गीता गंगा
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भगवान‍्में अपनापन

वास्तवमें कोई भी मनुष्य अनाथ नहीं है। सब-के-सब मनुष्य सनाथ हैं। संसारमें प्रत्येक वस्तुका कोई-न-कोई मालिक होता है, फिर मनुष्यका कोई मालिक न हो—यह कैसे हो सकता है? जो सबके मालिक हैं, वे भगवान् हमारे भी मालिक हैं। हम उनको अपना मालिक मानें या न मानें, जानें या न जानें, पर वे हमें अपना जानते ही हैं। अत: अपनेको अनाथ समझना हमारी भूल है।

मनुष्यको अपनेमें अनाथपनेका अनुभव क्यों होता है? जब वह किसी वस्तु-व्यक्तिको अपना मान लेता है, तब उसका अभाव होनेसे उसको अपनेमें अनाथपनेका अनुभव होने लगता है। यह नियम है कि जब मनुष्य अपनेको किसी वस्तु-व्यक्तिका मालिक मान लेता है, तब वह अपने मालिकको भूल जाता है। जैसे, बालक माँके बिना नहीं रह सकता; परन्तु जब वह बड़ा हो जाता है और स्त्री, पुत्र आदिको अपना मानने लगता है, तब वह उसी माँकी उपेक्षा करने लगता है। इसलिये गीतामें भगवान‍्ने शरीरको अपना माननेवाले अर्थात् अपनेको शरीरका मालिक माननेवाले जीवात्माको ‘ईश्वर’ नामसे कहा है—‘शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:’ (१५। ८)। अगर मनुष्य भगवान‍्के सिवाय किसीको भी अपना न माने तो उसका भूलसे माना हुआ अनाथपना मिट जायगा और सनाथपनेका अनुभव हो जायगा।

वास्तवमें भगवान् ही सदासे अपने हैं। संसार पहले अपना नहीं था, पीछे अपना नहीं रहेगा और अब भी वह निरन्तर हमारेसे बिछुड़ रहा है। परन्तु भगवान् पहले भी अपने थे,पीछे भी अपने रहेंगे और अब भी वे अपने हैं। वे हमें कभी नहीं मिलते तो भी अपने हैं, सर्वथा मिलते हैं तो भी अपने हैं और कभी मिलते हैं, कभी नहीं मिलते तो भी अपने हैं। परन्तु संसार सर्वथा मिला हुआ दीखनेपर भी अपना नहीं है। कारण कि जो सदा हमारे साथ नहीं रह सकता और हम सदा जिसके साथ नहीं रह सकते, वह अपना नहीं हो सकता। अपना वही हो सकता है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें अर्थात् जो हमारेसे कभी न बिछुड़े और हम उससे कभी न बिछुड़ें।

एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि संसारमें जिसको हम अपना मानते हैं, वह तो नहीं रहता, पर उससे माना हुआ अपनापन रह जाता है अर्थात् सम्बन्धी तो नहीं रहता, पर सम्बन्ध रह जाता है! जैसे, किसी स्त्रीको विधवा हुए बहुत वर्ष बीत गये, पर पतिका नाम सुनते ही उसके कान खड़े हो जाते हैं अर्थात् पतिके न रहनेपर भी उसका पतिके साथ सम्बन्ध बना रहता है कि मैं अमुककी पत्नी हूँ। यहाँ शंका होती है कि पिताके न रहनेपर यदि पुत्र पितासे सम्बन्ध न माने तो वह श्राद्ध-तर्पण कैसे करेगा, जो कि शास्त्रका विधान है? इसका समाधान है कि अपने स्वार्थके लिये, अपने सुखभोगके लिये माना हुआ सम्बन्ध ही बाँधनेवाला है। पितृऋण उतारनेके लिये, सेवा करनेके लिये माना हुआ सम्बन्ध बाँधनेवाला नहीं होता, प्रत्युत सम्बन्ध-विच्छेद करनेवाला होता है*।

* ऋणी और अपराधीकी जल्दी मुक्ति नहीं होती। फल-भोगसे अथवा दान-पुण्यादि शुभकर्मोंसे पाप तो नष्ट हो जाते हैं, पर ऋण और अपराध नष्ट नहीं होते। जिस व्यक्तिसे ऋण लिया है अथवा जिस व्यक्तिका अपराध किया है, वे माफ कर दें तभी ऋण और अपराधसे मुक्ति होती है। मूलमें संसारको अपना माननेसे ही मनुष्य ऋणी, गुलाम, अनाथ, तुच्छ तथा पतित होता है। जो संसारमें कुछ भी अपना नहीं मानता, वह किसीका ऋणी और अपराधी बनता ही नहीं; क्योंकि जब आधार ही नहीं रहेगा तो फिर ऋण, अपराध आदि कहाँ टिकेंगे—‘मूलाभावे कुत: शाखा’?

तात्पर्य है कि अगर वस्तुएँ अपनी दीखती हैं तो वे केवल दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये, सदुपयोग करनेके लिये अपनी हैं। अगर व्यक्ति अपने दीखते हैं तो वे केवल नि:स्वार्थभावसे सेवा करनेके लिये अपने हैं। अपने लिये कुछ भी अपना नहीं है। अपने सुख-आरामके लिये वस्तु-व्यक्तिको अपना मानना जन्म-मरणका कारण है—‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३। २१)। इसलिये जो संसारमें कुछ भी अपना मानता है, उसको कुछ भी नहीं मिलता और जो कुछ भी अपना नहीं मानता, उसको सब कुछ मिलता है अर्थात् भगवान् मिलते हैं।

अपनी बुद्धि, विचार, सामर्थ्यसे वस्तुओंका दुरुपयोग न करके उनका सदुपयोग करनेसे वस्तुओंसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है और नि:स्वार्थभावसे सेवा करनेसे व्यक्तियोंसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है। सम्बन्ध मिटनेसे मुक्ति हो जाती है। यहाँ शंका होती है कि संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर भी जीवन्मुक्त महापुरुष दूसरोंकी सेवा (हित) में क्यों लगे रहते हैं?

इसका समाधान है कि साधनावस्थामें ही उनका स्वभाव प्राणिमात्रका हित करनेका रहा है—‘सर्वभूतहिते रता:’(गीता ५। २५, १२। ४), इसलिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष न रहनेपर भी उनमें सबका हित करनेका स्वभाव रहता है—‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ (गीता ५। १४)। तात्पर्य है कि दूसरोंका हित करते-करते जब उनका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब उनको हित करना नहीं पड़ता, प्रत्युत पहलेके स्वभावसे उनके द्वारा स्वत: दूसरोंका हित होता है।

भगवान‍्के सिवाय हम जिसको भी अपना मानते हैं, वह अशुद्ध हो जाता है; क्योंकि ममता ही मल (अशुद्धि) है—‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७। ११७ क)। इतना ही नहीं, उसको अपना मानकर हम उसके मालिक बनना चाहते हैं, पर वास्तवमें उसके गुलाम बन जाते हैं; उसको ठीक करना चाहते हैं, पर वास्तवमें वह बेठीक हो जाता है। हम जिन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम् तथा स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, धन, जमीन, मकान, आदिको अपना मानते हैं, वे सब अशुद्ध हो जाते हैं और उनके सुधारमें बाधा लग जाती है। परन्तु उनको अपना न माननेसे वे भगवान‍्की शक्तिसे शुद्ध हो जाते हैं, प्रसाद बन जाते हैं, उनमें विलक्षणता आ जाती है; क्योंकि वास्तवमें वे भगवान‍्के ही हैं।

तात्पर्य है कि वस्तुको अपना माननेसे वह अशुद्ध हो जाती है और हम अनाथ तथा पराधीन हो जाते हैं। अगर हम वस्तुको अपना न मानें तो वस्तु शुद्ध हो जायगी और हमें अपने सनाथपनेका तथा स्वाधीनताका अनुभव हो जायगा।

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