श्रद्धा-विश्वास, मिलनकी तीव्र इच्छा और निर्भरता
आस्तिकभाव या भगवान्की सत्तामें विश्वास
भगवान्के स्वरूपका ज्ञान न होनेपर भी भगवान्की सत्ता (होनेपन)-में जो विश्वास है, उससे भी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है; किंतु यह विश्वास पूर्णतया होना चाहिये। मनुष्यके मनमें भगवान्के अस्तित्वका विश्वास ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-ही-त्यों वह भगवान्के समीप पहुँचता जाता है। किसीको भगवान्के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार किसी भी स्वरूपका वास्तविक अनुभव नहीं है; किंतु यह विश्वास है कि भगवान् हैं और वे सब जगह व्यापक हैं; वे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, परम प्रेमी और परम दयालु हैं, वे पतितपावन और अन्तर्यामी हैं; हम जो कुछ कर रहे हैं, उसे भगवान् देख रहे हैं, जो कुछ बोल रहे हैं, उसे वे सुन रहे हैं तथा जो कुछ हमारे हृदयमें है, उसे भी वे जान रहे हैं। इस प्रकार विश्वास हो जानेपर उस साधकके द्वारा झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी, हिंसा, व्यभिचार आदि भगवान्के विपरीत आचरण नहीं हो सकते। इस विश्वासकी उत्तरोत्तर वृद्धि होनेपर विरुद्ध आचरणकी तो बात ही क्या है, उसके द्वारा यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, उपवास, सेवा, जप, ध्यान, पूजा, पाठ, स्तुति, प्रार्थना, सत्संग, स्वाध्याय आदि जो कुछ होता है, वह भगवान्के अनुकूल औैर उनकी प्रसन्नताके लिये ही होता है। उसके हृदयमें क्षमा, दया, शान्ति, समता, सरलता, संतोष, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि भाव भगवान्के अनुकूल और उत्तम-से-उत्तम होते हैं। भगवान्के अस्तित्वमें जो भक्तिपूर्वक विश्वास है, इसीका नाम ‘श्रद्धा’ है। भगवान्के गुण, प्रभाव, तत्त्व,रहस्यको समझनेसे जब साधककी भगवान्में परम श्रद्धा हो जाती है, तब उसके हृदयमें प्रसन्नता और शान्ति उत्तरोत्तर बढ़ते चले जाते हैं। कभी-कभी तो शरीरमें रोमांच और नेत्रोंसे अश्रुपात होने लगते हैं तथा हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। कभी-कभी विरहकी व्याकुलतामें वह अधीर-सा हो जाता है। उसके हृदयमें यह भाव आता है कि जब भगवान् हैं तो हम उनसे वंचित क्यों? भगवान्की ओरसे तो कोई कमी है ही नहीं, जो कुछ विलम्ब होता है, वह हमारे साधनकी कमीके कारण ही होता है और उस साधनकी कमीमें हेतु है विश्वासकी कमी तथा विश्वासकी कमीमें हेतु है अज्ञता यानी मूर्खता।
अतएव हमको यह विश्वास बढ़ाना चाहिये कि भगवान् निश्चय हैं, वे अबतक बहुतोंको मिल चुके हैं, वर्तमानमें मिलते हैं एवं मनुष्यमात्रका उनकी प्राप्तिमें अधिकार है। अपात्र होनेपर भी दयामय भगवान्ने मुझको मनुष्य-शरीर देकर अपनी प्राप्तिका अधिकार दिया है। ऐसे अधिकारको पाकर मैं भगवान्की प्राप्तिसे वंचित रहूँ तो यह मेरी मूर्खता है तथा यह मेरे लिये बहुत ही लज्जा और दु:खकी बात है। बार-बार इस प्रकार सोचने-समझनेपर भगवान्के होनेपनमें उत्तरोत्तर भक्तिपूर्वक विश्वास बढ़ता चला जाता है, जिससे उसके मनमें भगवान्को प्राप्त करनेकी आकांक्षाका उदय हो जाता है, तदनन्तर आकांक्षामें तीव्रता आते-आते उसको भगवान्का न मिलना असह्य हो जाता है, अतएव वह फिर भगवान्की प्राप्तिसे वंचित नहीं रहता। तीव्र इच्छा उत्पन्न होनेपर भगवान् उससे मिले बिना रह नहीं सकते। जो भगवान्से मिलनेके लिये अत्यन्त आतुर हो जाता है, उसके लिये एक क्षणका भी विलम्ब भगवान् कैसे कर सकते हैं। अतएव भगवान्के अस्तित्वमें विश्वास उत्तरोत्तर तीव्रताके साथ बढ़ाना चाहिये। इस भक्तिपूर्वक विश्वासकी पूर्णता ही परम श्रद्धा है। परम श्रद्धाके उदय होनेके साथ ही भगवान्की प्राप्ति हो जाती है, फिर एक क्षणका भी विलम्ब नहीं हो सकता। हमारे श्रद्धा-विश्वासकी कमी ही भगवान्की प्राप्तिमें विलम्ब होनेका एकमात्र कारण है।
शास्त्र और महात्माओंपर श्रद्धा
शास्त्र और महात्माओंपर विश्वास होनेपर भी परमात्माकी प्राप्ति शीघ्रातिशीघ्र हो सकती है। शास्त्र कहते हैं कि ‘भगवान् हैं और महात्मा भी कहते हैं कि भगवान् हैं।’ शास्त्रके वचनोंसे भी महात्माके वचन विशेष बलवान् हैं; क्योंकि महात्मा तो परमात्माका साक्षात्कार करके ही कहते हैं कि ‘भगवान् हैं।’ महात्मा जो कहते हैं, सत्य ही कहते हैं। जो झूठ बोलते हैं, वे तो महात्मा ही नहीं। यदि महात्मा यह कहते हैं कि ‘भगवान् हैं’ और इस विषयमें शास्त्र प्रमाण है, तो इस प्रकारका महात्माका वचन तो शास्त्रके समान ही है, किंतु शास्त्रका प्रमाण न देकर यदि महापुरुष कहें कि ‘भगवान् निश्चय हैं’ तो यह वचन और भी बलवान् है, शास्त्रके प्रमाणसे भी बढ़कर है; क्योंकि बिना प्रत्यक्ष किये महात्मा ऐसा नहीं कहते।
अतएव महात्माके मनके अनुसार चलनेवालेका कल्याण हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है, उनके संकेत (इशारे) और आदेशके अनुसार आचरण करनेपर भी निश्चय ही परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। जबकि शास्त्रके अनुकूल चलनेसे भी कल्याण हो जाता है तो फिर महापुरुषोंके बतलाये हुए मार्गके अनुसार चलनेसे या उनका अनुकरण करनेसे कल्याण हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है, किंतु महात्माके वचनोंमें परम श्रद्धा होनी चाहिये। मान लीजिये, किसी महात्माने किसी श्रद्धा दिखानेवाले पुरुषसे कहा कि ‘अमुक संस्थामें एक बोरा गेहूँ और दस कम्बल भिजवा दो।’ इसपर उस श्रद्धालुने अपनी बुद्धि लगाकर उत्तर दिया कि ‘इस समय न तो कम्बलका मौसम है, न उनकी माँग है और न आवश्यकता ही है।’ तब महात्मा बोले—अच्छी बात है, गेहूँ ही भिजवा दो।’ श्रद्धालुने कहा—‘अभी यहाँ गेहूँके दाम महँगे हैं, पाँच दिनों बाद दाम कम हो जायँगे; दूसरे प्रदेशोंमें बाजार गिर गया है और यहाँ भी गिरनेवाला है; अतएव भाव गिरनेपर भेज देंगे।’ इसपर महात्माने कहा—‘बहुत अच्छा। तुम जैसे ठीक समझो, वैसे कर सकते हो।’ इसका नाम ‘श्रद्धा’ नहीं है; क्योंकि यहाँ वह श्रद्धालु महात्माके आदेशका श्रद्धापूर्वक ज्यों-का-त्यों पालन न करके अपनी बुद्धिसे काम लेता है और महात्मा अपनी स्वाभाविक उदारतासे उसमें सहमत हो जाते हैं। ऐसी परिस्थितिमें श्रद्धालुकी जो श्रद्धा होती है, उस श्रद्धाका कोई मूल्य नहीं तथा महात्माकी आज्ञा यदि श्रद्धाके अनुकूल पड़ती है और श्रद्धालु उसे मान लेता है, तो यह भी श्रद्धालु नहीं है। एवं महात्माकी आज्ञा श्रद्धालुके मनके विपरीत प्रतीत हो, परंतु वह मन मारकर उसे मान ले तो यह भी श्रद्धा नहीं है। मनके विपरीत होनेपर भी महात्माकी आज्ञाको श्रद्धालु प्रसन्नतासे पालन करता है, जैसे राजा युधिष्ठिर आदि पाँचों भाइयोंने द्रौपदीके साथ विवाह करनेके विषयमें माता कुन्तीके वचन लोकविरुद्ध और शास्त्रविरुद्ध होनेपर भी प्रसन्नता और आग्रहके साथ उनका अनुसरण किया था—इसका नाम ‘श्रद्धा’ है।
वाल्मीकीय रामायणके अयोध्याकाण्डमें लिखा है कि वनगमनके समय भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महाराज माता कौशल्याके पास गये और उन्होंने पिताकी आज्ञासे वनमें जानेकी बात कही। तब माता कौशल्याने कहा—‘पिताकी आज्ञा वनमें जानेकी है, किंतु मेरी आज्ञा है, तुम वनमें मत जाओ।’ यह सुनकर भगवान् रामने कहा—‘पिताकी आज्ञाका उल्लंघन करनेकी मुझमें सामर्थ्य नहीं है। अत: मैं वन जाना चाहता हूँ। इसके लिये कृपया आप मुझे अनुमति दें।’ इसपर कौशल्या बोली—
जौं केवल पितु आयसु ताता।
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना।
तौ कानन सत अवध समाना॥
(रा० च० मा०, अयोध्या० ५५। १)
भगवान् रामकी दशरथजीमें जो यह श्रद्धा है, यह ‘परम श्रद्धा’ है।
आयोदधौम्य मुनिने एक दिन अपने शिष्य आरुणिसे कहा—‘तुम खेतमें जाकर नीचे बहे जानेवाले जलको रोक दो।’ उसने वहाँ जाकर उस जलको मिट्टीसे रोकनेकी बहुत चेष्टा की, किंतु उसे सफलता नहीं हुई। वह मिट्टीकी मेंड़ बनाता और जलका प्रबल प्रवाह उसे बहा देता। जब प्रवाह रुका ही नहीं, तब आरुणि स्वयं वहाँ लेट गया, जिससे जलका बहना बंद हो गया। तदनन्तर कुछ समय बीतनेपर गुरुजीने शिष्योंसे पूछा—‘आरुणि कहाँ गया?’ उन्होंने कहा—‘आपने ही तो खेतका पानी रोकनेके लिये उसे भेजा है।’ यह सुनकर आयोदधौम्य मुनि बोले—‘अभीतक आरुणि लौटकर नहीं आया, अत: चलो हम सब भी वहीं चलें।’ तदनन्तर वे उसी समय शिष्योंको साथ लेकर वहाँ पहुँचे, जहाँ आरुणि स्वयं मेंड़ बनकर जलको रोके हुए था। मुनिने कहा—‘वत्स आरुणि! तुम कहाँ हो, यहाँ आओ।’ यह सुनकर आरुणि उठकर गुरुके पास आया और हाथ जोड़कर कहने लगा—‘आपकी आज्ञासे मैंने जल रोकनेका प्रयत्न किया, किंतु जब जल न रुका तो मैंने स्वयं ही लेटकर जलको रोक रखा था। आपके वचन सुनकर अब मैं वहाँसे उठकर आ गया हूँ और आपको प्रणाम करता हूँ, अब आपकी क्या आज्ञा है? जलको रोके रखूँ या दूसरा कोई कार्य करूँ? गुरुजीने कहा—‘तुम बाँधका उद्दलन करके निकले हो, अत: तुम ‘उद्दालक’ नामसे प्रसिद्ध होओगे।’ फिर आचार्यने कृपापूूर्वक कहा—‘तुमने मेरे वचनोंका पालन किया है, इसलिये तुम कल्याणको प्राप्त होओगे और सम्पूर्ण वेद तथा समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारे लिये स्वत: ही प्रकाशित हो जायँगे।’ गुरुजीका वरदान पाकर आरुणि अपने देशको लौट गये। श्रद्धाके प्रभावसे उन्हें बिना ही पढ़े सारे वेदोंका ज्ञान हो गया। (महा०, आदि० ३। २१—३३)
श्रीहारिद्रुमत गौतम नामके एक ऋषि थे। उनके पास जबालाका पुत्र सत्यकाम गया और बोला—‘मैं ब्रह्मचर्यपूर्वक आपकी सेवामें रहना चाहता हूँ।’ गौतमने पूछा—‘तुम्हारा गोत्र क्या है?’ उसने उत्तर दिया—‘मैंने अपनी माँसे पूछा था तो माँने कहा कि ‘मैं तुम्हारे पिताकी सेवा किया करती थी, गोत्रका मुझे ज्ञान नहीं है। तेरा नाम सत्यकाम है और मेरा नाम जबाला है।’ यह सुनकर गौतम बड़े प्रसन्न हुए और बोले—‘तुम ब्राह्मण हो; क्योंकि तुम सत्य बोल रहे हो। आजसे तुम्हारी माँके नामसे तुम्हारा गोत्र होगा।’ तत्पश्चात् उसे शिष्य स्वीकार करके गौतमने कहा—‘तुम समिधा ले आओ, मैं तुम्हारा उपनयन कर दूँगा।’ फिर उन्होंने चार सौ गायें अलग करके कहा—‘तुम इनके पीछे-पीछे जाओ।’ तब उन्हें ले जाते समय सत्यकाम बोला—‘इनकी एक हजार संख्या हुए बिना मैं नहीं लौटूँगा।’ इस प्रकार कहकर वह वनमें चला गया और वहीं वर्षोंतक रहा। जब वे एक हजारकी संख्यामें हो गयीं, तब एक बैलने कहा—‘अब हमारी संख्या एक हजार पूरी हो गयी, तुम हमें गुरुके पास ले चलो।’ वह गायोंको लेकर गुरुके समीप पहुँचनेके लिये चला। वहीं रास्तेमें उसको साँड़के द्वारा ब्रह्मके प्रथम पादका, अग्निके द्वारा द्वितीय पादका, हंसके द्वारा तृतीय पादका और मद्गुके द्वारा चतुर्थ पादका उपदेश प्राप्त हो गया। इस प्रकार अनायास ब्रह्मका उपदेश प्राप्तकर वह ब्रह्मज्ञानी हो गया। जब वह गायोंको लेकर गुरुके पास पहुँचा, तब उसके चेहरेकी चमक और शान्तिको देखकर गौतमने कहा—‘सत्यकाम! तुम्हारा चेहरा देखनेसे प्रतीत होता है, मानो तुम्हें ब्रह्मका ज्ञान हो गया है।’ सत्यकाम बोला—‘ठीक है। किंतु फिर भी मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ।’ तब गुरुने भी उसे उपदेश दिया। (छान्दोग्य० ४।४—९) यह है उच्चकोटिकी श्रद्धा।
अपने मनके विपरीत भी गुरुके आदेशको प्रसन्नताके साथ काममें लाया जाता है, यह श्रद्धा है और अपने मनके अत्यन्त विपरीत आदेश सुनकर भी उसके अनुसार करनेमें अतिशय प्रसन्नता हो अर्थात् इधर गुरुकी आज्ञाकी विपरीतताकी भी कोई सीमा नहीं और उधर उसका पालन करनेमें प्रसन्नताकी भी कोई सीमा नहीं। तात्पर्य यह कि विपरीत-से-विपरीत आज्ञाके पालनके समय प्रसन्नता, शान्ति आदि उत्तरोत्तर इतनी अधिक बढ़ती जाती है कि हृदयमें हर्ष, प्रफुल्लता और शरीरमें रोमांच, अश्रुपात आदिकी सीमा नहीं रहती, बल्कि वे अनवरत बढ़ते ही जाते हैं। यह है परम श्रद्धा।
उपर्युक्त भावसे भावित हो प्रभुके मनके, संकेतके या आज्ञाके अनुसार करनेवालेका शीघ्रातिशीघ्र कल्याण हो जाता है, इसमें कोई शंकाकी बात नहीं।
इसी प्रकार शास्त्रकी आज्ञाके पालनके विषयमें भी ऐसा भाव हो तो उसे शास्त्रमें परम श्रद्धा समझना चाहिये।
ईश्वरके मिलनकी तीव्र इच्छा
एक भाई दुर्गुण और दुराचारसे युक्त है, किंतु ईश्वरके मिलनेकी महिमाको सुनकर उसके मनमें ईश्वरसे मिलनेकी तीव्र इच्छा जाग उठी; ऐसी परिस्थितिमें भगवान् उसके दुर्गुण और दुराचारोंकी ओर ध्यान न देकर उसे अविलम्ब दर्शन दे सकते हैं। कोई दो-तीन सालका छोटा बालक मल-मूत्रसे भरा है और माताके लिये अत्यन्त व्याकुल है। स्नेहमयी माता अपने उस हृदयके टुकड़ेको जलसे शुद्ध करके हृदयसे लगाना चाहती है, किंतु बालक इतना आतुर है कि विलम्ब सहन नहीं कर सकता। उसे इस बातका ज्ञान ही नहीं है कि मल-मूत्रसे लथपथ होनेके कारण मुझको माँ हृदयसे लगानेमें विलम्ब कर रही है, वह तो मातासे मिलनेके लिये अतिशय करुणाभावसे व्याकुल हो फूट-फूटकर रोता है। ऐसी परिस्थितिमें माता उसकी अतिशय व्याकुलताको देखकर स्नेहके कारण उसे हृदयसे लगा लेती है। पर भगवान्का स्नेह तो अनन्त माताओंसे बढ़कर है, फिर वे विलम्ब कैसे कर सकते हैं। स्नेहके कारण जब भक्तके हृदयमें प्रभुसे मिलनेकी लालसा अत्यन्त बढ़ जाती है, तब भगवान् उसके दुर्गुण-दुराचाररूप दोषोंकी ओर देखकर भी विलम्ब नहीं करते।
माता तो बच्चेके मल-मूत्रकी सफाई करनेमें कुछ विलम्ब भी कर सकती है; किंतु भगवान्की दृष्टिमें तो उस साधकके दुर्गुण-दुराचार रह ही नहीं जाते, तब वे कैसे विलम्ब कर सकते हैं? पर साधकके हृदयमें मिलनकी इच्छा अत्यन्त तीव्र होनी चाहिये, फिर वह कैसा भी दुराचारी क्यों न हो। भगवान् तो केवल एक तीव्र प्रेम और मिलनकी तीव्र लालसाको ही देखते हैं और कुछ नहीं। तथा भगवान्को प्राप्त कर लेनेके साथ ही दुर्गुण-दुराचारोंका विनाश हो जाता है।
अतएव हमलोगोंके हृदयमें भगवान्से मिलनेकी उत्कट इच्छा और परम प्रेम हो, इसके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।
भगवान्पर निर्भरता
बिल्लीका बच्चा जैसे अपनी माँपर निर्भर करता है, हमें उससे भी बढ़कर भगवान्पर निर्भर होना चाहिये। दो सालका छोटा बालक थोड़ी देरके लिये भी माँको छोड़ना नहीं चाहता, वह माँके ही भरोसे रहता है। माँ चाहे मारे, चाहे पाले। वह माँके सिवा दूसरेको नहीं जानता। वह तो एक माँपर ही पूर्णतया निर्भर है। इसी प्रकार कल्याणकामीको अपने कल्याणके लिये भगवान्पर निर्भर होना चाहिये। भगवान् तारें, चाहे मारें! उसमें कुछ भी विचार न करे—केवल भगवान्के ही भरोसे रहे। भगवान्के विधानके अनुसार सुख-दु:ख आदि जो कुछ प्राप्त होते हैं, उनको भगवान्का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर हर समय प्रसन्न रहना चाहिये और अपने द्वारा होनेवाले कार्योंमें ऐसा समझना चाहिये कि हमारे सारे कर्म भगवान् जैसे करवाते हैं, वैसे ही होते हैं; किंतु इस विषयमें अकर्मण्यता (कर्म करनेमें जी चुराना) और सकाम कर्म तथा शास्त्रविपरीत कर्म यदि होते हों तो यह समझना चाहिये कि हमारे कर्मोंमें भगवान्का हाथ नहीं है, कामका हाथ है; क्योंकि जहाँ भगवान्का हाथ है, वहाँ कर्तव्यकर्मकी अवहेलना नहीं हो सकती और कामनाका अभाव होनेके कारण सकाम कर्म भी नहीं होते; तो फिर पापकर्म तो हो ही कैसे सकते हैं। यदि हों तो समझना चाहिये कि वहाँ कामका हाथ है।
गीतामें अर्जुनने पूछा—
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥
(३। ३६)
‘हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुएकी भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?’
इसके उत्तरमें भगवान्ने कहा—
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥
(३। ३७)
‘रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तुम इस विषयमें वैरी जानो।’
‘भगवान्पर निर्भरता’ का यह अर्थ नहीं कि वह बालककी भाँति सर्वथा कर्मोंका त्याग कर देता है। बालकको ज्ञान नहीं है, इसलिये उसके लिये कर्तव्य लागू नहीं पड़ता; किंतु जिसको ज्ञान है, वह सर्वथा कर्म छोड़कर बैठे तो वह भगवान्पर निर्भरता नहीं, वरं अकर्मण्यता, प्रमाद है। जो भगवान्पर निर्भर हो जाता है, वह चिन्ता, शोक, भय, ईर्ष्या, उद्वेग आदि दुर्गुणोंसे रहित हो जाता है। उसमें धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, शान्ति, संतोष, सरलता आदि गुण स्वयमेव आ जाते हैं।
अतएव भगवान्की प्राप्तिके लिये भगवान्के शरण होकर नित्य-निरन्तर भगवान्के नाम और रूपका स्मरण करते हुए उसपर सर्वथा निर्भर रहना चाहिये। भगवान् जो कुछ कर रहे हैं, उसको उनकी लीला समझकर देखता रहे और उसीमें आनन्द माने।