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चुप-साधन

बाहर-भीतरसे चुप हो जाना ‘चुप-साधन’ है। भीतरसे ऐसा विचार कर लें कि मेरेको कुछ करना है ही नहीं। न स्वार्थ, न परमार्थ; न लौकिक, न पारलौकिक, कुछ भी नहीं करना है। ऐसा विचार करके बैठ जायँ। बैठनेका बढ़िया समय है—प्रात: नींदसे उठनेके बाद। नींदसे उठते ही भगवान‍्को नमस्कार करके बैठ जायँ। जैसे गाढ़ नींदमें किंचिन्मात्र भी कुछ करनेका संकल्प नहीं था, ऐसे ही जाग्रत्-अवस्थामें किंचिन्मात्र भी कुछ करनेका संकल्प न रहे। चिन्तन, जप, ध्यान आदि कुछ भी नहीं करना है। परन्तु ‘चिन्तन आदि नहीं करना है’—यह संकल्प भी नहीं रखना है; क्योंकि ‘न करने’ का संकल्प रखना भी ‘करना’ है। वास्तवमें ‘न करना’ स्वत:सिद्ध है। मन-बुद्धि आदिको स्वीकार करके ही ‘करना’ होता है।

अब किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं करना है—ऐसा विचार करके चुप हो जायँ। यदि मन न माने तो ‘सब जगह एक परमात्मा परिपूर्ण हैं’—ऐसा मानकर चुप हो जायँ। सगुणकी उपासना करते हों तो ‘मैं प्रभुके चरणोंमें पड़ा हूँ’—ऐसा मानकर चुप हो जायँ। परन्तु यह दो नम्बरकी बात है। एक नम्बरकी बात तो यह है कि कुछ करना ही नहीं है। इस प्रकार चुप होनेपर भीतरमें कोई संकल्प-विकल्प हो, कोई बात याद आये तो उसकी उपेक्षा करें, विरोध न करें। उसमें न राजी हों, न नाराज हों; न राग करें, न द्वेष करें। शास्त्रविहित अच्छे संकल्प आयें तो उसमें राजी न हों और शास्त्रनिषिद्ध बुरे संकल्प आयें तो उसमें नाराज न हों। स्वयं भी उन संकल्पोंके साथ न चिपकें अर्थात् उनको अपना न मानें।

आप कहते हैं कि मन बड़ा खराब है, पर वास्तवमें मन अच्छा और खराब होता ही नहीं। अच्छा और खराब स्वयं ही होता है। स्वयं अच्छा होता है तो संकल्प अच्छे होते हैं और स्वयं खराब होता है तो संकल्प खराब होते हैं। अच्छा और खराब—ये दोनों ही प्रकृतिके सम्बन्धसे होते हैं। प्रकृतिके सम्बन्धके बिना न अच्छा होता है और न बुरा होता है। जैसे सुख और दु:ख दो चीज हैं, पर आनन्दमें दो चीज नहीं हैं अर्थात् आनन्दमें न सुख है, न दु:ख है। ऐसे ही प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित तत्त्वमें न अच्छा है, न बुरा है। इसलिये अच्छे और बुरेका भेद करके राजी और नाराज न हों।

संकल्प आयें अथवा जायँ, उसमें पहलेसे ही यह विचार कर लें कि वास्तवमें संकल्प आता नहीं है, प्रत्युत जाता है। भूतकालमें हमने जो काम किये हैं, उनकी याद आती है अथवा भविष्यमें कुछ करनेका विचार पकड़ रखा है, उसकी याद आती है कि वहाँ जाना है, वह काम करना है आदि। इस तरह भूत और भविष्यकी याद आती है, जो अभी है ही नहीं। वास्तवमें उसकी याद आ नहीं रही है, प्रत्युत स्वत: जा रही है। मनमें जो बातें जमा हैं, वे निकल रही हैं। अत: आप उससे सम्बन्ध मत जोड़ें, तटस्थ हो जायँ। सम्बन्ध नहीं जोड़नेसे आपको उन संकल्पोंका दोष नहीं लगेगा और वे संकल्प भी अपने-आप नष्ट हो जायँगे; क्योंकि उत्पन्न होनेवाली वस्तु स्वत: नष्ट होती है—यह नियम है।

संसारमें बहुत-से पुण्यकर्म होते हैं, पर क्या हमें उनसे पुण्य होता है? ऐसे ही संसारमें बहुत-से पापकर्म होते हैं, पर क्या हमें उनका पाप लगता है? नहीं लगता। क्यों नहीं लगता? कि हमारा उनसे सम्बन्ध नहीं है। उनके साथ हमारा सहयोग नहीं है। जैसे संसारमें पुण्य-पाप हो रहे हैं, ऐसे ही मनमें संकल्प-विकल्प हो रहे हैं। हम उनको करते नहीं और करना चाहते भी नहीं। हम उनके साथ चिपक जाते हैं तो उनकी पुण्य और पापकी, अच्छे और बुरेकी संज्ञा हो जाती है, जिससे उनका फल पैदा हो जाता है और वह फल हमें भोगना पड़ता है। इसलिये उनके साथ मिलें नहीं। न अनुमोदन करें, न विरोध करें। संकल्प-विकल्प उठते हैं तो उठते रहें। यह करना है और यह नहीं करना है—इन दोनोंको उठा दें। गीतामें आया है—

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
(३। १८)

करने और न करने—दोनोंका ही आग्रह न रखें। करनेका आग्रह रखना भी संकल्प है और न करनेका आग्रह रखना भी संकल्प है। करना भी कर्म है और न करना भी कर्म है। करनेमें भी परिश्रम है और न करनेमें भी परिश्रम है। अत: करने और न करने—दोनोंसे किंचिन्मात्र भी कोई मतलब न रखकर चुप हो जायँ तो प्रकृतिका सम्बन्ध छूट जाता है और स्वत: परम विश्राम प्राप्त हो जाता है; क्योंकि क्रियारूपसे प्रकृति ही है। वह क्रिया चाहे शरीरकी हो, चाहे मनकी हो, सब प्रकृतिकी ही है। इस प्रकार बाहर-भीतरसे चुप हो जायँ तो जिसको तत्त्वज्ञान कहते हैं, जीवन्मुक्ति कहते हैं, सहज समाधि कहते हैं, वह स्वत: हो जायगी।

उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यानधारणा।
कनिष्ठा शास्त्रचिन्ता च तीर्थयात्राऽधमाऽधमा॥

—छोटा-से-छोटा साधन तीर्थयात्रा है। उससे ऊँचा शास्त्रचिन्तन है। शास्त्रचिन्तनसे ऊँची ध्यान-धारणा है; और ऊँची-से-ऊँची सहजावस्था (सहज समाधि) है*, उस सहजावस्थामें आप पहुँच जायँगे!

* प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति(न करना)—दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं। निर्विकल्प समाधितक सब प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी व्युत्थान होता है। क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है और क्रिया हुए बिना व्युत्थान होना सम्भव ही नहीं है। इसलिये चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह बैठना, खड़ा होना, मौन होना, सोना, मूर्च्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है। तात्पर्य है कि जबतक प्रकृतिका सम्बन्ध है, तबतक समाधि भी कर्म ही है, जिसमें समाधि और व्युत्थान—ये दो अवस्थाएँ होती हैं। प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर कोई अवस्था नहीं होती, प्रत्युत ‘सहज समाधि’ अथवा ‘सहजावस्था’ होती है, जिससे कभी व्युत्थान नहीं होता।
सहजावस्था वास्तवमें अवस्था नहीं है, प्रत्युत अवस्थासे अतीत है। अवस्थातीत कोई अवस्था नहीं होती। अवस्थाभेद प्रकृतिमें है, स्वरूपमें नहीं। इसलिये सहजावस्थाको सबसे उत्तम कहा गया है।

सहजावस्था न जाग्रत् है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न मूर्च्छा है और न समाधि है। सुषुप्ति और सहजावस्थामें फर्क यही है कि सुषुप्तिमें तो बेहोशी रहती है, पर सहजावस्थामें बेहोशी नहीं रहती, प्रत्युत होश रहता है, जागृति रहती है, ज्ञानकी एक दीप्ति रहती है—

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥
(गीता ४।२७)

वास्तवमें चुप होना नहीं है, प्रत्युत चुप तो स्वाभाविक है। जिनके वेदान्तके संस्कार हैं, वे समझ जायँगे कि आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता है। अत: सहजावस्था स्वाभाविक है।

चुप होते समय अगर नींद आने लगे तो जप-कीर्तन करना शुरू कर दो, खड़े हो जाओ। परन्तु जबतक नींद न आये, तबतक ‘कुछ नहीं करना है’—इसीमें (चुप) रहो। एक-दो सेकेण्ड भी इस प्रकार चुप हो जाओ तो बड़ा लाभ है। अगर आधा मिनट चुप हो जाओ तो बड़ी शक्ति पैदा होती है। चुप रहनेमें जो शक्ति पैदा होती है, वह शक्ति करनेमें कभी पैदा नहीं होती, प्रत्युत करनेमें तो शक्ति खर्च होती है। हम काम करते-करते थक जाते हैं तो फिर सो जाते हैं। गहरी नींदमें सब थकावट दूर हो जाती है और मनमें, इन्द्रियोंमें, शरीरमें ताजगी आ जाती है, करनेकी शक्ति आ जाती है। ऐसे ही प्रलयमें चुप हो जाते हैं तो सर्गकी सामर्थ्य आ जाती है। महाप्रलयमें चुप हो जाते हैं तो महासर्गकी सामर्थ्य आ जाती है। इस प्रकार जितनी भी सामर्थ्य है, वह सब-की-सब न करनेसे आती है। न करना ही परमात्माका स्वरूप है, जो नित्यप्राप्त है—

दौड़ सके तो दौड़ ले, जब लगि तेरी दौड़।
दौड़ थक्या धोखा मिटॺा, वस्तु ठौड़-की-ठौड़॥

न करनेका जो माहात्म्य है, वह करनेका है ही नहीं, कभी हुआ ही नहीं, कभी होगा भी नहीं और हो सकता ही नहीं। न करनेमें जो सामर्थ्य है, वह करनेमें है ही नहीं। कारण कि करनेका आरम्भ और अन्त होता है; अत: करना अनित्य है। परन्तु न करनेका आरम्भ और अन्त नहीं होता; अत: न करना नित्य है।

कुछ दिन विचार किये बिना यह चुप होनेकी अटकल आती नहीं। आप कुछ दिन विचार करेंगे, तब समझमें आयेगी। अभी समझमें न आनेपर भी ‘ऐसी सहजावस्था होती है’—यह मान लें। इस सहजावस्थाका वर्णन शास्त्रोंमें और सन्तोंकी वाणीमें भी बहुत कम आता है। सींथल (राजस्थान)में श्रीहरिरामदासजी महाराज हुए। उनकी वाणीमें आता है—

सहजां मारग सहज का, सहज किया विश्राम।
‘हरिया’ जीव र सीव का, एक नाम अरु ठाम॥
सहज तन मन सहज पूजा।
सहज सा देव नहीं और दूजा॥

उन्होंने अपना परिचय भी इस प्रकार दिया—

हरिया जैमलदास गुरु, राम निरंजन देव।
काया देवल देहरो, सहज हमारे सेव॥

‘श्रीजैमलदासजी महाराज हमारे गुरु हैं। जो प्रकृतिसे अत्यन्त अतीत हैं, वे राम हमारे देव हैं। यह शरीर हमारा देवल (देवस्थान) है। सहज (कुछ न करना) ही हमारी सेवा है।

कबीरदासजी महाराजकी वाणीमें आता है—

साधो सहज समाधि भली।
गुरु-प्रताप जा दिन तैं उपजी,
दिन-दिन अधिक चली॥
जहँ-जहँ डोलों सोइ परिकरमा,
जो कुछ करौं सो सेवा।
जब सोवों तब करौं दण्डवत,
पूजों और न देवा॥
कहों सो नाम, सुनों सो सुमिरन,
खाँव-पियों सो पूजा।
गिरह-उजाड़ एक सम लेखों,
भाव न राखों दूजा॥
आँख न मूँदों, कान न रूँधों,
तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नैन पहिचानों हँसि-हँसि,
सुन्दर रूप निहारौं॥
सबद निरंतर से मन लागा,
मलिन वासना त्यागी।
ऊठत-बैठत कबहुँ न छूटै,
ऐसी तारी लागी॥
कह कबीर यह उनमनि रहनी,
सो परगट करि भाई।
दुख-सुख से कोइ परे परमपद,
तेहि पद रहा समाई॥

ऐसी सहजावस्थाकी प्राप्तिका उपाय है—बाहर-भीतरसे चुप हो जाना अर्थात् कुछ न करना। कुछ न करनेसे सब कुछ हो जाता है।

हमें करना कुछ है ही नहीं—न पहले करना था, न अभी करना है, न बादमें करना है। भगवान‍्का भी चिन्तन नहीं करना है। भगवान‍्के चरणोंमें गिर जाना है, पर चरणोंका चिन्तन नहीं करना है। न संसारका चिन्तन करना है, न भगवान‍्का। मनका निरीक्षण भी नहीं करना है। मनका निरीक्षण तभी करेंगे, जब मनके साथ अपना सम्बन्ध मानेंगे, जबकि मनके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं। अत: मनकी तरफ देखना ही नहीं है। यह कोई मामूली चीज नहीं है, बहुत ऊँची चीज है! यह सब साधनोंका अन्तिम साधन है। कुछ न करनेमें सब साधन एक हो जाते हैं। जैसे अरबों रुपयोंका एक पैसा भी अंश है, ऐसे ही जिसको परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति, जीवन्मुक्ति, सहज समाधि कहते हैं, उसका अंश है यह। इसको सन्तोंने ‘मूक सत्संग’ और ‘अचिन्त्यका ध्यान’ भी कहा है।

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