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नाम-रूप-लीला-धाम

महासर्गके पूर्वमें एक निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ही थे। फिर महासर्गके आरम्भमें उन परमात्माकी अभिन्न शक्तिरूपा प्रकृतिमें, जिसे अव्याकृत माया कहते हैं, जीवोंके कर्मोंका फल भुगतानेके लिये स्वाभाविक ही क्षोभ उत्पन्न हुआ, जिससे वह स्वाभाविक ही तीन गुणोंमें विभक्त हो गयी। जिस प्रकार दही मथनेपर वह नवनीत और मट्ठा—इन दो अलग-अलग रूपोंमें परिणत हो जाता है, इसी प्रकार प्रकृतिमें क्षोभ होनेपर वह विद्या और अविद्या—इन दो रूपोंमें हो जाती है। इस तरह उसके तीन रूप हो जाते हैं अर्थात् उसमें उत्पन्न हुई हलचलरूप क्रिया तो रजोगुण है और उससे उत्पन्न होनेवाली विद्या सत्त्वगुण तथा अविद्या तमोगुण है। इन तीन गुणोंसे संयुक्त जो परमात्माका स्वरूप है, वह सगुण निराकार है। उसीसे आदि-सृष्टिका विस्तार होता है। सृष्टिकी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेके लिये वही परमात्मा ब्रह्मा, विष्णुु और महेशरूपमें प्रकट होते हैं तथा वही सगुण निराकार परमात्मा ही श्रीनृसिंह, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि सगुण-साकाररूपोंमें प्रकट होकर युग-युगमें लीला करते हैं। जिस प्रकार आकाशमें परमाणुरूपसे स्थित जल ही पहले रसरूपमें होकर फिर स्थूल जलके रूपमें प्रकट होता है तथा जैसे परमाणुके रूपमें विद्यमान निराकार पृथ्वी ही गन्धरूपमें प्रकट होकर फिर साकार भूमिके रूपमें प्रादुर्भूत होती है, इसी प्रकार निर्गुण-निराकार ब्रह्म ही सगुण निराकार होकर फिर सगुण-साकाररूपमें प्रादुर्भूत होते हैं; परंतु जिस तरह जलका वह कारणभूत परमाणुरूप, सूक्ष्म रसरूप और स्थूल जलरूप—तीनों वस्तुत: जल ही है तथा जिस तरह पृथ्वीका कारणभूत परमाणुरूप, सूक्ष्म गन्धरूप और स्थूल पृथ्वीरूप—वस्तुत: पृथ्वी ही है, उसी तरह निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकार और सगुण-साकाररूपमें वस्तुत: वह एक परमात्मा ही है। उपर्युक्त प्रकारसे समग्ररूप परब्रह्म परमात्माके तत्त्वको समझकर उसकी श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उपासना करनेसे मनुष्य बहुत शीघ्र अविद्या और जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिसे सदाके लिये मुक्त होकर उस परमात्माको प्राप्त हो सकता है।

इस घोर कलिकालमें परमात्माको प्राप्त करनेके लिये उसकी भक्ति ही सर्वोत्तम और सुगम उपाय है। जब वे परमात्मा सगुण-साकारस्वरूपमें अवतार लेते हैं, तब मूढ़ पुरुष उन्हें नहीं जान पाते; क्योंकि वे मायाके परदेमें छिपे रहते हैं (गीता ७। २५)। जो पुरुष परमात्माकी शरण होकर उनकी भक्ति करता है, उसके सामनेसे परमात्मा अपनी मायाका परदा हटा लेते हैं, जिससे उस पुरुषको उनके साक्षात् चिन्मय दिव्य सगुण-साकार रूपका प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है। इसलिये प्रत्येक मनुष्यको श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनकी भक्ति करनी चाहिये।

भक्तिका अनुष्ठान करनेवालोंके लिये एक बहुत ही सरल और महत्त्वपूर्ण साधन यह है। भगवत्-सम्बन्धी पदार्थोंमें चार मुख्य हैं—भगवान‍्के दिव्य नाम, रूप, लीला और धाम। इनके गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य—इन चारोंको विशेषरूपसे समझना चाहिये तथा गुणका भी प्रभाव, तत्त्व और रहस्य समझना चाहिये एवं प्रभावका भी तत्त्व, रहस्य समझना चाहिये और इस मानव-देहमें प्राप्त कान, नेत्र, मन और वाणी—इन चार द्वारोंसे उपर्युक्त पदार्थोंका सेवन करना चाहिये। यद्यपि अन्त:करण और इन्द्रियाँ आदि प्राय: सभी द्वारोंसे परमात्माकी उपासना हो सकती है; परंतु उनमें ये चार द्वार मुख्य हैं। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त पदार्थोंको श्रद्धा-भक्तिपूर्वक कानोंके द्वारा भक्तोंसे श्रवण करना, नेत्रोंके द्वारा सत्-शास्त्रोंमें पढ़ना, फिर मनसे मनन करना और तदनन्तर वाणीके द्वारा कथन करना चाहिये। इस प्रकार श्रद्धा-प्रेमपूर्वक इनका सेवन करनेसे सेवन करनेवाले मनुष्यको परमात्माका साक्षात् दर्शन होकर परम आनन्द, असीम समता और परमात्माके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

अब इन उपर्युक्त पदार्थोंको भलीभाँति समझनेके लिये कुछ विस्तारसे विवेचन किया जाता है।

भगवन्नामका गुण

क्षमा, दया, शान्ति, प्रेम आदि जो परमात्माके दिव्य गुण हैं, वे ही सब नामके अंदर भी हैं; क्योंकि नामके जप, कीर्तन, श्रवण और स्मरण करनेसे उपासकमें नामीके दिव्य गुण स्वाभाविक ही आ जाते हैं। नामकी गुण-गरिमा क्या कही जाय! श्रीतुलसीदासजीने नाम-महिमा बतलाते हुए कहा है—

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
(रा० च० मा०, बाल० २५। ४)

भगवन्नामका प्रभाव

नामका जप, कीर्तन, श्रवण और स्मरण करनेसे पूर्वकृत समस्त संचित पापोंका; अज्ञानमूलक अहंता-ममता, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि दुर्गुणोंका; झूठ, कपट, हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, द्यूत आदि दुराचारोंका तथा आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक दु:खोंका आत्यन्तिक अभाव होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।

श्रीतुलसीदासजीने कहा है—

सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
(रा० च० मा०, बाल० २५। ३-४)

तथा—

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥
(रा० च० मा०, बाल० २१)

किसी कविने कहा है—

जब ही नाम हिरदै धरॺौ भयो पापको नास।
मानौ चिनगी अग्निकी परी पुराने घास॥

श्रीमद्भागवतमें कहा है—

अज्ञानादथवा ज्ञानादुत्तमश्लोकनाम यत्।
सङ्कीर्तितमघं पुंसो दहेदेधो यथानल:॥
(६। २। १८)

‘जिस प्रकार अग्नि ईंधनको जला देता है, उसी प्रकार उत्तमश्लोक श्रीहरिके नामका कीर्तन जानकर किया जाय अथवा बिना जाने, पुरुषके सम्पूर्ण पापोंको भस्म कर डालता है।’

श्रीचैतन्यमहाप्रभुने कहा है—

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल:।
(शिक्षाष्टक)

‘भगवान‍्ने अपने अनेकों नाम प्रकाशित किये और उनमें अपनी सम्पूर्ण शक्ति अर्पित कर दी तथा उसके स्मरणमें कालका नियम नहीं बनाया अर्थात् भगवान‍्के नामका स्मरण मनुष्य सभी समय कर सकता है, इसमें कोई रुकावट नहीं है।’

श्रीमद्भगवद‍्गीतामें भगवान् कहते हैं—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(९। ३०-३१)

‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।’

भगवन्नामका तत्त्व

नाम नामीसे अभिन्न है अर्थात् नाम और नामीमें कोई भेद नहीं है। भगवान‍्ने गीतामें कहा है—‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ (१०—२५) अर्थात् ‘अन्य समस्त यज्ञ तो मेरी प्राप्तिके साधन हैं, पर जपयज्ञ तो स्वयं मैं ही हूँ।’ वस्तुत: परमात्मा ही स्वयं नामके रूपमें प्रकट होते हैं। परमात्माका स्वरूप, परमात्मविषयक ज्ञान और परमात्माका नाम—ये एक ही वस्तु हैं; इसलिये नाम-जप करनेमें नामीकी स्मृति स्वत: ही हो जाती है। इस प्रकार समझना परमात्माके नामका तत्त्व समझना है।

कठोपनिषद् में कहा है—

एतद्‍ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्‍ध्येवाक्षरं परम्।
एतद्‍ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥
(१। २। १६)

‘यह ॐकार अक्षर ही सगुण ब्रह्म है, यह अक्षर ही निर्गुण परब्रह्म है, इस ॐकाररूप अक्षरको ही जानकर जो मनुष्य जिस वस्तुको चाहता है उसको वही मिल जाती है।’

भगवन्नामका रहस्य

वाणीके द्वारा नाम जपनेकी अपेक्षा मनसे जपना सौगुना अधिक फल देनेवाला है। वह मानसिक जप भी श्रद्धा-प्रेमसे किया जाय तो उसका अनन्त फल है तथा वही गुप्त और निष्कामभावसे किया जाय तो शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है।

श्रीरामचरितमानसमें कहा है—

बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥
(रा० च० मा०, अरण्य० १६)
सादर सुमिरन जे नर करहीं।
भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
(रा० च० मा०, बाल० ११८। २)

जो नामके रहस्यको समझता है, वह पुरुष नामकी ओटमें कभी पाप या दम्भ नहीं करता। भाव यह है कि नामसे पापोंका नाश होता ही है—ऐसा समझकर पापाचरण करना तथा लोगोंको दिखलानेके लिये नाम-जपका बहाना करना और भीतर-ही-भीतर छिपकर पाप करना—नामकी ओटमें पाप और दम्भ करना है। नामके रहस्यको जाननेवाला पुरुष इन दोषोंसे रहित होता है।

भगवत्स्वरूपका गुण

भगवान‍्का रंग, रूप, आकृति और लावण्य बहुत ही मधुर, कोमल, रसमय, परम आकर्षक, कान्तिमय, चमकीला, अलौकिक, सुन्दर और अद्भुत है, उनमें निरतिशय, असीम और अत्यन्त विलक्षण क्षमा, दया, शान्ति, प्रेम, न्याय, सौहार्द, सरलता,मधुरता, समता, उदारता, धीरता, वीरता, गम्भीरता, सत्यता, निरभिमानिता, निरहंकारिता, निर्वैरता, निर्भयता, पवित्रता, भक्तवत्सलता, सौम्यभाव आदि अनन्त दिव्य गुण हैं। यह भगवान‍्के गुणोंका दिग्दर्शन है।

भगवत्स्वरूपका प्रभाव

सम्पूर्ण बल, ऐश्वर्य, तेज, शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री, विभूति, महिमा, कान्ति, जगत‍्की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेकी सामर्थ्य, सर्वज्ञता, सर्वाधारता, सर्वव्यापकता, सर्वनियन्तृता, सर्वेश्वरता, सर्वान्तर्यामिता तथा सम्भवको असम्भव और असम्भवको भी सम्भव कर देनेकी सामर्थ्य आदि—ये अपरिमित प्रभाव हैं। जैसे सूर्योदयसे समस्त अन्धकारका अत्यन्त अभाव हो जाता है, इसी प्रकार परमात्माके स्वरूपके स्मरण और ध्यानसे समस्त दुर्गुण-दुराचार, विकार और दु:ख-दोषोंका सर्वथा अभाव हो जाता है तथा मनुष्य सद‍्गुण, सदाचारसम्पन्न होकर, जन्म-मृत्युरूप संसारसमुद्रसे तरकर सहज और शीघ्र ही परमात्माको प्राप्त हो जाता है।

श्रीभगवान् गीतामें कहते हैं—

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(८। १४)

‘हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(१२। ७)

‘हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ।’

भगवत्स्वरूपका तत्त्व

जिस प्रकार आकाशमें परमाणु, भाप, कुहरा, बादल, बूँदें, ओले और बर्फ आदि सब तत्त्वत: एक जल ही हैं, इसी प्रकार सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, जड-चेतन, स्थावर-जंगम, सत्-असत्, स्थूल-सूक्ष्म, कार्य-कारण आदि जो कुछ भी है और जो इससे परे है, सब तत्त्वत: एक परमात्मा ही है।

श्रीभगवान‍्ने गीतामें कहा है—

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(७। १९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, ‘सब कुछ वासुदेव ही है’—इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’

श्रीमद्भागवतमें भगवान् कहते हैं—

मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियै:।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा॥
(११। १३। २४)

‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे अथवा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ। मुझसे पृथक् और कुछ भी नहीं है—ऐसा निश्चयपूर्वक समझो।’

भगवत्स्वरूपका रहस्य

वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वत्र समभावसे स्थित सगुण-निर्गुणरूप परमात्मा ही दिव्य अवतार धारण करके स्वयं प्रकट होते हैं तथा उनके दिव्य गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य आदि इतने अचिन्त्य, असीम और दिव्य हैं कि उनके अपने सिवा उन्हें अन्य कोई जान ही नहीं सकता। यह उनका रहस्य है।

गीतामें श्रीभगवान् कहते हैं—

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
(४। ६)

‘मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।’

तथा अर्जुन कहते हैं—

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा:॥
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
(गीता १०।१४, १५ का पूर्वार्ध)

‘हे केशव! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके लीलामय स्वरूपको न तो दानव जानते हैं और न देवता ही। हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपनेसे अपनेको जानते हैं।’

श्रीरामचरितमानसमें भगवान‍्के स्वरूपका रहस्य प्रकट करते हुए कहा है—

अमित रूप प्रगटे तेहि काला।
जथा जोग मिले सबहि कृपाला॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना।
उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ५। ३-४)

तथा जो पुरुष परमात्माके स्वरूपका स्मरण करता है, वह उनको अत्यन्त प्रिय है। यह भी रहस्यकी बात है।

भगवान‍्की लीलाके गुण-प्रभाव-तत्त्व-रहस्य

रामावतारकी कथा है। जिस समय विभीषण भगवान् श्रीरामकी शरणमें आये हैं, उस समय भगवान‍्ने सुग्रीवसे पूछा कि इसमें तुम्हारी क्या राय है। सुग्रीवने कहा—‘भगवन्! राक्षसोंकी माया जानी नहीं जाती, न मालूम भेद लेने आया है या किस कारणसे आया है। राक्षस मौका पड़नेपर धोखा देकर घात कर सकता है। इसलिये मेरी रायमें तो इसे कैद कर लेना उचित है।’ इसपर भगवान‍्ने कहा—‘मित्र! तुमने जो बात कही सो तो बहुत ही अच्छी बात है; किंतुु दुष्टहृदय पुरुष मेरे सम्मुख नहीं आ सकता और यदि यह हमारा भेद लेनेके लिये आया है तो भी कोई भय नहीं है; क्योंकि जगत् में जितने भी राक्षस हैं, उन्हें लक्ष्मण क्षणभरमें मार सकता है तथा यदि यह भयसे त्रस्त होकर शरणमें आया है तो मेरा यह नियम है कि—

मम पन सरनागत भयहारी।
(रा० च० मा०, सुन्दर० ४२।४)

वाल्मीकीय रामायणमें कहा है—

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥
(युद्ध० १८। ३३)

‘जो मनुष्य एक बार भी मेरी शरण होकर ‘मैं आपका ही हूँ’—इस प्रकार कहकर मुझसे अभयकी याचना करता है,उसको मैं सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंसे अभय दे देता हूँ—यह मेरा व्रत है।’

इसपर हनुमान‍्जी आदि विभीषणको भगवान‍्के निकट लिवा लाये। आते ही विभीषणने भगवान‍्के चरणप्रान्तमें गिरकर भगवान‍्की शरण ग्रहण की। भगवान‍्ने उनको अपने हृदयसे लगा लिया और उसी समय समुद्रका जल मँगवाकर उनको लंकाके लिये राजलितक कर दिया।

यहाँ विभीषणके विषयमें सुग्रीवसे सम्मति पूछना और उनके कथनको उचित बतलाना—यह भगवान‍्की नीति और प्रेम है। शरणमें आये हुएका त्याग न करना—यह शरणागतवत्सलता है और विभीषणको लंकाका राजतिलक कर देना—यह नीति और उदारता है। यह सब भगवान‍्की लीलामें गुणोंका दिग्दर्शन है।

कोई भी दुष्टहृदय मनुष्य भगवान‍्के सम्मुख नहीं आ सकता—यह भगवान‍्की लीलाका प्रभाव है। तथा लक्ष्मण क्षणभरमें समस्त निशाचरोंको मार सकता है—वह लक्ष्मणका प्रभाव भी भगवान‍्की कृपासे ही होनेके कारण भगवान‍्का ही प्रभाव है।

पूर्णब्रह्म परमात्मा ही स्वयं श्रीरामके रूपमें प्रगट हुए हैं। इस प्रकार भगवान‍्की भगवत्ताको समझना ही भगवान‍्की लीलाका तत्त्व समझना है।

भगवान् विभीषणको अभयदान देना चाहते थे। पर भगवान‍्ने इसे गुप्त रखकर सुग्रीव आदिसे उसके लिये राय पूछी और उनका मान रखते हुए ही अपने उद्देश्यके अनुकूल कार्य किया। तथा भगवान‍्के सामने राक्षसोंकी माया, छल-कपट नहीं चलता—यह बात सुग्रीवादि नहीं जानते थे, इसीसे उनके सामने अपने प्रभावका रहस्योद्घाटन कर दिया कि—

जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥
(रा० च० मा०, सुन्दर० ४३। २)

भगवान‍्ने इसमें संकेतसे अपने छिपे हुए प्रभावको प्रकट कर दिया कि दुष्टहृदय मेरे सम्मुख नहीं आ सकता; जो सम्मुख आता है, वह समस्त दूषणोंसे रहित होता है। इस प्रकार भगवान‍्के द्वारा किये हुए रहस्योद्घाटनको समझ लेना ही भगवान‍्की लीलाका रहस्य समझना है।

कृष्णावतारकी कथा है। एक दिन यमुनाजीके तीरपर भगवान् श्रीकृष्ण अपने सखाओं—ग्वालबालोंके साथ भोजन करते-करते बाललीला करने लगे। जब सब अपने-अपने छींके खोलकर भोजन करने लगे, तब भगवान् सबके बीचमें बैठ गये और चारों ओर सब ग्वालबाल मण्डलाकार पंक्ति बनाकर बैठ गये तथा आपसमें अपने-अपने भोजनको बढ़िया बताते हुए एक-दूसरेको हँसाने लगे। उस समय भगवान् अपने हाथमें ग्रास लिये उनको इस प्रकार हँसा रहे थे कि वे सब-के-सब उनके इस विनोदमें तन्मय हो गये। उन्हें बछड़ोंका भी ध्यान न रहा और बछड़े जंगलमें बहुत दूर निकल गये। जब बछड़ोंका ध्यान आया, तब सब भयभीत हो गये। भगवान‍्ने कहा—‘भय मत करो। मैं उन्हें लौटा लाता हूँ।’ ऐसा कहकर भगवान् उनकी खोज करने चले। ब्रह्माजी इस बाललीलाको देखकर मोहित हो गये। उन्होंने पहले तो बछड़ोंको और पीछे ग्वालबालोंको भी छिपा दिया। जब भगवान‍्को बछड़े नहीं मिले और वापस आनेपर जब उन्होंने गोपबालकोंको भी नहीं देखा, तब वे झट जान गये कि यह ब्रह्माजीकी करतूत है। तब ग्वालबालों और बछड़ोंकी माताओंको आनन्दित करने तथा ब्रह्माजीका मोहनाश करनेके लिये भगवान् स्वयं वैसे-के-वैसे बछड़े और बालक बन गये। जितने बछड़े और बालक थे, जैसे उनके शरीर-हाथ-पैर थे; जैसी उनकी छड़ियाँ, सींग, बाँसुरी, पत्ते और छींके थे; जैसे उनके वस्त्र, आभूषण, शील, स्वभाव, गुण, नाम, आकृति और अवस्थाएँ थीं और जैसी उनकी क्रीडाएँ थीं; ठीक वैसे ही और उतने ही रूपोंमें भगवान् प्रकट हो गये। उस समय भगवान‍्ने ‘यह सब जगत् विष्णुमय है’—यह बात प्रत्यक्ष दिखला दी।*

* यावद् वत्सपवत्सकाल्पकवपु-
र्यावत्कराङ्घ्रॺादिकं
यावद् यष्टिविषाणवेणुदलशिग्
यावद्विभूषाम्बरम्।
यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो
यावद् विहारादिकं
सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदज:
सर्वस्वरूपो बभौ॥
(श्रीमद्भा० १०। १३। १९)

श्रीबलदेवजीने पहले कुछ नहीं समझा; फिर जब उन्होंने देखा कि ग्वालबालोंकी माताओंका अपने बच्चोंपर पहलेसे बहुत अधिक स्नेह बढ़ गया है और जिन्होंने दूध पीना छोड़ दिया है, उन बछड़ोंपर भी गायें बहुत अधिक स्नेह करती हैं; तब उन्हें संदेह हुआ और उन्होंने पहचाननेकी दृष्टिसे सबकी ओर देखा। उस समय उन्हें सभी बछड़े, उनके रक्षक गोपबालक, उनकी सम्पूर्ण सामग्रियाँ प्रत्यक्ष श्रीकृष्णरूप दीख पड़ीं और वे चकित हो गये।

इस लीलामें ब्रह्माजीके कालमानसे केवल एक त्रुटि समय बीता था। जब उन्होंने देखा, तब वे यह नहीं समझ सके कि इन दोनोंमें कौन-से ग्वालबाल और बछड़े असली हैं तथा कौन-से पीछेसे बनाये हुए हैं। वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उन्हें वे सब ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्णके रूपमें दिखायी देने लगे। वे भगवान‍्की भगवत्ताको जान गये और तुरंत भगवान‍्के चरणोंमें पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिर पड़े तथा गद‍्गद वाणीसे स्तुति करते हुए क्षमा माँगने लगे। तब भगवान‍्ने अपनी माया समेट ली।

बालकोंके साथ इस प्रकार प्रेमभोज करते हुए बालक्रीड़ा करना प्रेमकी बात है। भगवान‍्ने स्वयं ग्वालबाल और बछड़े बनकर उनकी माताओं और गायोंके साथ मातृभावसे बर्ताव किया, इसमें उनकी दया और प्रेम भरा है। ब्रह्माजीको लीलाका चमत्कार दिखलाकर उनके मोहका नाश करना—यह भी भगवान‍्की दया है। यह सब भगवान‍्की लीलामें गुणोंका दिग्दर्शन है।

भगवान‍्ने अपनी अद्भुत दिव्य शक्तिसे अनेक रूप धारण कर लिये—यह उनकी लीलामें प्रभावका दिग्दर्शन है।

ग्वालबाल, बछड़े, उनकी छड़ी, बाँसुरी आदि सब वस्तुत: भगवान् ही बने थे; भगवान‍्ने ही अनेक रूप बनाकर लीला की—यह भगवान‍्की लीलामें तत्त्वका दिग्दर्शन है।

माताओं और गायोंकी जो भगवान‍्में वात्सल्य-भावकी इच्छा थी, उसकी इस प्रकार गुप्तरूपमें पूर्ति करना यह लीलामें रहस्यका दिग्दर्शन है।

भगवान‍्की प्रत्येक चेष्टा पद-पदपर मंगलमय गुणोंसे ओत-प्रोत है। इसलिये भगवान‍्की प्रत्येक क्रियामें क्षमा, दया, प्रेम, समता आदि उनके अचिन्त्य-अनन्त गुणोंको देखना ही लीलामें गुणोंका देखना है।

भगवान‍्की लीलाओंमें इस प्रकार गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यको समझते हुए उन्हें आदर्श मानकर उनका दर्शन, चिन्तन, स्मरण और अनुकरण करनेसे अर्थात् भगवान‍्के व्यवहारके अनुकूल अपना आचरण बनानेसे अन्त:करण पवित्र होकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। यह समझना भगवान‍्की लीलाका प्रभाव समझना है।

जिस प्रकार गोपबालक, बछड़े, उनकी लकुटी, सींग, बाँसुुरी और उनकी क्रीड़ा आदि सब भगवान् ही थे, उसी प्रकार विश्वमें कर्ता, कर्म, क्रिया आदि जो कुछ भी है, सब तत्त्वत: भगवान् ही हैं—यह समझना लीलाका तत्त्व समझना है।

भगवान‍्की समस्त चेष्टाएँ स्वार्थ और अहंकाररहित होनेके कारण परम पवित्र और कार्यकारिणी होती हैं अर्थात् भगवान् किसीको भी निमित्त बनाकर जो भी चेष्टा करते हैं, वह उसके कल्याणके लिये ही करते हैं; एवं उनकी सम्पूर्ण क्रियाएँ अत्यन्त विशुद्ध होती हैं। यह समझना लीलाका रहस्य समझना है।

भगवद्धामका स्वरूप

धामसे उस परमधामको समझना चाहिये, जो भगवान‍्का चिन्मय, नित्य दिव्यलोक है; जो सर्वोपरि, सबसे श्रेष्ठ, नित्य सत्य है; जिसको ब्रह्मके उपासक ब्रह्मलोक, वेदवेत्ता सत्यलोक, श्रीकृष्णके उपासक गोलोक, श्रीरामके उपासक साकेतलोक, श्रीविष्णुके उपासक वैकुण्ठलोक, श्रीशिवके उपासक शिवलोक मानते हैं—इस प्रकार जिसको विभिन्न उपासकगण अनेक नामोंसे कहते हैं तथा जिसको वे सभी सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ और परम दिव्य मानते हैं; परंतु वहाँ बुद्धि, मन, वाणीकी पहुँच नहीं है, उसके विषयमें जो कुछ कहा जाता है, उससे वह अत्यन्त ही विलक्षण है।

भगवद्धामका गुण

क्षमा, दया, शान्ति, समता, प्रेम, न्याय आदि जो भगवान‍्के नित्य गुण हैं, वे उस धाममें स्वाभाविक ही हैं। क्योंकि भगवान् ही स्वयं धामके रूपमें प्रादुर्भूत हुए हैं। इसलिये उस धाममें निवास करनेवाले भक्तोंमें भी वे गुण स्वाभाविक रहते हैं। जिन प्रेमी भक्तोंको भगवान‍्के साक्षात् दर्शन हो जाते हैं, वे उस परमधामको जाते हैं तथा भगवान‍्के दर्शनके प्रभावसे उपर्युक्त गुण उनमें स्वाभाविक ही आ जाते हैं और जो साधक, भजन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि साधनोंके द्वारा भगवान‍्के धाममें जाते हैं, उनमें उपर्युक्त प्राय: सभी गुण पहलेसे ही आ जाते हैं, किंतु यदि किसीमें कुछ कमी होती है तो उस गुणकी पूर्ति वहाँ प्रवेश होनेके साथ उसी क्षण हो जाती है। यह सब भगवद्धामके गुणोंका दिग्दर्शन है।

भगवद्धामका प्रभाव

भगवद्धामका ऐसा प्रभाव है कि जो उस परमधाममें पहुँच जाता है, वह लौटकर नहीं आता। यदि संसारके कल्याणके लिये भगवान‍्के साथ भगवान‍्का परिकर होकर या भगवान‍्की आज्ञासे अधिकार लेकर कारक पुरुषके रूपमें आता है, तो उनके जन्म, कर्म और शरीर निर्दोष, विशुद्ध और दिव्य होनेके कारण उसका आना भी न आनेके समान ही है। क्योंकि वह संसारकी माया और मायाके कार्यसे कभी किसी प्रकार लिप्त नहीं होता तथा उसका देह अनामय होता है। उस लोकमें जो रहते हैं, उनके शरीर जन्म-मुत्यु, जरा-व्याधि आदि दोषों तथा समस्त विकारोंसे रहित और परम पवित्र होकर भगवान‍्की भाँति ही दिव्य, चिन्मय, अलौकिक और सम्पूर्ण सद‍्गुणोंसे युक्त हो जाते हैं एवं उनमें सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और पालनके अतिरिक्त भगवान‍्के अन्य सभी प्रभाव और ऐश्वर्य आदि आ जाते हैं। उस धाममें जितने भी पदार्थ होते हैं, वे सब दिव्य, चिन्मय और अलौकिक होते हैं। यह सब भगवद्धामके प्रभावका दिग्दर्शन है।

भगवद्धामका तत्त्व

भगवान् ही स्वयं धामके रूपमें प्रादुर्भूत होते हैं। इसलिये धाम साक्षात् भगवान‍्का ही स्वरूप है। निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ही सगुण निराकारके रूपमें होकर फिर परमधामके स्वरूपमें प्रकट होते हैं। इसलिये धाम परमात्माका स्वरूप होनेके कारण उनसे अभिन्न है। यह जानना ही धामका तत्त्व जानना है।

भगवद्धामका रहस्य

भगवान् और भगवान‍्के धामके गुण, प्रभाव, तत्त्व तथा लीलाकी गोपनीय दिव्य रहस्यमयी बातें जो यहाँ समझमें नहीं आतीं, वे वहाँ उस परमधाममें जानेपर ज्यों-की-त्यों यथार्थरूपसे जाननेमें आ जाती हैं। अर्थात् वहाँ जाते ही उसे भगवान् और भगवान‍्का धाम वस्तुत: क्या चीज है—इसका तात्त्विक रहस्य एकदम प्रत्यक्ष हो जाता है। वहाँ न जानी हुई जानी जाती है, न अनुभव की हुई अनुभव की जाती है और न देखी हुई देखी जाती है, न सुनी हुई सुनी जाती है, न समझी हुई समझी जाती है; क्योंकि वहाँ पहुँचनेपर बुद्धि, मन, इन्द्रिय आदि सभी दिव्य हो जाते हैं। यहाँ भगवान् और उनके धामके विषयकी जो बातें सुनी-समझी जाती हैं, उससे वह अत्यन्त निराला—विलक्षण है; क्योंकि लौकिक बुद्धि, मन, वाणीकी वहाँ पहुँच ही नहीं है। वहाँ जानेपर इन सबका सम्पूर्ण भेद—रहस्य खुल जाता है और फिर इस विषयकी कोई भी शंका नहीं रह जाती। यह समझना धामका रहस्य समझना है।

इस लोकमें भगवान‍्ने जहाँ अवतार लेकर लीला की है, ऐसे अयोध्या, मथुरा, वृन्दावन आदि भी भगवान‍्के परमधाम माने गये हैं; क्योंकि इन धामोंमें श्रद्धा-प्रेमपूर्वक वास करनेसे वास करनेवालेमें भगवान‍्के गुण आ जाते हैं तथा उनका तत्त्व-रहस्य समझनेसे मनुष्योंमें श्रद्धा-प्रेम और भक्तिका आविर्भाव हो जाता है एवं उन स्थानोंमें मरनेपर उनके प्रभावसे मनुष्य सब पापोंसे रहित होकर मुक्त हो जाता है।

अब भगवान‍्के गुणोंका प्रभाव, तत्त्व, रहस्य तथा प्रभावका तत्त्व-रहस्य किस प्रकार समझना चाहिये, यह बतलाया जाता है।

भगवद‍्गुणोंका प्रभाव

भगवान‍्के क्षमा, दया, प्रेम आदि दिव्य गुणोंके श्रवण, मनन, चिन्तन, वर्णन, गायन आदि करनेसे मनुष्यमें उन सम्पूर्ण गुणोंका आविर्भाव हो जाता है तथा वह समस्त दोषोंसे रहित होकर परमात्माको प्राप्त हो जाता है। यह गुणोंका प्रभाव है।

भगवद‍्गुणोंका तत्त्व

भगवान‍्के सम्पूर्ण गुण दिव्य और चिन्मय हैं तथा भगवान‍्से अभिन्न हैं। वहाँ गुण और गुणीका भेद नहीं है। यह जानना ही भगवान‍्के गुणोंका तत्त्व जानना है।

भगवद‍्गुणोंका रहस्य

भगवान‍्के दया, प्रेम आदि गुणोंमें यह रहस्य देखना चाहिये कि भगवान‍्के दया और प्रेम आदि गुण हेतुरहित और विशुद्ध होते हैं; उनमें कायरता, ममता, कामना, लज्जा, स्वार्थ और भय आदि दोष नहीं होते। इसी प्रकार उनके सभी गुण हेतुरहित, अनन्त, दिव्य और विशुद्ध होते हैं। गुणोंके इस रहस्यको जो समझ जाता है, वह फिर उन परमात्माकी ही शरणमें चला जाता है। उन्हींसे अनन्य प्रेम करता है तथा उसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। विभीषण भी भगवान‍्की दया और प्रेम आदिके यशको सुनकर उनका रहस्य समझकर ही उनकी शरणमें गये थे। उन्होंने स्वयं यह बात कही है—

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥
(रा० च० मा०, सुन्दर० ४५)

एवं उपर्युक्त गुणोंके रहस्यको समझनेवाला फिर स्वयं वैसा ही बन जाता है। भगवान‍्ने गीतामें भक्तोंके लक्षण बतलाते हुए कहा है कि उनमें दया, प्रेम, क्षमा, निर्ममता, निरहंकारिता, समता आदि गुण स्वाभाविक ही आ जाते हैं (२।१३)।

संसारमें यावन्मात्र प्राणियोंमें जितने भी गुण दीख रहे हैं, वे उन गुणसागर परमात्माके दिव्य गुणोंके एक अंशकी ही झलक हैं। इस प्रकार समझना गुणोंके रहस्यको समझना है।

भगवत्प्रभावका तत्त्व

जो भी भगवान‍्का बल, ऐश्वर्य, शक्ति आदि प्रभाव है, वह भगवान‍्से अभिन्न है। जैसे अग्निका प्रकाशन और दहन आदि प्रभाव अग्निसे अभिन्न है, इसी प्रकार भगवान‍्का प्रभाव भगवान‍्से अभिन्न है। यह जानना ही भगवान‍्के प्रभावका तत्त्व जानना है।

भगवत्प्रभावका रहस्य

अग्नि, सूर्य और चन्द्रमामें जो तेज है तथा संसारमें जो कुछ भी विभूतियुक्त, तेजयुक्त, कान्तियुक्त पदार्थ है, वह सब-का-सब भगवान‍्के प्रभावके एक अंशका प्राकट्य है। भगवान् गीतामें कहते हैं—

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥
(१५। १२)

‘सूर्यमें स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत‍्को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमामें है और जो अग्निमें है—उसको तू मेरा ही तेज जान।’ तथा—

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥
(१०। ४१)

‘जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेजके अंशकी ही अभिव्यक्ति जान।’

अब ऊपर बताये हुए पदार्थोंके सेवनकी विधिपर विचार करते हैं।

भगवान‍्के नाम, रूप, लीला, धाम, गुण, प्रभाव, तत्त्व,रहस्यकी अमृतमयी कथाओंका श्रद्धा१, प्रेम२ और निष्कामभाव३ पूर्वक भगवान‍्के प्रेमी भक्तोंके द्वारा श्रवण करना और श्रवण करके वीणाके सुननेसे जैसे हरिण मुग्ध हो जाता है, वैसे ही प्रेममें मुग्ध हो जाना एवं रोमांच, अश्रुपात, कण्ठावरोध और हृदयकी प्रफुल्लताका होना—यह कानोंके द्वारा उपर्युक्त पदार्थोंका सेवन करना है। इसलिये ज्ञानी भक्तोंके पास जाकर, उनको साष्टांग प्रणाम, सेवा-शुश्रूषा और निष्कपटभावसे प्रश्न करके उनसे भगवान‍्की उपर्युक्त बातें सुननी चाहिये।

१. ईश्वर, महात्मा, शास्त्र और परलोकमें भक्तिपूर्वक प्रत्यक्षकी भाँति विश्वासका नाम ‘श्रद्धा’ है। श्रद्धेयमें जब श्रद्धा हो जाती है, तब वह उसके संकेत, मन और आज्ञाके अनुसार ही चलता है। उसीमें उसे महान् शान्ति तथा आनन्द मिलते हैं एवं उनका पालन न करना तो उसके द्वारा बन ही नहीं सकता, किंतु यदि किसी कारणवश आज्ञापालन न हो तो उसके लिये वह मृत्युके तुल्य है।
२. अपने प्रेमास्पदकी कभी विस्मृति न हो और उसके वियोगमें जलके वियोगमें मछलीकी तरह तड़पने लग जाना ‘प्रेम’ है।
३. अहंता, ममता, आसक्तिका सर्वथा अभाव होकर किसी भी प्रकारकी तृष्णा, इच्छा, स्पृहा, वासना, कामना आदिका न रहना ‘निष्कामभाव’ है।

नेत्रोंके द्वारा गीता, रामायण, भागवत आदि सत्-शास्त्रोंमें लिखी हुई भगवान‍्की नाम, रूप, लीला, धाम, गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यकी अमृतमयी बातोंका अर्थ, भाव और विवेचनपूर्वक श्रद्धा, प्रेम और निष्कामभावसे स्वाध्याय करना; सारे संसारको भगवत्स्वरूप देखना; भगवान‍्के स्वरूप, चित्र, मूर्ति और लीला आदिको चकोरकी भाँति एकटक देखना तथा माता-पिता, स्वामी-सुहृद्, आचार्य, अतिथि, ज्ञानी, महात्मा, भगवद्भक्त आदि पुरुषोंको भगवत्स्वरूप समझकर उनके दर्शन करना एवं ऐसा करते हुए रोमांच, अश्रुपात, कण्ठावरोध और हृदयकी प्रफुल्लता होकर प्रेममें मुग्ध हो जाना—यह नेत्रोंके द्वारा उपर्युक्त पदार्थोंका सेवन करना है।

सुनी, पढ़ी और समझी हुई भगवान‍्के नाम, रूप, लीला, धाम, गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यकी अमृतमयी कथाओंका एकान्त और पवित्र स्थानमें सुखपूर्वक स्थिर आसनपर बैठकर श्रद्धा-प्रेम और निष्काम भावपूर्वक विवेक-वैराग्ययुक्त* चित्तसे मनन करना तथा दिव्य स्तोत्र और पदोंके द्वारा मनसे भगवान‍्की स्तुति-प्रार्थना, पूजा-नमस्कार आदि करना; चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते सभी काम करते हुए सब समय उपर्युक्त बातोंका मनन करना; सोनेके समय उपर्युक्त भावोंसे भावित होकर उनका मनन करते रहना और मनसे सबको भगवान‍्का स्वरूप समझते हुए भगवच्चिन्तन करना तथा इस प्रकार करते हुए देहकी भी सुधि भुलाकर तन्मय हो जाना एवं रोमांच, अश्रुपात, कण्ठावरोध, हृदयकी प्रफुल्लता तथा मुग्धता हो जाना—यह मनके द्वारा उपर्युक्त पदार्थोंका सेवन करना है।

* सत्-असत् और नित्य-अनित्य वस्तुके विवेचनका नाम ‘विवेक’ है। विवेक होनेपर मनुष्य प्रत्येक अवस्था और वस्तुमें प्रतिक्षण आत्मा और अनात्माका विश्लेषण करते हुए परमात्माके तत्त्वका बार-बार मनन करता है।
वैराग्यकी व्याख्या महर्षि पतंजलिने योगदर्शनमें इस प्रकार की है—
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।
(१। १५)
‘स्त्री, धन, भवन, मान, बड़ाई आदि इस लोकके और स्वर्गादि परलोकके सम्पूर्ण विषयोंमें तृष्णारहित हुए चित्तकी जो वशीकार-अवस्था होती है, उसका नाम ‘वैराग्य’ है।’

भगवान‍्के नाम, रूप, लीला, धाम, गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यकी अमृतमयी बातोंको श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निष्कामभावसे स्वयं मधुर वाणीसे कीर्तन करना; कथा-व्याख्यानादिद्वारा दूसरोंको सुनाना; दिव्य स्तोत्र और पदोंके द्वारा भगवान‍्की स्तुति-प्रार्थना करना और सबमें भगवद्भाव रखकर सबके साथ हितपूर्ण सत्य, प्रिय, मधुर, कोमल वाणीसे वार्तालाप करना एवं इस प्रकार करते-करते रोमांच, अश्रुपात, कण्ठावरोध, हृदयकी प्रफुल्लता होकर प्रेममें मुग्ध हो जाना—यह वाणीके द्वारा उपर्युक्त पदार्थोंका सेवन करना है।

उपर्युक्त प्रकारसे साधन करनेपर साधकको अपने इष्टदेवका जिस रूपमें वह दर्शन करना चाहता है, उसी रूपमें साक्षात् दर्शन हो जाता है। उस समय उसकी विलक्षण अवस्था हो जाती है; वह प्रेम, आनन्द और आश्चर्यमें मुग्ध हो जाता है; उसे भगवान‍्के सिवा अपने-आपका भी ज्ञान नहीं रहता; वह भगवान् कोही एकटक देखने लगता है; उसके नेत्रोंकी पलक भी नहीं पड़ती तथा भगवान‍्के साक्षात् दर्शन, स्पर्श और वार्तालाप आदि करनेसे उसके रोमांच होने लगते हैं; कण्ठावरोध हो जाता है, नेत्रोंसे अश्रुपात होने लगते हैं और वाणी गद‍्गद हो जाती है। उसके आनन्दका पारावार नहीं रहता। वह परमानन्दमें निमग्न हो जाता है।१ तथा जहाँ उसके मन और नेत्र जाते हैं, वहीं उसे भगवान् दीखते हैं। भगवान् उसके मन और आँखोंसे कभी ओझल नहीं होते२। और इस प्रकार सर्वत्र भगवद‍्बुद्धि होनेके कारण उसमें अद्भुत समता आ जाती है। समस्त पदार्थ, भाव, घटना, क्रिया और परिस्थितिमें तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें उसकी विलक्षण समता हो जाती है।३ वह सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्तस्वरूप परब्रह्म परमात्मा जैसा और जिस प्रभाववाला है, उसको यथार्थरूपसे तत्त्वत: जान जाता है। फिर वह समस्त संशय, भ्रम, अज्ञान और पापोंसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है। उसके लिये कोई भी कर्तव्य या ज्ञातव्य शेष नहीं रह जाता। वह हर समय परमात्मामें ही तल्लीन रहता है। उसकी सारी चेष्टा परमात्मामें ही होती है। भगवान‍्ने कहा है—

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
(गीता ६। ३१)

‘जो पुरुष एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।’

१-जब श्रीअक्रूरजी कंसकी आज्ञासे भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको लेनेके लिये गोकुल गये, उस समय भगवान‍्के प्रत्यक्ष दर्शन करके उनकी जो दशा हुई उसका वर्णन करते हुए भागवतकार कहते हैं—
भगवद्दर्शनाह्लादबाष्पपर्याकुलेक्षण:।
पुलकाचिताङ्ग औत्कण्ठ्यात् स्वाख्याने नाशकन्नृप॥
(१०। ३८। ३५)
*‘हे राजन्! भगवद्दर्शनके आह्लादसे उनके नेत्रोंमें जल भर आया, शरीर पुलकित हो गया और गला भर आनेके कारण वे अपना परिचय भी न दे सके।’
२-भगवान‍्ने कहा है—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’
३. भगवान‍्ने भक्तोंके लक्षण बतलाते हुए कहा है—
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: सङ्गविवर्जित:॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥
(गीता १२। १८-१९)
‘जो शत्रु-मित्रमें और मानापमानमें सम है तथा सरदी, गरमी और सुख-दु:खादि द्वन्द्वाेंमें सम है और आसक्तिसे रहित है; जो निन्दा-स्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील और जिस-किसी प्रकारसे भी शरीरका निर्वाह होनेमें सदा ही संतुष्ट है और रहनेके स्थानमें ममता और आसक्तिसे रहित है—वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है।’

ऐसे महापुरुषके दर्शन, भाषण, स्पर्श, चिन्तन, वार्तालाप करनेसे मनुष्य परम पवित्र बन जाता है। भागवतमें राजा परीक्षित् ने शुकदेवजीके प्रति अपने श्रद्धामय उद‍्गार प्रकट करते हुए कहा है—

येषां संस्मरणात् पुंसां सद्य: शुद्धॺन्ति वै गृहा:।
किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभि:॥
सान्निध्यात्ते महायोगिन् पातकानि महान्त्यपि।
सद्यो नश्यन्ति वै पुुंसां विष्णोरिव सुरेतरा:॥
(१। १९। ३३-३४)

‘भगवन्! जिनके स्मरणमात्रसे तत्काल ही मनुष्योंके घर पवित्र हो जाते हैं, उन्हीं आपके दर्शन, स्पर्श, पादप्रक्षालन और आसनादिका सुअवसर मिलनेपर तो कहना ही क्या है? हे महायोगिन्! आपकी सन्निधिसे पुरुषोंके भारी-से-भारी पाप भी इस प्रकार तुरंत नष्ट हो जाते हैं, जैसे विष्णुभगवान‍्के सामने दैत्यलोग नहीं ठहरते।’

ऐसे महापुरुष जहाँ विचरते हैं, वह स्थान तीर्थ हो जाता है और वहाँका वायुमण्डल पवित्र हो जाता है। श्रीनारदजीने कहा है—

तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि। (नारदभक्तिसूत्र ६९)

‘वे अपने प्रभावसे तीर्थोंको सुतीर्थ बनाते हैं, कर्मोंको सुकर्म बनाते हैं और शास्त्रोंको सत्-शास्त्र बना देते हैं।’ अर्थात् वे जहाँ रहते हैं, वही स्थान तीर्थ बन जाता है या उनके रहनेसे तीर्थका तीर्थत्व स्थायी और उज्ज्वल बन जाता है। वे जो कर्म करते हैं, वे ही सुकर्म बन जाते हैं, उनकी वाणी ही शास्त्र है और वे जिस शास्त्रको महत्त्व देकर अपनाते हैं, वही सत्-शास्त्र समझा जाता है।

तथा—

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिँ-
ल्लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेत:॥
(स्कन्द०, मा० कौ० खं० ५५। १४०)

‘जिसका चित्त इस अपार ज्ञानस्वरूप सुखसागर परब्रह्ममें लीन है, उससे कुल पवित्र, माता कृतार्थ और पृथ्वी पुण्यवती हो जाती है।’

श्रीतुलसीदासजीने तो यहाँतक कह दिया है कि—

मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा॥
(रा० च० मा०, उत्तर ११९।८-९)

अतएव मनुष्यको उचित है कि ऐसी स्थिति प्राप्त करनेके लिये भगवान‍्के उपर्युक्त नाम, रूप, लीला, धामके गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यका कान, नेत्र, मन और वाणीद्वारा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निष्कामभावसे तत्परताके साथ नित्य-निरन्तर सेवन करे।

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