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योग

(कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग)

श्रीभगवान‍्ने गीताके आरम्भमें शरीर और शरीरीका विवेचन किया है। शरीर और शरीरी (शरीरवाला)—दोनोंका विभाग अलग-अलग है। शरीर-विभाग जड़, असत् तथा नाशवान् है और शरीरी-विभाग चेतन, सत् तथा अविनाशी है। गीताके तेरहवें अध्यायमें भगवान‍्ने इन दोनोंको क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा प्रकृति और पुरुष नामसे भी कहा है। शरीरका सम्बन्ध संसारके साथ और शरीरीका सम्बन्ध परमात्माके साथ है। गीताके आरम्भमें इन दोनों विभागोंका विवेचन करनेमें भगवान‍्का तात्पर्य है कि इनको अलग-अलग जानना ही मनुष्यके कल्याणमें खास हेतु है*।

* क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥
(गीता १३।३४)
‘इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्रसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके अन्तर (विभाग)-को तथा कार्य-कारणसहित प्रकृतिसे स्वयंको अलग जानते हैं, वे परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।’

गीतामें जहाँ भगवान‍्ने ज्ञानयोगका वर्णन किया है, वहाँ शरीर और शरीरी, सत् और असत्, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष आदि दो विभागोंका वर्णन किया है, पर भक्तिके वर्णनमें इसको तीन विभागोंमें कहा है—परा, अपरा और अहम‍् (सातवें अध्यायके चौथेसे छठे श्लोकतक), अक्षर, क्षर और पुरुषोत्तम (पन्द्रहवें अध्यायके सोलहवेंसे अठारहवें श्लोकतक)। परन्तु इसमें भगवान‍्ने एक रहस्यकी बात यह बतायी कि परा (चेतन) और अपरा (जड़)—दोनों ही मेरी प्रकृतियाँ अर्थात् स्वभाव हैं। तात्पर्य है कि भगवान‍्का स्वभाव होनेसे परा और अपरा—दोनों भगवान‍्से अभिन्न हैं। अत: भक्तिकी दृष्टिसे एक भगवान‍्के सिवाय कुछ नहीं है—‘वासुदेव: सर्वम्’ (७। १९), ‘सदसच्चाहम्’ (९। १९)। ज्ञान अथवा भक्ति, किसी भी दृष्टिसे देखें, सत्ता एक ही है। एक सत्ताके सिवाय कुछ नहीं है।

जो साधक अपना कल्याण चाहता है, उसको पहले यह विचार करना चाहिये कि वह स्वत:-स्वाभाविक किसकी सत्ता और महत्ताको स्वीकार करता है अर्थात् उसपर किसका प्रभाव अधिक पड़ता है, संसारका, अपने-आपका अथवा परमात्माका। अगर वह संसारको मानता है तो ‘कर्मयोग’के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा, केवल अपने-आपको ही मानता है तो ‘ज्ञानयोग’के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा और भगवान‍्को मानता है तो ‘भक्तियोग’के द्वारा उसका कल्याण हो जायगा। अगर वह किसीको भी नहीं मानता तो भी उसका कल्याण हो जायगा; क्योंकि किसीको भी न माननेसे तथा कल्याणकी इच्छा होनेसे उसपर किसीका भी प्रभाव नहीं पड़ेगा और किसीका भी प्रभाव न पड़नेसे राग-द्वेष नहीं होंगे, जिससे उसकी मुक्ति स्वत: हो जायगी।

शरीरको संसारकी सेवामें लगा दे तो सेवा करते-करते शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध स्वत: छूट जायगा और स्वरूपमें स्थिति हो जायगी—यह कर्मयोग है। शरीर और संसारसे अपनेको अलग कर ले—यह ज्ञानयोग है। शरीरसहित अपने-आपको भगवान‍्के समर्पित कर दे—यह भक्तियोग है। संसारकी किसी भी वस्तुको अपनी न माने और किसीका अहित न करे तो कर्मयोग सिद्ध हो जायगा। अपने-आपको सर्वथा असंग अनुभव कर ले तो ज्ञानयोग सिद्ध हो जायगा। केवल भगवान‍्को ही अपना मान ले तो भक्तियोग सिद्ध हो जायगा। कर्मयोगी अपरा प्रकृतिके कार्य शरीरको अपरा (संसार)-की ही सेवामें लगा देता है तो आप (स्वयं) स्वत: अलग हो जाता है और ज्ञानयोगी अपने-आपको अपरासे अलग कर लेता है; अत: दोनोंको एक ही तत्त्व (स्वरूप-बोध अथवा मुक्ति)-की प्राप्ति होती है—‘यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’ (गीता ५। ५)। परन्तु भक्तको मुक्तिके साथ-साथ पराभक्ति(प्रेम)-की भी प्राप्ति होती है—‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८। ५४)। इसलिये भगवान‍्ने कर्मयोग और ज्ञानयोगको लौकिक निष्ठा कहा है*।

* लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥
(गीता ३।३)

परन्तु भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है। अलौकिकके अन्तर्गत लौकिक भी आ जाता है; क्योंकि लौकिक (परा और अपरा) प्रकृति परमात्माकी है। इसलिये लौकिक दृष्टिसे देखें तो लौकिक अलग है और अलौकिक अलग है। परन्तु अलौकिक दृष्टिसे देखें तो सब कुछ अलौकिक है, लौकिक है ही नहीं—‘वासुदेव: सर्वम्।’ अलौकिकमें लौकिकका जन्म ही नहीं हुआ! वहाँ शरीर-संसार भी अलौकिक हैं—‘सदसच्चाहम्।’

कर्मयोगमें ‘अकर्म’ मुख्य है—‘कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:’ (गीता ४। १८), ज्ञानयोगमें ‘आत्मा’ मुख्य है— ‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि’ (गीता ६। २९), और भक्तियोगमें ‘भगवान‍्’ मुख्य हैं—‘यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति’ (गीता ६। ३०)। कर्मयोगमें अकर्म शेष रहता है। अकर्म शेष रहनेपर क्रिया-पदार्थरूप संसारका अभाव हो जाता है और शान्तिकी प्राप्ति हो जाती है। ज्ञानयोगमें आत्मा शेष रहती है। आत्मा शेष रहनेपर स्वरूपमें स्थिति हो जाती है और अखण्ड आनन्दकी प्राप्ति हो जाती है। भक्तियोगमें भगवान‍् शेष रहते हैं। भगवान‍् शेष रहनेपर प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम (अनन्त आनन्द)-की प्राप्ति हो जाती है।

प्रत्येक मनुष्यके अनुभवमें दो वस्तुएँ आती हैं—एक शरीर और एक वह स्वयं (शरीरी)। शरीर संसारका अंश है और स्वयं परमात्माका अंश है। शरीरकी संसारसे और स्वयंकी परमात्मासे सजातीयता अर्थात् सधर्मता है। इसलिये शरीर संसारका तथा संसारके लिये है और स्वयं परमात्माका तथा परमात्माके लिये है। शरीरपर हमारा कोई आधिपत्य (वश) नहीं चलता। इसको हम अपने इच्छानुसार बदल नहीं सकते, इच्छानुसार रख नहीं सकते, इच्छानुसार बना नहीं सकते। इसलिये यह हमारा और हमारे लिये हो ही नहीं सकता। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, बल, विद्या, योग्यता आदि जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब संसारका और संसारके लिये ही है। जब शरीर हमारा और हमारे लिये है ही नहीं, तो फिर उसमें हमारी आसक्ति कैसे हो सकती है? मोह कैसे हो सकता है? ममता कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती। अपने साथ शरीरकी एकता माननेसे आसक्तिका त्याग हो ही नहीं सकता, और संसारके साथ शरीरकी एकता माननेसे आसक्ति हो ही नहीं सकती। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध मान लेनेसे अपना सम्बन्ध (शरीरमें अपनापन) छूट जाता है। अत: साधकका खास काम केवल इतना ही है कि वह संसारकी वस्तु संसारको दे दे और भगवान‍्की वस्तु भगवान‍्को दे दे। फिर कामना, ममता, आसक्ति कौन करेगा, किसमें करेगा, कैसे करेगा और क्यों करेगा? संसारकी वस्तु संसारको दे दें तो मुक्ति प्राप्त हो जायगी और भगवान‍्की वस्तु भगवान‍्को दे दें तो भक्ति प्राप्त हो जायगी।

मनुष्यसे यह बहुत बड़ी गलती होती है कि वह शरीरको, जो कि संसारकी वस्तु है, अपना मान लेता है। संसारकी वस्तुको अपना मान लेना बेईमानी है और इसी बेईमानीका दण्ड है—जन्म-मृत्युरूप महान् दु:ख। वास्तवमें संसारकी वस्तु शरीरको अपना और अपने लिये मानना मूल भूल है और इस मूल भूलको मिटानेके लिये साधकको तीन काम करने होंगे—

(१) सीधे-सरलभावसे अपनी भूल स्वीकार करना कि संसारकी वस्तुको अपना मानकर वास्तवमें मैंने बहुत बड़ी भूल की।

(२) अपनी भूलका दु:ख (पश्चात्ताप) करना कि मनुष्य होकर, समझदार होकर, ईमानदार होकर ऐसी भूल मेरेको नहीं करनी चाहिये थी।

(३) ऐसा निश्चय करना कि अब आगे मैं ऐसी भूल पुन: नहीं करूँगा अर्थात् शरीरको अपना और अपने लिये कभी नहीं मानूँगा।

इसके बाद साधकका खास कर्तव्य है कि वह ईमानदारीके साथ संसारकी वस्तुको संसारकी ही मानकर उसकी सेवामें लगा दे और भगवान‍्की वस्तुको अर्थात् अपने-आपको भगवान‍्का ही मानकर भगवान‍्के समर्पित कर दे।

भगवान‍्की अपरा प्रकृति होनेसे संसार भगवान‍्का है। अत: जैसे कोई हमारे प्यारे सम्बन्धीकी सेवा करे तो वह हमें प्यारा लगता है, ऐसे ही हम नि:स्वार्थभावसे संसारकी सेवा करेंगे तो हम भगवान‍्को प्यारे लगेंगे और हम भगवान‍्को अपना मान लेंगे तो भगवान‍् हमें प्यारे लगेंगे। जब हम भगवान‍्को और भगवान‍् हमारेको प्यारे लगेंगे, तब हमारी भगवान‍्से आत्मीयता हो जायगी* और हमारा मानव-जन्म पूर्णत: सार्थक हो जायगा।

* ‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:’
(गीता ७।१७)।
‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’
(गीता ७।१८)।

हम संसारकी सेवा करेंगे तो संसार भी राजी हो जायगा और उसके मालिक भगवान‍् भी राजी हो जायँगे। हम भगवान‍्को अपना मानेंगे तो इससे भी भगवान‍् राजी हो जायँगे। इस प्रकार भगवान‍् दुगुने राजी हो जायँगे और हमें भी दुगुना लाभ हो जायगा—संसारसे मुक्ति भी मिल जायगी और भगवान‍्में भक्ति (प्रियता) भी मिल जायगी। संसारकी चीज संसारको दे दी और भगवान‍्की चीज भगवान‍्को दे दी तो हमारे घरका क्या खर्च हुआ? अपना कुछ भी खर्च नहीं होगा और मुफ्तमें मुक्ति और भक्ति प्राप्त हो जायगी। संसार अपना स्वार्थ चाहता है, उसका स्वार्थ सिद्ध हो जायगा। भगवान‍् प्रेम चाहते हैं, उनमें प्रेम हो जायगा। हम अपना कल्याण चाहते हैं, हमारा कल्याण हो जायगा।

कर्मयोग तथा ज्ञानयोगके साधनमें ‘निषेध’ मुख्य है और भक्तियोगके साधनमें ‘विधि’ मुख्य है। कारण कि हमें संसारके सम्बन्धका त्याग करना है, जो भूलसे माना हुआ है और भगवान‍्से सम्बन्ध जोड़ना है, जिसको हम भूल गये हैं। कर्मयोगमें सेवाके द्वारा संसारका निषेध होता है और ज्ञानयोगमें विवेक-विचारके द्वारा संसारका निषेध होता है। निषेध होनेपर स्वरूपमें स्थिति स्वत: होती है और विधि होनेपर संसारका त्याग स्वत: होता है। त्याग करनेकी अपेक्षा स्वत: होनेवाला त्याग श्रेष्ठ होता है। कारण कि त्याग करनेपर त्यागीकी और त्याज्य वस्तुकी सत्ता रहती है, पर स्वत: त्याग होनेपर त्यागीकी और त्याज्य वस्तुकी सत्ता सर्वथा नहीं रहती अर्थात् अहम‍्का सर्वथा नाश हो जाता है।

यह सिद्धान्त है कि कर्तव्यमात्र समझकर (अपनी कामना-ममता न रखकर) जो कर्म किया जाता है, उस कर्मसे लिप्तता नहीं होती, प्रत्युत उससे सम्बन्ध-विच्छेद होता है। इसलिये भगवान‍्ने गीतामें कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करनेको ‘त्याग’ नामसे कहा है—

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत:॥
(गीता १८। ९)

‘हे अर्जुन! केवल कर्तव्यमात्र करना है—ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।’

इसलिये कर्मयोगमें जो भी साधन किया जाता है, वह कर्तव्यमात्र समझकर किया जाता है। मनुष्यशरीर साधन करनेके लिये मिला है; अत: साधन करना हमारा कर्तव्य है। इस प्रकार कर्तव्य समझकर साधन करनेसे कर्तापन, कर्म और करण—तीनोंसे अर्थात् संसारमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर स्वरूपमें स्थिति स्वत: हो जाती है, जो कि वास्तवमें है। परन्तु भक्तियोगमें नामजप, कीर्तन आदि जो भी साधन किया जाता है, वह कर्तव्यमात्र समझकर नहीं किया जाता, प्रत्युत अपने प्रेमास्पद भगवान‍्की सेवा (पूजन) समझकर किया जाता है। कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करना दवा लेनेके समान है और भगवान‍्का पूजन समझकर कर्म करना भोजन करनेके समान है। बीमार होनेपर दवा लेना कर्तव्य है, पर भूख लगनेपर भोजन करना कर्तव्य नहीं है, प्रत्युत प्राणोंका आधार है। भक्तिमें, भगवान‍्में अपनापन मुख्य होता है। जैसे बालक माँको पुकारता है तो कर्तव्य समझकर नहीं पुकारता, प्रत्युत अपनी माँ समझकर अपनेपनसे पुकारता है, ऐसे ही भक्त भगवान‍्को अपना समझकर पुकारता है, कर्तव्य समझकर नहीं*। कर्तव्य तो दूसरोंके लिये होता है, पर पुकार अपने लिये होती है।

* बच्चा तो सर्वथा अज्ञ होता है, पर भक्त सर्वथा विज्ञ होता है।

भक्तियोगमें भक्तकी प्रत्येक क्रिया भगवान‍्के लिये होती है; क्योंकि वह खुद भी भगवान‍्का है और शरीर भी। परा और अपरा—दोनों ही प्रकृतियाँ भगवान‍्की हैं। इसलिये भक्त न तो शरीरको अलग करता है और न आप अलग होता है, प्रत्युत शरीरसहित अपने-आपको भगवान‍्के अर्पित कर देता है। जैसे बच्चेकी प्रत्येक क्रिया माँको प्रसन्न करनेवाली होती है; क्योंकि बच्चा माँके सिवाय अन्य किसीको मानता या जानता ही नहीं। ऐसे ही भक्तकी प्रत्येक क्रिया भगवान‍्को प्रसन्न करनेवाली होती है; क्योंकि वह भगवान‍्के सिवाय अन्य किसीको मानता या जानता ही नहीं। उसका भगवान‍्में अनन्यभाव होता है।

भक्त जब एकान्तमें बैठता है, तब उसकी दृष्टिमें एक भगवान‍्के सिवाय कुछ नहीं होता। अत: वह भगवत्प्रेमकी मादकतामें डूबा रहता है। परन्तु जब वह व्यवहार करता है, तब भगवान‍् संसाररूपसे सेव्य बनकर उसके सामने आते हैं। अत: व्यवहारमें भक्त अपनी प्रत्येक क्रियासे भगवान‍्का पूजन करता है—‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:’ (गीता १८। ४६)। पहले पूजक मुख्य होता है, फिर वह पूजा होकर पूज्यमें लीन हो जाता है।

परमात्मा सगुण हैं कि निर्गुण हैं, साकार हैं कि निराकार हैं, दयालु हैं कि न्यायकारी अथवा उदासीन हैं, द्विभुज हैं कि चतुर्भुज हैं आदि विचार करना भक्तका काम नहीं है। ऐसा विचार उसी वस्तुके विषयमें किया जाता है, जिसका त्याग अथवा ग्रहण करनेकी आवश्यकता हो; क्योंकि ‘संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने’ (मानस, बाल० ६। १)। जैसे, हम कोई वस्तु खरीदने जाते हैं तो परीक्षा करते हैं कि वस्तु कैसी है, मेरे लिये कौन-सी वस्तु उपयोगी है, आदि। परन्तु परमात्माका त्याग कोई कर सकता ही नहीं। जीवमात्र परमात्माका सनातन अंश है। अंश अंशीका त्याग कैसे कर सकता है? इतना ही नहीं, सर्वसमर्थ परमात्मा भी अगर चाहें तो जीवका त्याग करनेमें असमर्थ हैं। अत: जिस परमात्माका त्याग कर सकते ही नहीं, उसके लिये यह विचार करना अथवा परीक्षा करना निरर्थक है कि वे कैसे हैं। वे तो वास्तवमें सदासे ही अपने हैं। केवल अपनी भूल मिटाकर उनको स्वीकारमात्र करना है। जैसे विवाह होनेपर पतिव्रताकी दृष्टिमें पति कैसा ही हो, वह हमारा है, ऐसे ही परमात्मा कैसे ही हों, वे हमारे हैं*—

* पति तो परत: है, पर भगवान‍् स्वत: हैं। भगवान‍् स्वत: सबके परमपति हैं—‘पतिं पतीनां परमम्’ (श्वेताश्वतर० ६। ७)।
असुन्दर: सुन्दरशेखरो वा
गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।
द्वेषी मयि स्यात् करुणाम्बुधिर्वा
श्याम: स एवाद्य गतिर्ममायम्॥

‘मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण कुरूप हों या सुन्दर-शिरोमणि हों, गुणहीन हों या गुणियोंमें श्रेष्ठ हों, मेरे प्रति द्वेष रखते हों या करुणासिन्धु-रूपसे कृपा करते हों, वे चाहे जैसे हों, मेरी तो वे ही एकमात्र गति हैं।’

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-
मदर्शनान्मर्महतं करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो
मत्प्राणनाथस्तु स एव नापर:॥
(शिक्षाष्टक ८)

‘वे चाहे मुझे हृदयसे लगा लें या चरणोंमें लिपटे हुए मुझे पैरोंतले रौंद डालें अथवा दर्शन न देकर मर्माहत ही करें। वे परम स्वतन्त्र श्रीकृष्ण जैसा चाहें, वैसा करें, मेरे तो वे ही प्राणनाथ हैं, दूसरा कोई नहीं।’

जैसे बालक माँको पुकारता है तो यह नहीं देखता कि माँ कैसी है, उसका रूप, स्वभाव, आचरण, कपड़े, गहने आदि कैसे हैं, प्रत्युत केवल अपनेपनको देखता है कि ‘मेरी माँ है।’ ऐसे ही भक्त यह नहीं देखता कि भगवान‍् कैसे हैं। वह तो केवल यही देखता है कि ‘भगवान‍् मेरे हैं।’ जो भगवान‍्के प्रभावको देखकर उनकी भक्ति करता है, वह वास्तवमें प्रभावका भक्त होता है, भगवान‍्का नहीं। जैसे माँ अपने बालकके रूप, स्वभाव, आचरण आदिको न देखकर केवल अपनेपनको देखती है कि ‘मेरा बेटा है’, ऐसे ही भगवान‍् भी भक्तके स्वभाव, आचरण आदिको न देखकर अपनेपनको देखते हैं कि यह मेरा ही अंश है और मेरेको ही चाहता है। तात्पर्य है कि भगवान‍् अपने अंश ‘स्व’को देखते हैं, वह जिसके पराधीन हुआ है, उस ‘पर’को नहीं देखते; उसकी पुकारको देखते हैं, उसकी पात्रताको नहीं देखते—

रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करत सुरति सय बार हिए की॥
(मानस, बाल० २९। ३)

सच्चे हृदयसे भगवान‍्को पुकारनेपर वे अपना प्रेम प्रदान करते हैं। त्याग, तपस्या, विवेक आदिसे उनके प्रेमकी प्राप्ति नहीं होती। केवल भगवान‍्को ही अपना मानकर पुकारनेके सिवाय प्रेम-प्राप्तिका और कोई उपाय नहीं है। भगवान‍्के सिवाय दूसरेको अपना माननेसे ही प्रेम प्रकट नहीं हो रहा है; क्योंकि अनन्यता नहीं हुई।

मुक्ति और भक्ति (प्रेम)—दोनोंकी प्राप्ति सहज है, स्वत:-स्वाभाविक है। शरीर संसारसे अलग नहीं हो सकता और हम स्वयं परमात्मासे अलग नहीं हो सकते। शरीरके साथ हमारा मिलन कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं। परमात्माके साथ हमारा अलगाव कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं। मनुष्यने दो खास भूलें की हैं कि शरीरको अपने साथ मान लिया और परमात्माको अपनेसे दूर मान लिया। अगर वह शरीरको संसारके साथ मान ले तो मुक्ति हो जायगी और स्वयंको परमात्माके साथ मान ले तो भक्ति हो जायगी। मुक्ति प्राप्त होनेपर मनुष्यका जीवन निरपेक्ष हो जाता है, वह स्वाधीन हो जाता है और भक्ति प्राप्त होनेपर मनुष्यकी परमात्मासे आत्मीयता हो जाती है, उसकी दृष्टिमें एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं रहता।

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