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क्षणमें स्थिति कैसे बदले?

प्रवचन—प्रात:काल, दिनांक १४/१२/१९४०

प्रश्न—कलका प्रश्न बाकी है—एक क्षणमें परिवर्तन हो जाय, एक साथ श्रद्धा बढ़ जाय, इसका क्या उपाय है?

उत्तर—तुलसीदासजीसे किसीने भगवान् के तुरन्त दर्शन करानेकी प्रार्थना की। तुलसीदासजीने कहा एक पेड़के नीचे बरछी गाड़कर पेड़पर चढ़कर उसपर कूद जाओ। भगवान् के दर्शन हो जायँगे। उसने वृक्षके नीचे बरछी गाड़ दी और वृक्षपर चढ़ा-चढ़ा सोच रहा था। दूसरे किसी राहगीरने पूछा—‘क्या बात है?’ वह बोला—‘महात्मासे तुरन्त भगवान् के मिलनेका उपाय पूछा था, उन्होंने कहा—बर्छा रोपकर वृक्षपरसे कूद पड़ो, भगवान् मिल जायँगे। अब मैं सोच रहा हूँ कदाचित् कूदा भी और भगवान् न मिलें तो’ उस सुननेवालेने कहा—‘यह बात तुम बेच दो, कुछ ले लो।’ उसने बेच दिया और खरीदनेवाला झट वृक्षसे कूदा उसे भगवान‍्ने उठा लिया। ऐसे ही एक बात आती है, नाना बाहर गये दौहित्रको तीन दिनके लिये पूजा दे गये। नानाने दौहित्रसे कहा था कि भगवान् के भोग लगाकर ही खाना। भगवान‍्ने भोग नहीं खाया। लड़केने देखा भूखे मरना ठीक नहीं—छूरी खाकर मर जाना ठीक है। अपनेको मारनेके लिये छूरी उठायी—भगवान् प्रकट हो गये। ऐसे ही बहुत-से दृष्टान्त आते हैं—भगवान् शीघ्र मिल गये।

महात्मा और ईश्वरकी कृपासे शीघ्र लाभ हो जाता है। उत्तंकपर ईश्वरकी कृपा हुई। भगवान‍्ने स्वयं उसे समझाया, अपना प्रभाव दिखलाया। श्रद्धा तो थी नहीं—भगवान‍्ने कहा तब भी नहीं माना, कहा—विश्वरूप दिखलाओ नहीं तो शाप दूँगा। भगवान‍्ने विश्वरूप दिखला दिया। श्रद्धा हो गयी। सब काम हो गया। श्रद्धा तो नहीं थी पर धार्मिक पुरुष था, तपस्वी था, पापी तो नहीं था।

लौकिक उदाहरणमें कल रामकृष्ण परमहंसकी बात बतलायी थी। नास्तिकको एकदम विवेकानन्द बना दिया। कोई श्रद्धा नहीं थी। गौरांग महाप्रभुने बहुतोंको ऐसा बना दिया। जगाई-मधाई, धोबी आदिको भगवान् का भक्त बना दिया। वेश्या हरिदासको बिगाड़ने आयी थी और बन गयी भक्त, ऐसे उदाहरण तो बहुत आते हैं। श्रद्धा न हो तब भी तुरन्त विश्वास और तुरन्त प्राप्ति हो गयी। भगवान् की विशेष कृपाके बहुत उदाहरण आते हैं।

अहंकारके उदाहरण आते हैं। केनोपनिषद्का यक्षोपाख्यान-वायु, अग्नि, इन्द्रने अभिमान किया। इन्द्रको भगवान‍्ने उपदेश दिया, पहले श्रद्धा नहीं थी। अहंकारका नाश, श्रद्धाका होना और भगवान् की प्राप्ति—तीनों काम तुरन्त हो गये। इन्द्रके बाद अग्नि और वायुने भगवान् को जान लिया। भगवान् की विशेष दयासे इन लोगोंका अभिमान नष्ट हुआ। भगवान‍्ने दया करके ही अपना तत्त्व बतलाया। उनकी कोई चेष्टा श्रद्धाकी नहीं थी। भगवान‍्ने स्वयं ही दया करके प्रकट होकर उनको ज्ञान दिया। नियमसे तो सब बात होती ही है। भगवान् जब चाहें विशेष दया कर देते हैं।

हनुमान‍्जीकी भगवान‍्से भेंट होती है तब ब्राह्मणरूप लेकर आते हैं। वाल्मीकिरामायणमें विस्तारसे यह प्रसंग आता है। राम लक्ष्मणसे कहते हैं—यह ब्रह्मचारी विद्वान् है। इतनी बातें हमसे की, परन्तु व्याकरणकी कोई अशुद्धि नहीं आयी। भगवान‍्से वार्तालाप करके ही हनुमान‍्जीका भाव बदल गया, श्रद्धा हो गयी, प्राप्ति हो गयी।

बालिपर विशेष दया हुई, बालि कहता है—‘धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं’ श्रद्धा नहीं है। वाल्मीकि-रामायणमें विशेष वर्णन आता है। बालिने बहुत जवाब-सवाल किये। यहाँतक कह देता है कि मेरे सामने आकर युद्ध करते तो यमलोक भेज देता। धर्मसे, नीतिसे, युक्तिसे उसने रामकी बहुत निन्दा की। भगवान‍्में उसकी श्रद्धाका नाम-निशान नहीं है। भगवान‍्ने बहुत छिपे हुए शब्दोंमें उसको अपना प्रभाव दिखला दिया। बस, पहचान गया। पापी था, अश्रद्धालु था, पर क्षणभरमें श्रद्धा हो गयी। भगवान् की विशेष कृपा थी। वाल्मीकि-रामायण इतिहासमें प्रधान प्रमाण है ही। इस प्रसंगमें कई अध्याय हैं। खूब शास्त्रार्थ हुआ है। भगवान् उसका युक्तियोंसे ठीक उत्तर नहीं दे सके। उनकी इच्छा नहीं थी। इतना ही कहा—मुझ निर्दोषीको तुम दोष दे रहे हो। युक्तियाँ नहीं दीं। तर्कसे सिद्ध नहीं किया। ईश्वरत्वसे, प्रभावसे सिद्ध कर दिया। ईश्वरकी विशेष कृपाकी बात थी। क्षमाने श्रद्धा करा दी और अपनी प्राप्ति करा दी।

महात्माकी विशेष कृपाकी बात—गौरांग महाप्रभुका उदाहरण विस्तारसे मिलता है। विवेकानन्दपर श्रीरामकृष्ण परमहंसने कृपा की, नास्तिक था। नियमकी बात थोड़े ही थी। ऐसे ही हरिदासकी कृपा वेश्यापर हुई।

पिंगला वेश्या इतनी नीच थी। दत्तात्रेयजीके दर्शनमात्रसे उसकी बुद्धि बदल गयी और उसे भगवत्प्राप्ति हो गयी। महात्माओंके दर्शनसे, स्पर्शसे बहुतोंकी क्रिया बदल गयी हो और श्रद्धा होकर भगवत्प्राप्ति हो गयी—ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं। जाजलि और तुलाधार वैश्यकी बात—जाजलिकी तुलाधारमें कोई श्रद्धा नहीं थी। उनसे वार्तालाप हुआ, श्रद्धा नहीं बढ़ी। प्रभाव देखकर श्रद्धा हो गयी। उसकी अच्छी गति हुई।

जडभरतकी बातें सुनते ही रहूगण पालकीसे उतर पड़ा, क्षणभरमें श्रद्धा हो गयी। नौकामें महात्माके साथ दुर्व्यवहार करनेवालेकी तुरन्त श्रद्धा हो गयी। महात्माने आकाशवाणीसे कहा, इन्होंने मेरे साथ दर्शन, भाषण, स्पर्श सब ही तो कर लिया। ये महात्मा ही हो जायँ। उन पापियोंकी तुरन्त श्रद्धा हो गयी, उनका कल्याण हो गया।

दुर्वासाजीने अम्बरीषका प्रभाव देखा। पहले तो कृत्या पैदा की, पर भक्तका प्रभाव देखकर श्रद्धा हो गयी।

महात्माओंके गुण, प्रेम, प्रभावकी बातें सुननी, आज्ञापालन करना श्रद्धा उत्पन्न करनेका उपाय है। सत्यकामने आज्ञापालन की। पहले श्रद्धा कम होनेसे भी आज्ञापालनसे बढ़ गयी। ईश्वर और महात्माकी कृपासे, इनके संगसे, दर्शनसे ही श्रद्धा बढ़ जाय, ऐसा भी होता है। कोई-न-कोई हेतु तो होता ही है। महात्माओंमें श्रद्धाकी इच्छा हो तो महात्माओंमें जिनकी श्रद्धा है, उनका संग करनेसे श्रद्धा हो जाती है। किसीको तुरन्त हो जाती है, किसीको देरसे होती है। मनमें तो यह बात आती है कि इससे भी कोई विलक्षण उपाय है, जिससे क्षणभरमें श्रद्धा उत्पन्न हो जाय। ऐसी क्रिया करनेसे बहुत शीघ्र श्रद्धा हो जाय।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(गीता ४।३४)

उस ज्ञानको तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियोंके पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।

अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३।२५)

परन्तु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धि पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको नि:सन्देह तर जाते हैं।

आज्ञापालनसे श्रद्धा होना तो सामान्य बात है, डंकेकी चोट है। नयी बात भी है, श्रद्धा होनेमें श्रद्धाकी वृद्धिमें भी सहायक है।

श्रीस्वामीजी—अनुकूल बन जाय, कठपुतली बन जाय तो क्षणमें काम हो जाय।

उद्धवजीने आकर कहा—आपने मुझे गोपियोंको योग सिखलानेके लिये नहीं, अपितु उनसे प्रेम सीखनेके लिये भेजा था। मुझे तो अब गोपियोंकी चरणधूलि मिलती रहे। भगवान‍्ने क्या सिखलाया कि भक्तोंकी चरणधूलिसे ही कल्याण हो जाता है। कितनी ही बातें ऐसी हैं जिनको घुमा-फिराकर कहा जाता है। कितनी बातें तो ऐसी हैं जो अपने वशकी बात नहीं है। जैसे हृदयपर हाथ रख दिया।

अपने मनका पाजीपना ही बाधक है। महात्माओंकी आज्ञा—उद्देश्यका पालन करना ही उनकी परम सेवा है। मानसिक सेवा, मानसिक प्रणाम यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। आज्ञापालन करना, संकेतके अनुसार बन जाना—यह परम सेवा है। मनका पाजीपना ही तो इसमें बाधक है। उपाय है—भगवान‍्से प्रार्थना करना। हृदयसे प्रार्थना करें तो बन जाय। महात्मासे ही वाणीसे, मनसे प्रार्थना करनेसे भी काम बन जाता है। शरण हो जाना—अनुकूल हो जाना। पहले भाव हो फिर उसके अनुसार क्रिया होने लगे। भाव न हो तो क्रियासे भाव पैदा हो जाय। बीजसे वृक्ष, वृक्षसे बीज—दोनों अन्योन्याश्रित हैं। दोनों चीज जातिसे एक ही है। उत्तम भावसे उत्तम आचरण पैदा होते हैं। उत्तम आचरणसे उत्तम भाव बढ़ते हैं (गीता ४। ३४)। उत्तम क्रियासे उत्तम भाव पैदा होता है।

भीतरमें ऊँचा भाव नहीं हो तो भी ऊँचे भावकी क्रिया करनी चाहिये। उत्तम क्रिया करनेसे उत्तम भावकी उत्पत्ति होगी। उत्तम भाव ही बलवान् है। क्षणभरमें भी ये बातें हो सकती हैं। महात्माकी कृपासे, ईश्वरकृपासे तो हो ही सकती है। महात्माकी कृपा जिसपर होती है, उसको तो बिना हेतु ही माननी चाहिये। हेतुसे होती है तो हेतु प्रकट करना तो हमारे प्रयत्नपर है। हमारा ऐसा प्रयत्न होना चाहिये, जिस क्रियाके करनेसे हमारेपर उनकी पूर्ण दया हो जाय।

वह बात बुद्धिमें स्वयं ही पैदा हो तब ठीक है। उसकी गर्ज हो तब वह पैदा हो। महात्मा कैसे दबें, यह सोचनेकी बात है। मक्खन कोमल है, थोड़े तापसे ही तप जाता है। महात्माका हृदय उससे भी कोमल है। वह कैसे दबे यही चेष्टा करें। किस प्रकारसे द्रवीभूत होते हैं—प्रार्थना करनेसे, रोनेसे, आज्ञापालनसे। ऐसा कैसे हो—झूठे रोवें तो माँ-बाप समझते हैं कि नाटक करता है। अपने हृदयमें दु:खसे व्याकुल हो, तब सच्चा रोना आये। मनमें जिज्ञासा हो तो वह जिज्ञासा स्वयं ही युक्ति खोज लेती है। इच्छा प्रबल होनी चाहिये। भूखा आदमी स्वयं ही तृप्तिका उपाय सोचता है। प्यासा आदमी पानीके लिये स्वयं ही चेष्टा करता है। ऐसे ही मनमें भूख होनी चाहिये। महात्माओंकी दया क्षणभरमें हो जाय, उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। धनी दयालुको किसीका सच्चा संकट समझमें आ जाय तो फिर उसके कार्यको सिद्ध होनेमें कितनी देर लगती है। नया आदमी, जान न पहचान, केवल धनी दयालुके सामने दु:ख प्रस्तुत हो गया। नौका उलट गयी, दयालु तैराक है। दया, शक्ति दोनों है। उस समय उस देखनेवालेकी क्या दशा होती है। इसी प्रकार संसारमें कोई व्याकुल आदमी हो तो उसका उद्धार होते क्या देर लगती है।

एक आदमीने महात्मासे कहा—‘मुझे बहुत भारी इच्छा है, क्षण-क्षण भारी है।’ महात्माने कहा—‘ऐसी बात होती तो भगवान् तुमको मिल जाते।’ वह बोला—‘नहीं महाराज, क्षणभरमें मिलने चाहिये।’ ‘अच्छा चलो।’ तालाबमें नहाने ले गये। थोड़ी दूर ले जाकर महात्माने उसे पानीमें डुबाकर ऊपरसे दबा दिया, वह तड़फड़ाने लगा। महात्माने बाहर निकालकर समझाया। जैसे जलसे निकलनेके लिये तुम्हें क्षण-क्षण भारी मालूम देता था, ऐसी स्थिति तुम्हारी हो जाती तो संसार-समुद्रसे भी भगवान् तुम्हें निकाल देते।

राजा जनकने एक क्षणमें ज्ञान करा देनेकी घोषणा की, जो ऐसा नहीं करा पाते, राजा उन ब्राह्मणोंको कैद कर देते थे। अष्टावक्र आये। राजा बोले—‘घोड़ेके एक पागड़ेमें पैर हो और दूसरे पागड़ेमें मैं पैर रखूँ, इतनी देरमें ज्ञान होना चाहिये।’ अष्टावक्र बोले—इतनी देरमें तो तीन आदमियोंको ज्ञान हो जायगा। राजा तैयार हो गये। अष्टावक्र बोले—मनको मुट्ठीमें पकड़ो, पात्र बनो।

ईश्वर और महात्माकी कृपासे एक क्षणमें तो लाखोंका उद्धार हो सकता है। हमलोग वास्तवमें आतुर हों तो सब हो सकता है। धनी-दयालुके सामने दूसरेका दु:ख आ पड़े, फिर उसकी क्या दशा होती है। आगमें जलनेवाला—त्राहि माम्! पुकार रहा है। आतुर दु:खीको देखकर दयालु और शक्तिवान् निकाल ही देगा। महात्मा दयालु हैं, शक्तिवाले हैं पर हम दु:खी नहीं हैं, चैनसे हैं। उनको क्या कहें। वास्तवमें जिज्ञासा कहाँ? मुँहमें तो इच्छा है, हृदयमें नहीं है।

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