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प्रभुको आत्म-समर्पण

साधकके लिये सबसे ऊँचा, सहजमें ही सिद्धि देनेवाला साधन प्रभुके प्रति आत्म-समर्पण है। भगवच्चरणोंमें अपने-आपको सौंप देना ही सारे शास्त्रोंका गुप्त रहस्य और समस्त साधनोंमें अन्तिम साधन है। सब प्रकारसे ज्ञान-विज्ञान, भक्ति-कर्म आदिका उपदेश कर चुकनेके बाद अन्तमें भगवान् ने यही गुप्त रहस्य अपने प्रिय सखा भक्त अर्जुनको बतलाया था। इसी परम साधनसे मनुष्य अपने जीवनको उच्च-से-उच्च स्थितिपर पहुँचा सकता है।

इस आत्म-समर्पणका अर्थ केवल जीवनके कर्मोंको त्याग हाथ-पैर सिकोड़कर बैठ जाना नहीं है। कुछ लोग भूलसे यही मान लेते हैं कि करने-करानेवाले भगवान् हैं, उन्हींकी शक्ति सबके अन्दर काम करती है, हमारा काम केवल चुप होकर बैठ रहना है। परंतु यह बड़ा भारी भ्रम है, इससे आत्म-समर्पण सिद्ध नहीं होता। आत्म-समर्पणमें सबसे पहले आत्माका अर्पण होता है। आत्माके साथ ही अहंकार, मन, बुद्धि, शरीर सभी उसके अर्पण हो जाते हैं, ऐसा होनेपर साधकको यह स्पष्ट उपलब्धि होने लगती है कि इस शरीर, मन, वाणीसे जो कुछ होता है, सो वास्तवमें भगवान् ही करा रहे हैं। इससे पहले वह समझता था कि ‘मैं कर रहा हूँ’ अब समझता है कि ‘भगवान् कर रहे हैं।’ अपने कर्तापनका सारा अहंकार भगवान् के अहंकारमें मिल जाता है; क्योंकि मन, बुद्धि उन्हींके अर्पित हो चुकी है। मन, बुद्धिका सारा स्वातन्त्र्य यहाँपर लुप्त हो जाता है, अब भगवान् का संकल्प ही उसका संकल्प, भगवान् का विचार ही उसका विचार और भगवान् की क्रिया ही उसकी क्रिया है। यदि भगवान् संकल्परहित, विचाररहित और क्रियारहित हैं, तो वह भी वैसा ही है; क्योंकि संकल्प, विचार और क्रिया होनेमें जिस अन्त:करणकी आवश्यकता है, वह मन, बुद्धिरूप अन्त:करण भगवान् की वस्तु बन गया है, उसपर उसका अपना कोई अधिकार नहीं रह गया। इसलिये ऐसे साधकका सब जिम्मा भगवान् ले लेते हैं। वे कहते हैं—‘जिसने मन, बुद्धि मुझे अर्पण कर दिये हैं, वह निस्संदेह मुझको प्राप्त होता है, ‘मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्’ परंतु इसमें कार्य त्यागकर निश्चेष्ट हो रहनेका उपदेश नहीं है। इस मन्त्रमें भगवान् कहते हैं कि ‘निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर’, ‘सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’ इस बातको स्मरण रखता हुआ युद्ध कर कि यह सब भगवान् की लीला है, सब कुछ वही कराते हैं, मैं तो उनके हाथकी पुतलीमात्र हूँ। वह यन्त्री हैं, मैं यन्त्र हूँ। जिधर घुमाते हैं उधर ही प्रसन्नतासे घूम जाता हूँ, कभी जरा-सी भी आनाकानी नहीं करता। इसीसे अर्जुनने धर्माधर्मके सारे विचारोंका त्याग करके स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया था कि ‘मेरा संदेह जाता रहा, मैं अब तुम जो कुछ कहोगे; वही करूँगा’ ‘गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव’ (गीता १८। ७३)।

ऐसा साधक कर्म-त्याग या संसार-त्यागकी इच्छा-अनिच्छा नहीं करता। भगवान् के खेलका खिलौना बने रहनेमें ही वह अपना सौभाग्य समझता है, क्योंकि इस समय उसकी दृष्टिमें संसारका स्वरूप पहलेका-सा जड नहीं रह जाता, वह सर्वदा सर्वत्र देखता है केवल चैतन्यको और चैतन्यकी विचित्र लीलाको! वह समस्त जगत् को हरिका स्वरूप और समस्त कर्म-राशिको हरिका खेल देखता है, इसीसे वह इस खेलमें सदा सम्मिलित रहकर हरिरूप जगत् की सेवा किया करता है। परंतु इसमें उसका यह भाव कदापि नहीं रहता कि ‘मैं जगत् की सेवा करता हूँ, या अपने कर्तव्यका पालन करता हूँ; क्योंकि उसका तो अब कोई कर्तव्य रह ही नहीं जाता, पुतली कर्तव्यका ज्ञान नहीं रखती, वह तो स्वाभाविक ही मालिकके इशारेपर नाचती है। उसे इस कर्तव्य-ज्ञानकी आवश्यकता भी नहीं रहती, क्योंकि उसकी बागडोर किसी दूसरे सयानेके हाथमें है। ऐसी अवस्थामें संसारके भोगोंकी तो बात ही कौन-सी है, वे तो अत्यन्त तुच्छ, नगण्य हैं, उनकी ओर झाँकना तो उस साधकसे बन ही नहीं सकता; क्योंकि वे तो उसकी दृष्टिमें भगवान् की लीलाके अतिरिक्त कोई खास चीज ही नहीं रह जाते। ऊँचे-से-ऊँचे लोक भी उन्हींके लीलाक्षेत्र हैं, उन लोकोंके लिये भी उसका मन नहीं चलता, वह अपनेको सदाके लिये प्रभुकी लीलाका एक खिलौना मानता है। सर्वत्र अबाधित मनोहर नित्य-लीलामें भगवान् उसको अपने हाथमें लिये कहीं भी क्यों न रहें, उस खिलाड़ीके हाथोंसे और उसकी नजरसे तो वह हटता नहीं, फिर खेलकी जगहके एक भागसे दूसरे भागमें जानेकी इच्छा-अनिच्छा वह क्यों करने लगा! हाँ, यदि प्रभु कभी उसे खेलसे अलग होनेको कहते हैं, अपनी नजरसे ओझल करना चाहते हैं, तो इस बातको वह स्वीकार नहीं करता, इसीसे भागवतमें भगवान् ने कहा है कि, ‘मेरे भक्त मेरी सेवाको छोड़कर मुक्तिको भी स्वीकार नहीं करते’—‘दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जना:’।

ऐसा भक्त जगत् के सभी कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता। उसका सेवाकार्य, उसकी व्यापार-प्रवृत्ति, उसकी रण-शूरता और उसका ज्ञान-वितरण सभी कुछ परमात्माकी लीलाके अंग होते हैं। वह इस लीला-अभिनयका एक आज्ञाकारी चतुर पात्र होकर रहता है। उसकी क्रिया और कर्मवासना अहंकारप्रेरित न होकर प्रभुप्रेरित हुआ करती है। ऐसा दिव्य लीला-कर्मी भक्त शुभाशुभ फलरूप कर्म-बन्धनसे सदा ही मुक्त रहता है। भगवान् की प्राप्ति तो उसको नित्य रहती ही है; क्योंकि उसकी जीवन-डोर ही भगवान् के हाथमें रहती है। मुक्ति अवश्य ही दासत्वके लिये उसके चरणोंकी ओर ताका करती है, कभी-कभी हठसे चरणोंमें चिपट भी जाती है। एक रसीले भक्त कविने बहुत ही सुन्दर कहा है—

घन: कामोऽस्माकं तव तु भजनेऽन्यत्र न रुचि-
स्तवैवाङ्घ्रिद्वन्द्वे नतिषु रतिरस्माकमतुला।
सकामे निष्कामा सपदि तु सकामा पदगता
सकामास्मान्मुक्तिर्भजति महिमायं तव हरे॥

‘हे हरे! हमारी तो तुम्हारे भजनमें ही गाढ़ रुचि है। अन्य किसी भी पदार्थमें नहीं है। तुम्हारे ही चरणयुगलोंमें पड़े रहनेमें हमारा अतुल प्रेम है। हे भगवन्! तुम्हारी कुछ ऐसी अपार महिमा है कि वह बेचारी मुक्ति जब सकाम विषयकामी लोगोंको नापसंद कर डालती है, तब उसी क्षण अपनेको निराश्रय समझकर बड़ी उत्सुकतासे हम भक्तोंके चरणोंमें चिपटकर हमारी चरणसेवा करने लगती है।’

चरण-सेविका बननेपर भी ऐसे भक्त उस मुक्तिके चंगुलमें फँसना नहीं चाहते। इस तरहके ऊँचे साधकोंकी सारी जिम्मेवारी स्वभावत: ही भगवान् के ऊपर रहती है। भगवान् ने अर्जुनके सामने प्रतिज्ञा करके कहा है—‘मैं तुझे मुक्त कर दूँगा, तुझे कोई चिन्ता नहीं, ‘अहं त्वा मोक्षयिष्यामि मा शुच:’ हम बड़े ही मन्द-बुद्धि हैं, अविश्वासी और अश्रद्धालु हैं; विविध प्रलोभनोंमें पड़कर व्यर्थ मनोरथ होते रहनेसे हमारा मन संदेहसे भर गया है, जागतिक भोग-सुखोंकी तुच्छ स्पृहा और धर्म-कर्मादिके साधनोंसे इन सुखोंके प्राप्त करनेका उपाय बतलानेवाली पुष्पिता वाणीने हमें मोहित कर रखा है, इसीसे हम भगवान् की इस प्रेम-पूरित महान् प्रतिज्ञा वाणीपर परम विश्वास कर अनन्यभावसे उनकी शरण नहीं लेते। इसीसे बारंबार एक कष्टसे दूसरे कष्टमें पड़ते हुए संकटमय अशान्त जीवन बिता रहे हैं—पथ-भ्रष्ट पथिककी भाँति श्रान्त-क्लान्त होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे हैं। वास्तवमें यह हमारी बड़ी ही दयनीय दशा है। इस स्थितिसे छुटकारा पानेके लिये हमें अपनी दृढ़ संकल्पशक्तिके द्वारा भगवान् को आत्मसमर्पण करनेका अभ्यास करना चाहिये। अपने प्रत्येक कर्मके मूलमें भगवत्प्रेरणा समझने, प्रत्येक सुख-दु:खको भगवान् का दयापूर्ण विधान समझकर उसीमें सन्तुष्ट रहने तथा निरन्तर उसका स्मरण करते हुए प्रत्येक कर्मके बिना किसी भी इच्छा-अभिलाषाके यन्त्रवत् करते रहनेका अभ्यास करना चाहिये।

परंतु केवल मुखसे, ‘मैं तुम्हारे शरण हूँ,’ ‘मैं तो तुम्हें आत्म-समर्पण कर चुका’ आदि शब्द कह देनेमात्रसे कुछ भी नहीं होता। अपना माना हुआ सर्वस्व उसके अर्पण कर देना होगा। अहंकार, मन, बुद्धि, शरीरका प्रत्येक संकल्प, प्रत्येक चिन्तन, प्रत्येक विचार, प्रत्येक कामना और प्रत्येक कर्म सब कुछ उसके अर्पण कर देने होंगे। भोगोंकी ओर दौड़ते हुए मन और इन्द्रियोंको लौटाकर उनकी गति सर्वथा भगवान् की ओर कर देनी पड़ेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि एक बार भगवान् की शरण ग्रहण करनेपर मनुष्य समस्त भयसे छूट जाता है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकिकी कवितामें भगवान् श्रीरामके ये वचन सर्वथा सत्य हैं कि—

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥
(वा० रा० ६। १८। ३३)

‘जो कोई प्राणी एक बार भी मेरे शरण होकर यों कहता है कि ‘मैं तुम्हारा हूँ’ उसे मैं अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है।’

भगवान् के इस व्रतमें कोई संदेह नहीं है, एक बार भगवान् के प्रति आत्मसमर्पण हो जानेपर जीव सदाके लिये अवश्य ही निर्भय हो जाता है। वास्तवमें आत्मसमर्पण होता भी एक ही बार है। समर्पणका अर्थ दान है, दान और ग्रहण एक ही कालमें एक बार ही हुआ करता है, जहाँ एक बार हो चुका, वहाँ सदाके लिये ही हो गया। परंतु हम एक बार उनको आत्म-समर्पण करते ही कहाँ हैं? आत्म-समर्पण या शरणका नाम जानते हैं, अर्थ नहीं जानते। हमारा ज्ञान, ध्यान, भजन या तो लोगदिखाऊ होता है या भोगोंको पानेके लिये होता है। हमारे मनकी सारी वृत्तियाँ नदियोंके समुद्रमें जाकर पड़नेकी भाँति सदा संसार-सागरमें जाकर पड़ती रहती हैं, ऐसी अवस्थामें हम निर्भय कैसे हो सकते हैं, अन्तर्यामी भगवान् भला बनावटी बातोंमें क्यों फँसने लगे? सच पूछिये तो हम भाँति-भाँतिके भयोंमें फँसे हुए हैं। पुत्रके मरनेका भय है, धन जानेका भय है, कीर्तिनाशका भय है, झूठी इज्जतका भय है, शरीरनाशका भय है, घर-समाजके नाराज होनेका भय है। एक भय हो तो बताया जाय! हमने तो अपने चारों ओर भयका दल बटोर रखा है, इसीसे हमें आज तमाखू-सरीखी तुच्छ चीज छोड़नेमें भी स्वास्थ्य-नाशका भय रहता है; सर्वथा हानिकर रूढ़ि तोड़नेमें भी लोकलाज और समाजका भय लगता है, सच्ची बात कहनेमें भी राजाका भय रहता है। इन्हीं सब भयोंके कारण हम नाना प्रकारके पापोंमें रत रहते हैं, यही आसुरी भाव है। जबतक इन आसुरी भावोंमें फँसे रहकर हम पाप बटोरते हैं, तबतक भगवान् के शरण कैसे हो सकते हैं? भगवान् ने तो स्वयं कहा है कि—

न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥
(गीता ७। १५)

‘मायाने जिनका ज्ञान हरण कर लिया है, ऐसे पापी आसुरी स्वभावके नराधम मनुष्य मुझ भगवान् की शरण नहीं हो सकते।’

इन सब भयके दलोंका दलन कर, सबको पैरोंसे कुचलते हुए दृढ़ और अविराम गतिसे आगे बढ़ना होगा, तब हम निर्भय शरणपदके अधिकारी होंगे।

एक दृष्टान्त

कुछ लोग विदेशसे दु:खी होकर अपने घर जाना चाहते थे। उनका घर हिमालयकी तराईमें उत्तरकी ओर था, परंतु उन्होंने इस बातको भूलकर दक्षिणकी ओर जाना आरम्भ कर दिया। घर जानेकी लगन बहुत जोरकी थी, इसलिये वे उसी उलटे मार्गपर खूब दौड़ने लगे। उन्हींके दो-चार साथी, जिनको सच्चे मार्गका ज्ञान था, उत्तरकी ओर जा रहे थे, रास्तेमें उनकी परस्पर भेंट हो गयी। यथार्थ मार्गपर सीधे घरकी ओर जानेवाले लोगोंने उलटे जाते हुए लोगोंसे पूछा—‘भाई! तुम सब कहाँ जा रहे हो?’ उनमेंसे कुछने कहा—‘हम अपने घर जा रहे हैं।’ उन्हींके देशके और एक ही गाँवके ये लोग भी थे। उन्होंने कहा—‘भाई! घरके रास्ते तो हमलोग जा रहे हैं, तुम सब उलटे दौड़ते हुए घरसे और भी दूर बढ़े चले जा रहे हो, बहुत दूर निकल जाओगे तो फिर लौटनेमें बड़ी तकलीफ होगी, इस मार्गमें कहीं तुमलोगोंको विश्राम करनेके लिये जगह नहीं मिलेगी। वृक्षकी शीतल छाया या शान्तिप्रद ठंडा जल तो इस ओर है ही नहीं! बड़े जोरकी लू चल रही है, सारा शरीर झुलस जायगा, थककर हैरान हो जाओगे, प्यासके मारे प्राण छटपटानेपर भी कहीं सरोवरके दर्शन नहीं होंगे। इसलिये इस दु:खदायी विपरीत पथको छोड़कर हमारे साथ सीधे रास्ते चलो।’ विपरीत-मार्गियोंमें बहुतोंने तो इस बातको सुनना ही नहीं चाहा; उनकी समझसे तो इन बातोंके सुननेमें समय लगाना सुखरूप घर पहुँचनेमें देर करने-जैसा प्रतीत हुआ। कुछने बातें तो सुनीं, परंतु विचार करनेपर उनको इन बातोंमें कुछ सार नहीं दिखायी दिया, वे भी चले गये। कुछ लोग ठहरकर विचार करने लगे; उन्होंने सीधे रास्तेकी तरफ घूमकर देखा, थोड़ी देर वहाँ खड़े रहे, साथ चलनेकी इच्छा भी हुई, उन्हें अपना मार्ग विपरीत भी प्रतीत हुआ, परंतु वे मोहवश पुराने साथियोंका साथ नहीं छोड़ सके, अतएव अपने मार्गमें शंकाशील होते हुए भी वे उसी उलटे मार्गपर चल पड़े। इन लोगोंमेंसे कुछ तो आगे जाकर ठहर गये और खूब सोच-विचारकर वापस मुड़ गये एवं कुछ अपने पुराने साथियोंकी बातोंमें आकर उसी मार्गसे चल दिये। कुछ थोड़े-से ही ऐसे निकले जो इनकी बातें सुनते ही सावधान होकर एकदम मुड़ गये, मुड़ते ही—उनका सम्पूर्ण शरीर सीधे मार्गके सामने होते ही वे सुन्दर स्वच्छ प्रकाशमय पथ और सामने ही अपना घर देखकर परम सुखी हो गये। फिर पीछेकी ओर झाँकनेकी भी उनकी इच्छा नहीं हुई। पुराने साथियोंने पुकारा, वापस लौटनेको कहा, परंतु उन्होंने उधरकी ओर मुँह बिना ही फिराये उनसे कह दिया, ‘भाई! हम अब इस सुखके मार्गसे वापस नहीं लौट सकते। सीधे मार्गपर आते ही हमें अपना घर सामने दीखने लगा है। घरकी प्रीति अब तो हमें मने करनेपर भी लौटने नहीं देती।’ वे नहीं लौटे और झंझटोंसे छूटकर तुरंत अपने घर पहुँचकर सदाके लिये सुखी हो गये।

इसी प्रकार इस संसारमें भी चार प्रकारके मनुष्य हैं—पामर, विषयी, मुमुक्षु और मुक्त। परम और नित्य सुखरूप परमात्माकी खोज सभी करते हैं, सभी सुखके अन्वेषणमें दौड़ते हैं, परंतु अधिकांश मनुष्य पथभ्रष्ट होकर विपरीत मार्गपर ही चलते हैं, इसीसे उन्हें सुखके बदलेमें बारंबार दु:ख-कष्टोंका शिकार बनना पड़ता है। कहीं भी शान्ति-सुखके दर्शन नहीं होते। इनमेंसे जो लोग सन्मार्गपर चलनेवाले सदाचारी संत-महात्माओंकी वाणीको सुनना ही व्यर्थ समझते हैं, चौबीसों घंटे ‘हाय धन, हाय पुत्र, हाय सुख, हाय भोग, हाय कीर्ति’ आदि चिल्लाते हुए ही भटकते हैं, कहाँ जाते हैं—इसका उन्हें स्वयं ही कुछ पता नहीं है तथापि अन्धोंकी तरह चल ही रहे हैं, वे तो पामर मनुष्य हैं। दूसरे वे विषयी पुरुष हैं, जो कभी-कभी प्रसंगवश अकारण कृपालु संत-महात्माओंद्वारा कुछ परमार्थकी बातें सुन तो लेते हैं; परंतु उनमें उन लोगोंको कोई सार नहीं दीखता, इससे वे सुनकर भी तदनुसार चलनेकी इच्छा नहीं करते। तीसरे मुमुक्षु हैं, इनमें प्रधानत: दो श्रेणियाँ हैं—मन्द और तीव्र। जो मन्द मुमुक्षु हैं, वे सत्संगमें परमार्थकी बातें मन लगाकर सुनते हैं, सन्मार्गपर चलकर भगवत्प्राप्तिकी इच्छा भी करते हैं, मार्गकी ओर कुछ क्षणोंके लिये मुँह फिराकर यानी संसारके बाह्य भोगोंसे मनकी गतिको क्षणभरके लिये रोककर ईश्वरकी ओर लगाना भी चाहते हैं, परंतु विषयी पुरुषोंके संगसे ब्यामोहमें पड़कर अपनी पुरानी चाल नहीं छोड़ सकते और पुन: विषयोंमें ही दौड़ने लगते हैं; परंतु जो तीव्र मुमुक्षु होते हैं, वे एकदम मुड़कर अपने मनकी गतिको सर्वथा ईश्वरोन्मुखी कर देते हैं। इस तरफ एक बार दृढ़ निश्चयपूर्वक पूर्णरूपसे लग जानेपर—भगवान् के सम्मुख हो जानेपर मनुष्यको कुछ विलक्षण ही आनन्द मिलने लगता है, परमात्मारूप परमानन्दका नित्य निकेतन उसे अत्यन्त समीप—अपने अन्दर-बाहर सब जगह दीखने लगता है, वह फिर किसी तरह भी संसारके बाह्य रूपकी ओर मन नहीं लगा सकता, यही एक बार परमात्माके सम्मुख होना है। हमलोग बाह्यभावको—मुखके शब्दोंको ही आत्म-समर्पण समझकर शास्त्रवचनोंपर सन्देह करने लगते हैं और सोचते हैं कि ‘हम तो किसी समय एक बार भगवान् के शरणागत हो गये थे, आत्म-समर्पण कर दिया था, परंतु अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ, इससे सम्भव है कि वाल्मीकि-रामायणका यह श्लोक प्रक्षिप्त हो या केवल रोचक वाक्य ही हो।’ परंतु यह नहीं सोचते, एक बार पूर्ण आत्म-समर्पण कर चुकनेके बाद किसी प्रकारका भय या अपने उद्धारकी चिन्ता ही कैसे हो सकती है? भगवान् को आत्म-समर्पण करनेवालेको किसका भय और उसका कैसा उद्धार? यदि भय या उद्धारकी चिन्ता है तो आत्म-समर्पण ही कहाँ हुआ? दोष भरा है हमारे अंदर, देखते हैं हम रात-दिन जगत् के भोग-सुख और तृप्तिकी असंख्य बाह्य वस्तुओंको, सुख ढूँढ़ते हैं उनमें और सन्देह करते हैं भगवान् और भक्तशिरोमणि ऋषियोंके अनुभूत वाक्योंपर! कैसी विचार-विडम्बना है।

आत्म-समर्पणके लिये अपनेको दुष्कृतों—पापोंसे बचाकर आसुरी भावका आश्रय छोड़कर मायाके द्वारा अपहृत ज्ञानको सत्कर्म और उपासनासे पुन: अर्जन करना होगा और उस ज्ञानके द्वारा परमात्माके स्वरूपको समझकर निश्चल एक निश्चयसे अपना जीवन उन्हें अर्पण कर देना होगा। यही भगवान् के एक बार सम्मुख होना है। भगवान् के सम्मुख होते ही तत्काल सारे पापपुंज भस्म हो जाते हैं और वह मनुष्य उसी शाश्वती शान्तिरूप परम पदको प्राप्त होता है, जहाँसे पुन: कभी उसका स्खलन नहीं होता। पापोंके छोड़नेका यह मतलब नहीं कि सारे पापोंका फल भोगनेके बाद हम भगवान् की शरण लेंगे। इसका अर्थ यही है कि अबसे पापोंको छोड़कर, अपना अवशेष जीवन भगवान् को एक निश्चयसे अर्पण कर देना चाहिये, फिर तो भगवान् स्वयं सँभाल लेते हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)

‘अत्यन्त दुराचारी भी यदि अनन्यभावसे मुझे भजता है तो उसे साधु मानना चाहिये; क्योंकि उसने आगेके लिये केवल मुझे ही भजनेका निश्चय कर लिया है। उसे केवल साधु मानना ही नहीं चाहिये; वह वास्तवमें बहुत शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है और उस नित्य परम शान्तिको प्राप्त होता है। मैं यह सत्य विश्वास दिलाता हूँ कि मेरे भक्तका कभी नाश नहीं होता।’

भगवान् के इन बड़े भरोसेके वचनोंपर विश्वास करके नित्य अपने अत्यन्त समीप रहनेवाले, अपने अंदर ही बसनेवाले उस परमात्माको ज्ञानके द्वारा जानकर उसकी शरण ग्रहण करनी चाहिये। अश्रद्धा, आलस्य, उद्योगहीनता, भय, संशय, जडता, अविश्वास आदि दोषोंको सब तरहसे तिलांजलि देकर बड़े उत्साहसे भगवान् की विश्वलीलामें खिलौना बननेकी भावना करते हुए अग्रसर होना चाहिये।

भगवान् के दिव्य मन्दिरका द्वार सबके लिये सदा-सर्वदा खुला है। जो उन्हें चाहेगा वे उसे ही मिलेंगे। जो उनसे प्रेम करेगा, उसीसे वे प्रेम करेंगे। अवश्य ही ज्ञान बिना उनके त्रिगुणातीत स्वरूपका पता नहीं लगता और उनके उस सत्त्वगुणसे भी ऊँचे—अति विलक्षण अनिर्वचनीय स्वरूपका पता लगे बिना यथार्थ आत्म-समर्पण भी नहीं हो सकता; परंतु केवल शुष्क ज्ञानसे भी वहाँतक पहुँचनेमें बड़ी-बड़ी बाधाएँ हैं, ज्ञानके साथ प्रेमामृतकी रस-धारा अवश्य ही बढ़ती रहनी चाहिये। प्रेमके बिना—पराभक्तिके बिना केवल ब्रह्मभूत होनेसे ही भगवान् के यथार्थ स्वरूपका तत्त्वत: ज्ञान नहीं होता।

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
(गीता १८। ५४-५५)

‘ब्रह्मभूत होनेपर प्रसन्नचित्तवाला पुरुष न किसी वस्तुके लिये शोक करता है, न किसीकी इच्छा करता है, तब सब भूतोंमें समभावसे स्थित वह पुरुष मेरी (परमात्माकी) ‘पराभक्ति’ को प्राप्त करता है। उस पराभक्तिके द्वारा मुझ (परमात्मा)-को तत्त्वसे भलीभाँति जानता है। इस प्रकार मैं जो हूँ और जिस प्रभाववाला हूँ, उस मुझको भक्तिद्वारा तत्त्वसे जानकर वह तुरंत ही मुझमें प्रवेश कर जाता है।’

अतएव प्रेमसे भगवान् का स्मरण करते हुए उन्हें आत्म-समर्पण करनेकी भावनाको प्रबल इच्छा-शक्तिके द्वारा दिनोदिन बढ़ाना चाहिये। आत्म-समर्पणकी इच्छा ज्यों-ज्यों बलवती होगी, त्यों-ही-त्यों परमात्माके दरबारका दरवाजा आप-से-आप खुलता रहेगा और अन्तमें हृदयस्थित श्रीविष्णुचरणसे भव-भय-नाशिनी अलौकिक सुधा-धारा उत्पन्न होकर ज्ञान, वैराग्य और प्रेमरूप त्रिविध धारामें परिणत हो समस्त मन-प्राणको भगवद्‍रूपके प्रवाहमें बहा देगी, फिर जगत् का रूप तुरंत ही बदल जायगा। फिर हमें दीख पड़ेगा—सर्वस्व हरिका, दीख पड़ेंगे—सर्वत्र हरि, हरिकी नित्यलीला और उस लीलामें भी केवल हरि ही—‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’ (गीता ७।७)।

यही मुक्तिका स्वरूप है, यही साधनका पर्यवसान है, यही परम गति है, इसीको जानने-समझनेवाले आत्माराम भक्त बड़े दुर्लभ हैं—‘वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:’ (गीता ७। १९)।

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