वैराग्य
इस लोक और परलोकके समस्त दृष्ट श्रुत या अदृष्ट अश्रुत पदार्थोंसे सर्वथा वितृष्ण हो जाना वैराग्य कहलाता है। जबतक विषयोंमें अनुराग रहता है, तबतक परमात्माकी प्राप्तिके चरम ध्येयपर मनुष्य दृढ़तासे स्थिर नहीं रह सकता। विषयानुरागकी निवृत्ति विषय-विरागसे होती है। विषयोंमें चित्तका अनुराग प्रधानतया चार कारणोंसे हो रहा है—(१) विषयोंका अस्तित्व-बोध, (२) विषयोंमें रमणीयताका बोध, (३) विषयोंमें सुख-बोध और (४) विषयोंमें प्रेमका बोध।
विवेकद्वारा इन चारोंका बाध करनेपर वैराग्यकी प्राप्ति होती है। इसलिये नित्यानित्य वस्तु-विवेककी आवश्यकता पहले होती है। विवेकसे वैराग्य जाग्रत् होता है और वैराग्यसे विवेक स्थिर और परिमार्जित होता है, यह दोनों अन्योन्याश्रित साधन हैं। उपर्युक्त चारों कारणोंमें पहलेका बाध प्राय: सबसे पीछे हुआ करता है; क्योंकि यह पहला ही तीनोंका मूल आधार है। जगत् का अस्तित्व ही बुद्धिसे जाता रहे तो फिर उसमें रमणीयता, सुख और प्रेमका तो कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता। परंतु ऐसा होना बहुत कठिन है। अतएव साधकको क्रमश: पिछले तीनोंका बाध करके फिर पहलेका नाश करना पड़ता है।
रमणीयताका बाध
विषयोंकी ओर चित्तवृत्तियोंके आकर्षित होनेमें सबसे पहला कारण उनमें रमणीयताका बोध है। विषयोंमें रमणीयताका भास बुद्धिके विपर्ययसे ही होता है। बुद्धिके विपर्ययमें अज्ञानसम्भूत अविद्या प्रधान कारण है। इस अविद्यासे ही हमें असुन्दरमें सुन्दर-बुद्धि, अनित्यमें नित्य-बुद्धि, दु:खमें सुख-बुद्धि, अपवित्रमें पवित्र-बुद्धि, प्रेमहीनमें प्रेम-बुद्धि और असत् में सत् -बुद्धि हो रही है। उल्लूकी भाँति रातमें दिन और दिनमें रात इस अविद्यासे ही दीखता है। इसीसे हमें अस्थि-चर्मसार शरीर और तत्सम्बन्धीय तुच्छ पदार्थोंमें रमणीय-बुद्धि हो रही है। मनुष्य जिस विषयका निरन्तर चिन्तन करता है, उसीमें उसकी समीचीन बुद्धि हो जाती है, यह समीचीनता ही रमणीयताके रूपमें परिवर्तित होकर हमारे मनको आकर्षित करती रहती है। अब विचारना चाहिये कि विषयोंमें वास्तवमें रमणीयता है या नहीं और यदि नहीं है तो रमणीयता क्यों भासती है?
विचार किया जाय तो वास्तवमें विषयोंमें रमणीयता बिलकुल नहीं है। जो शरीर हमें सबसे अधिक सुन्दर प्रतीत होता है उसमें क्या है? वह किन पदार्थोंसे बना है? हड्डी, मांस, रुधिर, चर्म, मज्जा, मेद, कफ, विष्ठा और मूत्र आदि पदार्थोंसे भरे इस ढाँचेमें कौन-सी वस्तु रमणीय और आकर्षक है? अलग-अलग देखनेपर सभी चीजें घृणास्पद प्रतीत होती हैं। यही हाल और सब वस्तुओंका है। वास्तवमें रमणीयता किसी वस्तुमें नहीं होती, वह कल्पनामें रहती है। कल्पना ही रूढ़ि बनकर तदनुसार धारणा करानेमें प्रधान कारण होती है।
हमलोगोंको जहाँ गौर वर्ण अपनी ओर आकर्षित करता है, वहाँ हबशियोंको काली सूरत ही रमणीय प्रतीत होती है। चीनमें कुछ समय पूर्व स्त्रियोंके छोटे पैरोंमें लोगोंकी रमणीय-बुद्धि थी। लड़कियोंको बचपनसे ही लोहेकी जूतियाँ पहना दी जाती थीं, जिससे उनके पैर बढ़ने नहीं पाते थे। यद्यपि इससे उन्हें चलनेमें बड़ी तकलीफ होती थी, परन्तु रमणीय-बुद्धिसे बाध्य होकर वे प्रसन्नतापूर्वक ऐसा करती थीं। राजस्थानकी मारवाड़ी स्त्रियाँ बेहूदे गहने-कपड़ोंके भारी बोझसे कष्ट सहन करनेपर भी उन्हें पहनकर अपनेको सुन्दर समझती हैं, पर गुजरातकी सादी पोशाक धारण करनेवाली स्त्रियाँ उसे देखकर हँसती हैं। ठीक इससे विपरीत मनोवृत्ति मारवाड़ी बहनोंकी गुजराती बहनोंके वेष-भूषाके प्रति होती है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि रमणीयता किसी विषयमें नहीं है, वह हमारे मनकी कल्पनामें है। हमने ही अपनी रुचिके अनुसार विषयोंमें सुन्दरताकी कल्पना कर ली है।
विषयोंमें सुखका बाध
यह कहा जा सकता है कि मान लिया विषयोंमें रमणीयता नहीं है, परंतु उनके भोगमें सुख तो है। इसका उत्तर यह है कि विषयभोगोंमें वास्तवमें सुख नहीं है। कमरेमें लगे हुए काँचके ग्लोबमें बिजली नहीं होती, वह तो सीधी पावर-हाउससे आती है; क्योंकि उसका उद्गमस्थान वही है। इसी प्रकार सुख भी सुखके परम उद्गमस्थान आनन्दरूप आत्मासे आता है। विषयमें सुख होता तो भोगके उपरान्त भी उसमें सुखकी प्रतीति होनी चाहिये। पर ऐसा नहीं होता। बड़ी भूख लगी है, सूखी रोटी भी बहुत स्वादिष्ट मालूम होती है, सुन्दर मिष्टान्न मिल गया, खूब पेटभर खाया। जब जरा-सी भी गुंजाइश नहीं रही, पेट फूलनेकी नौबत आ गयी और इसके बाद यदि कोई उसी मिष्टान्नको खानेके लिये हमारी इच्छाके विरुद्ध जोरसे आग्रह करता है तो हमें उसपर गुस्सा आ जाता है। वही मिष्टान्न, जो कुछ समय पूर्व बड़े सुखकी सामग्री था, अब दु:खरूप प्रतीत होता है। इससे पता लगता है कि मिष्टान्नमें सुख नहीं है। हमें भूख लगी थी, भोजनरूपी विषयकी बड़ी चाह थी। जब वह विषय मिला, तब थोड़े समयके लिये—दूसरे अभावकी भावना न होनेतक चित्त स्थिर हुआ, उस स्थिरचित्तरूपी दर्पणपर सुखस्वरूप आत्माकी झलकका प्रतिबिम्ब पड़ा, सुखका आभास हुआ। हमने भ्रमसे मान लिया कि यह सुख हमें विषयसे मिला है।
इसके सिवा एक बात यह भी विचारणीय है कि यदि विषय सुखरूप है तो एक ही विषय भिन्न-भिन्न प्रकृतिके मनुष्योंमेंसे किसीको सुखरूप और किसीको दु:खरूप क्यों भासता है? एक राजाने किसी शत्रु-राज्यपर विजय प्राप्त की। इससे उसके प्रेमियोंको सुख और विरोधियोंको दु:ख होता है। विषयकी एकतामें भी सुख-दु:खके बोधमें तारतम्यता है। यही विषय-सुखका स्वरूप है। इससे यह सिद्ध होता है कि हमने भ्रमसे ही विषयोंमें सुखकी कल्पना कर रखी है, वास्तवमें माया-मरीचिकाकी भाँति इनमें सुख है ही नहीं। इस प्रकारके विचारोंसे सुखका बाध हो जाता है। अब रहा विषयप्रेम।
विषयोंमें प्रेमका बाध
हम कह सकते हैं कि पुत्र-कलत्र-मित्रादिमें रमणीयता और सुख तो नहीं है, परंतु प्रेम तो प्रत्यक्ष ही दीखता है। इसपर भी विचार करनेसे पता लगता है कि विषयोंमें वास्तवमें प्रेम भी नहीं है। स्वार्थ ही प्रेमके रूपमें प्रकाशित हो रहा है। गुरु नानकने क्या अच्छा कहा है—
जगतमें झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुख सों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥
मेरो मेरो सभी कहत हैं, हितसों बाँध्यो चीत।
अन्तकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरजकी रीत॥
मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हार्यो नीत।
‘नानक’ भव-जल-पार परै, जो गावे प्रभुके गीत॥
मान लीजिये घरमें आग लग गयी; गहने, कपड़े, नोट, गिन्नी और स्त्री-पुत्रादिसहित हम घरमें सोये हैं। इतनेमें आँखें खुलीं, अग्निकी ज्वाला देखते ही घबड़ाकर अपनेको बचाते हुए हम गहने-कपड़े, रुपये, गिन्नी बटोरने और स्त्री-पुत्रादिको बचानेके लिये चिल्लाहट मचाने और चेष्टा करने लगे। आग बढ़ी, लपटें हमारी ओर आने लगीं। हम घबड़ाकर सब कुछ वहीं पटक बाहर भाग निकले। प्यारे स्त्री-पुत्रादि अंदर ही रह गये। बाहर निकलकर अपनी जान बचाकर हम उन्हें निकालनेके लिये चिल्लाते हैं; पर अन्दर नहीं जाते। यदि उनमें यथार्थ प्रेम होता तो क्या उन्हें बचानेके लिये प्राणोंकी आहुति सहर्ष न दे दी जाती? इससे सिद्ध होता है कि हमारा उनसे वास्तवमें प्रेमका नहीं, स्वार्थका सम्बन्ध है। जबतक स्वार्थमें बाधा नहीं पड़ती, तभीतक प्रेमका बर्ताव रहता है। कहा है—
जगतमें स्वारथके सब मीत।
जब लगि जासों रहत स्वार्थ कछु, तब लगि तासों प्रीत॥
स्वार्थमें बाधा पड़ते ही बनावटी प्रेमके कच्चे सूतका धागा तत्काल ही टूट जाता है। हम जो स्त्री-पुत्र-धनादिके वियोगमें रोते हैं, सो अपने ही स्वार्थमें बाधा पहुँचते देखकर रोते हैं। यहाँपर यह प्रश्न होता है कि तब जो लोग देशके लिये प्राण विसर्जन कर देते हैं, उनमें तो वास्तविक प्रेम है न? अवश्य ही उनके प्रेमका विकास हुआ है, वे लोग उन क्षुद्र स्वार्थी मनुष्योंकी अपेक्षा बहुत उच्च श्रेणीके हैं, तथापि उनकी भी यह चेष्टा वास्तवमें आत्मसुखके लिये ही है। इससे यह नहीं मान लेना चाहिये कि चेष्टा किसीको नहीं करनी चाहिये। इस प्रकारकी चेष्टाएँ तो अवश्य ही करनी चाहिये। परंतु यह याद रखना चाहिये कि इन चेष्टाओंके होनेमें भी कारण वैराग्य ही है। अपने शरीरसम्बन्धी क्षुद्र स्वार्थोंसे विराग न होता तो प्रेमका इतना विकास कभी सम्भव नहीं था। यह सब होनेपर भी उन लोगोंका कुटुम्ब, जाति या देशसे यथार्थ प्रेम सिद्धनहीं होता, इहलौकिक या पारलौकिक सुख, कीर्ति या पदगौरवजन्य आत्मसुखाभिलाषाका ही प्राय: इसमें प्रधान उद्देश्य रहता है। वास्तवमें हम अपने ही लिये सबसे प्रेम करते हैं।
हम अपने शरीरसे भी अपने ही सुखके लिये प्रेम करते हैं। जब शरीरसे सुखमें बाधा पहुँचती है, तब उसको भी छोड़ देना चाहते हैं। अत्यन्त कष्टजनक रोगसे पीड़ित होने या अपमानित और पददलित होनेपर शरीरके नाशकी कामना या चेष्टा करना इसी बातको सिद्ध करता है कि हमारा शरीरसे प्रेम नहीं है। प्रेम तो प्रेमकी वस्तुमें ही होता है। प्रेमकी वस्तु है एकमात्र आत्मा। जगत् से भी उसी अवस्थामें असली प्रेम हो सकता है, जब कि हम जगत् को अपना आत्मा मान लेते हैं। इसीलिये बृहदारण्यक श्रुतिमें कहा है—‘न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति। न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्रा: प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्रा: प्रिया भवन्ति।’ स्त्रीके प्रयोजनके लिये स्त्री प्रिया नहीं होती, अपने ही प्रयोजनके लिये स्त्री प्रिया होती है। पुत्रोंके प्रयोजनके लिये पुत्र प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजनके लिये पुत्र प्रिय होते हैं। (बृह.२।४।५)
यही भाव हमारे प्रति भी और सबका समझना चाहिये। इस प्रकारके विचारोंसे विषय-प्रेमका बाध करनेपर अब एक बात शेष रह जाती है—विषयोंकी सत्ताका बाध।
विषयोंकी सत्ताका बाध
मान लिया कि विषयोंमें रमणीयता, सुख और प्रेम नहीं है, परंतु विषयोंकी सत्ता तो माननी ही पड़ेगी। सत्ता न होती तो देखना, सूँघना, स्पर्श करना, बोलना, सुनना आदि सब क्रियाएँ प्रत्यक्ष क्योंकर हो सकती हैं? इसपर कहा जा सकता है कि जब रज्जुमें सर्प दीखता है, उस समय क्या उस कल्पित सर्पमें सत्य सर्पबुद्धि नहीं होती? क्या उस समय वह रस्सी ही प्रतीत होती है? यदि रस्सी ही प्रतीत होती है तो उससे डरने या काँपनेका कोई कारण नहीं है। गोसाईंजी महाराजने इस विषयको एक पदमें बड़ी अच्छी तरह समझाया है—
हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई।
देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई॥
जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।
कहि न जाइ मृग-बारि सत्य, भ्रमतें दुख होइ बिसेखे॥
सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै।
कोटिहु नाव न पार पाव सो जबलगि आपु न जागै॥
अनविचार रमनीय सदा संसार भयंकर भारी।
सम-संतोष-दया विवेकते व्यवहारी सुखकारी॥
‘तुलसिदास’ सब बिधि प्रपंच जग जदपि झूठ श्रुति गावै।
रघुपति-भगति संत-संगति बिनु, को भव-त्रास नसावै॥
स्वप्नमें समुद्रमें डूबता हुआ मनुष्य जबतक स्वयं नहीं जाग जाता, तबतक बाहरकी करोड़ों नावोंद्वारा भी वह डूबनेसे नहीं बच सकता। यद्यपि पलंगपर सोये हुएके पास समुद्र नहीं है, पर स्वप्नकालमें तो उसे वह सर्वथा सत्य ही प्रतीत होता है, उसी प्रकार यह संसार सत्तारहित होनेपर भी अविद्यासे सत् भासता है।
भरम परा तिहुँ लोकमें भरम बसा सब ठाँव।
कहै कबीर पुकारिकै, बसे भरमके गाँव॥
इन विचारोंसे सत्ताका बाध करना पड़ता है। परंतु जगत् की सत्ताका बाध करना कहनेमें जितना सुगम है, करनेमें उतना ही कठिन है। बड़ी साधनाका यह परिणाम होता है। इसके लिये बड़े भारी विवेककी आवश्यकता है। जहाँतक यह न हो, वहाँतक विषयोंमें रमणीयता, सुख और प्रेमबोधका बाध करते रहना चाहिये। यही वैराग्य है।
वैराग्य बिना परमार्थ नहीं
जो लोग बिना वैराग्यके परमार्थ-वस्तुकी प्राप्ति करना चाहते हैं, वे मानो आकाशमें निराधार दीवार उठानेका व्यर्थ प्रयास करते हैं। अतएव वैराग्यकी भावना सदा ही साधकको जाग्रत् रखनी चाहिये। विचारना चाहिये कि जगत् का कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है। धन-वैभव, विद्या-बुद्धि, तेज-प्रभाव, गुण-गौरव, बल-रूप, यौवन-श्री आदि सभी वस्तुएँ मृत्युके साथ ही हमारे लिये धूलमें मिल जाती हैं। आज हम अपने धनके सामने जगत् के लोगों—अपने ही भाइयोंको तुच्छ समझते हैं। ऊँची जाति या विद्याके कारण दूसरोंको नगण्य मानते हैं। नेतृत्वमें अपना कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं रखते। व्याख्यानों और लेखोंसे लोगोंको चमत्कृत कर देते हैं। नीति और चतुराईमें बड़े-बड़े राजनीतिज्ञोंसे भी अपनेको बड़ा मानते हैं। दानमें कर्णकी समताका दम भरते हैं, बलमें भीम कहलाना चाहते हैं। यशस्वितामें अपनी बराबरीका किसीको भी देखना नहीं चाहते। शरीर-मन-बुद्धिपर बड़ा अभिमान है, पर यह खयाल नहीं करते कि इस कच्चे घड़ेको फूटते तनिक-सी देर भी नहीं लगेगी। जहाँ यह तनका घड़ा फूटा कि सब खेल खतम हो गया। फिर इस देहकी दशा यह होती है—
जारे देह भस्म ह्वै जाई, गाड़े माटी खाई।
काँचे कुम्भ उदक ज्यों भरिया, तनकी यही बड़ाई॥
—कबीर
पानीका बुद्बुदा उठा और मिट गया, यही इस शरीरकी स्थिति है—
पानी केरा बुदबुदा अस मानुसकी जाति।
देखत ही छिप जायगा, ज्यों तारा परभात॥
—कबीर
इसीलिये कबीरजीने चेतावनी देते हुए कहा है—
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय।
यह पुरपट्टन यह गली, बहुरि न देखौ आय॥
सातों नौबत बाजती, होत छतीसों राग।
सो मन्दिर खाली पड़े, बैठन लागे काग॥
आजकालके बीचमें जंगल होगा बास।
ऊपर ऊपर हल फिरैं, ढोर चरैंगे घास॥
हाड़ जलै ज्यों लाकड़ी, केस जलै ज्यों घास।
सब जग जलता देखकर, भये कबीर उदास॥
झूठे सुखको सुख कहें, मानत हैं मन मोद।
जगत चबेना कालका कछु मुख महँ कछु गोद॥
हाँकै परबत फाटत, समँदर घूँट भराय।
ते मुनिवर धरती गले, क्या कोइ गरब कराय॥
माली आवत देखिके, कलियाँ करैं पुकार।
फूली फूली चुन लई कालि हमारी बार॥
माटी कहै कुम्हार ते, तूँ क्यों रूँधै मोहिं।
एक दिन ऐसा होयगा, मैं रूँधोंगी तोहिं॥
मरहिंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम।
ऊजड़ जाय बसायँगे, छाँड़ बसंता गाम॥
आसपास योधा खड़े, सभी बजावें गाल।
माझ महलसे लै चला, ऐसा काल कराल॥
जीवनकी यह दशा है। इसलिये चार दिनकी चाँदनीपर इतराना छोड़कर विषयोंसे मन हटाना चाहिये। कबीरजीका एक भजन और याद रखिये—
हमकाँ ओढ़ावै चदरिया, चलती बिरियाँ॥
प्रान राम जब निकसन लागे,
उलट गई दोउ नैन पुतरिया।
भीतरसे बाहर जब लावै,
छूटि गई सब महल अटरिया॥
चारि जने मिलि खाट उठाइन,
रोवत लै चले डगर-डगरिया।
कहत कबीर सुनो भाई साधो,
संग चली वह सूखी लकरिया॥
विषयोंमें वैराग्य हुए बिना ईश्वरमें अनुराग नहीं हो सकता। ईश्वरानुराग बिना आनन्दकी प्राप्ति असम्भव है। अनित्य परिवर्तनशील और क्षणभंगुर विषयोंमें आनन्दकी कोई सम्भावना नहीं।
बाहरी त्यागका नाम विषय-त्याग नहीं है
उपर्युक्त विवेचनके अनुसार मनुष्यको विषयोंका परित्याग करनेके लिये सदा सचेष्ट रहना चाहिये। अवश्य ही केवल घर-बार, माता-पिता, स्त्री-पुत्रादिको त्यागकर जंगलमें चले जानेका नाम विषय-त्याग नहीं है। विषयासक्तिका त्याग ही वास्तविक विषय-त्याग है। जबतक आसक्ति है, तबतक गृहादि-त्यागसे कोई खास लाभ नहीं होता। आसक्ति अविद्याजनित मोहसे होती है। जहाँतक बुद्धि मोहसे ढकी हुई है, वहाँतक विषयोंसे वास्तविक वैराग्य नहीं हो सकता। इसीलिये भगवान् ने कहा है—
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥
(गीता २। ५२)
‘हे अर्जुन! जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलसे निकल जायगी तभी तू सुने हुए और सुने जानेवाले सब विषयोंसे वैराग्यको प्राप्त होगा।’ इस मोहको हटानेका ही प्रयत्न करना चाहिये। जबतक मनसे विषयोंकी अनुरक्ति दूर नहीं होती, तबतक केवल बाहरी त्यागद्वारा मनसे यह मोह कभी दूर नहीं होता।
दाढ़ी मूँछ मुड़ाइकै, हुआ जु घोटमघोट।
मनको क्यों मूँड़ा नहीं, जामें भरिया खोट॥
अतएव—
तस्मात्तत्साधनं नित्यमाचेष्टव्यं मुमुक्षुभि:।
यतो मायाविलासाद्वै निर्वृतं परमश्नुते॥
मुमुक्षु पुरुषको मनका मोह दूर करनेवाले उस यथार्थ वैराग्यसाधनका नित्य अभ्यास करना चाहिये, जिससे मायाके कार्य इस नश्वर जगत् से सहज ही छुटकारा मिल सके।