साधनके सहायक
विघ्नोंको साहसके साथ हटाते हुए खूब दृढ़तासे साधनमें लगे रहना चाहिये। महर्षि पतंजलिने कहा है—
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमि:।
(योग० १। १४)
अभ्यास जब दीर्घकालतक निरन्तर आदरके साथ किया जाता है, तब वह दृढ़ होता है। इसमें तीन बातें बतलायी हैं—अभ्यास दीर्घकालतक करना चाहिये, निरन्तर करना चाहिये और सत्कारबुद्धिसे करना चाहिये।
दीर्घकालसाधन
अल्प साधनसे यथार्थ वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती, जबतक अभीष्टप्राप्ति न हो, तबतक साधन करते ही रहना चाहिये। प्राप्ति हो जानेके बाद भी साधन छोड़नेकी आवश्यकता नहीं, पहले साधन किया जाता है साध्य वस्तुकी प्राप्तिके लिये और सिद्ध हो जानेपर वही साधन स्वाभाविक हो जाता है। जिससे अभीष्ट वस्तु मिलती है, उसे कृतज्ञताके कारण भी छोड़नेको जी नहीं चाहता।
जो लोग थोड़े-से साधनसे ही बहुत बड़ा फल चाहते हैं, ऐसे जी चुरानेवाले लोगोंको प्राय: परमार्थकी प्राप्ति नहीं होती। इस मार्गमें तो नित नया उत्साह और नित नयी उमंग चाहिये। जो आलसी हैं, जरासेमें ही थक जाते हैं, वे इस पथके पथिक नहीं बन सकते।
यथार्थ साधक तो बुद्धदेवकी भाँति अटल भावसे कहता है—
इहासने शुष्यतु मे शरीरं त्वगस्थिमांसं प्रलयं च यातु।
अप्राप्य बोधं बहुकल्पदुर्लभं नैवासनात् कायमनश्चलिष्यते॥
‘इस आसनपर मेरा शरीर सूख जाय; मांस, चमड़ी, हड्डी नाश हो जायँ, परंतु बहुकल्पदुर्लभ बोध प्राप्त किये बिना इस आसनसे कभी नहीं डिगूँगा।’
ऐसा साधक कालकी परवा नहीं करता। कितना ही समय क्यों न लगे, अभीष्ट वस्तुकी उपलब्धि होनी चाहिये।
निरन्तर साधन
दीर्घकालका यह अर्थ नहीं कि साधन तो बरसोंतक करे, परंतु उसका कोई भी नियम न हो। मनमें आया, फुरसत मिली कुछ कर लिया, नहीं तो दो-चार दिन बाद सही। सच्ची और पूरी लगन होनेपर ऐसा हो ही नहीं सकता। जिसको बड़े जोरकी प्यास लगी हुई होती है उसे जलके सिवा दूसरी वस्तु सुहाती ही नहीं। जबतक उसे जल नहीं मिल जाता, तबतक वह व्याकुल रहता है और पल-पलमें केवल जलकी ही स्मृति करता है। उसी प्रकार जो परमात्मारूप स्वातीकी बूँदका पिपासु है, उस चातकरूप साधकको क्षणभर भी कल नहीं पड़ती, वह तो दिन-रात उस एक ही भावमें विभोर रहता है। उसकी बुद्धिमें अपने साधनको छोड़कर अन्य सब विषयोंमें गौणता आ जाती है।
सत्कार और श्रद्धा
इस प्रकार निरन्तर साधनमें लगा हुआ साधक बड़ी सत्कारबुद्धिसे अपना कार्य करता है। जो साधक बेगारमें पकड़े हुएकी भाँति साधन करते हैं या जो बला टालनेके भावसे करते हैं उनकी उस साधनमें आदर-बुद्धि नहीं है, आदर-बुद्धि हुए बिना साधनका पूरा फल नहीं मिलता। जो लोगोंके दिखलानेके लिये या केवल दिल बहलानेके लिये साधन करता है, उसकी भी असलमें साधनमें श्रद्धा नहीं है।
श्रद्धालु साधक तो अपने साधनको जीवनका मुख्य कर्तव्य समझकर करता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह जिस साधनमें लगा हो उसमें पहले पूर्ण श्रद्धा करे, बिना श्रद्धाके किसी भी कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। भगवान् गीतामें कहते हैं—
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥
(१७। २८)
‘अश्रद्धासे किया हुआ हवन, दान, तप या कोई भी कर्म ‘असत् ’ कहलाता है। उससे न यहाँ कोई लाभ होता है और न परलोकमें होता है।’ श्रद्धा ही साधकका मुख्य बल है। श्रद्धाहीन साधकको पद-पदपर संदेह और कुतर्कोंके थपेड़ोंसे घबड़ाकर साधन छोड़नेके लिये बाध्य होना पड़ता है।
एकान्तवास
ज्ञानके साधकके लिये भगवान् ने ‘विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जन-संसदि’ कहकर एकान्तसेवन करने और मनुष्य-समाजसे अनुराग हटानेकी आज्ञा दी है। साधनको परिपक्व बनानेके लिये एकान्तसेवनकी अत्यन्त आवश्यकता भी है, परंतु जबतक साधनमें पूरी लगन न हो, तबतक सारा काम-काज छोड़कर, अपने ऊपर कोई जिम्मेदारी न रखकर दीर्घकालतक एकान्तसेवन करना अधिकांश साधकोंके लिये प्राय: हानिकर होता है, इसलिये नये साधकको चाहिये कि वह परमात्माका ध्यान या प्रार्थना करनेके लिये पहले चौबीस घंटेके दिन-रातमेंसे एक घंटा एकान्तसेवन करे। एकान्तमें मनमें प्रमाद-बुद्धि या आलस्य-निद्रा न सतावे तो क्रमश: समय बढ़ाना चाहिये। यथासाध्य सप्ताहमें एक दिन, महीनेमें चार-पाँच दिन, सालभरमें एक महीना ऐसा निकालना चाहिये, जो केवल परमार्थके साधन और भगवच्चर्चामें ही बीते। इससे मनको जो सात्त्विक भोजन मिलता है, उससे मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहनेमें बड़ी सहायता मिलती है।
परंतु बिना अभ्यासके एकान्तसेवनमें प्रमाद, आलस्य, निद्रा, कुप्रवृत्ति आदि तामसिक दोषोंके वश होनेका बहुत भय रहता है। साधनका अभ्यास न होनेसे समय कटना कठिन हो जाता है और निकम्मे रहनेसे प्रमाद, आलस्य उसे फँसा लेते हैं। आजकल बहुत-से साधु-संन्यासियोंमें गाँजा-भाँग आदि पीने, व्यर्थ गप्पें मारने, इधर-उधरकी बातें करनेकी जो प्रवृत्ति होती जाती है, उसका प्रधान कारण यही है कि उनके पास समय बहुत है, पर काम नहीं है, इसीसे कुसंगतिमें पड़कर वे लोग नाना प्रकारके बुरे व्यसनोंके वश हो जाते हैं। अमीरोंके लड़के ज्यादा इसीलिये बिगड़ते हैं कि उनके पास समय बहुत रहता है परंतु काम नहीं रहता। समय बितानेके लिये उन्हें व्यर्थके काम करने पड़ते हैं। नहीं तो क्या मनुष्य-जीवनका अमूल्य समय ताश-चौपड़, शतरंज खेलने, व्यर्थकी गप्पें उड़ाने, तीतर-बटेर लड़ाने, परचर्चा करने, दिनभर सोने, प्रमाद करने और पापोंके बटोरनेके लिये थोड़े ही मिला है। अतएव साधकको चाहिये कि एकान्तसेवनकी आवश्यकताको समझकर उसे ईश्वर-चिन्तनके अभ्यासके लिये बढ़ाते हुए भी किसी-न-किसी जिम्मेवारीके कार्यमें अपनेको अवश्य लगाये रखे, वह काम परोपकारका हो या घरका हो, ईश्वरार्पित-बुद्धिसे आसक्ति छोड़कर किये जानेवाले सभी सत्कार्य ईश्वर-भजनमें शामिल हैं। काममें लगे रहनेसे मनको व्यर्थ-चिन्तन या प्रमादके लिये समय ही नहीं मिलेगा। अवश्य ही काम करते समय भी ईश्वर-चिन्तनको छोड़ना नहीं चाहिये, बल्कि ईश्वर-चिन्तन करते हुए ही काम करना चाहिये। इसीसे भगवान् ने अर्जुनसे कहा है—‘सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’ सब समय मुझे स्मरण करता रह और युद्ध भी कर। अपनी जिम्मेवारीके कर्तव्य-कर्मको जान-बूझकर छोड़े नहीं, पर उसे करे भगवच्चिन्तन करते हुए। पहले भगवच्चिन्तन, पीछे कर्तव्यकर्म, इस प्रकार भगवान् में मन लगाकर भगवदर्थ कर्म करनेवालेका उद्धार भगवान् बहुत ही शीघ्र कर देते हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है—
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(गीता १२। ७)
‘हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमियोंका मैं बहुत शीघ्र इस मृत्युरूप संसारसागरसे उद्धार कर देता हूँ।’ वास्तवमें सच्चा एकान्तसेवन तो मनका एकान्तरूपसे परमात्मामें लग जाना है। इस आन्तरिक एकान्तसेवनकी प्राप्तिके लिये ही बाह्य एकान्तसेवनका अभ्यास किया जाता है।
साधुव्यवहार
साधकको व्यवहारमें सदा-सर्वदा साधुता रखनी चाहिये। सब प्रकार दु:ख-कष्टोंको शान्तिपूर्वक सहना, क्रोधका बदला क्षमासे देना, वैरके बदले प्रेम करना, शापके बदले वरदान देना, बुरा करनेवालेके साथ भलाई करना, अपनेको सबसे छोटा समझना, अपनेमें किसी बातमें भी बड़प्पनका अभिमान न करना, किसीका दोष न देखना, किसीसे घृणा न करना, किसीके दोषोंकी समालोचना न करना, परस्त्रीमात्रको भगवान् का या माताका रूप समझना, आहार-विहारमें संयम रखना, बहुत कम बोलना, अनावश्यक न बोलना, सदा सत्य और मीठे वचन बोलना, यथासाध्य सबकी यथायोग्य सेवा करनेके लिये तैयार रहना, परंतु अपनेमें सेवकपनका अभिमान न रखना, अपने द्वारा की हुई सेवाको परोपकार न समझकर उसे अवश्यकर्तव्य समझना, अपनी सेवामें त्रुटियोंका देखना और उन्हें दूर करनेके लिये सचेष्ट रहना, सेवाके लिये किसीपर अहसान न करना, सेवाका कुछ भी बदला न चाहना, दीनताका व्यवहार करना, सबसे नम्र व्यवहार करना, माता, पिता, गुरु आदि अपनेसे बड़े लोगोंको सेवासे संतुष्ट रखना, प्रतिष्ठा-मानकी इच्छाका विषके समान त्याग करना, जहाँ प्रतिष्ठा या मान मिलनेकी सम्भावना हो वहाँसे दूर रहना, अपनी बड़ाई सुननेका अवसर ही न आने देना, दीनोंपर दया रखना और उनकी सेवाके लिये बड़े-से-बड़े त्यागके लिये अपनेको तैयार करना; यथासम्भव किसी पंचायतीके प्रपंचमें न पड़ना, सभा-समितियोंसे भरसक अलग रहना, परमार्थमें अनुपयोगी साहित्यको न पढ़ना, विवाह और उत्सव आदि भीड़-भाड़के और अधिक जनसमुदायके अंदर यथासाध्य कम सम्मिलित होना, किसी भी दूसरेके धर्मकी कभी निन्दा न करना, छल छोड़कर सबसे सरल व्यवहार करना और दम्भाचरणसे बचनेकी सदा चेष्टा रखना आदि साधु-व्यवहार हैं; इनमें जो जितनी उन्नति करेगा, वह उतना ही परमार्थके साधनमें अग्रसर हो सकेगा।
साधकको इस बातका सदा ध्यान रखना चाहिये कि उसके जीवनकी गति किस ओर जा रही है। यदि दैवी सम्पत्तिकी ओर है तो समझना चाहिये कि उसकी उन्नति हो रही है और यदि आसुरी सम्पत्तिकी ओर है तो अवनति हो रही है। यही कसौटी है। भक्ति या ज्ञान कथनमात्रका नाम नहीं है, यह निश्चय रखना चाहिये। भक्ति या ज्ञानके मार्गपर जो आगे बढ़ रहे हैं, उनमें दैवी सम्पत्तिके* गुणोंका विकास होना अनिवार्य है।
* दैवी और आसुरी सम्पत्तिका विवेचन श्रीगीताके १६वें अध्यायमें देखना चाहिये। हो सके तो प्रतिदिन उसका पाठ और मनन कर अपनेमें दैवी सम्पत्तिके गुणोंको बढ़ाने और आसुरी सम्पत्तिके अवगुणोंको दूर करनेका पूरा प्रयत्न करना चाहिये।
पापोंसे सावधानी
साधकको अन्तत: पापोंसे सदा ही सावधान रहना चाहिये। पापबुद्धि जब मनमें आती है, तब छोटी-सी तरंगके समान आती है; परंतु यदि उसे आश्रय मिल जाता है तो वही बहुत जल्द समुद्रके समान बनकर मनुष्यको डुबो देती है। इसलिये तनिक-से भी पापकी कभी उपेक्षा न करनी चाहिये, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। साँपका या सशस्त्र डाकूका घरमें रहना उतना घातक नहीं है जितना तनिक-सी पापबुद्धिका मनमें रहना है।
कुछ लोग कह दिया करते हैं कि पाप करना तो मनुष्यका स्वभाव है या उसके प्रारब्धमें ही पापका योग है, परंतु यह बात सर्वथा असत्य है। न तो पाप करना मनुष्यका स्वभाव है और न पापका विधान प्रारब्धमें ही है। यह तो पाप करनेवालोंकी युक्तियाँ हैं, जो पापमें रत रहते हुए भी स्वभाव या प्रारब्धपर दोष मढ़कर स्वयं निर्दोष बनना चाहते हैं। असलमें यह दुर्बल हृदयकी कल्पनामात्र है। मनुष्यका स्वभाव तो पापोंसे बचकर उन सब भावोंको अपने अन्दर विकसित करनेका है, जो उसे परम सत्य वस्तुके अति निकट ले जानेवाले हैं। पाप तो विषयभोगोंकी आसक्तिसे होते हैं, इस आसक्तिका त्याग किये बिना मनुष्य कदापि सत्य वस्तुकी पहचान नहीं कर सकता। विषयासक्ति तो पशुधर्म है, मनुष्योंने अज्ञानसे इसे अपना स्वभाव मानकर अपनेको परमार्थसे बहुत दूर हटा रखा है। इसीसे हमें बारंबार दु:खोंका शिकार बनना पड़ता है। अतएव हृदयमेंसे खोज-खोजकर बुरी वासनाओंको निकालना चाहिये। जरा-से भी पापको आश्रय देना अपने-आपको सदाके लिये दु:खरूप नरकमें डालनेकी तैयारी करना है। मनुष्यमें भगवान् की दी हुई ऐसी शक्ति है कि वह चाहे तो पापके परमाणुमात्रसे बचा रह सकता है। इसीलिये भगवान् ने आदेश दिया है कि हे मनुष्यो! तू अपने-आपको सँभालकर सारे पापोंके निवासस्थान दुर्जय कामरूप शत्रुका नाश कर ‘जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥’ (गीता ३।४३)।
प्रभुपर विश्वास
साधकको साधन-पथसे कभी न डिगने देनेका बहुत सुन्दर उपाय ‘प्रभुपर अटल विश्वास’ है। जो साधक परमात्माकी दयालुता, करुणा, उनके विरद, सुहृद्पन और प्रेमका तत्त्व जानकर उनपर विश्वास रखता है, वह कभी हताश नहीं हो सकता। हमलोग जो पद-पदपर साधनसे गिर जाते हैं इसमें एक प्रधान कारण प्रभुमें विश्वासकी कमी है। भगवान् कहते हैं—‘जो मुझे सब प्राणियोंका सुहृद् समझ लेता है वही परम शान्तिको प्राप्त कर लेता है।’ ‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥’ (गीता ५। २९) वास्तवमें यह बहुत ठीक बात है। परमात्माको सुहृद् जान लेनेपर उसके बलपर, उसके विश्वासपर मनुष्य अपनेको सबल समझकर विषयासक्ति और पापोंको दूर करनेमें सर्वथा समर्थ हो जाता है। हम अपने नित्य-सुहृद् परमात्माको नहीं पहचानते, यह हमारा बड़ा दुर्भाग्य है। साधकको यह निश्चय रखना चाहिये कि परमात्मा मेरा सबसे सच्चा सुहृद् है, नित्य संगी है, मुझे सदा पापोंसे बचाता है। मुझे तो बस उसीके शरण होकर उसीका चिन्तन करना चाहिये, फिर सारा भार उसीके ऊपर है। जो साधक परम विश्वासके साथ ऐसा कर लेता है वह निस्संदेह समस्त विघ्नोंको लाँघकर परमात्माको पा लेता है। भगवान् ने कहा है, मुझमें चित्त लगानेवाला मेरी कृपासे सब प्रकारके संकटोंसे अनायास ही तर जाता है। ‘मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’ (गीता १८।५८)।