त्यागसे कल्याण
भगवान् बिना हेतु स्नेह करनेवाले अर्थात् स्वाभाविक ही कृपा करनेवाले हैं। वे भगवान् विशेष कृपा करके जीवको अपना उद्धार करनेके लिये मानवशरीर देते हैं—‘कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥’ (मानस, उत्तर० ४४। ३)। जीव अपना उद्धार कैसे करे? जैसे जलाशयमें पड़ा हुआ कोई व्यक्ति अपना उद्धार करना चाहे तो वह जलको अपने हाथोंसे और लातोंसे मारता चला जाय। ऐसा करनेसे वह तर जायगा। परन्तु वह ऐसा न करके जलको हाथोंसे लेने लगे तो वह निश्चित ही डूब जायगा। ठीक यही बात संसार-समुद्रमें पड़े हुए जीवपर भी लागू होती है। अगर वह संसारका त्याग करने लगे तो वह तर जायगा, उसका उद्धार हो जायगा। परन्तु वह संसारसे लेना शुरू कर दे तो वह डूब जायगा।
जो संसारसे अपना उद्धार चाहता है, उसको यह अवश्य ही मान लेना चाहिये कि हमारेको जो कुछ मिला है, जो वस्तु, योग्यता और बल मिला है, वह सब-का-सब केवल सेवा करनेके लिये मिला है। कारण कि जो मिला है, वह अपना नहीं है। अगर कारणकी दृष्टिसे देखें तो वह प्रकृतिका है, कार्यकी दृष्टिसे देखें तो वह संसारका है और मालिककी दृष्टिसे देखें तो वह भगवान्का है। वह अपना नहीं है—यह सच्ची बात है। जो मिला है, वह अपना उद्धार करनेके लिये मिला है। उद्धार तब होगा, जब हम मिले हुएको अपना न मानें, उससे सुख न लें। तात्पर्य है कि जो मिला है, वह केवल त्याग करनेके लिये अर्थात् दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही मिला है और ऐसा करनेसे ही हमारा कल्याण होगा।
बाहरसे वस्तुका त्याग करनेसे कल्याण नहीं होता। कल्याण भीतरके भावसे होता है अर्थात् भीतरसे वस्तुओंका त्याग करनेसे, उनके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे कल्याण होता है। जड़ वस्तुओंका सम्बन्ध ही पतन करता है और उनसे सम्बन्ध-विच्छेद ही उद्धार करता है। स्वयं चेतन होते हुए भी जीवने जड़को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लिया—यही बन्धन है। इसने जड़ शरीरको सत्ता दे दी कि ‘शरीर है’, उसको महत्ता दे दी कि ‘शरीरके बिना सुख नहीं मिल सकता’ और उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लिया कि ‘मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है और मेरे लिये है’।
हमारेको जो कुछ मिला है, वह सब बिछुड़नेवाला ही मिला है। शरीर मिला है तो बिछुड़नेवाला मिला है, कुटुम्ब मिला है तो बिछुड़नेवाला मिला है, धन मिला है तो बिछुड़नेवाला मिला है, योग्यता मिली है तो बिछुड़नेवाली मिली है, बल मिला है तो बिछुड़नेवाला मिला है। बिछुड़नेवाली वस्तुका त्याग कर दें तो स्वत: कल्याण होता है—यह भगवान्की बड़ी विलक्षण कृपा है! भगवान् मिले हुए और बिछुड़नेवाले नहीं हैं, प्रत्युत सदासे ही मिले हुए हैं, सदा मिले हुए ही रहते हैं, कभी बिछुड़ते नहीं। भगवान्के सिवाय जो कुछ है, वह सब-का-सब बिछुड़नेवाला है—
आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥
(गीता ८। १६)
‘हे अर्जुन! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्तीवाले हैं अर्थात् वहाँ जानेपर पुन: लौटकर संसारमें आना पड़ता है; परन्तु हे कौन्तेय! मुझे प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।’
मनुष्यशरीर केवल त्याग करनेके लिये ही मिला है। त्यागकरनेसे अपने घरका कुछ भी खर्च नहीं होगा और कल्याण मुफ्तमें हो जायगा! अत: मिली हुई वस्तुका हृदयसे त्याग कर दें कि यह हमारी नहीं है और हमारे लिये भी नहीं है तो कल्याण हो जायगा—यह पक्का सिद्धान्त है। त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२। १२); क्योंकि शरीर, योग्यता, बल, बुद्धि आदि जो कुछ मिला है, त्याग करनेके लिये ही मिला है। त्याग नहीं करेंगे तो भी वे बिछुड़ेंगे ही। साथमें रहनेवाली कोई भी चीज नहीं है।
दान-पुण्य करते हैं तो लोग समझते हैं कि रुपयोंसे कल्याण होता है। वास्तवमें रुपयोंसे कल्याण नहीं होता, प्रत्युत रुपयोंमें जो मोह है, उसके त्यागसे कल्याण होता है। अगर बाहरसे रुपयोंका त्याग करनेसे ही कल्याण होता तो धनी आदमी कल्याण कर लेते और गरीबोंका कल्याण होता ही नहीं।
एक मार्मिक बात है। संसार सत् है या असत्, नित्य है या अनित्य—इस विषयमें बड़ा मतभेद है। परन्तु संसारका सम्बन्ध असत् है, अनित्य है—इस विषयमें कोई मतभेद नहीं है। जड़-चेतनका सम्बन्ध असत् है; क्योंकि जड़-चेतनका सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। अत: संसारसे माने हुए सम्बन्धका ही त्याग करना है। असत् अपना नहीं है—यही असत् का त्याग है। असत् के त्यागसे सत्-तत्त्व परमात्माकी प्राप्ति स्वत: हो जायगी। शरीर बिछुड़ जायगा तो मौत हो जायगी, पर उसके सम्बन्धका त्याग कर दें तो मौज हो जायगी! छूटनेवालेको हम अपनी मरजीसे छोड़ दें तो आनन्द हो जायगा, पर वह जबर्दस्ती छूटेगा तो रोना पड़ेगा।
असत् के त्यागका उपाय है—हमारे पास जो वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य है, उसका प्रवाह हमारी तरफ न होकर संसारकी तरफ हो जाय अर्थात् वह संसारकी ही सेवामें लग जाय। यह कर्मयोग है। विवेक-विचारके द्वारा असत् से ऊँचे उठ जायँ, उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर लें तो यह ज्ञानयोग है। सब कुछ भगवान्का मान लें और भगवान्को अपना मान लें तो यह भक्तियोग है। ये तीनों योग जीवका उद्धार करनेवाले हैं। तीनों योगोंमें खास बात है—त्याग। त्याग करनेके लिये ही हमारेको यह मनुष्यशरीर मिला है। त्याग यही करना है कि वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है। यह सम्बन्ध चाहे सेवा करके छोड़ दें, चाहे विचारपूर्वक छोड़ दें, चाहे भगवान्के शरण होकर छोड़ दें। गुणोंका संग ही जन्म-मरणमें कारण है—‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३। २१)। गुणोंका संग छूट जाय तो फिर जन्म-मरण कैसे होगा?
माना हुआ सम्बन्ध न माननेसे छूट जाता है—यह नियम है। संसारका सम्बन्ध माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं। जैसे अमावस्याकी रात्रि और सूर्यका परस्पर सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, ऐसे ही जड़ और चेतनका परस्पर सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। अत: जड़-चेतनका सम्बन्ध केवल माना हुआ है और न माननेसे छूट जायगा, जो कि वास्तवमें पहलेसे ही छूटा हुआ है। इस असत्य सम्बन्धकी मान्यता छोड़नेमें मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है। इसको छोड़नेकी योग्यता भी पापी-पुण्यात्मा, दुष्ट-सज्जन सबमें है। इसमें सब-के-सब पात्र हैं, कोई कुपात्र नहीं है। केवल त्यागका भाव चाहिये और कुछ नहीं। जब हम अपने मनसे ही सब कुछ छोड़ देंगे तो फिर बन्धन कैसे रहेगा? असत्यको सत्य मानने और उसको महत्त्व देनेके कारण ही उसको छोड़ना कठिन प्रतीत होता है। मिट्टीके लौंदेको जहाँ फेंको, वहीं चिपक जाता है। दीवारपर फेंको तो दीवारको पकड़ लेता है। परन्तु रबरकी गेंदको फेंको तो वह कहीं चिपकती नहीं। हमें रबरकी गेंद बनना है, मिट्टीका लौंदा नहीं। चिपकना ही बन्धन है और न चिपकना, निर्लेप रहना ही मुक्ति है।
जो पकड़ा है, अपना मान रखा है, उसको छोड़ दें अर्थात् अपनापन हटा लें तो मुक्ति हो जायगी। वास्तवमें संसार छूटा हुआ ही है। केवल थोड़े-से रुपये, थोड़ी-सी जमीन-जायदाद, थोड़े-से व्यक्ति पकड़े हुए हैं, बाकी सब तो छूटा हुआ है, सबसे मुक्ति है। अरबों रुपयोंसे मुक्ति है, अरबों वस्तुओंसे मुक्ति है, अरबों आदमियोंसे मुक्ति है। केवल थोड़े-से रुपये, वस्तु, व्यक्ति आदि पकड़े हुए हैं, उतना ही बन्धन है। उतना छोड़ दें तो फिर बन्धन कहाँ रहा? तात्पर्य है कि मुक्ति कठिन नहीं है, बहुत सुगम है। वस्तु-व्यक्तिके सम्बन्धसे हम सुख लेना चाहते हैं—इस सुख-लोलुपताके कारण मुक्ति कठिन मालूम देती है। वास्तवमें सुख बहुत थोड़ा है और दु:ख बहुत अधिक है—
‘अनाराम’ कहे सुख एक रती,
दुख मेरु प्रमाण ही पावता है॥
गीताने तो संसारको दु:खालय कहा है—‘दु:खालयम्’ (८।.१५)। संसार दु:खोंका ही घर है, यहाँ सुखको ढूँढ़ना व्यर्थ है। रामायणमें भी आया है—‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तर० ४४। १)। यह मनुष्यशरीर सुख लेनेके लिये है ही नहीं। जहाँ सुख लिया, वहीं फँसे! मानमें, बड़ाईमें, आराममें, नीरोगतामें, आलस्यमें, प्रमादमें, खानेमें, सोनेमें, जिसमें सुख लेंगे, उसीमें फँस जायँगे। परन्तु ये सब चीजें छूटनेवाली हैं, रहनेवाली नहीं हैं। जो चीज बिछुड़नेवाली है, उससे अपनापन हटा लें—यही मुक्ति है। यह अपनापन अपनेसे न छूट सके तो भगवान्को पुकारो। वे छुड़ा देंगे। व्याकुल होकर, दु:खी होकर भगवान्से कहो कि हे नाथ! शरीर-संसारसे मेरापन छूटता नहीं, क्या करूँ! तो भगवान्की कृपासे छूट जायगा।
संसारका कोई भी सुख रहता नहीं—यह सबका अनुभव है। इसका कारण यह है कि वह सुख हमारा है ही नहीं। अगर हमारा सुख होता तो वह सदा रहता। हमारा सुख तो निजानन्द है। ‘पर’से होनेवाला सुख परानन्द है और ‘स्व’से होनेवाला सुख निजानन्द है। परानन्द ठहरेगा नहीं और निजानन्द जायगा नहीं। निजानन्द हमारा खुदका है, इसलिये एक बार अनुभवमें आनेपर फिर कभी हमारेसे अलग नहीं होता। परानन्दकी आसक्तिके कारण ही निजानन्दका अनुभव नहीं होता।
सांसारिक सुखकी आसक्ति न छूटे तो निराश नहीं होना चाहिये, प्रत्युत व्याकुल होकर भगवान्को पुकारना चाहिये कि ‘हे नाथ! हे प्रभो! यह मेरेसे छूटती नहीं, क्या करूँ? आप बचाओ तो बच सकता हूँ’—
हौं हारॺौ करि जतन बिबिध बिधि
अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब
प्रेरक प्रभु बरजै॥
(विनय० ८९)
आप सबके प्रेरक हैं। आपकी प्रेरणासे छूट जायगी। आपके लिये तो मामूली बात है—‘काम हमारे जमत है, रमत तिहारी राम।’ ‘आपका तो खेल है, पर हमारी आफत मिट जायगी।’
एक मार्मिक बात है कि सांसारिक सम्बन्धको छोड़नेकी इच्छा करनेसे वह छूटता नहीं, प्रत्युत और दृढ़ होता है। कारण कि हम छोड़ना चाहते हैं तो वास्तवमें उसको सत्ता देते हैं अर्थात् उसकी सत्ता मानते हैं, तभी छोड़नेकी इच्छा करते हैं। इसलिये उससे तटस्थ हो जायँ, चुप हो जायँ अर्थात् एक परमात्मा ही हैं—ऐसा निश्चय करके कुछ भी चिन्तन न करें तो वह स्वत: छूट जायगा; क्योंकि दूसरी सत्ता है ही नहीं, सत्ता एक ही है। हम तटस्थ नहीं होते, यही बाधा है। हम संसारका विरोध करते हैं, तभी वह छूटता नहीं। वास्तवमें तो वह निरन्तर ही छूट रहा है। केवल हमारे तटस्थ, उदासीन होनेकी आवश्यकता है। अगर हम केवल दु:खी, व्याकुल हो जायँ तो भी वह छूट जायगा, चाहे परमात्माको मानें या न मानें। जो योगमार्गमें अथवा ज्ञानमार्गमें चल रहे हैं, उनके लिये तटस्थ होना बढ़िया है। जो भक्तिमार्गमें चल रहे हैं, उनको भगवान्के सिवाय दूसरी सत्ता असह्य हो जाय।
सांसारिक सम्बन्ध स्वत: छूट रहा है, पर हम नया-नया पकड़ते रहते हैं। बालकपना छूट गया तो जवानी पकड़ ली, जवानी छूट गयी तो बुढ़ापा पकड़ लिया, रोगीपना छूटा तो नीरोगता पकड़ ली, दरिद्रता छूटी तो धनवत्ता पकड़ ली। अगर यह पकड़ना छोड़ दें तो वह स्वत: छूट ही जायगा। हमें केवल त्यागका भाव बनाना है,त्यागी नहीं बनना है। त्यागी बननेसे त्याज्य वस्तुके साथ सम्बन्ध होजायगा। जो मिला है, वह तो छूटेगा ही। वह बना रहे अथवा न बना रहे—यही बन्धन है, और कोई बन्धन नहीं है। आजतक सृष्टिमें किसीका भी सम्बन्ध नहीं रहा तो हमारा सम्बन्ध कैसे रहेगा? यह तो छूटेगा ही और प्रतिक्षण ही छूट रहा है। इसलिये हम ही अलग हो जायँ!
पारमार्थिक मार्गमें साधकको हिम्मत नहीं हारनी चाहिये; क्योंकि इसमें विजय निश्चित है। परमात्मासे तो कभी निराश नहीं होना चाहिये और संसारकी आशा नहीं रखनी चाहिये—‘आशा हि परमं दु:खम्’ (श्रीमद्भा० ११। ८। ४४)। परमात्मा परम दयालु हैं, सर्वसमर्थ हैं और सर्वज्ञ हैं। वे सर्वज्ञ हैं, इसलिये हमारे दु:खको जानते हैं। वे परम दयालु हैं, इसलिये हमारे दु:खको सह नहीं सकते। वे सर्वसमर्थ हैं, इसलिये हमारे दु:खको दूर कर सकते हैं। परन्तु जो सांसारिक पदार्थोंके लिये दु:खी होता है, वह कितना ही रोये, रोते-रोते मर जाय, पर भगवान् उसकी बात सुनते ही नहीं। कारण कि वह वास्तवमें दु:खके लिये ही रो रहा है! परन्तु जो संसारका त्याग करनेके लिये रोता है, भगवान्को पानेके लिये रोता है, उसका दु:ख भगवान् सह नहीं सकते।
मनुष्य सांसारिक सुखमें फँसा है तो यह वास्तवमें केवल सुखलोलुपता है, सुखका लोभ है। सुख मिलता नहीं है। सुखकी मामूली झलक मिलती है, उसीमें वह फँसा रहता है। जैसे, गधेको सुबह थोड़ा-सा मोठ-नमक मिलाकर देते हैं। उसको खानेसे दाँत कड़कड़-कड़कड़ बोलते हैं तो वह राजी हो जाता है। फिर उससे दिनभर पत्थर ढोनेका काम लेते हैं। रात होनेपर उसको छोड़ देते हैं। रातमें वह गलियोंमें घूमता रहता है और सुबह होनेपर मोठ-चना खानेके लिये स्वत: चला आता है! इस प्रकार थोड़े-से सुखके लिये गधा पूरे दिन पत्थर ढोता है। अगर वह सुख छोड़ दे तो फिर पत्थर क्यों ढोना पड़े! इसलिये जबतक हम थोड़े-से सुखके लिये नया-नया सम्बन्ध जोड़ते रहेंगे, तबतक दु:ख छूटेगा नहीं। जहरके लड्डू हम नहीं छोड़ेंगे तो जहर हमें नहीं छोड़ेगा। यह सुखासक्ति अगर हमारेसे न छूटे तो निर्बलताका अनुभव करके भगवान्को पुकारना चाहिये—
जब लगि गज बल अपनो बरत्यो,
नेक सरॺो नहिं काम।
निरबल ह्वै बल राम पुकारॺो,
आये आधे नाम॥
द्रुपद सुता निरबल भइ ता दिन,
तजि आये निज धाम।
दुस्सासनकी भुजा थकित भई,
बसन रूप भये स्याम॥
सुने री मैंने निरबलके बल राम॥
जबतक भगवान् सुखासक्ति न छुड़ायें, तबतक पीछे पड़े रहो। जैसे बच्चा माँका पल्ला पकड़कर पीछे पड़ जाता है कि मेरेको लड्डू दे दे तो माँ हारकर कह देती है कि जा, ले ले! ऐसे ही दु:खी होकर भगवान्के पीछे पड़ जाओ तो वे सुखासक्ति छुड़ा देंगे।