हमारा असली घर
श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् कहते हैं—
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
(गीता १५। ७)
‘इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा (स्वयं) मेरा ही सनातन अंश है।’
भगवान्के ही अंश होनेसे हम सब-के-सब भगवान्के ही घरके हैं। हमारा घर संसारमें नहीं है, इसीलिये हम चौरासी लाख योनियोंमें जाते हैं, स्वर्ग-नरकादि लोकोंमें जाते हैं, कहीं ठहरते नहीं। अगर यहाँ हमारा घर होता तो हम यहीं रहते, कहीं जाते नहीं। परन्तु परमात्माकी प्राप्ति होनेपर फिर जन्म-मरण नहीं होता; क्योंकि हम परमात्माके ही घरके हैं। इसलिये परमात्माकी प्राप्ति तो हमारे घरकी बात है, पर संसारकी प्राप्ति हमारे घरकी बात नहीं है। जबतक असली घरकी प्राप्ति नहीं होगी, तबतक अनेक घरोंमें भटकना पड़ेगा। लाखों-करोड़ों वर्ष बीत जायँ तो भी भटकना बन्द नहीं होगा। परन्तु परमात्माके घर पहुँचते ही हमारा भटकना सदाके लिये बन्द हो जायगा।
हम परमात्माके हैं और परमात्मा हमारे हैं। हम संसारके नहीं हैं और संसार हमारा नहीं है। हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ है। संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं। इसीलिये हम संसारमें कभी एक योनिमें नहीं रहते। इतना ही नहीं, एक योनिमें भी हम पहले बालक होते हैं, फिर जवान होते हैं, फिर बूढ़े होते हैं। एक क्षण भी स्थिर नहीं रहते। प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, अवस्था आदिमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। कारण कि संसारमें कुछ भी स्थायी नहीं है। स्थायी रहनेवाली वस्तु भगवान्के घरकी ही है।
संसार पराया घर है। हमें परायी जगह छोड़नी है और अपनी जगह पहुँचना है। साधकोंके हृदयमें प्राय: यह बात जँची रहती है कि हम संसारके हैं और परमात्माको प्राप्त करना है। वास्तवमें हम परमात्माके ही हैं और परमात्माकी प्राप्ति स्वत: है। अगर पहलेसे ही यह धारणा हो जाय कि हम संसारके नहीं हैं, हम तो परमात्माके हैं (जो वास्तवमें है) तो परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम हो जायगी।
संसारका सम्बन्ध अनित्य है, पर भगवान्का सम्बन्ध नित्य है। लाखों-करोड़ों वर्ष अथवा अनन्त वर्ष बीत जायँ तो भी भगवान्के साथ हमारा सम्बन्ध ज्यों-का-त्यों रहेगा। परन्तु संसारका सम्बन्ध छूटता ही रहेगा। यह क्षणमात्र भी स्थिर नहीं है। जीव संसारको अपना मानकर कभी वृक्ष बनता है, कभी पशु बनता है, कभी पक्षी बनता है, कभी भूत-प्रेत बनता है, कभी पिशाच बनता है, कभी देवता बनता है, कभी पितर बनता है; क्योंकि जो अपने घरका नहीं होगा, वह भटकनेके सिवाय और क्या करेगा?
हम परमात्माके हैं, इसलिये उनकी प्राप्तिमें उत्साह होना चाहिये। हम उनके हैं, वे हमारे हैं। संसारमें शरीर बदलता है। तो माँ-बाप भी बदलते हैं, भाई भी बदलते हैं, स्त्री भी बदलती है, पुत्र भी बदलता है। परन्तु भगवान् कभी नहीं बदलते, उनका सम्बन्ध कभी नहीं बदलता। इसलिये उनकी प्राप्ति करना अपने घरपर पहुँचना है। अत: साधकको यह बात निश्चित कर लेनी चाहिये कि यह संसार पराया घर है, अपना घर नहीं है। संसारमें जो मोह हुआ है, आसक्ति हुई है, कामना हुई है वे सब मिटनेवाली चीजें हैं, पर भगवान्का सम्बन्ध मिटनेवाला है ही नहीं। इसको हम भूल जायँ तो भी यह मिटेगा नहीं।
इतने बड़े संसारमें हमारे लायक कोई वस्तु है ही नहीं। अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी वस्तु हमारी नहीं है और हम किसीके नहीं हैं—यह बात साधकको दृढ़तासे धारण कर लेनी चाहिये; क्योंकि यह वास्तवमें है। हम परमात्माके हैं, अत: परमात्माकी प्राप्ति करना नया काम नहीं है। नया काम तो संसारकी प्राप्ति करना है। संसारमें नये-नये शरीर मिलते ही रहते हैं। कभी हम मनुष्य बनते हैं, कभी पशु बनते हैं, कभी पक्षी बनते हैं, कभी जलचर होते हैं, कभी थलचर होते हैं, कभी नभचर होते हैं; कभी जरायुज होते हैं, कभी स्वेदज होते हैं, कभी अण्डज होते हैं, कभी उद्भिज्ज होते हैं। जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी, तबतक इस प्रकार परिवर्तन होता ही रहेगा। हम संसारके नहीं हैं, हम परमात्माके हैं—यह ज्ञान मनुष्यको ही होता है। अन्य योनियोंमें यह ज्ञान नहीं है कि हम किसके हैं! इसलिये ‘मैं तो परमात्माका हूँ’—यह बात साधकमें स्वत:-स्वाभाविक होनी चाहिये।
परमात्माकी प्राप्ति कठिन नहीं है। कठिन तो संसारकी प्राप्ति है। कारण कि जो वस्तु परायी होती है, उसीकी प्राप्ति कठिन होती है। अपनी वस्तुकी प्राप्तिमें क्या कठिनता? बालकके लिये माँकी गोदीमें जाना क्या कठिन है? भगवान् हमारे वास्तविक माता-पिता हैं—‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’, ‘माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दन:।’ संसारमें तो प्रत्येक योनिमें नये-नये माँ-बाप, भाई-बन्धु, कुटुम्बी बनाने पड़ते हैं, पर भगवान् नये नहीं बनाने पड़ते। भगवान् तो वे-के-वे ही रहते हैं। वे सदा ही हमारे हैं और हम सदा ही उनके हैं। यही हमारी असली पहचान है।
संसारकी कोई भी वस्तु हमारी नहीं है। जो हमारे नजदीक-से-नजदीक है, वह शरीर भी हमारा नहीं है। शरीरमें रहनेवाले मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण आदि भी हमारे नहीं हैं। नजदीक-से-नजदीक शरीरसे लेकर दूर-से-दूर ब्रह्मलोकतक कोई भी वस्तु हमारी नहीं है। हम ब्रह्मलोकतक चले जायँ तो भी वहाँसे लौटकर आना पड़ता है—‘आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन’ (गीता ८। १६)। वहाँसे लौटकर आनेका कारण यही है कि हम वहाँके नहीं हैं और वे हमारे नहीं हैं। हम भगवान्के अंश हैं, संसारके नहीं, इसलिये संसार छूट जाता है। बड़ी मेहनतसे कमाया हुआ धन छूट जाता है। बनाया हुआ मकान छूट जाता है। कुटुम्ब-परिवार छूट जाता है। कारण कि यह हमारी वस्तु नहीं है। यह हमारा देश नहीं है। यह परदेश है। हम स्वयं अपरिवर्तनशील हैं; अत: जिसमें परिवर्तन नहीं होता, वही हमारा देश है। हमारा देश वह है, जिसको भगवान्ने अपना धाम बताया है—
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥
(गीता १५। ६)
‘उस परमपदको न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसारमें नहीं आते, वही मेरा धाम है।’
जो भगवान्का धाम है, वही हमारा धाम है। हम उस धामके हैं, यहाँके नहीं हैं। यहाँ तो हम आये हैं। आया हुआ आदमी कबतक रहेगा? मुसाफिर कितने दिन ठहरेगा? जबतक हम अपने असली धाममें नहीं जायँगे, तबतक हमारी मुसाफिरी चलती ही रहेगी, मिटेगी नहीं।
भगवान् अपने हैं और सब कुछ पराया है। परायी वस्तुको हम अपने पास कबतक रखेंगे? जो वस्तु हमारी है, वही हमारे पास रहेगी। जो वस्तु हमारी नहीं है, वह हमारे पास कैसे रहेगी? संसारकी वस्तुको अपने पासमें रखनेकी ताकत किसीमें नहीं है।
एक वैश्य था और एक राजपूत था। वैश्य बलवान् था और राजपूत कमजोर था। राजपूत उस वैश्यको लूटने लगा। वैश्यने राजपूतको नीचे पटक दिया और उसके ऊपर चढ़ गया। राजपूतने पूछा कि तू कौन है? वह बोला कि मैं वैश्य हूँ। यह सुनते ही राजपूतको जोश आ गया कि अरे! एक बनिया मेरेको दबा रहा है! उसने पट वैश्यको नीचे दबा दिया। इसी तरह यह संसार हमारेको दबा रहा है। हमारे मनमें उत्साह होना चाहिये कि हम तो भगवान्के अंश हैं, नित्य-निरन्तर रहनेवाले हैं और संसार प्रकृतिका है, क्षणभंगुर और परिवर्तनशील है, फिर संसार हमारेको कैसे दबा सकता है! वास्तवमें हम संसारसे दबे हुए नहीं हैं, प्रत्युत अपनेको दबा हुआ (कमजोर) मान लिया है। संसारकी कोई भी वस्तु ठहरती नहीं। न शरीर ठहरता है, न सुख ठहरता है, न कुटुम्ब ठहरता है, न धन ठहरता है, न विद्या ठहरती है, न योग्यता ठहरती है, न बल ठहरता है। कोई वस्तु ठहर सकती ही नहीं। जो वस्तु कभी ठहरती ही नहीं, उससे हम क्यों दबें? उसके गुलाम क्यों बनें?
संसारमें अपना कोई नहीं है। केवल भगवान् और उनके भक्त—ये दो ही अपने हैं—
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
(मानस, उत्तर० ४७। ३)
इन दोनोंकी बात हमें माननी चाहिये। भगवान् कहते हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७) और भक्त कहते हैं—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी॥’ (मानस, उत्तर० ११७। १)। परन्तु अपनेको संसारका मानकर हम ठगाईमें आ गये! अनादिकालसे भगवान्के होते हुए भी हम ठगाईमें आकर संसारके बन गये और अपने असली घरको भूल गये! इसलिये गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि हम किस घरके हैं?
हमारी जाति और शरीर-संसारकी जाति परस्पर मिलती नहीं। हम अविनाशी हैं और शरीर-संसार नाशवान् हैं। हम अपरिवर्तनशील हैं और शरीर-संसार निरन्तर बदलनेवाले हैं। हमारी जाति तो भगवान्के साथ मिलती है। हम भगवान्की जातिके हैं और भगवान् हमारी जातिके हैं। हम भगवान्की बिरादरीके हैं। हम संसारके नहीं हैं।