाँ पहुँचनेपर बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ आदि सभी दिव्य हो जाते हैं। यहाँ भगवान् और उनके धामके गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और लीलाकी जो बातें सुनी-समझी जाती हैं, उनसे वहाँ अत्यन्त विलक्षण हैं। वहाँ जाते ही भगवान् और भगवान्का धाम वस्तुत: क्या चीज है, इसका रहस्य पूर्णतया समझमें आ जाता है। यह भगवान्के परम धामका रहस्य है।
इस प्रकार गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य समझकर साधन करनेवाले साधकको अपने इष्टदेवका साक्षात् दर्शन हो जाता है। उस समय उसकी विलक्षण अवस्था हो जाती है; वह प्रेम, आनन्द और आश्चर्यमें मुग्ध हो जाता है। उसे भगवान्के सिवा अन्य किसीका, यहाँतक कि अपने-आपका भी ज्ञान नहीं रहता; वह भगवान्को ही एकटक देखने लगता है, उसके नेत्रोंकी पलक भी नहीं पड़ती। उसकी शान्तिका पारावार नहीं रहता, उसमें अलौकिक समता आ जाती है। सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्तस्वरूप परब्रह्म परमात्मा जैसा और जिस प्रभाववाला है, उसको वह वैसा-का-वैसा ही सम्पूर्णतया यथार्थरूपसे—तत्त्वत: जान जाता है। फिर वह समस्त संशय, भ्रम, अज्ञान, पापों और विकारोंसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है और उसके लिये कोई भी कर्तव्य या ज्ञातव्य शेष नहीं रहता।
अतएव हमलोगोंको भगवान्की प्राप्तिके लिये अनन्यभक्तिका साधन श्रद्धापूर्वक निष्कामभावसे तत्परताके साथ करनेकी प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।