Hindu text bookगीता गंगा
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आत्मा अनश्वर है और देह विनाशी है

सम्मान्य भाई, सादर प्रणाम। आपका कृपापत्र मिला। आपके भाईका पुत्र जाता रहा, यह जानकर बड़ा विचार हुआ।

अनन्य भगवत्-शरणागति अथवा यथार्थ परमात्मज्ञानके बिना कर्मके अवश्यम्भावी परिणामस्वरूप प्राप्त हुए सुख-दु:खमें चित्तपर असर हुए बिना रहता नहीं; और उस अवस्थातक पहुँचनेपर उसे टालनेकी आवश्यकता रहती नहीं। जबतक अहंता, ममता, कामना और आसक्ति है, जबतक हम मृत्युशील संसारके स्तरमें खड़े हैं, तबतक अशान्तिका संग नहीं छूट सकता। अशान्तिके नये कारण पद-पदपर प्रत्यक्ष होते रहते हैं। आत्माकी अनश्वरता और देहका विनाशीपन आप भलीभाँति जानते हैं। गीताके दूसरे अध्यायके श्लोक संख्या ११ से ३० तक श्रीभगवान‍्ने इसका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। अविनाशी आत्माका इस विनाशी देहके साथ आरोपित सम्बन्ध है और इसी सम्बन्धके कारण हमें सुख-दु:ख होता है। राग-द्वेषवश नाम-रूपमें हमारी ममता ही इसमें सबसे प्रधान स्थूल कारण है। संसारमें न मालूम कितने प्राणी नित्य प्राण त्याग करते हैं, परंतु हमारा उनके साथ ममताका सम्बन्ध घनिष्ठ न होनेसे हमें उतना दु:ख नहीं होता, जितना उनके सम्बन्धियोंको होता है। सम्बन्धियोंमें भी ममताकी न्यूनाधिकताके अनुसार दु:खकी अनुभूतिमें तारतम्य रहता है। अवश्य ही ऐसा कहना जितना सहज है, अपने ऊपर विपत्ति पड़नेपर वैसा रहना उतना ही कठिन है। असलमें यह उपदेश अपने लिये ही है। प्रिय-वियोग-पीड़ासे व्याकुल लोगोंसे सहानुभूतिके स्थानपर ऐसी बातें कहना सर्वथा अप्रासंगिक और बड़े ही खेदका विषय है। आप विवेकशील महानुभाव हैं, मुझपर कृपा रखते हैं, इसीसे कुछ शब्द लिखनेकी धृष्टता हो गयी है।

एक प्रार्थना और है—मृतात्माके लिये श्राद्धादि कर्मोंकी समुचित व्यवस्था हुई ही होगी। किसी कारणवश उसमें कुछ कमी रह गयी हो और आप अनुचित न समझें तो उसे अवश्य पूरी करा देना चाहिये। मेरा विश्वास ही नहीं, कुछ अनुभव है; इसीसे मैंने यह लिखनेका साहस किया है। हो सके तो मृतात्माके लिये चौबीस घंटेका श्रीहरिनाम-संकीर्तन होना चाहिये। आप आज्ञा दें तो इसकी व्यवस्था हमलोग यहाँ कर सकते हैं। शेष भगवत्कृपा।

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