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मुक्ति और प्रेम

परमात्माके अन्तर्गत जीव है और जीवके अन्तर्गत संसार है। कारण कि संसारकी सत्ता जीवके अधीन है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७। ५) और जीवकी सत्ता परमात्माके अधीन है—‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत:’ (गीता १५। ७)। जब जीव संसारको अपनेसे अधिक महत्त्व देता है, तब वह बँध जाता है और जब अपनेको संसारसे अधिक महत्त्व देता है, तब वह मुक्त (स्वरूपमें स्थित) हो जाता है। परन्तु जब वह अपनेसे भी अधिक परमात्माको महत्त्व देता है, तब वह भक्त (प्रेमी) हो जाता है।

जबतक जीव शरीर-संसारको अपनेसे भी अधिक महत्त्व देता है, तबतक उसका अभाव (दारिद्रॺ) नहीं मिटता। उसको अनन्त ब्रह्माण्डोंका आधिपत्य मिल जाय तो भी उसका अभाव बना रहता है। अभाव होनेसे उसके जीवनमें दो बातें रहती हैं—मिली हुई वस्तुमें ममता और जो नहीं मिली है, उसकी कामना। ममता और कामनाके रहते हुए मुक्ति नहीं होती और मुक्ति हुए बिना अभाव नहीं मिटता। जब जीव अपनेको संसारसे अधिक महत्त्व देता है अर्थात् उसने जितनी सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और नि:सन्देहतासे शरीरकी सत्ता-महत्ता मानी है, उतनी ही सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और नि:सन्देहतासे स्वयं (स्वरूप)-की सत्ता-महत्ता मान लेता है और अनुभव कर लेता है, तब उसके जीवनमें अभावका सर्वथा अभाव हो जाता है। अभावका अभाव होनेपर प्राप्त वस्तु, परिस्थिति आदिमें ममता नहीं रहती। अप्राप्तकी कामना मिट जाती है। भोग और संग्रहकी रुचिका नाश हो जाता है। प्राप्त वस्तुका दुरुपयोग नहीं होता। मृत्युका भय मिट जाता है। फिर जीवन-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुएँ उसको समयसे पहले ही प्राप्त होने लगती हैं; जैसे—जन्मसे पहले माँका दूध प्राप्त होता है। लोभ न रहनेसे वस्तुएँ उसके पास आनेके लिये लालायित रहती हैं।

एक ही दोष अथवा गुण स्थानभेदसे अनेक रूपसे प्रकट होता है। शरीर (अनित्य, नाशवान्)-को अपनेसे अधिक महत्त्व देना अर्थात् शरीरको अपना स्वरूप मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति उत्पन्न होती है। अपने चेतनस्वरूप (नित्य, अविनाशी)-को शरीरसे अधिक महत्त्व देना मूल गुण है, जिससे सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति प्रकट होती है। अपनेको शरीरसे अधिक महत्त्व देनेका तात्पर्य है कि हमारी सत्ता शरीरके अधीन नहीं है अर्थात् शरीरके बिना भी हम रह सकते हैं और रहते हैं, जी सकते हैं और जीते हैं। शरीरके सम्बन्धसे हम बँधते हैं और सम्बन्ध-विच्छेदसे मुक्त होते हैं। शरीर संसारसे अभिन्न है; अत: एक शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे संसारमात्रके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है।

जब जीव परमात्माको अपनेसे भी अधिक महत्त्व देता है अर्थात् वह जिस सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और नि:सन्देहतासे शरीरको अपना और अपने लिये मानता है, उसी सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और नि:सन्देहतासे परमात्माको अपना और अपने लिये मान लेता है, तब वह भक्त (प्रेमी) हो जाता है। परमात्माको अपनेसे भी अधिक महत्त्व देनेसे मुक्तिका रस भी फीका हो जाता है!

परमात्मा सम्पूर्ण संसारके परम प्रकाशक, परम आधार, परम आश्रय और परम अधिष्ठान हैं। जीव उस परमात्माका ही अंश है। जो अपनेसे अभिन्न है, उस परमात्माको अपनेसे अलग मानना और जो अपनेसे भिन्न है, उस शरीर-संसारको अपना और अपने लिये मानना सम्पूर्ण दोषोंका मूल है। परमात्माको अपना मानना सत् का संग है और शरीर-संसारको अपना मानना असत् का संग है। जो मिला है और बिछुड़ जायगा, उस शरीर-संसारको अपना माननेसे ही जो वास्तवमें अपना है, वह अपना नहीं दीखता। इसीका परिणाम है कि मनुष्यको अपने जीवनमें अशान्ति, दु:ख, अभाव, नीरसता, पराधीनता, बन्धन आदि अनेक दोषोंका अनुभव होता है। जबतक मनुष्यको शरीर अपना और अपने लिये प्रतीत होता रहेगा, तबतक वह कितना ही साधन कर ले, तपस्या कर ले, अभ्यास कर ले, श्रवण-मनन-निदिध्यासन कर ले, उसको परमशान्ति नहीं मिलेगी, उलटे उसमें अभिमान पैदा हो जायगा कि मैं इतना जानकार हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं ऊँचा साधक हूँ आदि। अभिमानसे सब दोष उत्पन्न होते हैं और पुष्ट होते हैं। तात्पर्य है कि शरीरको अपना मानकर वह कुछ भी करेगा, उससे उसके अभावकी पूर्ति नहीं होगी। इसलिये यह सिद्धान्त है कि जो मिला है और बिछुड़ जायगा, वह हमारे कुछ काम नहीं आ सकता। हाँ, उसके द्वारा दूसरोंकी सेवा कर सकते हैं; क्योंकि वह दूसरोंका तथा दूसरोंके लिये ही है। सेवा अथवा त्यागके सिवाय उसका और कोई उपयोग नहीं है।

अनेक शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे, बहुत व्याख्यान सुननेसे, बहुत-सी बातें जान लेनेसे ही जीवनमें दु:ख, अशान्ति, अभाव, पराधीनता आदिका नाश नहीं हो सकता। उससे मनुष्यकी बुद्धि बलवती बन सकती है, पर सम (स्थिर) नहीं हो सकती। बुद्धि बलवती होनेसे मनुष्य अच्छा व्याख्यान दे सकता है, पुस्तकें लिख सकता है, अनेक विद्याएँ सीख सकता है, शास्त्रार्थमें दूसरेको हरा सकता है, बड़े-बड़े प्रश्नोंका उत्तर दे सकता है, पर पराधीनतासे नहीं छूट सकता। अगर मनुष्य चाहे तो वह शास्त्रोंके अध्ययनके बिना भी यह अनुभव कर सकता है कि जो वस्तु मिली है और बिछुड़ जायगी, वह अपनी और अपने लिये नहीं है। उसको अपनी और अपने लिये न माननेपर ममता और कामना नहीं रहती। ममता और कामना न रहनेपर बुद्धि सम हो जाती है। बुद्धि सम होनेसे असत् से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् शरीर-संसारकी सत्ता, महत्ता और अपनापन सर्वथा नहीं रहता।

जब मनुष्य अपनेको अधिक महत्त्व देता है, तब वह मुक्त हो जाता है। मुक्त होनेपर ‘मैं मुक्त हूँ’ ऐसा एक सूक्ष्म अहम‍् (अभिमानशून्य अहम‍्) रह जाता है, जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं। परन्तु जब वह अपनेसे भी परमात्माको अधिक महत्त्व देता है, तब उसका वह सूक्ष्म अहम‍् प्रेममें परिणत हो जाता है, आत्मरति भगवद्‍रतिमें परिणत हो जाती है*।

* ज्ञानमार्गी अपनेको अधिक महत्त्व देता है और भक्तिमार्गी भगवान‍्को अधिक महत्त्व देता है।

प्रेमकी प्राप्ति होनेपर सभी भेद मिट जाते हैं। मुक्ति तो साधन है, पर प्रेम साध्य है। प्रेमकी प्राप्तिमें ही मानव-जीवनकी वास्तविक पूर्णता है, सफलता है।

मुक्ति होनेपर जिज्ञासाकी पूर्ति हो जाती है और दु:खोंकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है; परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर न तो प्रेमकी पूर्ति होती है,न क्षति होती है और न निवृत्ति ही होती है, प्रत्युत उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है—‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ (नारद० ५४)। इस प्रेमकी प्राप्ति भगवान‍्में अपनापन करनेसे होती है—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोइ।’ कारण कि भगवान‍्ने भोग और मोक्ष तो मनुष्यके लिये बनाये हैं, पर मनुष्यको अपने लिये बनाया है कि वह मेरेसे प्रेम करे, मैं उससे प्रेम करूँ। भगवान‍्ने भोगके लिये क्रिया-शक्ति दी है,मोक्षके लिये विवेक दिया है और अपने लिये प्रेम दिया है। प्रेमकी भूख भगवान‍्में भी है—‘एकाकी न रमते।’ प्रेम भगवान‍्को भी तृप्त करनेवाला है। इसलिये प्रेम सबसे ऊँची चीज है। प्रेमसे आगे कुछ नहीं है।

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